नयी शिक्षा नीतिः ज्ञान-विज्ञान की कब्र पर फूटेगी पोंगापंथ की अमरबेल

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आखिरकार भारतीय जनता पार्टी ने अपने चिरपरिचित अंदाज, जिसमें प्रचार पर ज्यादा जोर रहता है ठोस बात कम होती है, में नई शिक्षा नीति की घोषणा कर दी है। घोषणा के लिए प्रेसवार्ता में देश के पर्यावरण मंत्री केन्द्रीय भूमिका में थे और मानव संसाधन मंत्री, जो अब शिक्षा मंत्री कहलाएंगे, सहयोगी भूमिका में।

नई शिक्षा नीति ने प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को अपना उद्देश्य घोषित किया है। मगर यह साफ नहीं है कि आखिर बिना सामान शिक्षा प्रणाली लागू किए यह कैसे हासिल होगा? दुनिया भर के अनुभवों से तो यही पता चलता है कि निजी विद्यालय शिक्षा के सार्वभौमीकरण के रास्ते में रुकावट ही रहे हैं। आखिर देश के हर शहर के मुख्य चैराहों पर भीख मांगते बच्चे या बाल मजदूरी करते बच्चे कैसे शिक्षा पाएंगे? नयी शिक्षा नीति इस पर खामोश है।

लगता है नीति निर्माताओं ने इस सच को स्वीकार कर लिया है कि उनकी पहुंच सारे बच्चों तक नहीं हो सकती है, इसलिए जुबानी जमा-खर्च से ही औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। इसके लिए जरूरी राजनीतिक इच्छा शक्ति पूरी तरह नदारद है। अभी तो सरकार निजी विद्यालयों में न्यूनतम 25 प्रतिशत स्थानों पर अलाभित समूहों और कमजोर वर्ग के बच्चों को प्रवेश दिला पाने में भी नाकाम है।

1968 में कोठरी आयोग ने शिक्षा का बजट सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत करने की अनुशंसा की थी, जिस मानक का पालन दुनिया के बहुत से देश करते हैं। मगर भारत की सभी सरकारों ने इस संस्तुति को नजरअंदाज ही किया है। नई शिक्षा नीति में पूर्व प्राथमिक अर्थात विद्यालय में प्रवेश से पूर्व तीन प्रारंभिक साल शिक्षा के साथ जोड़ दिए गए हैं, जो पहले महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के समेकित बाल विकास कार्यक्रम या आंगनबाड़ी के नाम से जाना जाता था।

सरकार उसके बजट को जोड़ कर शिक्षा के बजट को सकल घरेलू उत्पाद के 4.3 प्रतिशत से बढ़ाकर छह प्रतिशत करने का दावा कर रही है। ठीक वैसे ही जैसे कि लम्बे समय से किसानों को लागत का डेढ़ गुणा दाम देने की मांग को पूरा करने का भ्रम पैदा किया गया, जिसमें लागत निकालते समय कुछ खर्च शामिल ही नहीं किए गए।

नई शिक्षा नीति में शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा करने को बहुत बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, जब कि यह बात कहते-कहते शिक्षाविद थक चुके हैं। असली चुनौती तो इसे धरातल पर उतारने की है। क्या निजी विद्यालय इसे लागू करेंगे या शिक्षा नीति का माखौल उड़ाते हुए अंग्रेजी माध्यम जारी रखेंगे? योगी आदित्यनाथ की सरकार ने आते ही उत्तर प्रदेश में 5000 प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम कर उसे अपनी उपलब्धि बताया।

पारंपरिक ज्ञान और संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें करना एक बात है और लोगों के बीच उसकी स्वीकार्यता दूसरी। जब भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में सफल होने के लिए, चिकित्सक, अभियंता और प्रबंधक बनने के लिए अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य है तो कौन माता-पिता नहीं चाहेगा कि उसका बच्चा अंग्रेजी माध्यम से पढ़े। बिना उपर्युक्त जमीनी सच्चाई को बदले मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाई को बढ़ावा देने की बात करना बेमानी है।

तीन भाषा फार्मूला तो बहुत पुराना है और तमिलनाडू राज्य द्वारा इस नीति का विरोध भी पुराना है। हकीकत यह है कि विशेषकर हिंदी भाषी राज्यों ने कभी इसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं दिखाई, नवोदय विद्यालयों के अपवाद को छोड़ कर। हिंदी भाषी प्रदेश के बच्चे विद्यालय में हिंदी के अतिरिक्त भला कौन सी भारतीय भाषा सीखते हैं?

यहां तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाने की औपचारिकता पूरी की जाती है, जिसका ज्ञान बच्चे के पास इतना होता नहीं कि वह उसका अपने जीवन में कोई व्यवहारिक उपयोग कर सके। इससे तो अच्छा होता कि उर्दू ही सिखा देते जिसका बच्चा कम से कम अपने जीवन में इस्तेमाल तो कर पाता। ऐसा लगता नहीं कि इस स्थिति में कोई बदलाव आने वाला है।

विद्यालय के भवन को सामाजिक चेतना के केंद्र के रूप में प्रयोग करने का सुझाव दिया गया है। यह राजनितिक-सामाजिक तौर पर प्रभावशाली लोगों और जिस राजनीतिक दल की सरकार है उसके द्वारा समर्थित संगठनों को विद्यालय का गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए उपयोग करने का मौका देना है, जो कि विद्यालयों के पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में विघ्न डालने का काम करेगा, जब कि विद्यालयों और शिक्षकों पर पहले ही सरकार द्वारा बहुत सारे गैर-शैक्षणिक कार्यों को करने का दबाव है।

माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर व्यवसायिक शिक्षा का पाठ्यक्रम लाना भी कोई नयी बात नहीं है। यह तो गांधीजी के दर्शन पर आधारित शिक्षा, नई तालीम, का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। वर्धा में तो नई तालीम का विद्यालय जो दशकों पहले शुरू हुआ था आखिरकार बंद हो गया, क्योंकि ऐसे विद्यालय में पढ़ाने में माता-पिता की कोई रुचि नहीं थी।

उत्तर प्रदेश समेत देश के दूसरे बहुत से प्रदेशों के बोर्ड पहले से ही व्यवसायिक पाठ्यक्रम चला रहे हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसन्धान परिषद् ने सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया है। इसके सफल न होने का कारण हमारी जातिवादी व्यवस्था में जकड़े समाज में श्रम का सम्मान न होना है। विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही श्रम को हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसा पाठ्यक्रम केवल एक औपचारिकता पूरी करने से ज्यादा और कुछ भी नहीं होगा।

नई शिक्षा नीति बार-बार प्राचीन गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति (मध्ययुगीन और आधुनिक नहीं) का उल्लेख करती है, मगर वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का जिक्र एक दो बार ही करती है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस एजेंडे को आगे बढ़ाने की बात लगती है जो तथ्यात्मक इतिहास या ज्ञान-विज्ञान के बजाए पौराणिक कथाओं और कल्पनाओं को महिमा मंडित करता है।

विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में लाने की बात और आत्मनिर्भर भारत की कल्पना में विरोधाभास है। उच्च स्तरीय विदेशी विश्वविद्यालयों का देश में प्रवेश स्वदेशी विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए बहुत नुकसानदेह साबित होगा। देश के ज्यादातर प्रतिभावान छात्रों और शिक्षकों को विदेशी संस्थान अपनी ओर आकर्षित कर लेंगे। 

देखना यह भी है कि जैसे प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश के लिए दरवाजे खोलने के बाद भी जितना उम्मीद थी उतना निवेश नहीं हुआ वास्तव में कितने विदेशी शैक्षणिक संस्थान भारत में व्यावसायिक दृष्टि से निवेश को तैयार होंगे। संस्थान निर्माण की मेहनत करने के बजाये सरकार विदेशी संस्थानों से प्रतिस्पर्धा के बल पर देशी संस्थानों की गुणवत्ता बढ़ाना चाह रही है।

यह दांव उल्टा पड़ने की ज्यादा सम्भावना है। शिक्षा के निजीकरण से अमेरिका के शीर्ष विश्वविद्यालयों में मात्र कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले ही एक सार्वजनिक संस्थान बचा है। क्या सरकार यहां भी ऐसी स्थिति लाना चाह रही है?

नई शिक्षा नीति बहुत सी नियामक संस्थाएं बनाने की बात करती है। भारत को इन नियामक संस्थाओं का बहुत कड़वा अनुभव रहा है। ये भ्रष्टाचार के केंद्र रहे हैं जहां सरकारें अपने खास लोगों को बैठाकर उपकृत करती है और नियंत्रण के नाम पर स्वायत्त संस्थानों के साथ खिलवाड़ करती है।

भाजपा सरकार के आने के बाद से कई विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले कुलपतियों की नियुक्ति के बाद ऐसे नजारे देखने को मिले हैं। समस्या की जड़ शिक्षक के समर्पण की कमी है। शिक्षा को बच्चों के लिए आनंददायक बनाने की आदर्श बातों का तब कोई मतलब नहीं रह जाता जब तक अध्यापक के लिए शिक्षण गतिविधि प्राथमिकता न हो।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरकार को उन शिक्षकों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करने का कोई उपाय नहीं पता जो कोरोना महामारी के आने से पहले से ही घर से काम करने के आदी हैं, यानी वास्तव में बच्चों को बिना पढ़ाए वेतन लेते हैं।

बच्चों के पास अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल करके किसी तरह परीक्षा उतीर्ण करने के अलावा भला क्या उपाय है, जिसमें अध्यापकों की भी पूरी भागीदारी रहती है। निजी कोचिंग या संविदा शिक्षक जैसी कुप्रथाओं पर कैसे रोक लगेगी इस पर नई शिक्षा नीति मौन है। ये वो जमीनी सच्चाइयां हैं जिसे नीति निर्माता नजरअंदाज करते आए हैं।

  • संदीप पाण्डेय और प्रवीण श्रीवास्तव

(संदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के उपाध्यक्ष हैं और प्रवीण श्रीवास्तव लखनऊ के क्वींस कालेज में भौतिक शास्त्र के प्रवक्ता हैं।)

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