Thursday, March 28, 2024

डायरी: कोरोना काल की कत्लगाहें

सिर्फ भारत के आंकड़ों पर गौर करते हैं। कोरोना वायरस को विधिवत केंद्रीय हुकूमत ने जब ‘महामारी’ मानकर लॉक डाउन घोषित किया तो चंद दिनों में बेरोजगारी दर 23 फ़ीसदी आ गई और मजदूर दिवस यानी 1 मई तक यह 50 फ़ीसदी को छूने लगी। आलम यह है कि महज एक ईमेल या फोन पर दिए गए संदेश में कह दिया जा रहा है कि आज के बाद आपकी जरूरत नहीं और आप हमारा हिस्सा नहीं। हक और बकाए की बात करना बगावत होगा। कतिपय उदाहरणों को छोड़ दीजिए तो पूरे प्राइवेट सेक्टर में घोषित-अघोषित यही हाल है। और यह तब है, जब किसी को भी रोजी-रोटी को सुनिश्चित करने के लिए रोजगार की सबसे ज्यादा जरूरत है। कोरोना वायरस की अलामत अगर चिपकती है तो कम से कम 7 हजार रुपए का बंदोबस्त फौरी तौर पर होना ही चाहिए। सरकारों के दावे धरे के धरे हैं।

अस्पताल यही वसूल रहे हैं। अलहदा बात है कि बीमारी को ठीक करने के नाम पर की जा रही इस लूट को ‘मेडिकल माफिया’ कभी व्यक्ति को ‘पॉजिटिव’ बना देता है तो कभी ‘निगेटिव।’ वैसे, जिसे जिंदगी कहते हैं वह इन दिनों निगेटिव ही ज्यादा है। अब आपसे अधिकार छीन लिए गए हैं कि आप किसी से यह पूछें कि आप के इलाज के लिए सरकारी- गैर सरकारी चिकित्सा संस्थान दवाइयों तथा इलाज के नाम पर क्या दे रहे हैं। डॉक्टरों की लापरवाही पर कोई किंतु-परंतु नहीं क्योंकि वे तथाकथित ‘योद्धा’ हैं। अवाम मेडिकल साइंस के बुनियादी सिद्धांतों से नावाकिफ है लेकिन फिर भी अमूमन चिकित्सा जगत की लापरवाही और लूट तंत्र की अंधी गलियों की शिनाख्त के रास्ते मिल ही जाते हैं। पहले लोग इस हद तक चले जाते थे कि शव सड़क पर रखकर मुखालफत करते थे। व्यवस्था और चिकित्सा माफिया, दोनों के खिलाफ। अब? धारा 188 और 144 के साथ-साथ 307 लग सकती है। उन पर भी जिन्होंने अपनी जीवन संध्या तक कभी थाने का मुंह नहीं देखा और ताउम्र एक हलफनामा तक दायर नहीं किया। अतिशयोक्ति नहीं यह कोरोना- काल का आईना है।                                         

हिंदुस्तानी हुकूमत अपने यहां मौजूद हर शख्स की गोया जामा-तलाशी ले रही है और ज्यादातर को एकदम नंगा करके घरों को लौट जाने का हुक्म सुनाया जा रहा है। कोई दलील कोई अपील कहीं नजर आ रही है? आंसू जमानत हैं। लोगों को खुले आसमान के नीचे गैस चैंबर बनाकर उनके ऊपर बिठाया जा रहा है। बेरोजगार कर दिए गए लोग बेबस हैं। बेतहाशा बेजार! किसी को मुंबई से लुधियाना आना है तो किसी को अमृतसर से पुणे लौटना है। मजबूरी की यह हिजरत पहली दफा दरपेश है। पलायन करने वालों के पास कौड़ी तक नहीं और सारा सामान और संपूर्ण परिवार स्टेशनों पर रखकर बैठे हैं। सब कुछ सरकार भरोसे और सरकार राम- भरोसे। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के संदर्भ में अल्लाह-भरोसे।                     

बेरोजगारी का इजाफा साफ बताता है कि पूंजीवाद ने अपना संवेदनशीलता का नकाब पूरी तरह से तादुनिया में बेशर्मी के साथ उतार फेंका है। पहले यह आवरण बाकायदा था। कई कई रूपों और चेहरों में। मजबूत मुखौटों में भी। पूंजीवाद अब रावण की तरह अट्टहास कर रहा है। यकीनन पूरी दुनिया में कोरोना वायरस की वजह से उतने लोग नहीं मरेंगे जितने बेरोजगारी और उससे उपजी विसंगतियों तथा भुखमरी से। हमारे आस पास की सुबह अब क्या है? वातावरण जरूर साफ होता है लेकिन रोजमर्रा में जिन लोगों को काम पर जाते हुए देखते या मिलते थे वे सिरे से गायब हैं। इक्का-दुक्का लोग दिखते हैं जो बड़े तनाव के साथ काम पर जा रहे होते हैं।                                   

खुदकुशी अब पुलिस स्टेशनों में आमतौर पर दर्ज नहीं हो रही लेकिन बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं हो रही हैं। कुछ देह को स्वयं मार रहे हैं तो ज्यादातर दिलो-दिमाग से मर चुके हैं। कहने भर को जिंदा हैं। जिंदगी तक इनसे शर्मिंदा है। कृपया इर्द-गिर्द देखिए तो अब आपको गुम और सुम होने का मुहावरा साकार मिलेगा। यानी ‘गुमसुम’ होना एक आम बीमारी है। डॉक्टरों के पास इसका पुख्ता इलाज पहले भी नहीं था और अब भी शायद नहीं होगा। चिकित्सा से जुड़ा पूरा तंत्र कोरोना वायरस की दवा ईजाद करने में मसरूफ है।                                       

समकालीन दौर की कत्लगाहें थोड़ा ख्याल/ध्यान से देखने पर साफ-साफ नजर आने और महसूस होने लग जाएंगीं। वहां से फैल रहा क्रूरता का संक्रमण भी। मुनाफाखोर प्राइवेट सेक्टर, उनकी संरक्षण में जुटी सरकारी एजेंसियां मतलब केंद्र और राज्य सरकार की चंद नीतियां, अस्पताल, बड़े-बड़े मीडिया संस्थान और विश्व बिरादरी का दुनिया भर में फैला वह हिस्सा जो पुरजोर कोशिश में है कि जाहिर ही न हो कि कोरोना वायरस ज्यादा खतरनाक है कि पूंजीवाद, जिसने अब आदमी को आदमी मारना भी कायदे से और अपने अंदाज में सिखा दिया है। कवायद है कि इंसान इंसान ही न रहे। धन पशुओं का रुतबा कायम रहे। हम खुश हैं कि श्मशान घाट सन्नाटे में हैं लेकिन धरा और आकाश के भीतर सरेआम भीतर ही भीतर कितने लोग मर रहे हैं, इससे बिल्कुल नाखबर। (इन पंक्तियों के लेखक की ओर से) इसे विद्रोही वक्तव्य दर्ज किया जाए और भारतीय दंड संहिता की जो धारा लगती है बंदा उसे बरदाश्त करने को राजी है। यकीनन तैयार भी!

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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