Thursday, March 28, 2024

तानाशाही की रात, कोहरे की क़ैद और अलां रेने

तानाशाह किस हद तक बर्बर, अमानवीय और हिंसक हो सकते हैं इसके दो बड़े उदाहरण अतीत से उठाकर हम हमेशा इस्तेमाल करते रहे हैं उनमें से एक है ‘हिरोशिमा’ और दूसरा ‘आउशवित्स’ (नाज़ी यातना शिविर)। इस साल आउशवित्स यातना शिविर को आजाद कराए जाने की 75वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। 27 जनवरी 1945 को सोवियत सैनिकों ने आउशवित्स यातना शिविर को आजाद कराया था। लेकिन इससे पहले वहां अनुमानित दस लाख लोगों की हत्याएं हुईं, उनमें से ज्यादातर यहूदी थे। कैंप को आजाद कराए जाने के दिन वहां सोवियत सैनिकों को सात हजार लोग मिले थे।

इनमें से ज्यादातर कुछ समय बाद ही भूख, बीमारी और थकान से मर गए। (इसी तर्ज़ पर भारत सरकार ने भी असम के गोलपुर, तेज़पुर, जोरहाट, डिब्रुगढ़, सिलचर और कोकराझाड़ में उन लोगों के लिए कैदगाहें खड़ी की हैं जिनके पास नागरिकता प्रमाण पत्र नहीं हैं) 1955 में इस ‘आउशवित्स’ पर फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव फ़िल्मकार अलां रेने (3 जून 1922 – 1 मार्च 2014) को मिला तो उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उन्हें यातना शिविरों का कोई सीधा अनुभव नहीं था। जब निर्माताओं ने इस प्रोजेक्ट से पटकथा के लिए कवि-उपन्यासकार ज्यां कॉयरॉल के जुड़े होने की बात रेने को बताई तो वह मान गए। कॉयरॉल स्वयं इन शिविरों में यातनाएं झेल चुके थे और 1946 में माउदाउसन के यातना शिविर से जीवित लौटने के बाद उनकी लिखी हुई कविताओं का संग्रह ‘पोएम्स ऑफ द नाइट एंड ऑफ द फॉग’ (रात और कोहरे की कविताएं) रेने पढ़ चुके थे। उन्होंने वह कवितायें दोबारा पढ़ीं। वह इन कविताओं से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी फ़िल्म का नाम भी ‘नाइट एंड फॉग’ रखना तय कर लिया था।

दुनिया में अलां रेने जैसे बहुत से महान फ़िल्मकार हुए हैं, जिनकी फ़िल्में आम आदमी को समझ में नहीं आतीं। उनकी फ़िल्में बहुत से फ़िल्मकारों को भी समझ में नहीं आतीं। इसमें उन फ़िल्मकारों या फ़िल्मों का कोई दोष नहीं है। फिल्म देखना भी एक कला है और जरूरी नहीं कि हरेक व्यक्ति इस कला में पारंगत हो। ऐसे ही शास्त्रीय संगीत भी बहुत से लोगों को समझ नहीं आता, पर सुनना अच्छा लगता है। यही बात राजनीति के ऊपर भी लागू होती है। आम आदमी फ़ासीवाद, नाज़ीवाद, वामपंथ, दक्षिणपंथ तो क्या लोकतन्त्र और गणतन्त्र का फर्क भी नहीं जानता। यह भ्रांत चेतना ही है जिसकी वजह से किसी भी तानाशाह के लच्छेदार जुमलों के चंगुल में यह आम आदमी आसानी से फँस जाता है। जैसे आज फँसा हुआ है। 

कोरोना महामारी ने आते ही शासकों को जो उनका मनचाहा तोहफ़ा दिया है, वह तानाशाही है। इस महामारी की आड़ में नागरिकता कानून विरोधी जामिया और जेएनयू के बच्चों को गिरफ्तार करके जेलों में ठूँसा जा रहा है। बेखौफ़ होकर मज़दूरों को मौत के मुँह में धकेला जा रहा है और कई राज्यों में दिहाड़ी का समय आठ घंटे से बदल कर 12 घंटे किया जा रहा है। ताकि भूख से इस कदर बदहाल  और लाचार हो जाएँ कि गुलामी की जंजीरें खुद अपने गले में डाल लें।

संविधान और तमाम लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर या यों कहें कि लोकतन्त्र को ही सिरे से खारिज करके जो व्यवस्था अब लंबे समय तक चलने वाली दिखाई देती है उसे आप चाहे सर्व सत्तावाद, नाज़ीवाद, फ़ासीवाद या तानाशाही जो भी नाम दे दें लेकिन एक बात तय है कि व्यवस्था का यह रूप धड़ल्ले से इसलिए भी सामने आ खड़ा हुआ है क्योंकि सत्ताधारी जानते हैं कि इस समय विरोध करने के लिए कोई सड़कों पर उतरने वाला नहीं है और बालकनी और गेट पर खड़े होकर काला झण्डा दिखाने से भी कुछ होने-जाने वाला नहीं है। ऐसे दौर में फ़िल्मसाज़ अलां रेने और उसकी फिल्मों का स्मृतियों में कौंधना स्वाभाविक है क्योंकि अलां रेने के पास बैठ कर ही समझा-जाना जा सकता है कि तानाशाही की चरम भयावहता क्या होती है? उनकी फिल्में हमें यह समझने में मदद करती हैं कि यहूदी-आर्य, हिन्दू-मुस्लिम, ब्राह्मण-दलित आदि की नफ़रत भरी राजनीति कैसे अच्छे भले मानुष को अमानुष बना देती है। 

अपनी फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ के लिए नाज़ी यातना शिविरों के बारे में जानकारी इकट्ठी करते समय, अलां रेने के ख़्वाबों की धरती पर यंत्रणाओं के ज्वालामुखी फूटने लगे थे। अपने दुःस्वप्नों की ताब ना बर्दाश्त करते हुए वह अक्सर रातों को नींद से जाग जाया करते थे। हर रचनाकार अपने भीतर के दर्द को अपने सृजन में उड़ेलकर उससे मुक्त हो जाता है। शायद यही वजह रही होगी कि जब रेने ‘आउशवित्स’ के शिविर की शूटिंग करने लगे, अवचेतन में उन दुःस्वप्नों ने दस्तक देना बंद कर दिया। ऐसा क्यों हुआ होगा यह बात फ़िल्म को देखकर ही समझी जा सकती है क्योंकि ‘नाइट एंड फॉग’ नाज़ी यातना शिविरों के यथार्थ से अधिक, उन शिविरों की स्मृति है और स्मृतियाँ, वैचारिक कोहरे की क़ैद से भी मनुष्य को मुक्त करती हैं।  

रेने ने महसूस किया कि डॉक्युमेंट्री निर्माण की प्रचलित तकनीकें इस भयावह विषय की वृहदता को समेट नहीं पाएँगी सो उन्होंने शिविरों की पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट छवियों के साथ वर्तमान की रंगीन धूसर छवियों को पिरोया। जैसे इन दिनों भारत के कोने-कोने से पलायन कर रहे मजदूरों को देख कर हमारे जेहन में 1947 के विभाजन के बाद हुए पलायन की तस्वीरें अक्सर बिजली की तरह कौंध जाती हैं। विभाजन से जुड़ी हेनरी कार्टिएर ब्रेसाँ की वह तमाम छवियाँ जो कई जगह छपीं और रावी पार करते हुए शरणार्थियों के देखे वह दृश्य भी जो कहीं नहीं छपे, पर बहुतों की स्मृतियों में आज भी घुले हुए हैं और घुले रहेंगे। 

मैं विभाजन के बाद रावी दरिया के उस पार से आई एक शरणार्थी माँ की संतान हूँ। मैंने विस्थापन का दर्द माँ की कोख में ही भोगा है। मैंने अपने बुज़ुर्गों की आँखों से रावी के किनारे बैठे परित्यक्त-परित्रस्त भूखे बूढ़ों को मुठ्ठियां भर-भर रेत खाते हुए भी देखा है और आज आज़ादी के इतने बरसों बाद सड़क पर मरे हुए कुत्ते का माँस खाते हुए भूखे श्रमजीवी को भी देख रहा हूँ। स्मृतियों में घुली हुई अतीत की छवियों में और वर्तमान में सामने आ रही छवियों में एक चीज साझी है और वह है बँटवारा। तब देश बाँटा गया था, आज राज्य बाँटे जा रहे हैं। इन बँटवारों का सबसे ज्यादा शिकार वह लोग होते हैं जिन्होंने बँटवारे का फैसला नहीं किया होता और जिन्हें कुछ भी हासिल नहीं होना होता। रेने को भी हम ‘नाइट एंड फॉग’ में कैमरे की आँख से अपने वर्तमान को अतीत की छवियों के साथ कुछ दूर और कुछ पास रखकर अंतराल को गढ़ते हुए देखते हैं। इस तरह एक डिस्टेन्सिंग टेक्निक से वह भयावहता को अमूर्त करके उसका प्रभाव और बढ़ा देते हैं ताकि हम भविष्य में तानाशाहों का साथ देने की वही गलतियाँ फिर से न दोहराएँ।  

भारत में वही गलतियाँ आज भी दोहराई जा रही हैं। ‘सोशल डिस्टेन्सिंग टेक्निक’ का इस्तेमाल कोरोना काल से पहले भी किया जा रहा था। अब लॉकडाउन काल में और परिष्कृत ढंग से किया जा रहा है। जब साल की शुरुआत में ‘गोली मारो … को’ के नारों की बुनियाद पर खड़ी की गयी दिल्ली की हिंसा में धर्मांधता के सहारे सोशल डिस्टेन्सिंग पैदा करने की कोशिश की गई और अब कोरोना काल में शाहीन बाग के नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनकारियों को झूठे मुकदमों में फंसाकर, जेल में डाल कर डिस्टेन्सिंग टेक्निक का मोदी सरकार एक नए सिरे से इस्तेमाल कर रही है। तानाशाहों के लिए यह बहुत आसान होता है क्योंकि सत्ता उनके हाथ में होती है और दमन उनके लिए एक खेल होता है।

लेकिन सृजनशील व्यक्तित्वों के लिए यह काम बहुत जटिल होता है क्योंकि उन्होंने सत्ता के भीतर के खेल को उघाड़ना होता है और सृजन उनके लिए चुनौती होता है। इसी चुनौती की वजह से रेने फ़िल्म के सम्पादन के समय निरंतर एक द्वंद्व से होकर गुजरे। बाज़ार की ताक़तें आपके ऊपर हमेशा हावी रहती हैं कि आप एक उत्पाद को चमकदार और आकर्षक बनाएँ। रेने जानते थे अगर इसे चमकदार बनाने का प्रयास किया गया तो इसमें से यातना की अनुभूति फीकी पड़ जाएगी। उन्होंने समय के यथार्थ को वैसा ही रहने दिया जैसा उन्होंने अपने सपनों में उसे भोगा था। 

रेने की फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ में ‘आउशवित्स’ में बंदियों के टूटे चश्मे, सूटकेस, अपाहिज लोगों को मारने से पहले छीन लिए गए उनके कृत्रिम लिंब, कुछ टूटे बरतन, किसी बच्ची को मारने से पहले उससे छीनकर फेंकी हुई एक टूटी हुई गुड़िया, वीरान नाज़ी गैस चैंबर और लाशों के ढेर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाबा आदम सिद्धांतकार सावरकर के आदर्श पुरुष हिटलर की आदमखोर ‘हेरेनवॉक’ (जर्मन आर्यजनों का रक्त संसार में सबसे पवित्र और श्रेष्ठ है) मानसिकता की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियाँ बयान करते हैं। अंतिम दृश्यों में जब हिटलर के अधिकारी इस जनसंहार से मुकरते दिखाई देते हैं तो राजनीतिक दार्शनिक हान्ना एरेंत याद आती हैं।

फ़ासीवाद के जर्मन संस्करण नाज़ीवाद द्वारा चलाई गई इस क्रूर यहूदी विरोधी मुहिम के कारण उन्हें भी अपना देश छोड़ना पड़ा था लेकिन बाद में जब हिटलर के प्रमुख हत्यारे आइखमैन पर मुकदमा चला तो हान्ना एरेंत ने उसका बचाव करते हुए कहा था ‘आइखमैन के हत्यारे कारनामों के पीछे कोई सोची-समझी दुष्टा ना हो कर एक ऐसे नौकरशाह की विवेकहीनता थी जो आँख बंद करके आदेशों का पालन कर रहा था। इस नाज़ी नौकरशाह में अपने कृत्यों के तात्पर्यों को समझने की क्षमता का अभाव था’। जरा कल्पना कीजिए क्या आने वाले दिनों में अगर फिर से पुराने केस खुलें तो कोई भारतीय चिंतक-दार्शनिक गुजरात के आईजी पुलिस डीजी वंजारा के लिए यही बात कह सकता है? 

फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ पूरी होने के बाद निर्माता अनातोले डाउमन ने अलां रेने से कहा ‘यह फ़िल्म बनाकर मैं बहुत खुश हूँ, पर गारंटी देता हूँ, यह कभी सिनेमा हॉल का मुँह नहीं देखेगी।’ फ़िल्म को सेंसर से लड़ना पड़ा। फ़िल्म के अंत में लाशों के ढेर को बुलडोजर से सामूहिक कब्रों में गिराए जाने के दृश्य हैं। सेंसर ने इसे फिल्म में दिखाने को बहुत हिंसक माना। जैसे देश की अदालतें आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज या वरवर राव आदि को बहुत हिंसक मानती है। कोरोना के खतरे का संज्ञान लेते हुए अदालत के कहने पर 11 हजार अपराधियों को तो जेल से छोड़ दिया गया है। जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा पर भी रहम खाकर उसे छोड़ दिया गया है लेकिन यह बुद्धिजीवी लोग जो सोचते बहुत हैं और बात-बात पर नुक्ताचीनी करते हैं चूंकि तानाशाहों की निगाह में सबसे खतरनाक होते हैं इसलिए न्यायाधीशों के भी संज्ञान-क्षेत्र से बाहर हैं। 

वो फ्रेंकफ़र्ट स्कूल वाले ज्यादा सयाने थे। हिटलर ने जब तलवार सान पर चढ़ाई ही थी तो थियोडोर एडोर्नो, हान्ना आरंट, वाल्टर बेंजामिन, हर्बर्ट मार्क्यूज़, एरिक फ़ॉम और मैक्स होर्खाइमर आदि बहुत से विद्वान चुपचाप जर्मनी से निकल लिए थे। जिन्हें काबू कर लिया गया उन्हें बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी। अलां रेने की फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ हमें विस्तार से उस चुकाई गई कीमत का लेखा-जोखा चिन्हित करती है, जो हरेक उस शख़्स को चुकानी पड़ती है जो तानाशाही के इस पागलपन में शामिल नहीं होता है। यही बात अलां रेने की फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ भी बयान करती है। 

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब नाज़ियों ने पेरिस खाली करवा लिया था और मार्शल फिलिप पेतेन की अगुआई वाली सरकार विची नामक ‘कब्जे से बाहर मुक्त शहर’ में सिमट कर रह गई थी। खुद बचे रहें इसलिए इन लोगों ने न सिर्फ विद्रोहियों का दमन किया बल्कि यहूदियों को नाज़ियों के हवाले करने जैसे युद्ध अपराध करते रहे। नाज़ियों के यातना शिविर भेजने से पहले यहूदियों को जिन नज़रबंदी शिविर में रखा जाता था उसमें पहरा देते फ्रेंच सिपाही को दिखाना भी सेंसर को मंजूर नहीं था जबकि रेने इस बात पर अड़े हुए थे फ्रांस के नागरिकों को देखना और जानना चाहिए कि सच क्या है? यह ऐसे ही है जैसे आने वाले दिनों में सत्ता परिवर्तन के बाद यदि दिल्ली में पिछले दिनों हुई हिंसा को लेकर कोई फ़िल्म बनती है और उसमें दिल्ली पुलिस को हिंसा करने वाली भीड़ का नेतृत्व करते हुए दिखाया जाता है तो कहा जाएगा इससे पुलिस की छवि धूमिल होगी या फिर मनोबल गिरेगा जैसी कोई बात।  

फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ को कान फ़िल्म समारोह में शामिल किए जाने पर जर्मन दूतावास ने कड़ी आपत्ति की। फ्रांस की समूची प्रेस ने फ़िल्म को समारोह से हटाये जाने की किसी भी योजना का विरोध किया। नाजी शिविरों से लौटे कैदियों के एक संगठन ने जोरदार मांग की कि फ़िल्म को दिखाया जाये, नहीं तो वे नाजी यातना शिविरों की यूनिफ़ॉर्म पहन कर कान फ़िल्म समारोह की सारी सीटों पर कब्ज़ा कर लेंगे। फ़िल्म दिखाई भी गयी, इसे सराहा भी गया और इसे पुरस्कृत भी किया गया। फ़िल्म समीक्षक और फिल्मसाज़ फ़्रांसवा त्रुफ़ों ने इसे अब तक की बनी महानतम फ़िल्म बताया।

आज भी इस फ़िल्म का शुमार कालजयी कृतियों में होता है। ध्यान देने लायक बात यह भी है कि इस फ़िल्म का निर्माण फ्रांसीसी फिल्मसाज़ रेने ने उस समय किया जब उसका अपना मुल्क फ्रांस अपने उपनिवेश अल्जीरिया के साथ लड़ रहा था विद्रोहियों के ऊपर व्यापक दमन जारी था। रेने के लिए इस फ़िल्म का एक अर्थ यह भी था कि अल्जीरिया वासियों पर अत्याचारों और यातनाओं के क्रम में फ्रांस भी नाजी यातना शिविरों के भयावह रास्ते पर था। जैसे आजकल हरेक दस कश्मीरवासी पर भारतीय सेना का एक बंदूकधारी जवान तैनात है। राजकीय दमन ने जाने कितने नौजवानों को हिंसा की अंधी गली में धकेल दिया है। 

इस लॉकडाउन में जो देश के करोड़ों मजदूरों को जिस तरह से उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर के उनको बेरोजगारी और भुखमरी की आग में इस तरह से झोंक दिया गया जैसे वह अपने ही देश में विदेशी घुसपैठिए हो गए हों। यह सिलसिला अभी तक जारी है ताकि उनका हौसला पूरी तरह से पस्त हो जाए। जहाँ बिना कहे इस नारे के तहत उनकी घेराबंदी की जाएगी ‘काम करो या मरो’। अब तो वह महंत भी कह रहा है कि हमारे राज्य से (बंधुआ) मजदूर लेने की लिए हमें दक्षिणा देनी होगी। यानि कोई किसी राज्य से बिना सरकारी इजाज़त के अपने ही देश में काम करने भी नहीं जा सकता। यह नवदासता का दौर है और यह लोकतन्त्र में नहीं, फ़ासीवाद में ही संभव है। दुनिया के  सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की सत्ता धर्म-प्रचारकों, साधु-सपेरों और महंतों के डेरों के हाथ में आ जाएगी तो इससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?

ऐसे में अलां रेने और उनकी फ़िल्म की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। फ़िल्म ‘नाइट एंड फॉग’ के साथ-साथ ‘लाइफ इज़ ब्यूटीफूल’, सोफी’स चॉइस, शिंडलर्स लिस्ट’ जैसी फ़िल्मों पर भी चर्चा होनी चाहिए ताकि विमर्श के दायरे में समकालीन तानाशाह आयें। कमलेश्वर कहा करते थे- ‘जरूरी है कि हम नृशंस नाज़ी तानाशाह हिटलर की कहानी को ना भूलें, जिसने यह स्थापित करके दिखाया था कि लोकतन्त्र की ज़मीन पर तानाशाही की फसल उगाई जा सकती है। संविधान की शपथ लेकर सत्ता में पहुँचने और फिर उसी संविधान की धज्जियाँ उड़ाकर निरंकुश तानाशाही की स्थापना कैसे की जा सकती है, यह हिटलर ने करके दिखा दिया था। हिटलर को चाहने वालों और उसके पदचिन्हों पर चलने वालों की भारत में भी कमी नहीं है। 

ऐसे में जब कोविड-19 के खौफ़ तले वैचारिकता का कोहरा घना और तानाशाही की रात लंबी होती जा रही है भारतीय साहित्य और कला के हरेक क्षेत्र में अलां रेने की तरह किसी को तो पहल करनी ही होगी। राजनीति से परहेज़ और तटस्थता एक भ्रम है। इतिहास उन्हें भी कभी माफ़ नहीं करता जो तटस्थ बने रहते हैं, इस डर से कोई उन्हें ‘अर्बन-नक्सल’ या ‘माओवादी’ ना कह दे। बक़ौल हाइनरिख ब्योल “किसी कलाकार का अंत उसकी निकृष्ट रचना से नहीं होता है बल्कि तब होता है जब वह रचने के लिए अनिवार्य जोख़िम उठाना छोड़ देता है।”

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आप आजकल लुधियाना में रहते हैं।)  

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