Thursday, April 25, 2024

अंतिम किस्त: भारत को नए विभाजन की ओर धकेल रहे हैं मोदी

आरएसएस ने अपने को आज़ादी की लड़ाई से सिर्फ अलग ही नहीं रखा, बल्कि आजादी के लिए बलिदान करने वाले लोगों की तिरस्कारपूर्वक खिल्ली भी उड़ाई। संघ की निगाह में ऐसे लोग बहुत ऊंचा स्थान नहीं रखते। संघ का मानना है कि जिन लोगों ने संघर्ष करते हुए अपना बलिदान कर दिया है, निश्चित रूप से उनमें कोई त्रुटि रही होगी।

कोई भी हिंदुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के प्रति अपने मन में श्रद्धा और सम्मान रखता है उसके लिए यह कितने दु:ख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेजों के विरुद्ध प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को उपेक्षापूर्ण निगाह से देखता था। गोलवलकर ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा है, ”नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखत: पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योकि, अंतत: वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।’’

गोलवलकर के इन विचारों से स्पष्ट होता है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रही, जेल भी नहीं गया।

यह बात भी क़ाबिले गौर है कि आरएसएस जो अपने आप को भारत की धरोहर कहता है, उसके 1925 से लेकर 1947 तक के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है, जिसमें जलियाँवाला बाग़ जैसी बर्बर दमनकारी घटनाओं की भर्त्सना हो। इसी तरह आरएसएस के समकालिक दस्तावेज़ों में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ब्रिटिश शासकों द्वारा फांसी दिए जाने के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड भी नहीं है।

विनायक दामोदर सावरकर को अपना प्रेरणा पुरुष बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी चुनाव के मौके पर अपने को सुभाष चंद्र बोस की विरासत से जोड़ने की फूहड़ कोशिश भी करते रहते हैं। लेकिन क्या वे इस बात से इंकार कर सकते हैं कि जिस समय सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने की रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे। यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इससे पहले सावरकर माफीनामा देकर इस शर्त पर जेल से छूट चुके थे कि वे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ किसी भी तरह की गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और हमेशा उसके प्रति वफादार बने रहेंगे। इस शर्त पर उनकी न सिर्फ जेल से रिहाई हुई थी बल्कि उन्हें 60 रुपए प्रतिमाह पेंशन भी अंग्रेज हुकूमत से प्राप्त होने लगी थी।

1941 में बिहार के भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का एलान किया था। उन्होंने कहा था, ”देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिन्दू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।’’ इसके आगे सावरकर ने कहा था, ”सैन्यीकरण आंदोलन को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएं हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़े।’’

इससे पहले 1940 के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने अधिवेशन में अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेजी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।

लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त मंत्री थे। उस सरकार के प्रधानमंत्री मुस्लिम लीग के नेता एके फजलुल हक थे। अहम बात यह है कि फजलुल हक ने ही भारत का बंटवारा कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में पेश किया था।

हिन्दू महासभा ने सिर्फ ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से ही अपने आपको अलग नहीं रखा था, बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक पत्र लिख कर अंग्रेजों से कहा था कि कांग्रेस की अगुआई में चलने वाले इस आन्दोलन को सख्ती से कुचला जाना चाहिए। मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे पत्र में कहा था, ”कांग्रेस द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़े गए आन्दोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं।’’ मुखर्जी ने उस पत्र में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को सख़्ती से कुचलने की बात कहते हुए इसके लिए कुछ जरुरी सुझाव भी दिए थे। उन्होंने लिखा था, ”सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत में अपनी जड़ें न जमा सके। इसलिए सभी मंत्री लोगों को यह बताएं कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आन्दोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।’’

जहां तक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का सवाल है, सत्ता का स्वाद चखने के बाद पिछले कुछ सालों से भले ही आरएसएस तिरंगे के प्रति प्रेम जताने लगा हो और उसके मुख्यालय पर भी तिरंगा फहराया जाने लगा हो, मगर हकीकत यह है कि आजादी से पहले और आजादी मिलने के बाद कई वर्षों तक आरएसएस तिरंगे के प्रति हिकारत जताता रहा है।

दिसम्बर 1929 में कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन मे पूर्ण स्वराज को राष्ट्रीय ध्येय घोषित करते हुए लोगों का आह्वान किया था कि 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराएँ और स्वतंत्रता दिवस मनाएँ। इसके जवाब में आरएसएस के तत्कालीन सरसंचालक डा. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी करके तमाम शाखाओं को भगवा झंडा राष्ट्रीय झंडे के तौर पर पूजने के निर्देश दिए।

आजादी की पूर्वसंध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगा झण्डा लहराने की तैयारी चल रही थी, तब आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र आर्गेनाइज़र के 14 अगस्त, 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुल कर भर्त्सना की। आर्गेनाइज़र के संपादकीय में लिखा गया, ”वे लोग जो किस्मत के दाँव से सत्ता तक पहुँचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न तो इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हो, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसादायक होगा।’’

खुद गोलवलकर ने अपने लेख में कहा, “कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)

तिरंगे झंडे की तरह ही भारत के संविधान के प्रति भी आरएसएस ने हमेशा हिकारत का भाव रखा, जिसकी झलक मौजूदा सरकार के क्रियाकलापों में भी अक्सर झलकती रहती है। भारत की संविधान सभा ने नवम्बर 26, 1949 को संविधान का अनुमोदन करके देश को एक तोहफा दिया। आरएसएस ने चार दिन बाद ही अपने मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ (नवम्बर 30) में एक सम्पादकीय लिखकर इस के स्थान पर घोर जातिवादी, छुआछूत की झंडाबरदार, औरत और दलित विरोधी मनुस्मृति को लागू करने की मांग की। संपादकीय में लिखा गया, ”हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विकसित हुए अद्वितीय संवैधानिक प्रावधानों का कोई ज़िक्र नहीं है। मनु के क़ानून, स्पार्टा के लयकारगुस और ईरान के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। मनुस्मृति में प्रतिपादित क़ानून की सारे विश्व में प्रशंसा होती है लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए ये बेकार हैं।’’

उपरोक्त तमाम तथ्य यह साबित करते हैं कि आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनका और उनके वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता आंदोलन से रत्तीभर भी जुड़ाव नहीं था और इसीलिए उनके लिए स्वाधीनता दिवस का भी सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता दिवस को महत्वहीन बनाने, स्वाधीनता आंदोलन के नायकों और शहीदों को अपमानित करने और देश में सांप्रदायिक विभाजन को ज्यादा तेज करने के अपने एजेंडे के तहत 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मनाने का एलान किया है। उनके इस उपक्रम को भारत के एक और विभाजन की नींव रखने का प्रयास ही कहा जा सकता है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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