Saturday, April 20, 2024

‘आंदोलनजीवी’ किसानों ने ही बदला है देश का इतिहास

किसान आंदोलन अपने सौ दिन पूरे करने जा रहा है। पर न तो बातचीत हो रही है और न ही बातचीत की तारीख तय हो पा रही है। सब कुछ थमा है। पर किसानों के हौसले जस के तस हैं। थका कर कोई जनआंदोलन कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता है, विशेषकर वह आंदोलन जो अपनी अस्मिता, संस्कृति और अस्तित्व पर आ पड़े खतरे के खिलाफ खड़ा हो गया हो। किसान आंदोलन 2020 एक ऐसा ही आंदोलन है। देश की 70 % आबादी किसी न किसी तरह से कृषि या ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी है। हम जैसे बहुत से लोग जो अब शहरों में आ बसे हैं, उनकी भी जड़ें गांवों और ग्रामीण संस्कृति में गहरे पैठी हैं। पंजाब से उठा यह आंदोलन धीरे-धीरे हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में पसरता हुआ, पूरे देश में अलग-अलग तरह से फैल गया है और अब सरकार की उपेक्षा, जिद, कीलकांटो से भरी कंक्रीट की दीवारों और सड़क बंदी के बाद भी न तो हतोत्साहित हुआ है और न ही अपने लक्ष्य से डिगा है।

यह देश का न तो, पहला किसान आंदोलन है और न ही अंतिम। देश में किसान आंदोलनों का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। प्रायः यह समझा जाता है कि भारतीय समाज और इतिहास में समय-समय पर होने वाली उथल-पुथल में किसानों की कोई सार्थक भूमिका नहीं रही है, और किसान बदलाव की इन आंधियों से अलग रहे हैं, लेकिन यह धारणा, किसान आंदोलनों की समृद्ध परंपरा को देखते हुए सही नहीं है। स्वाधीनता संग्राम में देश भर में हुए किसान आंदोलनों के अहम योगदान और व्यापक जन जागरण में उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। स्वतंत्रता से पहले हुए अनेक किसान आंदोलनों ने ब्रिटिश राज को भी अपनी किसान विरोधी नीतियों को समय-समय पर बदलने के लिये बाध्य कर दिया था।

ऐसे आंदोलनों में चंपारण का निलहे गोरों के खिलाफ किया गया किसान आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है। दक्षिण अफ्रीका से आते ही महात्मा गांधी ने चंपारण के राज कुमार शुक्ल नामक एक किसान के द्वारा जब बिहार के एक बेहद पिछड़े इलाके चंपारण में किसानों की व्यथा सुनी तो वे वहां गए। वहीं गांधी जी की पहली गिरफ्तारी होती है और वही भारत में ब्रिटिश हुक़ूमत ने गांधी जी की दृढ़ता और विनम्रता की पहली झलक भी देखी। हालांकि गांधी, साम्राज्य के लिए अनजान नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका में उनके आंदोलनों से अंग्रेजी सरकार भलीभांति परिचित हो चुकी थी।

चंपारण में भी गांधी का यह आंदोलन भी ब्रिटिश शोषण की व्यवस्था के खिलाफ अहिंसा और असहयोग की नीति पर आधारित था। चंपारण को भविष्य में होने वाले स्वाधीनता संग्राम की एक प्रयोगशाला के रूप में भी देखा जाता है। चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे ‘तिनकठिया पद्धति’ कहते थे। 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील का बाजार समाप्त हो गया।

देश में नील पैदा करने वाले किसानों द्वारा पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली के प्रमुख आंदोलन हुए थे, पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की संगठित शुरुआत सन् 1859 से हुई थी। चूंकि अंग्रेजों की लूट-खसोट पर आधारित नीतियों से किसान सबसे अधिक प्रभावित और पीड़ित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों के कारण, किसान समय-समय पर आक्रोशित और आंदोलित होते रहे।

सन् 1857 का विप्लव असफल रहा, लेकिन इस विप्लव ने अंग्रेजों और भारतीयों को कुछ सीखें भी दीं। अंग्रेजों ने कम्पनी राज खत्म कर भारत को सीधे क्राउन के अंतर्गत ले लिया और देश लगभग 600 देसी रियासतों को छोड़, सीधे ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया। रियासतें भी अपने स्थानीय प्रशासन को छोड़ कर वायसराय के आधीन ही थीं। उक्त असफल विप्लव के बाद सरकार की नीतियों के विरोध का नेतृत्व समय-समय पर, किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन, किसानों के शोषण के नतीजे थे।

सच तो यह है कि, स्वाधीनता के पूर्व, जितने भी ‘किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध थे। तत्कालीन समाचार पत्रों, जिसमें वर्नाक्यूलर प्रेस अधिक महत्वपूर्ण हैं, ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

आंदोलनकारी किसान चाहे तेलंगाना के हों या नक्सलबाड़ी के हिंसक लड़ाके, सभी ने जन आक्रोश को अभिव्यक्त कर इन आंदोलनों को आगे बढ़ाने में अपना अहम योगदा‍न दिया था। सन् 1857 का विप्लव कुछ देशी रियासतों की मदद और कुछ उसके अनियोजित होने के कारण, दबा तो दिया गया था, लेकिन देश में कई स्‍थानों पर आज़ादी के इस संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में धधकती रही। इसी बीच अनेक स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आंदोलन जैसे, निलहे किसानों और तेभागा आंदोलन, चम्पारण और बारदोली सत्याग्रह, पाबना और मोपला विद्रोह की कथाएं इतिहास में दर्ज हैं।

हालांकि किसानों का सबसे प्रभावी और व्यापक आंदोलन चंपारण का था, जो किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में सन् 1859-60 में किया गया। अपनी मांगों के संदर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन बन गया था। अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली-सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखवा लेते थे, जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को ‘ददनी प्रथा’ कहा जाता था। एक प्रकार से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का यह पहला स्वरूप था।

दीन बंधु मित्र द्वारा 1860 में लिखा गया बांग्ला का प्रसिद्ध नाटक, नील दर्पण, निलहे किसानों की व्यथा का एक जीवंत दस्तावेज है। 1860 में जब यह नाटक प्रकाशित हुआ था, तब बंगाली समाज और शासक दोनों में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। जेम्स लॉग ने नील दर्पण का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें एक माह की जेल की सजा सुना दी। यह उन अंग्रेजों का कारनामा था जो खुद को दुनिया भर में संसदीय लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी का जनक मानते हैं। शोषक, शोषक ही रहता है और सत्ता का मूल चरित्र शोषक का भी है। अंग्रेज भी उस पनप रहे पूंजीवादी व्यवस्था में इस चरित्र से अलग नहीं थे।

पहला महत्वपूर्ण किसान आंदोलन बंगाल के पबना के किसानों का था। 1873-76 में बंगाल के पबना नामक जगह में किसानों ने जमींदारी शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया था। पबना राजशाही राज की जमींदारी के आधीन था और यह वर्धमान राज के बाद सबसे बड़ी जमींदारी थी। उस जमींदारी के संस्थापक राजा कामदेव राय थे। पबना विद्रोह जितना अधिक जमींदारों के खिलाफ था उतना सूदखोरों और महाजनों के विरुद्ध नहीं था। 1870-80 के दशक के पूर्वी बंगाल (अभी का बांग्लादेश) के किसानों ने जमींदारों द्वारा बढ़ाए गए मनमाने करों के विरोध में यह विद्रोह किया था। पबना में 1859 में कई किसानों को भूमि पर स्वामित्व का अधिकार दिया गया था।

किसानों को मिले इस अधिकार के अंतर्गत किसानों को उनकी जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था। लगान की वृद्धि पर भी रोक लगाई गई थी। कुल मिलाकर किसानों के लिए पबना में एक सकारात्मक माहौल था, पर कालांतर में जमींदारों का दबदबा पबना में बढ़ने लगा। जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाने लगे। अन्य तरीकों से भी जमींदारों द्वारा किसानों को प्रताड़ित किया जाने लगा।

अंततः 1873 ई. में पबना के किसानों ने जमींदारों के शोषण के विरुद्ध एक संघ बनाया और किसानों की सभाएँ आयोजित कीं। कुछ किसानों ने अपने परगनों को जमींदारी नियंत्रण से मुक्त घोषित कर दिया और स्थानीय सरकार बनाने की चेष्टा भी की। उन्होंने एक सेना भी बनायी जिससे कि जमींदारों का सामना किया जा सके। जमींदारों से न्यायिक रूप से लड़ने के लिए धन चंदे के रूप में भी किसानों द्वारा जमा किया गया। किसानों ने लगान देना भी कुछ समय के लिए बंद कर दिया। यह आन्दोलन धीरे-धीरे सुदूर क्षेत्रों में भी, जैसे ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, राजशाही, फरीदपुर, राजशाही फैलने लगा।

पबना विद्रोह एक शांत प्रकृति का आन्दोलन था। किसान शांतिपूर्ण तरीके से अपने हितों की सुरक्षा की माँग कर रहे थे। उनका आन्दोलन सरकार के विरुद्ध भी नहीं था, इसलिए पबना आन्दोलन को अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का समर्थन प्राप्त हुआ। 1873 ई. में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर कैंपवेल ने किसान संगठनों को उचित ठहराया, पर बंगाल के जमींदारों ने इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देना चाहा। एक अखबार हिंदू पेट्रियट ने लिखा कि यह आन्दोलन मुसलमान किसानों द्वारा हिन्दू जमींदारों के विरुद्ध शुरू किया गया है।

पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देना इसलिए गलत है क्योंकि पबना विद्रोह में हिन्दू और मुसलमान दोनों वर्ग के किसान शामिल थे। आन्दोलन के नेता भी दोनों समुदाय के लोग थे, जैसे ईशान चन्द्र राय, शम्भु पाल और खुदी मल्लाह। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप 1885 का बंगाल काश्तकारी कानून पारित हुआ, जिसमें किसानों को कुछ राहत देने की व्यवस्था की गई।

उल्लेखनीय है कि किसान चेतना, एक दो स्थानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन देश के विभिन्न भागों में इसका व्यापक प्रसार हुआ। यह चेतना दक्षिण में भी फैलने लगी, क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।

होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फरवरी, सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया। यह उत्तर प्रदेश या तत्कालीन यूनाइटेड प्रविन्सेस का पहला किसान संगठन कहा जाता है। सन् 1919 के अं‍तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आ गया। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने ‘एका आंदोलन’ नामक एक प्रभावी आंदोलन भी चलाया था।

अवध किसान आंदोलन के नायकों में मदारी पासी एक विरले नायक थे। गरीब किसानों की बेदखली, लगान और अनेक गैर कानूनी करों से मुक्ति के लिए उन्होंने संगठित और विद्रोही आंदोलन चलाया था। जब दक्षिणी अवध प्रांत का उग्र किसान आंदोलन सरकार और जमींदारों के क्रूर दमन के कारण 1921 के मध्य में दबा दिया गया था तथा असहयोग आंदोलनकारियों द्वारा निगल लिया गया था, ठीक उसी समय, मदारी पासी का ‘एका आंदोलन’ हरदोई जिले के उत्तरी और अवध के पश्चिमी जिलों में 1921 के अंत में और 1922 के प्रारम्भ में चल रहा था।

मोपला लोग केरल के मालाबार क्षेत्र में रहने वाले इस्लाम धर्म में धर्मांतरित अरबी एवं मलयाली मुसलमान थे। अधिकांश मोपला छोटे किसान या व्यापारी थे, जो अपनी गरीबी और अशिक्षा के कारण थंगल कहे जाने वाले काजियों और मोलवियों के प्रभाव में थे। मोपला किसान मालाबार के हिन्दू नम्बूदरी एवं नायर उच्च जाति, भूस्वामियों के बटाईदार या आसामी काश्तकार थे। नम्बूदरी और नायर जैसे उच्च जाति के भूस्वामियों को शासन, पुलिस और न्यायालय से संरक्षण प्राप्त था। मोपला या मोपला विद्रोह इसलिए सांप्रदायिक हो गया क्योंकि अधिकांश जमींदार या भूस्वामी हिन्दू थे और काश्तकार अधिकांश मुसलमान थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्नीसवीं सदी का मोपला विद्रोह ग्रामीण विद्रोह का विशिष्ट उदाहरण है, जिसकी जड़ें स्पष्टत: कृषि व्यवस्था में थीं। यह मोपला विद्रोह का प्रथम चरण था।

1920-21 में द्वितीय मोपला विद्रोह हुआ जिसके कारणों में भी कृषिजन्य असंतोष था, लेकिन कालांतर में असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने पर इस आंदोलन ने साम्प्रदायिक, राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया। 1921 में केरल के मालाबार जिले के काश्तकारों ने जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। 15 फरवरी 1921 को सरकार ने इस क्षेत्र में निषेधाज्ञा घोषित कर खिलाफत तथा कांग्रेस के नेता यू गोपाल मेनन, पी मोइनुद्दीन कोया, याकूब हसन तथा के माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया। मोपला विद्रोह की उग्रता को देखते हुए सरकार ने सैनिक शासन की घोषणा कर दी और परिणामस्वरूप मोपला विद्रोह को कुचल दिया गया।

इसी प्रकार पंजाब में 1871-72 में कूका लोगों (नामधारी सिखों) द्वारा एक सशस्त्र विद्रोह किया गया था। कूका लोगों ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बांटकर अपनी समानान्तर सरकार बना ली थी। कूका वीरों की संख्या सात लाख से ऊपर थी, लेकिन अधूरी तैयारी में ही विद्रोह भड़क उठा और इसी कारण वह दबा भी दिया गया। सिखों के नामधारी संप्रदाय के लोग कूका भी कहलाते हैं। इस पन्थ का आरम्भ 1840 ईस्वी में हुआ था।

इसे प्रारम्भ करने का श्रेय सेन साहब अर्थात भगत जवाहर मल को जाता है। कूका विद्रोह के दौरान 66 नामधारी सिख शहीद हो गए थे। नामधारी सिखों की कुर्बानियों को भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में ‘कूका लहर’ के नाम से अंकित किया गया है। सन 1872 में इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल के शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर रंगून (अब यांगून) भेज दिया गया, जहां पर सन् 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।

इसी प्रकार वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।

बिहार में एक अन्य किसान आंदोलन भी हुआ था, जिसे ताना भगत आंदोलन के नाम से जानते हैं। इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1914 में हुई थी। यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक ‘जतरा भगत’ थे। ‘मुण्डा आन्दोलन’ की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद ‘ताना भगत आन्दोलन’ शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए ‘पंथ’ के निर्माण का आन्दोलन था। इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे।

किसान आन्दोलनों के इतिहास में सन् 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने ‘फ्लाइड कमीशन’ की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का ‘तेभागा आंदोलन’ फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। ‘किसान सभा’ के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।

आंध्रप्रदेश का तेलंगाना आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था। सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।

एक अनोखा आंदोलन, बिजोलिया किसान आंदोलन का भी उल्लेख मिलता है। यह ‘किसान आन्दोलन’ भारत भर में प्रसिद्ध रहा, जो मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। बिजोलिया किसान आन्दोलन सन् 1847 से प्रारंभ होकर करीब अर्द्ध शताब्दी तक चलता रहा। किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया। 

आंदोलनों के साथ-साथ किसान संगठन भी अस्तित्व में आए। सन् 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘बिहार किसान सभा’ का गठन किया। सन् 1928 में आंध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा’ की स्थापना एनजी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चौधरी ने ‘उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा’ की स्थापना की। बंगाल में ‘टेंनेंसी एक्ट’ को लेकर सन् 1929 में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक ‘अखिल भारतीय किसान संगठन’ बनाने की योजना बनाई।

चंपारण के बाद गांधीजी ने सन् 1918 में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा गुजरात में स्थित है। खेड़ा में गांधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक ‘किसान सत्याग्रह’ की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की, लेकिन उन्‍हें कोई रियायत नहीं मिली। गांधीजी ने 22 मार्च, 1918 को खेड़ा आन्दोलन की बागडोर संभाली। अन्य सहयोगियों में सरदार पटेल और इन्दुलाल याज्ञनिक थे।

सूरत, (गुजरात) के बारदोली तालुका में सन् 1928 में किसानों द्वारा ‘लगान’ न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल ‘कुनबी-पाटीदार’ जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया। इसी आंदोलन के बाद गांधी जी के बल्लभभाई पटेल को सरदार कह कर सम्बोधित किया और सरदार, सच में स्वाधीनता संग्राम के सरदार ही सिद्ध हुए।

आज जब प्रधानमंत्री जन आंदोलन को आन्दोलनजीविता और कृषि मंत्री, भीड़ से कानून नहीं बदलते हैं, कहते हैं, तब इतिहास बदलने वाले इन आंदोलनों के बारे में हम सबको जानना चाहिए। भीड़ और जनांदोलनों ने सत्ता की धारा को बदला है, तानाशाहों को भूलुंठित किया है, और हर वह सरकार विनाश को प्राप्त हुयी है जो ठस, अहंकारी और असंवेदनशील रही है। इस नियम का अपवाद भी नहीं मिलता है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।