दोस्ती की समझ में आने वाली कोई वजह नहीं होती। दोस्ती न होने या दोस्ती टूट जाने की वजह होती है। दोस्ती अगर किसी वजह से है तो फिर इसका अर्थ है कि दो लोगों के बीच सीधा सम्बन्ध नहीं। ऐसी दोस्ती उस वजह से, उस वजह के आधार पर और उसके जरिए है। एक ही तरह की जरूरतों, आदतों, संस्कारों, विचारों पर आधारित मित्रता बस एक आरामदायक सम्बन्ध रच देती है। यह रिश्ते के एक बाजार जैसा है जिसमें हम आराम, सुकून, सुख वगैरह का सौदा कर लेते हैं। पर क्या हम स्वाभाविक रूप से मित्र हैं? किसी कारण या मकसद के बगैर भी? सिर्फ ‘मित्र’, ‘किसी के’ मित्र नहीं?
आज फ्रेंडशिप डे मनाया जा रहा है। यह एक नवोत्पन्न परंपरा है। सौ साल से भी कम पुरानी। 27 अप्रैल, 1958 को राष्ट्र संघ महासभा ने यह फैसला किया था कि हर वर्ष 30 जुलाई को मैत्री दिवस मनाया जाए पर कई देशों में अगस्त महीने के पहले रविवार को यह दिन मनाया जाने लगा। इसकी ख़ास वजह यही थी कि रविवार अवकाश का दिन होता है और दोस्तों के साथ घूमने-टहलने, बतियाने, खाने-पीने का अवकाश भी उसी दिन अधिक मिलता है। अब तो सोशल मीडिया के कारण इस तरह के ख़ास दिन बहुत अधिक चर्चा में रहते हैं, सभी उम्र के लोगों के लिए महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं।
दोस्त इंडो-ईरानी भाषा समूह का शब्द है। संस्कृत शब्द जुष्ट का अर्थ है खुश, संतुष्ट रहने वाला, मित्र, समर्थक वगैरह। पहलवी में यह जुष्ट से दोस्त में परिवर्तित हो गया। मित्र शब्द की उत्पत्ति भी संस्कृत के शब्द मैत्री में है और पाली भाषा में यह मित्रता से मेत्ता बन गया। अंग्रेजी का शब्द फ्रेंड कुछ शब्द्विदों के मुताबिक फ्री या मुक्त से सम्बंधित है। जर्मन भाषा में इसका मूल अर्थ प्रेम करना भी है।
दोस्ती यकीनन एक बेशकीमती शै होती है। मेरे विचार में दोस्त एक ऐसा इंसान होता है जो हमारे बारे में कभी किसी आखिरी नतीजे पर नहीं पहुँचता, जो हमारे आचरण और तौर-तरीकों में खामियां नहीं निकालता रहता, जो बगैर किसी मूल्यांकन और निर्णय के हमारे साथ होता है। गौर से देखें तो यही समझ में आता है कि बहुत ही कम लोग होते हैं जो हमारा आकलन किये बगैर ही हमें बस सुन सकें। हमें गलत या सही न कहें। आम तौर पर एक प्रशिक्षित मनोचिकित्सक यही करता है। वह हमारी बातों को सही या गलत साबित किए बगैर बस सुनता है, एक ख़ास तहजीब के साथ, एक विशेष किस्म की पेशेवर बारीकी के साथ। ऐसे ही सुनने वाले दोस्त आसानी से मिलें तो हमें कई तकलीफों से निजात मिल सकती है। पर हकीकत तो यही है कि अच्छे दोस्त का मिलना आसान नहीं होता। नीत्शे कहता था कि विवाह प्रेम के अभाव में नहीं बल्कि दोस्ती के अभाव में टूटते हैं। प्रेम तो अक्सर आकर्षण का ही दूसरा नाम होता है, पर मित्रता किसी सतही आकर्षण पर टिकी नहीं होती। उसकी तासीर ही अलग होती है। अक्सर सच्ची मित्रता में कोई शर्त ही नहीं होती। उसमे साथ मिलकर कुछ ढूँढने या पाने की कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं होती। वह किसी पारस्परिक सुख पर भी आधारित नहीं होती। वह बस होती है, अपने नैसर्गिक प्रवाह में, स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक, जैसे कि हमारे वास्तविक स्वभाव की ही अभिव्यक्ति हो। अच्छे मित्र की उपस्थिति में जीवन कभी भी उतना भयावह नहीं दिखता जितना कि शायद वह है।
मित्रता में मनोवैज्ञानिक निर्भरता का खतरा बराबर बना रहता है। एक बहुत बड़ा सवाल है कि क्या बगैर निर्भरता के भी मित्रता के भाव के साथ रहा जा सकता है? यदि किसी आर्थिक, सामाजिक दबाव या किसी रोग, दुर्घटना या मृत्यु के कारण मित्र हमसे दूर हो जाए तो क्या हमें भयंकर पीड़ा से होकर गुज़रना ही होगा? क्या मित्रता की अंतिम परिणति बिछोह और उससे उपजी पीड़ा में ही है? यह एक बड़ा सवाल है। क्या यह संभव है कि मित्रता हमें भीतर से इतना मजबूत बना दे कि बगैर एक दूसरे पर निर्भर हुए भी प्रेम और मैत्री का भाव बना रहे? यदि मित्रता का आधार दुःख से पलायन, सुख और सुरक्षा की खोज न हो तो फिर यह शायद संभव हो सकता है। अक्सर हम लगाव को भी मित्रता मान बैठते हैं पर लगाव आखिरकार दुःख देता है और मित्रता का दुःख और कडुवाहट में बदल जाना अक्सर अचंभित कर देता है। क्या दोस्ती और लगाव के बीच फर्क किया जा सकता है? दोस्त साथ चलता है, पर वह यह नहीं चाहेगा कि उसकी अनुपस्थिति में कोई चलना ही भूल जाए। अक्सर महसूस होता है कि मित्रता सीखने की एक प्रक्रिया है, खुद के बारे में भी और अपने मित्र के बारे में भी। और यह सीखना तब तक जारी रह सकता है जब यह समझ न आ जाए कि कोई दूसरा व्यक्ति हमसे अलग है ही नहीं। हमारे बीच के जो फर्क हैं वे सभी सतही हैं जबकि हमारी समानताएं बहुत ही गहरी हैं। इस तरह की गहरी मित्रता के भाव में किसी के दो या चार मित्र नहीं रह जाते, बल्कि सभी मित्र बस अपने स्व का ही अलग-अलग रूप बन जाते हैं। यह एक विडम्बना है, पर गहरी मित्रता के क्षणों में कोई दूसरा होता ही नहीं। मित्रता में दो हो ही नहीं सकते क्योंकि दो का अर्थ ही है विभाजन और द्वैत और जब एक ही हो तो मित्रता किसकी हो और किसके साथ हो? यह सिर्फ एक दार्शनिक, रहस्यवादी प्रश्न नहीं, बल्कि इस सवाल के साथ थोडा ठहरने का अवकाश निकाल कर हम मित्रता के गहरे आयामों को खंगाल सकते हैं। मित्रता सिर्फ मनोरंजन नहीं। यह जीवन के गहरे प्रश्नों में उतरने का अवसर भी है|
रोज़ हमारे नए दोस्त बनें, पर पुराने भी बने रहें। सिर्फ चाटुकारों को हम दोस्त न समझ लें बल्कि निंदकों को भी करीब रखें। निंदक अच्छे शिक्षक होते हैं। दोस्ती और दुश्मनी में ज्यादा फर्क न किया जाए; कभी अचानक दोनों की भूमिकाओं में अदला-बदली भी हो जाती है। एक शायर ने इसलिए लिखा भी: ‘दोस्ती जब किसी से की जाये, दुश्मनों की भी राय ली जाए’। गौरतलब है कि दोस्तों से ज्यादा हम अपने दुश्मनों के बारे में सोचते हैं। दोस्त रातों की नींद नहीं उड़ाते, बस दुश्मन ही यह महान काम कर पाते हैं। ग़ालिब ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था और इसलिए उन्होंने अपनी माशूका से गुज़ारिश की थी कि ‘क़त`अ कीजे न त`अल्लुक़ हम से, कुछ नहीं है तो अदावत ही सही’। उन्हें अच्छी तरह पता था कि अदावत का रिश्ता बड़ा मजबूत होता है, दोस्ती तो अक्सर टूट भी जाया करती है!
दोस्त कभी-कभार हमें खुद से दूर भी ले जाते हैं। ऐसा कभी हो भी जाए तो फिर करीने से तह करके हम खुद को वापस ले आयें। दोस्ती खुद से इतनी दूर न ले जाए कि हम अपनी शक्ल भी न पहचान सकें। यह ज़रूरी है क्योंकि दोस्ती के हर दिन के बाद, एक तनहा शाम आती है। जश्न का हर भड़कीला दिन अपने साथ एक बेआवाज़ रात भी लाता है, जब हम अकेले होते हैं। तो हर दोस्ती से ज्यादा ज़रूरी है कि खुद के साथ भी एक मोहब्बत भरी दोस्ती। बुद्ध कहते थे कि हमारे सबसे अच्छे मित्र और शत्रु हम खुद ही हैं।
आखिर में बस हम ही रहेंगे अपने साथ। एक-एक करके हर साथ, हर दोस्ती छूटती जायेगी। ‘अनित्य’ की चौतरफा मार के बाद बस हम ही बचेंगे, और बचेगी यह देह। हम अपना और अपनी देह का ख्याल रखें ये ज़रूरी है। जैसा रिश्ता हमारा खुद के साथ होगा, वैसा ही अपने दोस्तों के साथ। दोस्त बस एक और ‘मैं’ ही होता है। स्व का विस्तार। आपके अपने सपनो, आकाँक्षाओं, कामनाओं का प्रक्षेपण।
मित्रता के भाव में लिए बुद्ध ने ‘मेत्ता’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों से कहा कि वे सभी जीवधारियों के प्रति मेत्ता का भाव रखें। बुद्ध को मैत्रेय भी कहा जाता है, जिसका अर्थ ही है मित्र। मित्रता के भाव में अहिंसा और प्रेम भी शामिल है; इसमें करुणा का भी गहरा स्पर्श है। बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि मित्रता का सम्बन्ध मानवीय संबंधों में सबसे पवित्र होता है। पर बुद्ध ने अच्छे मित्रों के गुणों में मुदिता, प्रेम, करुणा के साथ उपेक्षा को भी शामिल किया था। यह उपेक्षा उदासीनता नहीं। इसमें निर्लिप्त प्रेम का एक भाव है। यही उपेक्षा मित्रता को मानसिक निर्भरता बनने से रोकती है। कबीर को भी इस विशेष किस्म की मैत्री की सुरभि मिल चुकी थी| इसलिए वह कहते हैं: कबिरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी खैर; न काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
(चैतन्य नागर लेखक और पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)
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