Friday, April 19, 2024

बंगाली पुनर्जागरण मिथ, बंगाल में संघ-भाजपा का बढ़ता वर्चस्व और जोतीराव फुले

देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव अपने अंतिम चरण में है। चुनावी विश्लेषकों, पत्रकारों और अध्येताओं  की कौन कहे, आम आदमी भी सौ फीसदी तय मानकर चल रहा है कि भाजपा किसी भी सूरत में तमिलनाडु और केरल में अपनी सरकार नहीं बना सकती है और न ही बड़ी विजय हासिल कर सकती है, भले ही संघ-भाजपा, केंद्रीय राजसत्ता की सारी मशीनरी और कार्पोरेट जगत ने अपने अकूत चंदे और मीडिया  के साथ अपनी सारी ऊर्जा क्यों न झोंक दिए हों। इसके विपरीत आकलन उस पश्चिम बंगाल के बारे में है, जिसे भारतीय पुनर्जागरण-ज्ञानोदय और आधुनिकता के आंदोलन का केंद्र कहा जाता है और बंगाली मेधा के वर्चस्व का लोहा देश ही नहीं दुनिया भर में माना जाता है। स्वयं बंगाली, विशेषकर मध्यवर्गीय, अपने सुसंस्कृत होने और ज्ञान-विज्ञान से लैस होने का दंभ भरते रहते हैं। वे कभी खुले-कभी दबे रूपों में भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे आधुनिक होने का रुआब भी गांठते रहते हैं।

बंगाल के विधान सभा चुनाव में भाजपा थोड़े अंतरों से जीतेगी या हारेगी, भले ही अभी यह पक्के तौर पर न कहा जा सके, लेकिन इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है कि भाजपा पश्चिम बंगाल में एक सशक्त राजनीतिक शक्ति बन चुकी है और संघ ने बंगाल के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और बौद्धिक जगत में अपनी गहरी पैठ बना ली है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण 2019 के लोकसभा चुनावों में मिला, जब भाजपा ने 42 लोकसभा सीटों में से 18 पर विजय हासिल की और उसे 40.3 प्रतिशत वोट मिले हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली सफलता इस बात का ठोस सबूत थी कि बंगाल के मतदाताओं के एक बड़े (40 प्रतिशत से अधिक) हिस्से को नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी और उनके हिंदू राष्ट्र निर्माण (अपरकास्ट हिंदू मर्दों का राष्ट्र) की परियोजना से कोई एतराज नहीं है और वे अपनी बाहें फैलाए आरएसएस-भाजपा का स्वागत करने के लिए तैयार हैं और काफी हद तक उन्हें अपना भी चुके हैं। हो सकता है, विधानसभा चुनावों में प्रदेश स्तर पर  ममता बनर्जी की तुलना में कोई कद्दावर नेता न होने के चलते भाजपा थोड़े-बहुत अंतरों से विधानसभा चुनाव में सरकार न भी बना पाए, लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व को स्वीकार करने और आरएसएस के विचारों को अपनाने में बंगालियों के एक बड़े हिस्से को कोई हिचकिचाहट और शर्म नहीं है, इसका सबूत वे 2019 के लोकसभा चुनावों में दे चुके हैं।

 प्रश्न यह है कि जिस बंगाल को भारत में आधुनिकता का वाहक कहा जाता रहा है, जिस बंगाल के राजा राममोहन राय  (22 मई 1772 – 27 सितंबर 1837 – ब्रह्म समाज) को भारतीय पुनर्जागरण-ज्ञानोदय और आधुनिक भारत के जनक की उपाधि दी गई, केशवचंद्र सेन (19 नवंबर 1838 – 8 जनवरी 1884- भारतीय ब्रह्म समाज) और ईश्वरचंद विद्यासागर (26 सितंबर 1820- 29 जुलाई 1891) जैसे सुधारक पैदा हुए, जिन्हें भारतीय पुनर्जागरण का आधार स्तंभ कहा जाता है। जो बंगाल विवेकानंद (12 जनवरी 1863 –  4 जुलाई 1902) और रवींद्रनाथ टैगोर (7 मई 1861- 7 अगस्त 1941) की जन्मभूमि-कर्मभूमि रही है। जिस बंगाल से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई करने वाली कांग्रेस के जन्म (1885) का गहरा नाता है। कांग्रेस का पहला अध्यक्ष भी एक बंगाली (व्योमेश चंद्र बनर्जी ) को ही चुना गया, जिस बंगाल से ब्रिटिश विरोधी सशस्त्र आंदोलन (अनुशीलन समिति और युगांतर, 1902) का जन्म हुआ, जहां वामपंथी आंदोलन की मजबूत नींव पड़ी है- सच तो यह है कि देश के एक बड़े हिस्से में भी वामपंथी आंदोलन के अगुवा बंगाली ही थे, उसकी क्षीण विरासत ही सही आज भी जिंदा है।

आधुनिकता के वाहक के रूप में बंगालियों को अग्रणी माना जाता रहा है। जिस बंगाल में वामपंथी-नक्सली आंदोलन का गहरा प्रभाव रहा हो और जिस बंगाल में करीब 34 वर्षों (1977 से 2011) तक वामपंथी पार्टी का शासन रहा हो, वह बंगाल कैसे और क्यों इतने सहज तरीके से देखते ही देखते भारत के सारे पुनर्जागरण-ज्ञानोदय, आधुनिकता और वामपंथ को तिलांजलि देकर भारतीय इतिहास के सबसे प्रतिक्रियावादी-प्रतिगामी, मध्यकालीन और बर्बर मूल्यों की  वाहक  संघ-भाजपा को गले लगा लिया, वह भी बिना किसी शर्म-हया के, जबकि उसी संघ-भाजपा को तमिलनाडु और केरल में प्रवेश और विस्तार करने की सारी कवायद फिलहाल सफल नहीं होती दिख रही है, जबकि उन्होंने वहां लंबे समय से ऐड़ी-चोटी का जोर लगाए रखा है।

कोई कह सकता है कि पश्चिम बंगाल इस कारण से भाजपा को अपना रहा है, क्योंकि वह कांग्रेस, वामपंथ और तृणमूल कांग्रेस के शासन को देख चुका है और बंगाली समाज की आकांक्षाओं (जिसमें रोजी-रोटी की समस्या भी शामिल है) को पूरा करने में ये पार्टियां असफल रही हैं और अब बंगाली समाज एक नए विकल्प (भाजपा) को आजमाना चाह रहा है और उसका स्वाद चखना चाह रहा है। यह एक हद तक सच भी हो सकता है, लेकिन यह बात तमिलनाडु और केरल के साथ भी तो लागू होती है। यदि इसकी एक वजह केरल-तमिलानाडु की तुलना में पश्चिम बंगाल में गरीबी-बेरोजागरी और तुलनात्मक तौर पर बदत्तर जीवन-स्तर है, तो यह भी प्रश्न उठता है कि आखिर इतना आधुनिक उन्नत समाज, विचारक-चिंतकों वाला समाज और 34 वर्षों का वामपंथी शासन आखिर क्यों बंगाल को केरल और तमिलनाडु के जीवन-स्तर तक भी नहीं ले जा पाया? क्यों बंगाल आर्थिक तौर पर गाय पट्टी के राज्यों के कमोवेश आस-पास ही बना रहा?

बंगाली पुनर्जागरण-ज्ञानोदय की वैचारिकी, इतिहास, पुनर्जागरण के अग्रज व्यक्तित्वों की विचारधारा, बंगाल के विभाजन, बंगाल में वामपंथी शासन के मूल स्वरूप और बंगाली समाज का ऐतिहासिक विकास और सामाजिक संरचना (विशेषकर बंगाल के विभाजन के बाद) से जो कोई भी परिचित होगा, उसे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होगा कि क्यों और कैसे बंगालियों के एक बड़े हिस्से ने सहज तरीके से आधुनिक भारतीय इतिहास के सबसे प्रतिगामी-प्रतिक्रियावादी और मध्यकालीन बर्बर मूल्यों के वाहक संघ-भाजपा की वैचारिकी को स्वीकार कर लिया और उन्हें शासन-सत्ता सौंपने में भी ज्यादा हिचक नहीं हैं। 

सच यह है कि जिसे हम बंगाल की आधुनिकता कहते हैं, जिस बंगाल को पुनर्जागरण-ज्ञानोदय के लिए भारत में अगुवा होने का श्रेय दिया जाता है, वह अपने वाह्य आवरण, रूप तथा भावात्मक अभिव्यक्ति में जितना भी आधुनिक-वामपंथी दिखता हो, उसका असली स्वरूप (अंतर्वस्तु) हिंदुत्ववादी था। हिंदुत्ववादी का सीधा निहितार्थ अपरकास्ट-मर्दवादी-ब्राह्मणवादी विचारधारा और जीवन के सभी क्षेत्रों में अपरकास्ट विशेषाधिकारों और वर्चस्व की स्वीकृति से है। पश्चिम बंगाल का हर गंभीर अध्येता एक स्वर से यह स्वीकार करता है कि बंगाल में अपरकास्ट की तीन जातियों- ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्यों का जीवन के सभी क्षेत्रों पर पूर्ण वर्चस्व है। यही तीन जातियां बंगाली आधुनिकता, पुनर्जागरण, कांग्रेस-वामपंथ की अगुवा रही हैं और उन्हीं का पूरी तरह से समाज में वर्चस्व रहा है। अपने विशेधाधिकारों और वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश लगातर ये तीन जातियां करती रही हैं, जिनसे बंगाली भद्रलोक बना है।

इस संदर्भ में इतिहाकार शेखर बंद्योपाध्याय बिलकुल ठीक लिखते हैं कि आधुनिक काल में राजनीतिक तौर पर संगठित बंगाली भद्र लोक- जिसमें अधिकांश ब्राह्मण, कायस्थ या वैद्य थे- एक तरफ ब्रिटिश सत्ता से लोकतांत्रिक सुधारों की मांग कर रहा था, तो दूसरी तरफ निम्न और मध्य जातियों (ओबीसी-दलित-आदिवासी) को उनका हक-हकूक देने को तैयार नहीं था और जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने विशेषाधिकार और वर्चस्व को कायम रखना चाहता था। कमोवेश यही हाल सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारवादियों का भी था। बंगाली साहित्य-संस्कृति के घोषित पुरोधा बंकिम चंद चटर्जी किस हद तक प्रतिगामी-प्रतिक्रियावादी और मुस्लिम विरोधी थे, यह जगजाहिर तथ्य है। राजा राममोहन राय का ‘ब्रह्म समाज’ वेदों को अपौरुषेय ( ईश्वर की वाणी, शाश्वत सत्य) मानता था और उसमें ब्राह्मण के अलावा किसी को पूजा संपन्न कराने का अधिकार नहीं था। बंगाली पुनर्जागरण-ज्ञानोदय का कोई भी पुरोधा जिस हिंदू धर्म द्वारा वर्ण-जाति व्यवस्था को जायज ठहरा रहा था और है, उसके मूल तत्वों पर प्रश्न उठाने को तैयार न था और न ही निर्णायक तौर पर वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता (स्त्री पुरुष की तुलना में दोयम दर्जे की है) को खारिज करता था।

पुनर्जागरण-ज्ञानोदय की अवधारणा का मूल तत्व है- मध्यकालीन विचारधारा और मूल्यों से पूर्ण विच्छेद। वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता से पूर्ण विच्छेद के बिना भारत में मध्यकालीन विचारधारा एवं मूल्यों से विच्छेद किया ही नहीं जा सकता है। इसी कारण से बंगाल में सही अर्थों में पुनर्जागरण-ज्ञानोदय जैसी कोई परिघटना घटित ही नहीं हुई, जो लोगों के सोचने के तरीकों और सामाजिक संबंधों को बदल सके और नए आधुनिक सौंदर्यबोध की रचना कर सके। बंगाली आधुनिकता और पुनर्जागरण-ज्ञानोदय एक मिथ ही रहा है, जैसे ‘रामराज्य एक आदर्श राज्य’ यह मिथ था और है। भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग में छाया रहा है। बंगाली पुनर्जागरण-ज्ञानोदय को आंबेडकर के शब्दों में ज्यादा से ज्यादा अपरकास्ट के बीच परिवार-सुधार आंदोलन कह सकते हैं, जिसमें सती-प्रथा और बाल-विवाह पर रोक की मांग की गई और विधवा विवाह के पक्ष में आंदोलन चलाया गया। इसी तरह बंगाली आधुनिकता अपने वाह्य रूप और आवरण में जितनी आधुनिक दिखती हो, जो बंगाली भद्र लोक (अधिकांश ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्य) का निर्माण करती है, उसकी भीतरी संरचना घोर जातिवादी-पितृसत्तावादी (मध्यकालीन) रही है।

आजादी के बाद 34 वर्षों तक कायम वामपंथी सत्ता  नैतिक तौर पर जितनी मजबूत रही हो, नेताओं का चरित्र चाहे जितना ईमानदार-सदाचारी रहा हो और उनके भीतर लोक-कल्याण की चाहे जितनी गहरी भावना रही हो, लेकिन उस सत्ता ने भी बंगाल के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किया। अपरकास्ट बंगाली भद्रलोक का बंगाली समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों पर वर्चस्व कायम रहा। हां, यह सच है कि वामपंथ ने एक राजनीतिक शुचिता और लोक-कल्याणकारी राज्य कायम करने की कोशिश की, लेकिन यह राजनीतिक शुचिता भी शीर्ष स्तर के नेताओं तक सीमित थी। स्थानीय स्तर पर पार्टी के नेता और कार्यकर्ता विभिन्न रूपों में सत्ता का फायदा उठाकर धन उगाही से लेकर सब कुछ करते रहे। राजनीतिक शुचिता की धज्जियां उड़ायी जाती  रहीं। वामपंथ के हाथ से जब सत्ता तृणमूल के हाथ में गई तो वामपंथ के इन स्थानीय वर्चस्वशाली सत्ताधारियों का एक बड़ा हिस्सा तृणमूल में चला गया है और बाद में रातों-रात उसका एक बड़ा हिस्सा भाजपाई बन गया। सत्ता की मलाई के लिए।

अपरकास्ट विचारधारा और भौतिक वर्चस्व वाले प्रदेश भाजपा के प्रवेश के लिए सबसे अनुकूल जगहें हैं, क्योंकि यहीं से वह खाद-पानी प्राप्त करती है, इन्हीं के बीच हिंदू-मुस्लिम का कार्ड खेलना भी आसान होता है। इसके साथ भाजपा जातीय-नृजातीय समीकरणों का खेल खेलती है। फिर हिंदुत्व और जातीय-नृजातीय समीकरणों का मेल बैठाती है। लंबे समय से उपेक्षित और हाशिए पर फेंकी गई जातियां और समुदाय भाजपा में अपने लिए जगह देखते हैं, भाजपा  विकास का ख्वाब भी दिखाती है। इस पूरे काम में आरएसएस के लाखों स्वयंसेवक रात-दिन एक कर देते हैं, कार्पोरेट अपनी तिजोरी खोल देता है और अपनी मीडिया को भाजपा को सौंप देता है। रही-सही कसर केंद्रीय एजेंसियां और चुनाव आयोग पूरा कर देता है। अपरकास्ट के ऐतिहासिक वर्चस्व वाली ऐसी ही माकूल जमीन भाजपा को बंगाल में मिली और उसने उसका अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया। अपरकास्ट के वर्चस्व वाली ऐसी जमीन उसे अभी केरल-तमिलनाडु में नहीं मिल पा रही है, इसके चलते अन्य सारे उपकरण कारगर नहीं हो पा रहे हैं।

अपरकास्ट विशेषाधिकार और वर्चस्व वाली जमीन बंगाल में भाजपा की सफलता का राज छिपा है। ऐसा नहीं है कि यह वर्चस्व सदा से रहा है, राजनीतिक तौर पर यह वर्चस्व सत्तारूढ़ होने के अर्थ में बंगाल विभाजन के बाद से ही कायम हो पाया। बंगाल विभाजन से पहले जितने भी चुनाव हुए, उसमें अपरकास्ट के वर्चस्व वाली कांग्रेस अपनी सरकार कायम नहीं कर पाई थी, क्योंकि मुस्लिम और दलित अविभाजित बंगाल में बहुमत में थे और उनके गठजोड़ की सत्ता कायम होती थी। भारत शासन अधिनियम 1935 के तहत 1937 में हुए चुनाव में बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार बनी थी। अविभाजित बंगाल में दलित राजनीति कितनी ताकतवर थी, इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर भी वहीं से पहली बार 1946 में संविधान सभा के सदस्य के रूप में चुने गए। जोगेंद्र नाथ मंडल बंगाल में दलित राजनीति के सबसे बड़े चेहरे बने और भारत विभाजन के पश्चात जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तानी सरकार में कानून मंत्री बने।

बंगाल के तथाकथित भद्रलोक की आधुनिकता और पुनर्जागरण-ज्ञानोदय के समानांतर दलितों का नमोशूद्रा आंदोलन भी 1827 में ही शुरू हो गया था। जिसने गैर-ब्राह्मणवादी मतुआ पंथ की स्थापना की। जिसके संस्थापक हरिचंद्र ठाकुर थे। इस पंथ ने ब्राह्मणवाद को पूरी तरह खारिज कर दिया था और समता-बंधुता आधारित समाज की स्थापना के लिए संघर्ष किया। नमो शूद्रा आंदोलन का केंद्र आज का बांग्लादेश (अखंड भारत का पूर्वी बंगाल) था। नमो शूद्रा आंदोलन राजनीतिक तौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता का भी सूत्र बना था। जिसे बाद में जोगेंद्र नाथ मंडल ने विकसित किया। बंगाल विभाजन ने इस समुदाय को बुरी तरह से बिखेर दिया था। नमोशूद्रा आंदोलन में वास्तविक पुनर्जागरण के बीज तत्व थे, लेकिन पश्चिम बंगाल के भद्र लोक के विशेषाधिकार और वर्चस्व कायम रखने की चाहत ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया और बंगाली आधुनिकता, पुनर्जागरण-ज्ञानोदय के नाम पर अपरकास्ट मर्दों के विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने वाले वैदिक धर्म या हिंदू धर्म के मूल तत्वों की रक्षा में अपनी सारी शक्ति लगा दी। जाने-अनजाने यही काम 35 वर्षों से वामपंथी शासन में भी हुआ। अनार्य नायक महिषासुर का वध करती दुर्गा बंगाली संस्कृति की प्रतीक बन गई और इसमें वामपंथियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। बंगाल में आरएसएस-भाजपा के बढ़ते वर्चस्व को इसी वैचारिक पृष्टभूमि में देखा जा सकता है।

सच यह है कि भारतीय ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की पहली संस्था सत्य शोधक समाज था। जिसकी स्थापना 24 सितंबर 1873 को फुले दंपत्ति ने किया था। वर्ण-जाति व्यवस्था एवं ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और उन्हें समर्थन देने वाले धर्म, उनके धर्मग्रंथों और ईश्वर को खारिज किए बिना, इसकी जगह  तर्क, समता, स्वतंत्रता और मनुष्य के विवेक को जगह दिए बिना भारत को मध्यकालीन युग से बाहर निकालना संभव नहीं था, और न ही इसके बिना ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की शुरुआत हो सकती थी।

भारत की देशज, मध्यकालीन वर्ण-जातिवादी एवं पितृसत्तावादी विश्वदृष्टि ( ब्राह्णवादी विश्वदृष्टि) को आधुनिक युग में पहली बार फुले दंपत्ति ने चुनौती दिया। जिन्होंने सत्य शोधक समाज (24 सिंतबर1873) के माध्यम से वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को निर्णायक चुनौती दी और तर्क, विवेक और समता-आधारित आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखी और ज्ञानोदय एवं पुनर्जागरण की शुरुआत की। उन्होंने स्त्री-पुरुष समता की पूर्ण स्थापना के लिए सत्य शोधक विवाह पद्धति भी स्थापित की।

          जोतीराव फुले के ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की परंपरा को शाहू महाराज, डॉ. आंबेडकर, अयोथी थास, पेरियार, श्रीनारायण गुरु, अय्यंकली, संतराम बी.ए., मंगू राम, स्वामी अछूतानंद, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, शहीद जगदेव प्रसाद, महाराज भारती आदि बहुजन नायकों ने आगे बढ़ाया। बंगाल (आज का पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश) में इसे नमो शूद्रा आंदोलन ने एक नई उंचाई दी थी।

लेकिन भारतीय ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा जमाए दक्षिणपंथियों (जैसे राधाकृष्णन), उदारवादियों (जैसे विपिन चंद्र) और वामपंथियों (जैसे सुमित सरकार और अयोध्या सिंह) ने राजा राममोहन राय की हिंदू पुनरुत्थानवादी परंपरा को भारत के ज्ञानोदय-पुनर्जागरण की परंपरा के रूप में स्थापित किया और भारत में वास्तविक ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की परंपरा को किनारे लगा दिया। सच यह है कि उसे नोटिस लेने लायक भी नहीं समझा। सुमित सरकार ने बहुत बाद में जाकर अपनी भूल को थोड़ा दुरुस्त करने की कोशिश की। आश्चर्यजनक तो यह है कि सबसे सम्मानित और चर्चित वामपंथी पुरोधा देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय (भारतीय दर्शन) और के. दामोदरन (भारतीय चिंतन परंपरा) जैसे लोग भी अपनी किताबों में फुले, पेरियार, आंबेडकर, अयोथी थास, श्रीनारायण गुरु और अय्यंकली जैसे लोगों का नाम लेना भी उचित नहीं समझते हैं, आधुनिक युग के सामाजिक सुधारकों में ईश्वरचंद विद्यासागर, विवेकानंद और गांधी आदि को स्थापित करते हैं। राजनीति में हिंदू पुनरुत्थानवादी धारा का प्रतिनिधित्व तिलक और गांधी ने किया।

जब दक्षिणपंथ, उदारपंथ और वामपंथ सभी मिलकर कमोवेश हिंदू पुनरुत्थानवादियों को ही ज्ञानोदय-पुनर्जागरण के वाहक के रूप में स्थापित कर रहे थे, तो चाहे-अनचाहे नतीजे के तौर पर हिंदू पुनरुत्थानवादी (संघ) को स्थापित होना ही था और आज वह पूरी तरह हो गया। संघ का वर्चस्व इसका जीता-जागता सबूत है। उसी का एक विस्तारित रूप हम पश्चिम बंगाल में देख रहे हैं।

ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की देशज बहुजन परंपरा में ही वे बीज तत्व हैं, जिनके आधार पर भारत का आधुनिकीकरण किया जा सकता है, उसी परंपरा का विकास एक हद तक केरल और तमिलनाडु में हुआ है। लेकिन जातीय श्रेष्ठताबोध के संस्कारों में पले-बढ़े अपरकास्ट के बौद्धिक वर्ग के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल था और आज भी है, और दुर्भाग्य से आज भी यही लोग भारत के बौद्धिक वर्ग के रूप में कमोवेश अपना वर्चस्व कायम किए हुए हैं।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जंग का एक मैदान है साहित्य

साम्राज्यवाद और विस्थापन पर भोपाल में आयोजित कार्यक्रम में विनीत तिवारी ने साम्राज्यवाद के संकट और इसके पूंजीवाद में बदलाव के उदाहरण दिए। उन्होंने इसे वैश्विक स्तर पर शोषण का मुख्य हथियार बताया और इसके विरुद्ध विश्वभर के संघर्षों की चर्चा की। युवा और वरिष्ठ कवियों ने मेहमूद दरवेश की कविताओं का पाठ किया। वक्ता ने साम्राज्यवाद विरोधी एवं प्रगतिशील साहित्य की महत्ता पर जोर दिया।

Related Articles

साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जंग का एक मैदान है साहित्य

साम्राज्यवाद और विस्थापन पर भोपाल में आयोजित कार्यक्रम में विनीत तिवारी ने साम्राज्यवाद के संकट और इसके पूंजीवाद में बदलाव के उदाहरण दिए। उन्होंने इसे वैश्विक स्तर पर शोषण का मुख्य हथियार बताया और इसके विरुद्ध विश्वभर के संघर्षों की चर्चा की। युवा और वरिष्ठ कवियों ने मेहमूद दरवेश की कविताओं का पाठ किया। वक्ता ने साम्राज्यवाद विरोधी एवं प्रगतिशील साहित्य की महत्ता पर जोर दिया।