Friday, March 29, 2024

नई शिक्षा नीति 2020: शिक्षा को कॉरपोरेट के हवाले करने का दस्तावेज


केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 को क्यों और किसके हित में बनाया है, इसको समझने के लिए मोदी सरकार के कुछ पुराने निर्णयों को देखना समझना होगा। इस सरकार की नीतियों को समझने के लिए अब हमें नए तौर-तरीके और विश्लेषण के तरीके सीखने होंगे।

किसी भी शिक्षा नीति को कैसे समझा जाए, इसके लिए शिक्षा नीति के दस्तावेज को पढ़ते समय दो लाइनों के बीच में जो कोरी जगह है उसे पढ़ने और समझने की कोशिश करनी चाहिए। यानी कोरे स्थान पर जो लिखा है यदि हमने उसे पढ़ना सीख लिया तो सारी शिक्षा नीति को समझ जाएंगे। अब सवाल उठता है कि कोरी जगह पर तो कुछ लिखा नहीं होता है तो क्या पढ़ें। इसका जवाब यही है कि नई शिक्षा नीति 2020 में जो नहीं लिखा गया है, जिसे छिपाया जा रहा है उसे ही समझने और पढ़ने की जरूरत है। और वह बहुत ही महत्वपूर्ण है।

नई शिक्षा नीति 2020 का ट्रेलर जून माह में समझ में आ गया था, जब भारत सरकार ने छह राज्यों की स्कूली शिक्षा को बदलने के लिए विश्व बैंक से समझौता किया था। विश्व बैंक और विदेशी शक्तिओं के इशारे पर देश की शिक्षा व्यवस्था पर लगातार हमला जारी है। सबसे पहले नब्बे के दशक में 18 राज्यों की शिक्षा व्यवस्था पर हमला किया गया। दूसरी बार सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर और तीसरी बार अब नई शिक्षा नीति के माध्यम से सारे स्कूलों का निजीकरण और भगवाकरण करने की साजिश रची जा रही है।

अभी हाल ही में सरकार ने सीबीएसई के 9वीं से 12वीं के कोर्स में तीस फीसदी की कटौती कर दी। कोर्स से ऐसे विषयों को निकाला गया जो आरएसएस के एजेंडे में रोड़ा था। कहा गया कि कोविड की वजह से कोर्स पूरे नहीं हुए हैं इसलिए इसे हटाया जा रहा है। मोदी ने कोविड आपदा को अवसर में बदल दिया। जो पाठ्यक्रम उनकी राजनीति के अनुरूप नहीं था उसे कोर्स से ही हटा दिया।

अब देखिए सीबीएसई के कोर्स से क्या हटाया गया है। आजादी की लड़ाई में जातिवादी-साम्यवादी विमर्श समानांतर चले हैं। इन दोनों विमर्शों को हटा दिया गया। देश की संघीय संरचना के पाठ को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। संविधान के पहले अनुच्छेद में साफ-साफ लिखा है कि भारत राज्यों का संघ होगा। यह बात आरएसएस-बीजेपी के विचार से मेल नहीं खाता है। संघ परिवार राज्यों के संघ वाले भारत को नहीं अखंड भारत की बात करते है। जिस तरह से वे देश का केंद्रीयकरण चाहते हैं उसी तरह शिक्षा का भी केंद्रीकरण चाहते हैं। फासीवादी विचारधारा केंद्रीकरण में विश्वास करता है।

सीबीएसई के पाठ्यक्रम से विकासवाद का सिद्धांत हटाया गया। बंदरों से मनुष्यों का विकास इनकी सोच और आस्था के विपरीत है। इनके एक मंत्री ने तो विकासवाद के सिद्धांत को ही गलत ठहराया दिया था। प्राकृतिक संसाधनों को कैसे संरक्षित करें, को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। श्रम कानूनों को समाप्त कर दिया। पर्यावरण की रक्षा करने वाले कानूनों को कमजोर कर दिया।

दरअसल, इनका एजेंडा देश के संसाधनों को कॉरपोरेट के हवाले करना, स्किल्ड इंडिया के तहत सस्ता श्रमिक तैयार करना है। विचारवान लोग हिंदूवादी तानाशाही स्थापित करने का विरोध करते हैं। ये सारे पाठ इनके विचारधारा और राजनीति के प्रतिकूल थे। इसलिए उसे हटा दिया गया।

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 29 जुलाई को नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी। एचआरडी मंत्रालय की वेबसाइट पर 24 घंटे तक नई शिक्षा नीति 2020 का कोई ड्राफ्ट नहीं था। जून में जिस ड्राफ्ट पर सहमति बनी थी उसमें छह पेज का एक नया अध्याय- 9.8 जोड़ा गया। इस पर कभी कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं हुई थी। सवाल उठता है कि जब यह अध्याय इतना ही जरूरी था तो दिसंबर के ड्राफ्ट में यह क्यों नहीं था।

दरअसल इस अध्याय की प्रस्तावना एक मई को प्रधानमंत्री जी ने दिया इसलिए इसे जोड़ा गया। एक मई को अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा कि ऑनलाइन एजूकेशन नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का सारतत्व होगा। ऑनलाइन एजूकेशन शिक्षा के बुनियाद को बदल कर रख देगी। भारत विश्व भर में “ज्ञान महाशक्ति” के रूप में उभरेगा। और भारत “नॉलेज सुपर पॉवर” बन जाएगा।

उसी समय इंटरनेट पर मुझे एक रिपोर्ट पढ़ने को मिली। उस रिपोर्ट में लिखा है कि आने वाले 4 वर्षों में भारत में 15 बिलियन यूएस डॉलर का नया बिजनेस ऑनलाइन एजूकेशन बनेगा। ऐसे ही नहीं गूगल के सीईओ से प्रधानमंत्री मीटिंग कर रहे हैं।

यूजीसी ने सभी केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन परीक्षा लेने का आदेश जारी किया है। आठ राज्यों ने ऑनलाइन परीक्षा लेने से इनकार कर दिया है। दरअसल कॉरपोरेट का दबाव है कि ऑनलाइन एजूकेशन और एग्जाम को बढ़ावा दिया जाए।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति ने पिछले वर्ष मानव संसाधन विकास मंत्री को नई शिक्षा नीति का मसौदा सौंपा था। यह ड्राफ्ट 484 पेज का था। अब सरकार ने 66 पेज की रिपोर्ट जारी की है। इसे कस्तूरीरंगन रिपोर्ट पर आधारित कहा जा रहा है। यह गलत है और सच्चाई छिपाई जा रही है।

नई शिक्षा नीति में निजी विश्वविद्यालयों की बहुत बात की गई है। शिक्षा को समतामूलक होने की बात है, बराबरी की बात है। शिक्षा को मुनाफे का जरिया नहीं बनना चाहिए, लेकिन ये सब कैसे होगा। इस पर कुछ नहीं कहा गया है। क्या सरकार प्राइवेट यूनिवर्सिटी पर रोक लगाने जा रही है, लेकिन ऐसा नहीं होने जा रहा है। अडाणी-अंबानी के सीएसआर फंड से विश्वविद्यालय बनेंगे और उन्हें सरकारी अनुदान भी मिलेगा। एक तरफ टैक्स बचेगा और दूसरी तरफ सरकार से भी पैसा मिलेगा और निजी विश्वविद्यालय,कॉलेज और स्कूल महंगी फीस भी वसूलेंगे।

नई शिक्षा नीति में आधुनिक पुस्तकें और अतिरिक्त पुस्तकें बनवाने की बात है। ये अतिरिक्त पुस्तकें क्या हैं? ये अतिरिक्त पुस्तकें कोर्स से बाहर की पुस्तकें हैं जो सरकारी खर्चें पर छपवा कर छात्रों को पढ़ने के लिया दिया जाएगा। ये संघ साहित्य होगा।

ऑनलाइन एजूकेशन के लिए अभी देश तैयार नहीं है। बहुत से परिवारों के पास स्मार्ट फोन नहीं है। इसके साथ ही समावेशी शिक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है। ये समावेशी शब्द संविधान में नहीं है। संविधान में समान शिक्षा की बात है। कोठारी आयोग ने भी एक समान शिक्षा की बात कही थी।

आज देश के 14 लाख विद्यालयों में 11 सौ केंद्रीय विद्यालय और सात सौ नवोदय विद्यालय हैं जो किसी भी पब्लिक स्कूल की तुलना में अच्छे हैं। जरूरत है सारे विद्यालयों को केंद्रीय विद्यालयों के समतुल्य करना। लेकिन समावेशी शिक्षा के नाम पर सरकार शिक्षा को निजी हाथों में सौंपना चाह रही है। समावेशी शब्द नवउदारवादी एजेंडा है।

नई शिक्षा नीति 2020 में पारदर्शिता की बात है, लेकिन सेल्फ रेगुलेशन पर जोर है। जो संस्थान सेल्फ रेगुलेशन करेंगे क्या वहां परादर्शिता होगी। इसके साथ ही विदेशी विश्वविद्याल खोलने की बात है। कई लोगों ने लेख लिख कर विदेशी विश्वविद्यालय खोलने की योजना को “खूबसूरत विचार” बताया है। और लिखा कि क्या यह संभव है कि हमारे देश में हावर्ड और अमेरिका-यूरोप के विश्वविद्यालयों की शाखा खुल सकेंगी। फिर आगे लिखा कि एकदम संभव है।

अब आप देखिए, कई विकासशील देशों में विदेशी विश्वविद्यालय खुल रहे हैं। भारत औऱ अफ्रीका में ज्यादा खुल रहे हैं। ऐसे विश्वविद्यलायों पर यूनेस्को की एक रिपोर्ट कहती है कि, “ विकसित देशों की कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय विकासशील और गरीब देशों में कैंपस खोलकर घटिया शिक्षा दे रहे हैं। ऐसे विश्वविद्यालय अपने देश में अलग और विकासशील देशों में अलग शिक्षा देते हैं।”

केवल सुविधाओं से अच्छे विश्वविद्यालय नहीं बनते हैं। हर विश्वविद्यालय की ज्ञान, विश्वसनीयता और परंपरा की एक विरासत होती है। कोई विश्वविद्यालय रातों-रात नहीं बनता है। कोई भी संस्थान लंबे समय में प्रतिष्ठित बन पाते हैं। जेएनयू, हैदराबाद, पंजाब, धारवाड़ आदि विश्वविद्यालयों ने एक मानक स्थापित किया है। देश छह पुराने आईआईटी, टाटा और भाभा रिसर्च सेंटर में मिलने वाले ज्ञान को पैसों से नहीं तौल सकते।

1990 के बाद देश की शिक्षा व्यवस्था पर नव उदारवादी हमला तेज हुआ है। विश्वविद्यालयों को अपना खर्चा स्वयं जुटाने की बात हो रही है। इसके लिए कुलपतियों को विश्वविद्यालय की जमीन को गिरवी रखने तक को कहा गया।

ऐसे में शिक्षा पर हो रहे हमले के विरोध में कोई कुलपति, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्री नहीं लड़ेगा। अध्यापक संघ, छात्र संघ औऱ संगठन और युवा संगठन ही इसके विरोध में लड़ेंगे। इस लड़ाई में आमजन का समर्थन हासिल करना होगा। आमजन के साथ ही भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों का मार्ग अपना कर हम इस लड़ाई को जीत सकते हैं अन्यथा लड़ाई बहुत कठिन हैं।

आमजन के समर्थन की बात मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि जेएनयू को एक समय इतना बदनाम कर दिया गया था कि मेट्रो में एक व्यक्ति ने जेएनयू के कुछ छात्रों को देशद्रोही कहा। जब हमने उन महोदय से बात करते-करते समझाया तो उन्होंने कहा कि ऐसा मैं मीडिया रिपोर्टों के हवाले से कह रहा था। अच्छा हुआ आपने मेरी शंका का समाधान कर दिया। इस तरह से आरएसएस हर आंदोलन, संगठन, संस्थान, व्यक्ति औऱ विचार को बदनाम करने में लगी है, जो उसके विचार का विरोधी है।
(प्रो. अनिल सद्गोपाल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं और लंबे समय से शिक्षा पर काम कर रहे हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

‘ऐ वतन मेरे वतन’ का संदेश

हम दिल्ली के कुछ साथी ‘समाजवादी मंच’ के तत्वावधान में अल्लाह बख्श की याद...

Related Articles