भारत में गणतंत्रवाद के मायने भाग-1: आम लोग नहीं आरएसएस के लोग डरते हैं भारत के संविधान से

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भारत का संविधान पूरी तरह से 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। इसे हम नागरिक अपना गणतंत्र दिवस कहते हैं। साफ है कि यह हर वर्ष 15 अगस्त को मनाये जाने वाले हमारे स्वतंत्रता दिवस से भिन्न है। क्यों भिन्न है?, इसे समझने के लिए स्वतंत्रता एवं गणराज्य की अवधारणा को समझना होगा। मोटे तौर पर इन दोनों दिवस में जो भिन्नता है उसके मूल में भारत का संविधान है जिसे देश की राजनीतिक आज़ादी प्राप्त होने के बाद तैयार करने और फिर लागू करने में समय लगा।

ब्रिटिश गुलामी के बाद 14 और 15 अगस्त की आधी रात राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति के 894 दिन बाद भारत को गणराज्य घोषित किया गया। दिल्ली के तब के इरविन स्टेडियम में 26 जनवरी 1950 को भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने 21 तोपों की सलामी के बीच प्रथम राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ लेकर तिरंगा ध्‍वज फहराकर भारतीय गणतंत्र के प्रादुर्भाव की घो‍षणा की थी। तब से हर वर्ष यह दिन पूरे देश में गणतंत्र दिवस के रूप में ‘गर्व एवं हर्षोल्लास’ के साथ मनाया जाता रहा है।

इंडियन नेशनल कांग्रेस के लाहौर सत्र में 31 दिसंबर 1929 की आधी रात हिंदुस्तान को ब्रिटिश हुक्मरानी के शासन से स्वतंत्र बनाने का संकल्प लिया गया था। इस सत्र की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। सत्र में उपस्थित सभी प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश शासन से पूरी तरह स्‍वतंत्र भार‍त के अपने स्वप्न को साकार करने के लिए 26 जनवरी 1930 का दिन स्‍वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने की शपथ ली थी।

भारत की संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई। इसमें भारत के नेताओं और ब्रिटिश हुक्मरानी के कैबिनेट मिशन के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। भारत का अपना संविधान बनाने के लिए विचार विमर्श शुरू हुआ जिसमें कई संस्तुतियां सामने आईं। अनेक संशोधन के बाद भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया गया। इस संविधान को तीन वर्ष बाद 26 नवंबर 1949 को आधिकारिक रूप से अपनाया गया।

भारत 15 अगस्‍त 1947 को ही राजनीतिक रूप से स्‍वतंत्र हो गया था। पर इस स्‍वतंत्रता की सच्‍ची भावना को 26 जनवरी 1950 को ही व्यक्त किया जा सका। यह अभिव्यक्ति भारत के गणतंत्र के रूप में अपने संविधान को प्रभावी कर हुई। भारत के मौजूदा संविधान में अब तक एक सौ से भी अधिक संशोधन किये जा चुके हैं।पर उसका मूल चरित्र बरकरार है जिसे पलटना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है।

विश्व के अधिकतर देश गणराज्य होने का दावा करते है। पर माना जाता है कि वे बहुत हद तक गणराज्यवाद से वंचित हैं। अमेरिका के संविधान पर बेंजामिन फ्रैंकलिन की यह उक्ति याद की जाती है कि ‘ एक गणराज्य अगर आप रख सकें तो ‘। यह उक्ति घोषित गणतंत्र के सामर्थ्य ही नहीं उसके इरादे को भी रेखांकित करती है। कहा जाता है कि गणराज्य का गठन आसान है लेकिन उसे बरकरार रखना कठिन है।

इंडियन एक्सप्रेस के 26 जनवरी 2018 के अंक में सुहास पल्शिकर के आलेख में इंगित किया गया है कि भारत के गणराज्य दिवस के उपलक्ष्य में राजधानी नई दिल्ली में आयोजित की जाने वाली परेड में भारतीय संस्कृति के साथ-साथ सैन्य बल के प्रदर्शन पर जोर होता है। भारत के संस्थापकों ने गणराज्यवादी संविधान बनाकर आशा की होगी कि देश के नागरिक उन नागरिक गुणों को विकसित करेंगे जो गणराज्यवाद की जड़ें मज़बूत करती हैं।

भारत के संविधान के रचियताओं में शामिल डा. बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर ने आगाह किया था कि कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो उसका बुरा साबित होना तय है क्योंकि इस पर जिनको काम करने का मौक़ा दिया जाता है वे अच्छे नहीं हैं। उन्होंने अपने इस कथन में निर्वाचित प्रतिनिधियों अथवा शासकों को ही नहीं आम लोगों को नागरिकों में परिणत करने की वांछित प्रक्रिया की अपूर्णता को भी संदर्भित किया था। इसलिए राजसत्ता की शक्ति के गौरव की उद्घोषणाओं और सेलिब्रेशन के बीच गणतंत्र दिवस यह भी ताकीद करता है कि हम भारत के लोग उन कमजोर गणतंत्रवादी राजनीति एवं संस्कृति का आंतरिक परिक्षण भी करें जो गणतंत्र के औपचारिक श्रृंगार को नुकसान पहुंचाता है। इन कमजोरियों में लोकतंत्र की विकृतियां सर्वोपरि हैं जिनमें बहुसंख्यकवाद शामिल है।

भारत के मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के तहत मई 2029 से पहले नई लोक सभा के गठन के लिए चुनाव कराने की अनिवार्यता है। सरकार चाहे तो लोक सभा का निर्धारित कार्यकाल पूरा होने के पहले भी नया चुनाव कराने की संस्तुति कर उसके लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से निर्वाचन आयोग को आदेश जारी करवा सकती है। नरेंद्र मोदी अक्सर अपने स्वप्न का न्यू इंडिया बनाने की बात कहते हैं। इसका निर्माण तत्काल नही हो सकता है। साफ है कि नरेंद्र मोदी अपने मौजूदा शासन काल से आगे की बात सोच और कह रहे हैं। इसका अवसर उन्हें मिलेगा या नहीं यह अगला लोक सभा चुनाव ही तय करेगा। लेकिन क्या यह भी हो सकता है कि वह नया चुनाव कराये बिना और नए जनादेश के बगैर भी सत्ता में बने रहें। उनके शब्दकोष में असम्भव – अकल्पनीय कुछ भी नहीं लगता है।

नरेंद्र मोदी को ऐसे बहुत काम पूरे करने हैं जिनके लिए उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया है। इन कार्यों में भारत को डेमोक्रेटिक, सोशलिस्ट और सेक्युलर देश से ‘हिन्दू -राष्ट्र’ घोषित करने की जमीन तैयार करना भी शामिल है। इस कार्य में मौजूदा संविधान बाधक है। मौजूदा संविधान में कहीं भी न्यू इंडिया का जिक्र नहीं है। संविधान के प्रियंबल में बाद के वर्षों में उसके विधिसम्मत संशोधन में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि ‘इंडिया दैट इज भारत ‘, सम्प्रभुता-संपन्न , समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है।

यह छिपी हुई बात नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ( आरएसएस ) के राजनीतिक अंग भारतीय जनसंघ और मुंबई में 1980 के लोक सभा चुनावों के लिए बनी उसकी उत्तरवर्ती भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अपनी ‘मातृ संस्था’ कहती है।

आरएसएस को भारत का यह मौजूदा संविधान कभी रास नहीं आया। ऐतिहासिक तथ्य है कि आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी भी सांगठनिक योगदान नहीं रहा। उसने संविधान निर्माण के समय भी उसके मूल स्वरुप का विरोध किया था
उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का संविधान बनने पर उसकी प्रतियां जलाईं थी। आरएसएस को भारत के संविधान की प्रस्तावना में शामिल सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष / पंथनिरपेक्ष) पदबंध नहीं सुहाता है। उसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द से भारत के धर्मविहीन होने की ‘बू’ आती है जबकि यह जनसंख्या के आधार पर हिन्दू धर्म-प्रधान देश है।

भाजपा का हमेशा से यही कहना रहा है कि आज़ादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य सभी दलों ख़ासकर कांग्रेस ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है और हिन्दू हितों की उपेक्षा की है जिसका एक उदाहरण हिंदुत्वपंथियों द्वारा 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के निर्माण में विधमान राजनीतिक -सांविधिक अवरोध रहे। सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के चीफ जस्टिस यशवंत बलवंत धनंजय चंद्रचूड़ की बेंच ने ये अवरोध काफी हद तक दूर कर दिए। पर अयोध्या मामले में क्यूरेटिव पिटिशन पर निर्णय नहीं हुआ है।

विश्व के एकमेव हिन्दू राष्ट्र रहे पड़ोसी नेपाल में जबर्दस्त जन -आंदोलन के बाद राजशाही की समाप्ति के बाद अपनाये नए संविधान में इस हिमालयवर्ती देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किये जाने के प्रति आरएसएस और मोदी सरकार की खिन्नता छुपाये छुप नहीं सकी। मोदी सरकार ने इसके प्रतिकार के रूप में कुछ वर्ष पहले नेपाल की कई माह तक अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी थी। भाजपा किसी भी देश को इस्लामी घोषित किये जाने से चिढ़ती है और साफ कहती है कि उसे ‘मज़हबी राष्ट्र’ का सिद्धांत मंजूर नहीं है। फिर भी भाजपा समेत आरएसएस के सभी आनुषांगिक संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के पक्षधर रहे हैं। नरेंद्र मोदी का न्यू इंडिया वास्तव में आरएसएस के सपनों के हिन्दू -राष्ट्र का ही भ्रामक सर्वनाम है जिसकी सारी परतें प्याज़ के छिलकों की तरह खुलने में और कुछ समय लगेगा।

न्यू इंडिया के लिए नया संविधान बनाने की नरेंद्र मोदी की मंशा की स्पष्ट झलक 2018 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के उनके नए जुमले से भी मिली। इसकी व्याख्या यह है कि लोक सभा और देश की सभी विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ करा लिए जायें ताकि विभिन्न राज्यों में अलग – अलग चुनाव न कराना पड़े, चुनाव कराने के राजकीय खर्च में कमी हो और सरकारें चुनावी दबाब में लोक -लुभावन पग उठाने के चक्कर से बच कर ‘स्थिरता’ से राजकाज चला सकें। नरेंद्र मोदी के इस जुमला के प्रति शुरुआती समर्थन व्यक्त करने वालों में निर्वाचन आयोग और नीति आयोग भी शामिल थे। निर्वाचन आयोग ने कह दिया कि वह इसके लिए तैयार है।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार लोक सभा चुनाव कराने पर राजकीय खर्च प्रति मतदाता 2014 में 17 रुपये पड़ा था। लेकिन तब मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे ओम प्रकाश रावत ने इस पद से अपनी सेवानिवृति के अगले ही दिन मीडिया के साथ भेंटवार्ता में स्पष्ट कह दिया कि यह कदम और भी खर्चीला और अव्यावहारिक होगा। उन्होंने बताया कि चुनाव कराने के लिए निर्वाचन आयोग के पास अभी 17 लाख ईवीएम हैं। सभी चुनाव एकसाथ कराने के लिए 34 लाख ईवीएम की खरीद की दरकार होगी। सभी चुनाव एकसाथ कराने पर खरीदे ईवीएम पांच वर्ष तक पड़े रहेंगे।

इस तरह से एकसाथ चुनाव में वित्तीय संसाधन की बचत के बजाय नुकसान ही होगा। उन्होंने यह भी बता दिया कि निर्वाचन आयोग ने चुनावों के बारे में मौजूदा वैधानिक प्रावधानों में बदलते समय के अनुरूप समुचित परिवर्तन लाने के लिए विधि मंत्रालय के विचारार्थ एक मसौदा तैयार करने का काम भी शुरू किया था।

इस तथ्य को पुरजोर तरीके से रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत संघ-राज्य है जिसके सभी राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव केंद्र की विधायिका के निम्न सदन, लोक सभा के चुनाव के साथ ही कराने का संवैधानिक प्रावधान नहीं है। संविधान के रचनाकारों ने ‘एक व्यक्ति, एक वोट, एकसमान मूल्य’ के सिद्धांत को अपनाया। उनके पास स्वतंत्र भारत की पहली लोक सभा के साथ ही सभी राज्यों को विधान सभाओं के भी चुनाव संपन्न कराने की व्यवस्था का प्रावधान करने का विकल्प खुला था।
पर उन्होंने संघराज्य, भारत में संवैधानिक लोकतंत्र की जरूरत के मद्देनज़र बहुत सोच -समझ कर केंद्र के केंद्रीयतावाद की संभावित प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।

कुछ समय पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का दिया यह बयान कि आरएसएस चंद मिनट में अपनी फौज खड़ी कर लेगा सांविधिक राजकाज में खुरपेंच है। उन्होंने बहुत सोच -समझ कर ही यह बयान दिया होगा। वह भलि भांति जानते है कि आरएसएस के दीर्घ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके पास मोदीराज संभवतः अंतिम मौका है।वह इस बात से भी अवगत हैं कि मोदी सरकार के हाथ से समय रेत की तरह फिसला जा रहा है और जिस लंपट पूंजीवाद के धनबल पर यह राज कायम हुआ वह हवा के एक झोंके भर से उसी तरह ख़त्म भी हो सकता है जिस तरह ताश के पत्तों के बनाये महल ज़रा -सी फूंकसे बिखर जाते हैं। मोहन भागवत के बयान से उनके कई दर्प साफ़ झलकते हैं।

ये दर्प हैं कि आरएसएस के पास भारत सरकार की सेना के समानांतर हथियारबंद सेना है, कि भारत की सेना से ज्यादा अनुशासन संघ की सेना में है, कि भारत सरकार की सेना जंग की तैयारी करने में छह महीने लेगी जबकि आरएसएस के स्वयंसेवकों को ऐसा करने में महज तीन दिन लगेंगे। बेशक आरएसएस ने बाद में मोहन भागवत के बयान को मीडिया में तोड़-मरोड़कर पेश किया गया बताकर लोगों का ध्यान आरएसएस की गुप्त रणनीति से हटाने की कोशिश की। पर कुछ सवाल खड़े हो ही गए हैं कि भारत की फौज से बड़ी निजी फौज देश में कैसे हो सकती है। क्या आरएसएस को भारत की सेना पर भरोसा नहीं है। क्या गृहयुद्ध की तैयारी चल रही है। मोदी सरकार इस पर चुप क्यों है? क्या मोदी सरकार सिर्फ मुखौटा है। क्या आरएसएस भारत की राजसत्ता की बागडोर कभी खुद ही संभाल सकता है।

आरएसएस को सैद्धांतिक रूप से भारत का संविधान सहज-स्वीकार्य नहीं लगता है। मोहन भागवत के बयान से लगता है कि आरएसएस को सेना का बेजा इस्तेमाल करने में मौजूदा संविधान अड़चन लगती है।इसलिए मोदी सरकार पर संविधान पलटने का दबाब है। यह रेखांकित करना जरूरी है कि जिन्हे आरएसएस के बारे में समुचित प्रामाणिक जानकारी नहीं है वही इसकी स्थापना के 9 दशक बाद मोहन भागवत के खुल्लम खुल्ला बयान से चौंक सकते हैं। अगले वर्ष 2025 में आरएसएस की स्थापना की शताब्दी जयन्ती है। संकेत हैं कि वह चाहता है कि तब तक भारत विधिवत हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए।

गौरतलब है कि जब नाजी जर्मनी में एडोल्फ हिटलर के घोर दमनकारी और फासिस्ट राजकाज का दुनिया भर में प्रतिरोध शुरू हुआ तब आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक सदाशिवराव माधवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने अंग्रेजी में ‘वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ शीर्षक से एक किताब लिखी थी। इसमें स्पष्ट लिखा है कि भारत के हिंदुओं को हिटलर से सबक सीखनी चाहिए। आरएसएस ने अपने गुरु गोलवलकर की इस किताब से कभी पल्ला नही झाड़ा है। पर उसने इस किताब का ज्यादा प्रकाशन और प्रचार करने से पीछे हटना बल्कि छुपा देना ही रणनीतिक कारणों से श्रेयष्कर समझा।

दिल्ली के एक्टिविस्ट शम्शुल इस्लाम ने उस किताब की मूल प्रति ढूंढ कर उसके स्कैन किये पन्नों को ज्यों का त्यों समावेश कर ‘गुरुजी’ की बातों की पोल खोलने वाली नई किताब लिखी है। यह किताब अमेजॉन से कोई भी खरीद सकता है। ‘वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ किताब पहली बार 1939 में छपी थी। कुछ लोग़ इसे आरएसएस का बाइबिल कहते हैं। इस किताब से और आरएसएस की गतिविधियों पर गौर करने से साफ हो जाता है कि उसके लिए ‘हिन्दू’ का मतलब ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और ‘राष्ट्र’ का मतलब मनुवादी फासीवाद है।

एक बात साफ है कि वह कोई सांस्कृतिक संगठन नहीं है। उसके उदेश्य राजनीतिक हैं। समाज सेवा और एकात्म मानववाद के उसके घोषित लक्ष्य महज जुमले हैं। आरएसएस ने स्वयं भी अपने राजनीतिक उदेश्य काफी हद तक सबके सामने रख दिए हैं। यह उदेश्य है भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना। पर ‘हिन्दू’ और ‘राष्ट्र’ का उसका वह मतलब नही है जो आम लोग समझते है।

आरएसएस की स्थापना 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार (डॉक्टर जी) ने की थी। पर उसे वैचारिक एवं संगठनिक आधार ‘गुरुजी’ ने ही दिया। उसकी स्थापना महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सशक्त आंदोलनों की प्रतिक्रिया में सवर्ण जातियों द्वारा हिन्दू के नाम पर अपना प्रभुत्व बहाल करने के लिए की गई थी। ये आंदोलन 1870 के दशक में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में ‘पिछड़ी’ जातियों ने और 1920 के दशक में बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेडकर की अगुवाई में दलितों ने शुरू किए थे। ये महज संयोग नही कि आरएसएस के अब तक के सभी प्रमुख महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण रहे। बाद में 1994 में एक गैर-ब्राह्मण लेकिन सवर्ण ही ( ठाकुर / क्षत्रिय) राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया आरएसएस के चौथे प्रमुख बने जो उत्तर प्रदेश के थे।

आरएसएस के वैचारिक आधारों पर और बात करने से पहले उसके सांगठनिक तंत्र को समझ लेना अच्छा रहेगा। आरएसएस के ‘ अखिल भारतीय सह-बौद्धिक प्रमुख कौशल किशोर की ‘प्रेरणा’ से 1992 में “लक्ष्य एक कार्य अनेक” नाम की एक किताब छपी। इसके अनुसार आरएसएस के नियंत्रण में अखिल भारतीय स्तर के 25 और प्रांतीय स्तर के 35 संगठन हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विद्या भारती प्रमुख है।

इसी किताब के अनुसार तब देश भर के 25 हज़ार स्थानों पर आरएसएस की नियमित शाखाएं लगती थीं। यह किताब 1992 की है। साफ है कि उसके बाद के समय में उनकी संख्या में कई गुना बढ़ोत्तरी ही हुई होगी। बहरहाल, उस किताब के अनुसार इन शाखाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका ‘राष्ट्र का हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यीकरण’ की कार्यनीति को आगे बढ़ाना है। जैसा कि किताब के शीर्षक से ही साफ है आरएसएस के जितने भी संगठन, समितियां और मंच हो, सबका एक अंतिम लक्ष्य है और वह ‘हिन्दू-राष्ट्र’ है। लेकिन हिन्दू राष्ट्र में क्या-क्या होगा और क्या-क्या नहीं होंगे यह तय कैसे होगा, कब तय होगा, कौन तय करेगा ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनके उत्तर एक झटके में नहीं दिए जा सकते हैं।

भारत का नया संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए मौजूदा संविधान की समीक्षा कर उसे बदलने के लिए आवश्यक विधिक उपायों की संस्तुति करने के वास्ते एक कमेटी बनाने की चर्चा थी। आरएसएस के पूर्व प्रचारक एवं सिद्धांतकार और भाजपा के पदाधिकारी रहे केएन गोविंदाचार्य इस काम में लगे थे। उन्होंने यह स्वीकार भी किया था। तब उनका कहना था कि मौजूदा संविधान में ‘भारतीयता’ नहीं है और इसलिए उसकी जगह नया संविधान बने। भारत के संविधान की समीक्षा के लिए पहले भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान कमेटी बनी थी। पर उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।

(चन्द्र प्रकाश झा स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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