Thursday, April 18, 2024

लोकतंत्रः ट्रंप से ज्यादा बड़ा खतरा हैं मोदी

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों की ओर से की गई हिंसा पर अमेरिका में तेज राजनीतिक बहस जारी है। ट्रंप को दंड देने के विभिन्न विकल्पों की ओर भी लोगों का ध्यान लगा हुआ है। इन विकल्पों में नए राष्ट्रपति के पद ग्रहण करने की तारीख यानि 20 जनवरी के पहले ही उन्हें महाभियोग लगा कर पद से हटा देने का कदम भी शामिल है, लेकिन अमेरिका में हो रही बहस का एक प्रमुख बिंदु यह भी है कि पिछले चार सालों में ट्रंप जो करते आए हैं, उस पर लोगों ने खामोशी क्यों अख्तियार की? अमेरिकी बुद्धिजीवी पछता रहे हैं कि मीडिया तथा सोशल मीडिया के जरिए झूठ तथा नफरत फैलाने की छूट ट्रंप को नहीं देनी चाहिए थी।

क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत को अपने यहां फैल चुकी बीमारी पर चर्चा नहीं करनी चाहिए? क्या हमें इस बात पर चिंता नहीं करनी चाहिए कि हमने अगर लोकतंत्र को लाचार बनाने वाले आचरण के खिलाफ कुछ नहीं किया तो हमारे यहां उससे बुरा भी घट सकता है जो अमेरिका में हुआ है? अगर गौर से देखें तो इस बारे में भारतीय मीडिया या राजनीति में वैसी गहरी चिंता नजर नहीं आती है।

अमेरिकी चुनावों में जो बाइडन की जीत पर मुहर लगाने के लिए हो रही कांग्रेस की बैठक को रोकने के लिए ट्रंप के समर्थकों की ओर से कैपिटल हिल पर की गई चढ़ाई को लेकर नए-नए ब्यौरे आ रहे हैं। इन ब्यौरों से उनके समर्थकों की दिमागी बनावट का पता चलता है। इससे पता चलता है कि ट्रंप ने लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ अपने चाहने वालों के मन में इतना जहर भर दिया है कि संसदीय कार्रवाई पर भी उनका भरोसा नहीं रह गया है और वे तोड़-फोड़ तथा हिंसा पर ही उतारू हो गए। हिंसा के दौरान मीडिया के उस हिस्से को भी निशाना बना रहे थे जो ट्रंप के कारनामों के खिलाफ आवाज उठाता रहा है। इसका अर्थ यह है कि जो कोई भी ट्रंप के खिलाफ है वह उनका दुश्मन है।

क्या भारत में उससे अलग स्थिति है? अगर बिना किसी पक्षपात के देखा जाए तो भारत में हालात उससे ज्यादा गंभीर हैं। ट्रंप के साथ तो रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों का एक हिस्सा भर है। वह तो कोशिश करने पर भी अमेरिकी संस्थाओें का छोटा सा हिस्सा भी अपने कब्जे में नहीं कर पाए। उनके बहाल किए गए जज तथा अधिकारियों में किसी ने उनकी बात नहीं मानी। यहां तक कि उनके उपराष्ट्रपति माइक पेंस भी उनका साथ छोड़ गए। सुप्रीम कोर्ट समेत सभी अदालतों ने उनकी यह अर्जी खारिज कर दी कि जो बाइडन की जीत को गैर-कानूनी करार दिया जाए।

इसके उलट ट्रंप से भी अधिक आक्रामकता से लोकतंत्र पर हमले कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न केवल भारतीय जनता पार्टी का अंधा समर्थन हासिल है बल्कि संघ परिवार तथा विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे कट्टरपंथी संगठनों का साथ है जो राजनीति के दायरे से बाहर भी उनके लिए कट-मरने को तैयार हैं।

उनके सत्ता में आने के बाद किसी भी अदालत से कोई ऐसा फैसला नहीं आया, जिसके बारे में कहा जाए कि अदालत ने सरकार के फैसले को पलट दिया है। कश्मीर में चुने हुए नेताओं को नजरबंद कर दिया गया और दिल्ली में दंगा भड़काने वाले भाषण करने वाले सत्ताधारी दल के लोगों के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, लेकिन अदालत की ओर से कुछ नहीं किया गया।

वजह कोई भी हो, अदालत सरकार के साथ ही खड़ी दिखाई देती है। उसकी विश्वसनीयता यहां तक आ गई है कि सर्द मौसम में दिल्ली की सीमा पर बैठे किसान भी उसके पास जाने से बच रहे हैं। चुनाव आयोग, सीबीआई तथा ईडी जैसी संस्थाओं के बारे में तो लोग चर्चा करना भी छोड़ चुके हैं। इन संस्थाओं ने हर नियम को ताख पर रख दिया है। पहले पीड़ित सीबीआई जांच करने की मांग करते थे, अब सरकारें और आरोपी इस जांच की मांग करते हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि वह उन्हें उबार लेगा।

ईडी को केवल विपक्ष के लोगों के पते मालूम हैं। चुनाव आयोग ने चुनाव जीतने के लिए जाति, धर्म, बाहुबल तथा धनबल के उपयोग का हिसाब-किताब लेना ही छोड़ दिया है। कैग का नाम भी लोग भूल ही गए होंगे। मनमोहन सिंह की सरकार को भ्रष्ट बताने वाली रिपोर्टें देकर विनोद राय ने सुर्खियां बटोरीं और अब सरकार के आशीर्वाद से मजे लूट रहे हैं।

मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ताधारी दल  के प्रचार विभाग का काम कर ही रहा है, सोशल मीडिया में भाड़े पर काम करने वाला संगठित गिरोह सक्रिय हैं। नफरत और झूठ फैलाने की छूट देने के आरोप भी सोशल मीडिया नेटवर्क पर लग ही चुके हैं। मोदी-शाह के नेतृत्व में बने इस मजबूत जाल में फंसे भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर हमारी चिंता और भी गहरी हो जाती है, जब संसद से लेकर सड़क तक हम एक बेअसर विपक्ष को देखते हैं।

देश में पहली बार संसद का शीतकालीन सत्र नहीं हुआ, लेकिन उसे लेकर कोई उबाल पैदा करने में विपक्ष विफल रहा। विधायकों के इस्तीफे या दल-बदल के जरिए भाजपा ने करीब आधा दर्जन राज्यों में सरकार बना लीं और इस जबरन हासिल बहुमत पाने का जश्न प्रधानमंत्री मोदी तथा उनके सहयोगियों ने बिना संकोच मनाया। इसके खिलाफ भी विपक्ष कुछ नहीं कर पाया। 

हमारी चिंता और भी गहरी हो जाती है जब सर्द मौसम में शाहीन बाग की महिलाएं कई दिनों तक धरने पर बैठी होती हैं और सरकार उनकी बात सुनने के बदले उन्हें बदनाम करती रहती है। हमारी निराशा बढ़ जाती है, जब दिल्ली की सीमा पर बैठे दर्जनों किसान शहीद होते हैं और सरकार कॉरपोरेट के हित में बने कानूनों को रद्द करने के बदले उन्हें आतंकवादी करार देने लगती है। हमारा प्रधानमंत्री तथा उनके सहयोगी विपक्ष को देशद्रोही बताता रहता है, लेकिन उसके खिलाफ न तो मीडिया कुछ बोलता है और न ही अदालत कुछ करती है।

हमारा लोकतंत्र उससे बड़े खतरे से गुजर रहा है, जो खतरा अमेरिका के लोकतंत्र पर डोनाल्ड ट्रंप नाम के राष्ट्रपति के रूप में आया है तथा वहां के समाज को आतंकित किए है। अमेरिका मजबूत मीडिया तथा ईमानदार संस्थाओं के दम पर इसका मुकाबला कर रहा है, लेकिन हमें तो जनता की ताकत पर ही भरोसा करना होगा। किसानों ने दिखाया है कि दमन, दुष्प्रचार तथा बेरूखी सह कर लोकतंत्र की लड़ाई किस तरह शांतिपूर्ण ढंग से लड़ी जाती है।

हमें अभी से लोकतंत्र पर उस सीधी चढ़ाई को लेकर सतर्क हो जाना चाहिए, जिस चढ़ाई का सामना अमेरिकियों को करना पड़ रहा है और वे पछता रहे हैं कि उन्होंने समय रहते ट्रंप को क्यों नहीं रोका? हमारा समाज धर्म तथा जातिगत भेदभाव के कारण पहले से बीमार है। हमारे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए मंदिर के लिए भमिपूजन करते हैं। यह स्थिति लोकतंत्र पर हमला करने वालों का काम और भी आसान कर देती है।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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