नेहरू जयन्ती विशेष : आधुनिकता,धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव के प्रतिनिधि

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आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरू भारतीय पुनर्जागरण के सर्वोत्तम के प्रतिनिधि थे ,यह बात अलग है कि यूरोप के पुनर्जागरण की तुलना में प्रकृति, मौलिकता और सृजनशीलता के संदर्भ में भारतीय जागरण सीमित और पंगु था।

औपनिवेशिक स्थिति और पूंजीवाद के अवसान काल में जन्मे राष्ट्रवादी जागरण में न तो वह आवेग था, न ही जुझारूपन, न मौलिकता और न ही सृजनशीलता।‌ फिर भी जागरण तो था, उसकी अभिव्यक्तियां थीं, उसकी वाहक शक्तियां थीं और व्यक्ति थे।

जवाहरलाल नेहरू को अतीत से प्यार था ही, भविष्य से और सबसे ज़्यादा वर्तमान से भी। आज संघ परिवार के निशाने पर अगर सबसे ज़्यादा कोई व्यक्ति है, तो वे नेहरू ही हैं।

क्या कारण है कि संघ परिवार ने गांधी, अम्बेडकर, सरदार पटेल और सुभाषचन्द्र बोस जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को काफ़ी हद तक अपने में आत्मसात कर लिया, परन्तु लगता है कि नेहरू का प्रेत उनका पीछा ही नहीं छोड़ रहा है? 

वास्तव में इसके पीछे नेहरू की आधुनिकता और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की वे नीतियाँं हैं, जिसका संघ परिवार घोर विरोधी है। इसकी जड़ों को तलाशने के लिए हमें भारतीय इतिहास का विश्लेषण करना पड़ेगा। बहुत से लोग यह आरोप लगाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू भारत में सच्ची धर्मनिरपेक्षता की नीतियों को लागू नहीं कर सके।

सर्वधर्म समभाव की नीतियों ने बहुसंख्यक वर्ग को फ़ायदा पहुंचाया,प रन्तु यह विश्लेषण एक तरह से सतही है। धर्मनिरपेक्षता या ‘सेकुलरिज्म’ की अवधारणा मूलतः यूरोप में या कहें, फ्रांस में 1779 की क्रांति के गर्भ से पैदा हुई। मध्यकालीन यूरोप में चर्च का जबरदस्त प्रभाव था।‌

राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता था। वेटिकन सिटी के पोप राजाओं को सत्ता पर उठाते-बैठाते थे। फ्रांस की क्रांति केवल निरंकुश लुई की सत्ता के ख़िलाफ़ नहीं थी, वह चर्च के वर्चस्व के ख़िलाफ़ भी थी। क्रांति के‌ बाद दुनिया में पहली बार वहां पर धर्मनिरपेक्ष संविधान लागू हुआ तथा उस आधुनिकता की नींव पड़ी, जो तर्क, बुद्धि और विवेक से संचालित होती थी।

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘विश्व इतिहास की एक झलक’ में यूरोप में मध्यकाल में चल रहे धार्मिक युद्धों का वर्णन किया है तथा फ्रांस की क्रांति की बहुत प्रशंसा की‌ है। 

परन्तु क्या आज धर्मनिरपेक्षता की‌ यह अवधारणा दुनिया भर में सफल हुई? आज जैसे-जैसे आर्थिक संकट बढ़ रहा है। यूरोप,अमेरिका,एशिया, अफ्रीका तथा दुनिया भर में दक्षिणपंथी शक्तियां सिर उठा रही हैं, हर जगह धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ रही है।

यूरोप-अमेरिका तक इससे अछूते नहीं हैं, यहां भी एक बार फिर चर्च का दक्षिणपंथी सत्ताओं के साथ गठजोड़ देखने में आ रहा है। भारत जैसे बहुधर्मी-बहुजातीय तथा अनेक राष्ट्रीयता वाले देश में साम्प्रदायिकता की जड़े इतिहास में रही हैं।

उपनिवेशवादियों द्वारा इस उपमहाद्वीप का आज़ादी के समय धर्म के नाम पर विभाजन, दो राष्ट्रों का जन्म, परिणामस्वरूप लाखों लोगों की हत्याएं तथा विस्थापन विश्व इतिहास की दुखद घटनाओं में से एक है, इन सबमें सबसे बड़ी बात हिन्दू फासीवादियों द्वारा गांधी की हत्या।

ऐसी स्थिति में धर्मनिरपेक्षता की नीति को लागू करना एक कठिन समस्या थी। आज तो साम्प्रदायिकता की घटनाएं एक राष्ट्रीय परिघटना बन गई है तथा हिन्दू फासीवादी तत्व सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए हैं और फासीवादी एक धार्मिक राष्ट्र की स्थापना का स्वप्न देखने लगे हैं।

 तो क्या ! इसके लिए नेहरूवादी सर्वधर्म समभाव-धर्मनिरपेक्षता की नीति जिम्मेदार है? परन्तु इसका उत्तर इतना सरल नहीं है। ‘मीनू मसानी’ जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ को ‘मार्क्सवादी मुहावरा’ करार दिया था।

उनके अनुसार कृष्ण मेनन ने धर्मनिरपेक्षता शब्द नेहरू को सुझाया था और इसका बार-बार इस्तेमाल करके एक पूरी पीढ़ी को इस भ्रम में डाल दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है।

हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता क्या है? इसको लेकर काफी भ्रम फैला हुआ है।‌ मसानी का कहना सही था कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जो गांधी जी की भांति सभी धर्मों के लिए समान आदर देखने को कहता है। दूसरे शब्दों में सभी धर्मों के प्रति समभाव; जो कि ‘एक धर्म से दूसरे धर्मों पर वर्चस्व के फ़र्क के चीज़’ की बात कही गई है।

इस प्रकार के रवैए को धर्मनिरपेक्ष कहना सही नहीं है,न कि यह कहना ठीक है कि यह मार्क्सवादी मुहावरा है।

 ईश्वर और राज्य के क्षेत्र,धर्म और राजनीति अलग-अलग हैं। सेकुलरिज्म का अर्थ है सांसारिकता; जो धर्मनिरपेक्ष है। यूरोप में धर्म और राजनीति के बीच सदियों के तालमेल से धर्मनिरपेक्षता की वह अवधारणा विकसित हुई, जिसमें धर्म की कोई भूमिका नहीं थी, बल्कि धर्म उस परिधि से बाहर था,यहां तक कि सेकुलरिज्म धर्मविरोध तक जाता है।

आधुनिक धारणा के अनुसार राज्य को धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं होता, धर्म व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत मामला होता है। भारत में ऐसी सोच कभी जीवन में रच-बस नहीं पाई, यहां धार्मिक उदारता या धर्म सहिष्णुता का महत्त्व रहा है, जिसके नाते ‘सर्वधर्म समभाव’ या अक़बर के ‘सुलह-ए-कुल’ को आदर्श माना जाता रहा है।

नेहरू व्यक्तिगत जीवन में यूरोपीय अर्थों में सेकुलर थे, पर नीति के संदर्भ में सर्वधर्म समभाव की अवधारणा के आगे समर्पण करते रहे। सेकुलरिज्म का यही अर्थ लगाया जाता रहा है, इससे एक पाखंड विकसित हुआ ‘कथनी-करनी में अंतर। इस पाखंड नीति का परिणाम अब सामने है।

सरकारी योजनाएं नारियल फोड़कर भूमिपूजन और मंत्रोच्चार से शुरू होती हैं, इस नीति का सबसे ज़्यादा फ़ायदा बहुसंख्यक वर्ग को होता है। नेताओं की मृत्यु होने पर सभी धर्मों के भजन-प्रवचन का जितना भी प्रदर्शन कर लिया जाए, दूसरे धर्म वालों को यह पक्का विश्वास है कि भारत की सरकार हिन्दू है, उधर हिन्दू उनके विरोधी होने की दलील देते हैं।

नेहरू का विचार था,“अल्पमत के साथ व्यवहार के सैकड़ों तरीके हैं, परन्तु एक जनवादी व्यवस्था में बहुमत धार्मिक बहुमत के रूप में काम करने लगे, तो यह ख़तरनाक बात होगी।”(नेहरू की जीवनी,एस गोपाल)

 क्या आज की स्थिति के लिए जवाहरलाल नेहरू ही जिम्मेदार हैं? अगर भारतीय समाज को देखें तो सदियों से यह एक गैर-आधुनिक समाज रहा है। राष्ट्रीय आंदोलन में भी हिन्दू धार्मिक प्रतीकों का‌ इस्तेमाल किया जाता रहा है। गांधीवादी आंदोलन ने भले ही पूरे देश को एकजुट किया हो, लेकिन आज़ादी किसी क्रांतिकारी तरीके से न मिलकर एक समझौते से मिली।

जिसके फलस्वरूप भारत का विभाजन हुआ। दो धर्म दो राष्ट्र होते हैं, इसके तहत पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र बना और भारत में भी हिन्दूवादी तत्वों की पूरी कोशिश थी कि पाकिस्तान की तरह इसे भी हिन्दूराष्ट्र बनाया जाए, इसके लिए उस समय वे पूरा ज़ोर लगा रहे थे।

कांग्रेस तक में हिन्दूवादी तत्वों का बहुमत था। भारतीय समाज में मौजूद पिछड़े और गैर-आधुनिक मूल्यों से संघर्ष करना एक बड़ी चुनौती थी। आधुनिकता, तर्क,बुद्धि,विवेक और सच्ची धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई उस समय केवल कम्युनिस्ट ही कर सकते थे, लेकिन अनेक ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों से वे ऐसा न कर‌ सके, इसलिए जैसी भी धर्मनिरपेक्षता की नीति लागू हुई हो, इसके लिए नेहरू को ही श्रेय दिया जा सकता है।‌

अगर फासीवादी तत्व आज देश को तमाम कोशिशों के बाद भी हिन्दूराष्ट्र में नहीं बदल पा रहे हैं, तो इसके लिए नेहरू द्वारा लागू की गई धर्मनिरपेक्षता की नीति ही जिम्मेदार है, चाहे इसका स्वरूप जो भी हो।‌ यही कारण है कि आज फासीवादियों को नेहरू का भूत सबसे ज़्यादा आतंकित करता है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में एक सच्ची आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई ही नेहरू को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(स्वदेश सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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