तीनों सूबों में नये चेहरों का मतलब सूबों से लेकर केंद्र तक मोदी-शाह की सत्ता

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नई दिल्ली। मतगणना के 10 दिन बाद मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को अपना मुख्यमंत्री मिल गया। बुधवार को मोदी-शाह की उपस्थिति में दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की ताजपोशी भी हो गयी। छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय और मध्य प्रदेश में मोहन यादव मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके हैं। राजस्थान में भी मुख्यमंत्री का नाम सार्वजनिक हो गया है। भजनलाल शर्मा भी जल्द ही राजस्थान के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ही लेंगे। तीनों राज्यों को नए मुख्यमंत्री मिले हैं, अनुभवी नेताओं और पूर्व मुख्यमंत्रियों के स्थान पर भाजपा हाईकमान ने नए, अनुभवहीन और जनाधारविहीन नेताओं को तरजीह दी है। राजस्थान के घोषित मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा तो पहली बार ही विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि तीनों राज्यों में तमाम अनुभवी और जनाधार वाले नेताओं के होने के बावजूद पार्टी नेतृत्व ने अपेक्षाकृत कमजोर और अनुभवहीन नेताओं को प्रदेश की कमान क्यों सौंप दी?

दरअसल, यह नई भाजपा है। भाजपा के नए युग का सूत्रपात 2014 से शुरू होता है जब लालकृष्ण आडवाणी के स्थान पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी घोषित किया गया था। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद मोदी-शाह की जोड़ी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को कोई पद देने की जगह मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया था। भाजपा के नीति और नेतृत्व में व्यापक परिवर्तन किया गया। पार्टी को अटल-आडवाणी की छाया से निकाल कर मोदी-शाह के कदमों में झुकने को मजबूर कर दिया गया। राजस्थान में वसुंधरा राजे, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को दरकिनार करके पार्टी में घोषित रूप से अटल-आडवाणी युग को समाप्त कर दिया गया। अब केंद्र से लेकर राज्य तक, संगठन से लेकर सरकार तक में मोदी-शाह युग के नेता को ही वरीयता मिलेगी।

भाजपा हाईकमान लंबे विचार-विमर्श के बाद तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के नामों की जो घोषणा की है, उसमें सिर्फ मुख्यमंत्री ही नहीं हैं बल्कि उप-मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्षों के नाम भी घोषित किए गए हैं। पार्टी ने जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए तीनों राज्यों में दो-दो उप-मुख्यमंत्री भी घोषित किए हैं। लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में कमजोर व्यक्ति को ही चुना गया है। इसका सीधा कारण है कि मोदी-शाह ने चुनाव से ज्यादा चयन को महत्व दिया है। आमतौर पर मुख्यमंत्री वहीं बनता है जो विधायक दल का नेता होता है। लेकिन देश की राजनीतिक पार्टियों में यह परंपरा अब समाप्त हो गयी है। पार्टी हाईकमान जिसका चयन कर लेता है वही विधायक दल का नेता चुन लिया जाता है।

मोदी-शाह ने तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन के साथ ही पार्टी के अंदर अपने विरोधियों- प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के साथ ही विपक्ष की रणनीति को भी मात दे दी है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव प्रचार में कांग्रेस नेता राहुल गांधी जाति जनगणना और नौकरियों से लेकर संसद-विधानसभाओं में पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व का सवाल उठा रहे थे। लेकिन छत्तीसगढ़ में आदिवासी, मध्य प्रदेश में पिछड़ा और राजस्थान में ब्राह्मण चेहरा देकर भाजपा ने कांग्रेस समेत विपक्ष को निरुत्तर कर दिया है। संघ-भाजपा निचले स्तर से लेकर सत्ता के शीर्ष तक दलित, पिछड़े और आदिवासी चेहरे को आगे कर रही है। यह अलग बात है कि संघ-भाजपा और मोदी-शाह की राजनीतिक प्रणाली में ऐसे लोगों को वास्तविक अधिकार नहीं दिया जाता है। पर्दे के पीछे से नौकरशाहों के माध्यम से उस संस्था को चलाया जाता है। यही हाल अब राज्यों का भी होने वाला है। दिल्ली से अब राज्यों की सत्ता संचालित होगी।

राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि यह सब लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। राज्यों में अपने मनमाफिक व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाकर मोदी-शाह की जोड़ी लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा लाभ लेना चाहती है। दरअसल तीनों राज्यों में जिस तरह से जाति को ध्यान में रखकर मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्षों को बनाया गया है, उससे भाजपा यह संदेश देना चाहती है कि वह सभी जातियों-समुदायों को साथ लेकर चलने में यकीन करती है।

लेकिन मोदी-शाह के निर्देश पर जिस तरह से मुख्यमंत्रियों के नाम तय किए गए वह स्वयं भाजपा के साथ ही देश के लोकतंत्र के लिए भी ठीक नही है। लोकतंत्र का मतलब यह नहीं होता है कि सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति जो चाहा मनवा लिया। लोकतंत्र और चुनाव का मतलब होता है कि सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की अनिच्छा के बावजूद कोई छोटा या आम कार्यकर्ता भी बड़ी कुर्सी तक पहुंच जाए।

संघ-भाजपा के अंदर 10 दिनों तक पर्दे के पीछे चले सत्ता-संघर्ष में क्या एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री तो दूसरी तरफ नए चेहरे और आम कार्यकर्ताओं के पीछे केंद्रीय सत्ता के सबसे मजबूत दो चेहरे नहीं थे? सीधे तौर पर यह तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों की जगह तीन नए चेहरों को लाना नहीं बल्कि संगठन और सरकार में दो केंद्रीय चेहरों को स्थापित करने का एक और सुनियोजित चाल थी। जिससे देश का लोकतंत्र थोड़ा और लहूलुहान हुआ है।

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प्रदीप सिंह https://www.janchowk.com

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

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