Wednesday, April 24, 2024

इन संदेशों में तो राष्ट्र नहीं, स्वार्थ ही प्रथम!

गत सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपना नौवां स्वतंत्रता दिवस संदेश देने के लिए लाल किले की प्राचीर पर पहुंचे तो शायद ही कोई देशवासी उम्मीद कर रहा हो कि उन्होंने इस दिन से पचहत्तर सप्ताह पहले आज़ादी के जिस अमृत महोत्सव का भव्य सरकारी ताम-झाम के साथ आगाज किया और समापन तक ‘हर घर तिरंगा’ जैसे बेहिसाब दिखावे में बदल दिया था (गो कि इस अवसर पर दिखावों के साथ लंतरानियों व दर्पोक्तियों से भी परहेज की जरूरत थी, ताकि आजादी के सामने मुंह बाये खड़ी नाना चुनौतियों से पार पाने पर गम्भीर चिंतन-मनन का मार्ग प्रशस्त हो सके) उसे लेकर किंचित रक्षात्मक होंगे और बतायेंगे कि उनके निकट आजादी के अमृत महोत्सव की क्या सार्थकता थी, जब उनके आठ साल के राज में ही देशवासियों की आजादी आंशिक करार दी जा चुकी है, लोकतंत्र लंगड़ा और संविधान के समता, बन्धुत्व व न्याय जैसे मूल्यों की बेकदरी असीम होकर रह गई है? 

इतना ही नहीं, जाति, धर्म व सम्प्रदाय आधारित गैरबराबरियों व भेदभावों ने इस कदर जड़ें जमा ली हैं कि पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा दलितों, वंचितों व अल्पसंख्यकों को दी गई वह गारंटी बेमतलब हो गई है, जिसमें उन्होंने आश्वस्त किया था कि स्वतंत्र भारत में उनके साथ निष्पक्ष व न्यायपूर्ण बरताव किया जायेगा और उनके नागरिक अधिकार दूसरों से कत्तई कमतर नहीं होंगे।

सच कहें तो देशवासियों की यह नाउम्मीदी ‘पहली आदिवासी महिला’ द्रौपदी मुर्मू द्वारा राष्ट्रपति के तौर पर स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर दिये गये पहले संदेश से जन्मी नाउम्मीदी से मिलकर बहुत बड़ी हो गई थी। दरअसल, राष्ट्रपति बोल रही थीं तो कई दलित-वंचित हलके बहुत आशावान थे कि वे दूसरे राष्ट्रपतियों की लकीर पीटने के बजाय कोई नया व खरा संदेश देंगी। लेकिन अब लगता है कि मुर्मू ने एहतियातन ऐसा कुछ नहीं किया और आज़ादी के 75 सालों की ‘उपलब्धियां’ भर गिनाकर अपने उन आलोचकों को सही सिद्ध कर गईं, जो पहले से कहते आ रहे थे कि सर्वोच्च पद पर आसीन होकर भी वे अपने पूर्ववर्ती रामनाथ कोविन्द की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर चलती रहने को ही अभिशप्त होंगी।   

इसे यों समझ सकते हैं कि वे अपने संदेश में हरियाणा के फरीदाबाद में स्वतंत्रता दिवस से ऐन पहले हुई उस जघन्य वारदात का जिक्र भी गवारा नहीं कर सकीं, जिसमें कुछ वहशियों ने मजदूर बस्ती की निवासिनी निर्धन विधवा मजदूर की 12 वर्ष की बेटी को दुष्कर्म के बाद मार डाला था। तब, जब वह शौच के लिए रेल की पटरी पर गई थी। खबरों के अनुसार उस मजदूर बस्ती में निजी शौचालय की कौन कहे, सार्वजनिक शौचालय भी नहीं है। वे इसकी चर्चा करतीं तो कौन जाने, इस स्थिति की शर्म न महसूस करने वाली सरकारी मशीनरी थोड़ी शर्माती। प्रधानमंत्री की शौचालय योजना की सफलता के गुन गाने वाले भी, जिनकी नायकपूजा उन्हें जमीनी हकीकतें देखने ही नहीं देती। उन्हें इसमें कुछ बुरा ही नहीं लगता कि दोषपूर्ण सरकारी नीतियों के कारण देश के कुछ ‘नागरिक’ लगातार सबल तो करोड़ों ‘गंवार’ लगातार निर्बल होते जा रहे हैं।

यों, राष्ट्रपति को ऊंच-नीच और छुआछूत की अभी तक असाध्य महामारी के आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष तक में सिर उठाये रहने को लेकर भी चिंता जताना चाहिए था। क्योंकि यह महामारी दलित व अन्य छोटी मानी जाने वाली जातियों के नागरिक अधिकारों को आज भी अपना मोहताज मानती है। तभी तो राजस्थान के जालौर में एक स्कूल के छैल सिंह नामक शिक्षक ने इन्द्र नामक दलित छात्र को इस ‘कुसूर’ में बेरहमी से पीट डाला कि उसने शिक्षक के मटके से पानी पी लिया था। खबरों के अनुसार इस शिक्षक ने स्कूल में अपने पानी पीने के लिए अलग मटका रख छोड़ा था और किसी भी दलित छात्र को उसे छूने की इजाजत नहीं थी। प्यासे इन्द्र ने उससे पानी पी लिया तो शिक्षक के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। उसने उसे इतना पीटा कि कान की नस फट गई ओर इलाज के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। 

राष्ट्रपति को पूछना चाहिए था कि अगर आजादी के 75वें साल में भी कोई शिक्षक इस कदर संकीर्णताओं से ग्रस्त है और राष्ट्रके तौर पर हम न उसका इलाज ढूंढ पाये हैं न ही बदल, तो हमें खुद को संवैधानिक लोकतंत्र कहने और आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने का क्या हक है?

लेकिन न उन्होंने अपने संदेश में इसका जिक्र किया, न ही प्रधानमंत्री ने। हालांकि भूल सुधार के तौर पर इस बार प्रधानमंत्री तिरंगा साफा पहनकर लाल किले पर चढ़े थे।

हद तो तब हो गई, जब प्रधानमंत्री, संभवतः विनायक दामोदर सावरकर को महात्मा गांधी व पंडित नेहरू से बड़ा करने के फेर में, लाल किले से दिये अपने पुराने संदेशों, दिखाये गये पुराने सपनों/सब्जबागों व किये गये वादों को पूरी तरह भूल गये। उन संकल्पों को भी, जिन्हें गाहे-ब-गाहे देशवासियों से लेने को वे कहते ही रहते हैं। बाद में कोई ले या न ले, उनकी बला से।

इस बार उनके जिक्र से बचते हुए उन्होंने पांच बड़े प्रण गिना दिये-इस अंदाज में कि अपने कदम 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाकर ही रोकने हैं। लेकिन इस ‘साधारण’ से सवाल को सम्बोधित करना गवारा नहीं किया कि क्या वे 2047 के विकसित भारत में भी गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, भेदभाव और नफरत को इसी तरह फूलती-फलती देखना चाहते हैं? अगर नहीं तो उन्हें रक्तबीज क्यों बनाये दे रहे हैं? उन्होंने उस काले धन का भी जिक्र नहीं ही किया, जिसको मुद्दा बनाकर 2014 में चुनकर आये थे। 

हां, उन्होंने परिवारवाद का अपना इन दिनों का सबसे प्रिय मुद्दा उठाया और भ्रष्टाचार पर भी बात की। लेकिन इसमें भी ईमानदार नहीं रह पाये। इसीलिए कांग्रेस के जिस गांधी परिवार पर उनका इशारा था, उसने उसे उनके संघ परिवार की ओर घुमाने में कत्तई देर नहीं की। प्रधानमंत्री के समर्थक स्तम्भकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने तो यहां तक पूछ लिया कि क्या आप देश में किसी ऐसी पार्टी को जानते हैं, जो आज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम नहीं कर रही, जिसका आंतरिक लोकतंत्र लकवाग्रस्त नहीं हो चुका या जिसके एक या मुट्ठीभर नेताओं ने लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं के मुंह पर ताले नहीं जड़ दिये हैं? वैदिक के अनुसार प्रधानमंत्री की भाजपा समेत देश की सारी पार्टियां परिवारवादी हैं और थोक वोटों के दम पर जिंदा हैं। ये थोक वोट वे जाति के आधार पर हथियाएं या हिंदू-मुसलमान के नाम पर, बात एक ही है।

जाहिर है कि परिवारवाद पर प्रधानमंत्री का हमला भी ‘खुद मियां फजीहत दीगरां नसीहत’ जैसा ही है।

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आयें तो केन्द्रीय एजेंसियों की मार्फत विरोधी पार्टियों के नेताओं को जेल भिजवाने में इधर प्रधानमंत्री ने निस्संदेह बहुत नाम कमाया है, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार के उन्मूलन की उनकी कोई नीयत कतई नहीं दिखाई देती। क्योंकि, बकौल वेद प्रताप वैदिक: केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाइयों में इस तथ्य को लगातार दरकिनार किया जाता रहा है कि सारे भ्रष्टाचारी भरसक प्रयत्न करते हैं कि वे सरकार के शरणागत होकर बच जाएं और जो पहले से सरकार के साथ हैं, वे भ्रष्टाचरण में पूरी तरह निर्भय बने हुए हैं।

उस साम्प्रदायिकता का जिक्र तो खैर प्रधानमंत्री को वैसे भी नहीं करना था, जो इन दिनों विकास के रास्ते की देश की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। लेकिन अपने संदेश में देश के अन्य अनके जरूरी सवालों से भी बचकर वे इस सवाल को और बड़ा कर गये हैं कि क्या ‘राष्ट्र प्रथम’ का उनका दावा अब पूरी तरह ‘स्वार्थ प्रथम’ में बदल गया है? 

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles