वित्त वर्ष 2024-25 के लिए भारत सरकार ने जीडीपी विकास दर का अनुमान 7% रखा था, जबकि अक्टूबर 2024 में रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया का अनुमान 7.2% था।
लेकिन पहली छमाही के आंकड़ों से पस्त केंद्र सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने 7 जनवरी के अपने प्रेस नोट में आधिकारिक आंकड़े जारी करते हुए जीडीपी विकास दर के अनुमान को घटाकर 6.4% बता दिया है।
जीडीपी विकास दर के ये आंकड़े वैसे तो 90% आम भारतीय के किसी काम के नहीं हैं। बहुसंख्य आबादी के लिए तो रोजगार की उपलब्धता और महंगाई पर रोक ही हो जाये, इतना काफी है।
भारत में 6% संगठित क्षेत्र और 94% शेष आबादी एक दूसरे से इतने दूर और असंपृक्त हो चुके हैं कि एक की ख़ुशी और पीड़ा से दूसरे को कोई फर्क नहीं पड़ता।
असल में जीडीपी के आंकड़ों का खेल भारतीय अर्थव्यवस्था के पिरामिड के शीर्ष पर मौजूद चंद कॉर्पोरेट समूहों और विदेशी निवेशकों तक सीमित है। भारतीय शासक वर्ग के पास उन्हीं के विकास को ध्यान में रखकर प्रोजेक्टेड आर्थिक छलांग की नीति-रीति है।
मीडिया की ताकत और भारतीय लोकतंत्र को गूंगा-बहरा कर इस नकली विकास को जोर-शोर से गा-बजाकर 144 करोड़ को विकास की डुबकी का सुख प्रदान किया जा रहा था।
लेकिन 2017-18 से ही देश में 45 वर्षों की सबसे भयंकर बेरोजगारी और औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की क्रय शक्ति में कमी को पार्ले-जी बिस्कुट निर्माता जैसी कंपनियों के छोटे पैक में देखा गया।
लेकिन 6 वर्ष बाद भी मोदी सरकार जिस सप्लाई साइड इकॉनमी को बढ़ावा देने के प्रति कृतसंकल्प थी, उसने प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव से इसे और हवा ही दी।
नतीजा, आज हम पाते हैं कि नोटबंदी और कोविड महामारी के बाद सरकार को अपने आंकड़ों में शहरों के बजाय ग्रामीण भारत में ज्यादा संख्या में कार्यबल नजर आ रहा है।
रिवर्स माइग्रेशन की यह प्रकिया आधुनिक विश्व के इतिहास में अनूठी है, क्योंकि पूरी दुनिया में औद्योगिक क्रांति ने ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों और महानगरों में अधिकाधिक पलायन को अंजाम दिया है।
भारत में यह उलटबांसी इसलिए संभव हो सकी है क्योंकि देश न सिर्फ नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था का पक्षपोषण कर रही है, बल्कि यहां पर पिछले एक दशक से सिर्फ चंद क्रोनी पूंजीपति घरानों और चीनी आयात के सहारे भारी मुनाफा कमाने वाले इम्पोर्टर्स का ही हित साधन का काम चल रहा है।
शहरों में बड़ी संख्या में उद्योग-धंधे बंद होने की सूरत में गांवों में वापस पलायन दरअसल छिपी बेरोजगारी और भारत की बदहाली का प्रतीक है, जिससे हर कोई नजरें चुरा रहा है।
बहरहाल, 80 करोड़ आबादी को कोविड काल से जो 5 किलो मुफ्त राशन के सहारे जिंदा रखकर चंद भारतीयों के सहारे 5 ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी और विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का सपना दिखाया जा रहा था, उसपर अब पूरी तरह से ग्रहण लगता दिख रहा है, जिसने भारतीय थिंक टैंक्स के माथे पर चिंता की भारी लकीरें खींच दी हैं।
इसके लक्षण तो पहले से ही तब नजर आने लगे थे, जब पिछले तीन वर्ष से एफएमसीजी और कंज्यूमर ड्यूरेबल आइटम्स में आम उपभोक्ताओं की खरीद में भारी कमी देखने को मिलने लगी थी।
फ्रिज, टीवी, मोबाइल सहित दुपहिया एवं चौपाया वाहनों की प्राइमरी रेंज में बिक्री के आंकड़े तेजी से गिर रहे थे, जबकि दूसरी तरफ इन्हीं उत्पादों के हाई वैल्यू आइटम्स की बिक्री के आंकड़े नित नए रिकॉर्ड बना रहे थे।
रियल एस्टेट में भी किफायती आवास की मांग लगभग टूट चुकी थी, वहीं करोड़ों रूपये के विला, रिसोर्ट की बिक्री तेजी से बढ़ने लगी थी।
इसे 90 के दशक के आर्थिक उदारीकरण से उपजे मध्य वर्ग के वापस निम्न मध्यवर्ग और गरीबी की रेखा में धकेले जाने के सूचक के तौर पर देखा जाना चाहिए था। लेकिन देखे कौन? यहां तो जिस बाड़ के जिम्मे खेत की रखवाली दी गई थी, वो ही खेत चर रही थी।
गरीब तो पहले ही नेपथ्य में धकेला जा चुका था, जिसे अब 5 किलो राशन के अलावा पीएम किसान, आयुष्मान कार्ड और लाडली बहना का झुनझुना पकड़ाकर सिर्फ चुनाव के समय एक वोट देने का विकल्प खुला है।
बचा तेजी से लुटता-पिटता नव-मध्यवर्ग, तो उसके लिए लव जिहाद, राम मंदिर, थूक जिहाद के बाद अब हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोदकर निकालने का कार्यभार दिन रात जारी है।
किसी भी औसत बुद्धि रखने वाले को भी यह बात आसानी से समझ आ सकती है कि इतनी विशाल आबादी को अर्थव्यवस्था से बाहर रख कोई भी देश तेज आर्थिक वृद्धि को संभव नहीं बना सकता।
लेकिन जिस देश को इतिहास में अपने लिए स्वर्ण-काल ढूंढने के काम में लगा दिया गया हो, और अपनी हर गलती के लिए मुगलों के इतिहास, नेहरु और आजादी के बाद के 60 वर्षों को कोसने का कोटा हो, उस पब्लिक को शेयर बाजार में नित नई उछाल और वैश्विक मंचों पर शीर्ष नेताओं के साथ गलबहियों से गुड ह्यूमर में रखना कोई खास मुश्किल काम नहीं था।
जो टास्क हमारे नीति-नियंताओं के हाथ में था, उसे तेजी से अंजाम दिया जा रहा था। अडानी समूह की धन-संपदा में हैरतअंगेज उछाल कोई धड़ाधड़ नए-नए उद्योगधंधों को खड़ा कर नहीं हुआ है, बल्कि भारत में पहले से ही मौजूद हवाई अड्डों, बंदरगाहों, रेलवे स्टेशनों, सीमेंट प्लांट्स या बिजली वितरण में एकाधिकार के बल पर संभव हो सका है।
देश में मौजूद चंद क्रोनी पूंजी घरानों के बीच में प्राइवेट और सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों की बंदरबांट और स्वस्थ्य पूंजीवादी स्पर्धा के अभाव, घटती क्रयशक्ति के चलते मांग में लगातार कमी का ही नतीजा है कि शायद ही देश में कोई नया उद्योग और निवेश हो रहा है।
कोविड काल के दौरान जो स्टार्टअप फिन टेक, एड टेक में देखने को मिल रहे थे, उनमें से अधिकांश का कचूमर निकल चुका है। स्टार्टअप के नाम पर अब सिर्फ ओला, उबर, ज़ोमेटो जैसे सर्विस सेक्टर फल-फूल रहे हैं, जिनका बड़ा आधार अभी भी बेंगलुरु, हैदराबाद, गुरुग्राम और पुणे जैसे आईटी सेक्टर वाले शहर हैं।
कल को एआई और डेटा सेंटर क्या गुल खिलाता है, उसी पर भारतीय आईटी सेक्टर और इन स्टार्टअप का भाग्य निर्भर करता है।
अब यह पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है कि अमेरिकी-चीन प्रतिस्पर्धा में पश्चिमी देशों के द्वारा चीन का बहिष्कार का फायदा भारत के हिस्से में नहीं आने वाला है। इस अवसर को भुनाने के लिए विएतनाम और मेक्सिको हमसे कहीं बेहतर स्थिति में तैयार बैठे थे।
दूसरी तरफ, पश्चिमी देशों में मंदी का मतलब है भारत के लिए निर्यात और रोजगार के मौके खत्म होना। अमेरिका में फेडरल रिजर्व के रेट कट की घोषणा और डोनाल्ड ट्रम्प की सत्ता में वापसी की खबर भारत में विदेशी निवेशकों की भगदड़ में दिख रही है।
कल को राष्ट्रपति ट्रम्प ने यदि भारत के साथ व्यापार असुंतलन पर सख्त कदम उठा लिए और इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ा दी, तो भारत के लिए भारी मुसीबत हो सकती है। हालत यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद न तो शेयर बाजार की फिसलन रुक रही है, और न ही डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत।
गिरता रुपया 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी को नामुमकिन बना रहा
मार्च 2025 तक जीडीपी के 324 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही है। लेकिन विकास की गति धीमी होते जाने और 1 डॉलर के बदले में रुपये की विनिमय दर 85 रुपये होने की स्थिति में 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था का मोदी का सपना लगता है सपना ही रह जाने वाला है।
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक रुपये की मौजूदा विनिमय दर के हिसाब से यदि 2014 में यूपीए के पराभव के बाद रुपये की कीमत में गिरावट नहीं होती तो आज जो भारत की जीडीपी 3.8 ट्रिलियन डॉलर होने का अनुमान है- उसे 5.3 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाना चाहिए था।
आर्थिक समीक्षकों का आकलन है कि आरबीआई ने यदि अरबों डॉलर बाजार में झोंककर लुढ़कते रुपये को न बचाया होता तो अभी तक रुपया डॉलर के मुकाबले 90 पर होता। कई तो यहां तक कह रहे हैं कि 2025 में ही डॉलर के मुकाबले रुपया 100 तक पहुंच सकता है।
मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में 2018 में दावा किया था कि 2022 में भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बना देंगे। 2022 में इसे आगे ठेलकर तारीख 2025 मुकर्रर कर दी गई थी।
2024 आते-आते यह तारीख खिसककर 2027 तक खिसका दी गई, लेकिन अब जबकि 90% आबादी को पंगु बना दिया गया है, और जो मोदीनोमिक्स से फल-फूल रहे थे, उनके लिए भी वैश्विक परिदृश्य और रुपये की शर्मनाक गिरावट ने 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी की हुंकार का बाजा बजा डाला है।
महाभारत में यह संजय थे जो दृष्टिहीन महाराज धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल बता रहे थे। इस आंखों देखा हाल बताते समय संजय ने कई हृदयविदारक घटनाओं को भी ईमानदारी से बयां किया था।
लेकिन इतिहास की गौरव गाथा पर टिकी सरकार और गोदी मीडिया 144 करोड़ भारतीयों को ही अंधा बनाने के लिए एक बार फिर से नया टारगेट दे दे तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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