Tuesday, April 23, 2024

और अब रणभूमि में नग्नवीर

नग्न होना अचानक चर्चा में आ गया है। स्त्रियों की उघड़ी हुई त्वचा दिख जाए, इसके लिए पहले ही हाहाकार मचा हुआ था और अब एक दूसरे से भी बराबरी करने कुछ नर नग्नवीर भी रणभूमि में कूद गए हैं। तस्वीरें और सोशल मीडिया पर हड़कम्प देखकर भीतर का चिंतक हरकत में आ गया। कई बातें दिमाग में आईं। तस्वीर से संबंधित भी और असंबंधित भी।

कुछ साल हुए, कुंभ मेले में एक साधु आया हुआ था। मेरे डॉक्टर मित्र के पास। वह आम सरकारी डॉक्टर नहीं, बड़ा दयालु है, मन में करुणा है। अपने रोगियों के  कंधे पर हाथ रखता है। उनकी आंखों में झांक कर बात करता है। तो यह जो साधु आए थे वे थे नंग-धड़ंग नागा, उम्र थी 24-26 वर्ष। डॉक्टर मित्र ने उन्हें छूकर पूछा, ‘बाबा कैसे हैं?’ बाबा उछलकर दो फीट पीछे जा कूदे, गिरते-गिरते बचे। बोले, ‘तेरी यह हिम्मत, मुझे कैसे छू लिया तूने! फिर आंखें तरेर कर, करीब चीख़ते हुए बोले, ‘पवित्र हूं मैं, तू जानता है मुझे, पावन हूं। मुझे छूने का मतलब तुझे पता नहीं।‘ अब डॉक्टर परेशान। समझा-बुझाकर दूसरे डॉक्टरों ने मामला शान्त किया। ऐसे लोगों के लिए कबीर ने लिखा था: मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा। यह भी लिख सकते थे: दम्भ न उतार्यो, उतार्यो जोगी कपड़ा।

वस्त्र उतारना तो आसान है। हां, सार्वजनिक रूप से उतारने में थोड़ी शर्म की बात है और इसके लिए शायद थोड़ा दिमागी संतुलन भी इधर-उधर होना चाहिए। यह गहरा विश्वास कि लोग मेरे नग्न शरीर को देखकर उसे पसन्द करेंगे, इसके लिए एक खास किस्म की आत्ममुग्धता भी जरूरी है। या इस बात की परवाह न करना कि लोग क्या सोचेंगे, इसके लिए भी दूसरों के लिए एक खास तरह की रुग्ण उपेक्षा भी चाहिए मन में।

मज़ेदार बात यह भी है धर्म के नाम पर आप कपड़े उतार सकते हैं। नंगापन चरम त्याग का प्रतीक बन जाता है। नागा साधुओं के कई अखाड़े हैं देश में। नंगा रहना वहां एक सामान्य बात है। पर वे नग्नता को विरक्ति या ‘फक्कड़’ होने का प्रतीक मानते हैं। कपड़े तो वे उतार फेंकते हैं पर कपड़े फेंक देने का अहंकार नहीं त्याग पाते। अब मोक्ष तक पहुंचने में बेचारे कपड़े किस तरह बाधा बनते हैं, ये तो बताना मुश्किल है।

नंगापन, नग्नता, नंगई ये सारे शब्द मन में तुरंत विचारों का एक प्रचंड वेग शुरू कर देते हैं। याद आने लगती हैं कविताएं, शेर, दृष्टान्त, लतीफे और न जाने क्या-क्या। जब कोई विवादास्पद ऐक्ट्रेस कम कपड़े पहन ले, या फिर कोई कलाकार न्यूड पेटिंग्स बनाए, या फिर कोई नेता संसद में, या उसके बाहर नंगई पर उतर आए तो तुरन्त शोर-गुल होने लगता है। इस शब्द और इसके क्रियान्वयन के प्रति आकर्षण की जड़ें हमारे मानस में गहराई से दबी हैं। सकारात्मक और नकारात्मक आकर्षण दोनों ही।

एक ईसाई पादरी था। धर्म का प्रचार करने वह अफ्रीका जा पहुंचा। वहां जब आदिवासियों को निर्वस्त्र देखा तो बड़ा हैरान हुआ। उसने सोचा कि धरम-करम होगा बाद में, पहले उनको कपड़े पहनाए जाएं। वास्तव में उसकी फिक्र यह भी रही होगी कि जब श्रोताओं ने कपड़े ही न पहने हों तो धर्म-प्रचारक बातें करे कि कहीं और ध्यान दे। तो उसने अपने पश्चिमी देश से पहले ब्रा मंगवाई और फिर लोगों को खासकर महिलाओं को बडे़ विस्तार से समझाया कि क्यों कपड़ा पहने बगैर घूमना सभ्यता के विरुद्ध है। ईश्वर के राज्य में प्रवेश भी असंम्भव है। फिर उसने ब्रा बंटवाई और दूसरे दिन जब वह प्रवचन के लिए आया तो देखकर हैरान रह गया कि स्त्री-पुरुष सभी ब्रा को सिर पर बांधे हुए बैठे थे।

एक फिल्म में नंगे दृश्य देखकर एक आलोचक बोल उठा, ‘इसमें तो पैन्टस (आहें) सुनाई ज्यादा पड़ रही हैं, पर पैन्टस दिखाई नहीं दे रहे।’ अब आप चाहे जैसे भी अपनी बात रखें, सच तो यही है कि हमाम में सभी नंगे हैं और हमारे जन्मदिन के कपड़े वास्तव में कपड़े होते ही नहीं! द नेकेड एप की भूमिका में डेस्मंड मोरिस लिखता है, ‘बंदरों की 193 जीवित प्रजातियां हैं, जिनमें से 192 के जिस्म बालों से ढंके हैं । इनका अपवाद है एक ऐसी प्रजाति जो खुद को होमो सेपियन कहती है।’ आप समझ रहे होंगे कि आधुनिक मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियन्स ही है।

इस नंगेपन का एक दार्शनिक पहलू भी है। विलियम ब्लेक स्त्री की नग्नता में एक दैवीय मासूमियत देखता है। एक मशहूर शेर भी है, ‘तन की उर्यानी से बेहतर नहीं लिब़ास कोई, ये वह जामा है जिसका नहीं सीधा-उल्टा’। शेक्सपियर कहता है कि ‘कपड़े अक्सर इंसान के चरित्र के बारे में बता देते हैं’। अपनी पुस्तक सरटोस रेसर्टस में थॉमस कार्लाइल अपने वस्त्र दर्शन के बारे में समझाते हैं और कहते हैं कि वस्त्र तो खोखली परम्पराओं के प्रतीक हैं और जो आध्यात्मिक प्रगति के इच्छुक हैं उन्हें इनको यानी कि परम्पराओं को उतार फेंकना चाहिए। बताते हैं कि एक बार बर्नार्ड शॉ एक पार्टी में गए और उनके विचित्र कपड़े देखकर लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया तो वह वहां से वापस लौट गए। थोड़ी देर बाद अच्छे कपड़े पहनकर आए और अपने कपड़ों पर सारा भोजन लपेट दिया, यह कहते हुए, ‘कपड़ों, तुम्हें बुलाया गया है’ तुम्हीं खाना खाओ।’

एशिया में नग्नता का धार्मिक महत्व भी गहरा है। अपने गृहत्याग के 13वें महीने में महावीर ने अपने वस्त्रों का त्याग किया और बाकी जिन्दगी बिना कपड़ों के रहे । उनका ज़ोर था अपरिग्रह पर। …और निर्वस्त्र रहना अपरिग्रह की चरम स्थिति है, जिसके बगैर कैवल्य की प्राप्ति नहीं सम्भव। गीता तो यहां तक कहती है कि यह शरीर ही एक तरह का वस्त्र है जिसे मृत्यु के समय त्यागना पड़ता है। यानी शरीर वस्त्र है और आत्मा वस्त्र के भीतर हमारी देह है। जिस तरह हम पुराने कपड़ों को फेंक देते हैं उसी तरह आत्मा पुरानी देह को उतार फेंकती है।

मोक्ष ही जीवन का अन्तिम पुरुषार्थ है, और देर-सबेर सबको मोक्ष की ही तरफ जाना है और मोक्ष तो तभी संभव है जब आपकी रूह पूरी तरह से हर वस्त्र को, जिसने उसे अविद्या के कारण पहन लिया है, फेंक दे, यानी वह नग्न हो जाए । इसका अर्थ यही हुआ कि जाने-अनजाने हम सभी उसी आध्यात्मिक नंगेपन की ओर बढ़ रहे हैं । सिर्फ कपड़े उतार कर क्या होना है? अपने विचारों को, अपने पूर्वाग्रहों को और अपने अतीत को और उसमें जमे संस्कारों को भी जब तक उतार कर न फेंका जाए, तब तक क्या होना है? सब कुछ आधा-अधूरा ही रहना है। नग्नता भी हो तो पूरी हो, सिर्फ निम्नांगों को दिखाकर क्या शूरवीर बन गए? 

कपड़ों को लेकर, उनको उतारने और उनको उतार फेंकने के गहरे निहितार्थों पर सोचें तो आत्ममिलन शीर्षक से अमृता प्रीतम की एक प्रेम कविता याद आती है-

मेरी सेज हाजिर है, पर जूते और कमीज़ की तरह

तू अपना बदन भी उतार दे

उधर मूढे़ पर रख दे

कोई ख़ास बात नहीं

यह अपने-अपने देश का रिव़ाज है

(चैतन्य नागर लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। आप आजकल प्रयागराज में रहते हैं।)

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