Friday, April 19, 2024

उपन्यास, आलोचना और वीरेंद्र यादव का समाज-बोध

मार्क्सवादी साहित्यालोचक वीरेंद्र यादव के कुछ लेख और टिप्पणियां मैंने पढ़ी थीं। पर उनकी आलोचनात्मक पुस्तक पढ़ने का पहला मौका हाल के दिनों में मिला। यह पुस्तक है-उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता।* 2017 में पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। पहली बार यह 2009 में छपी थी। इसकी चर्चा भी हुई। पर मेरे जैसे असाहित्यिक व्यक्ति ने इसे हाल ही में पढ़ा। रुचि और पेशे के स्तर पर पत्रकारिता से जुड़ा होने के कारण मेरा किसी साहित्यिक-आलोचना पुस्तक का विलम्ब से पाठक होना कोई अटपटी बात नहीं। काफी समय से इस पर लिखने को सोच रहा था। इसी बीच खबर देखी कि वीरेंद्र जी को आलोचना का प्रतिष्ठित शमशेर सम्मान मिला है। उनके सम्मानित किये जाने का एक तरफ खूब स्वागत हुआ तो अपने को जनवादी लेखक संघ का संस्थापक-सदस्य बताने वाले एक महाशय ने उनके सम्मानित होने पर सार्वजनिक मंच से अपनी खुन्नस उतारी। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय से सेवानिवृत्त-शिक्षक हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट पर दिये परिचय में उन्होंने अपने को सीपीआई से सम्बद्ध आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन का पूर्व सदस्य़ भी बताया है। ऐसे ‘जनवादी’ और छात्र जीवन में ‘फेडरेशन’ से सम्बद्ध पूर्व विश्वविद्यालयीय शिक्षक महोदय की खुन्नस में वीरेंद्र यादव के लिए कितनी घृणा और हिकारत छुपी है, अनुमान लगाना कठिन नहीं! ऐसा लगता है, महाशय ने उन्हें लेखक मानने से ही इंकार कर दिया!

उन्होंने एक ही लाइन में कवि शमशेर बहादुर सिंह को क्रांतिकारी-मार्क्सवादी और वीरेंद्र यादव को जातिवादी घोषित कर दिया। ऐसा लगता है, उन्होंने अपने आपको ‘सीबीएसई’ के बोर्ड जैसा कुछ सोच लिया कि उनके प्रमाणपत्र पाये बगैर किसी की क्या पहचान! अपनी फेसबुक पोस्ट में अलग-अलग विधा के सम्मानित किये गये चार व्यक्तियों में सिर्फ तीन को उन्होंने बधाई दी। वीरेंद्र यादव का नाम छोड़ दिया। एक हिंदी लेखक के अंदर दूसरे लेखक के लिए घृणा का ऐसा खुला प्रदर्शन कम देखा गया है। यह ऐसे दौर में देखा गया जब हमारा समाज कोविड-19 के संक्रमण जैसी भयावह महामारी की चपेट में है। अगर वह असहिष्णुता और घृणा की राजनीति के लिए कुख्यात हो चुके कुछ हिन्दुत्ववादी-संगठनों से सम्बद्ध होते तो बात समझ में आती पर आज भी वह अपनी ‘वामपंथी-जनवादी पृष्ठभूमि’ का हवाला देते नजर आ रहे हैं। महामारी के दौर में सिर्फ शासन-प्रशासन की असलियत ही सामने नहीं आ रही है, बहुत सारे लोगों के अंदर जमा उनका मानसिक कूड़ा-करकट भी बाहर निकल आ रहा है! इन ‘जनवादी-वामपंथी महाशय’ के आचरण से मुझे जितना दुख हुआ, उससे ज्यादा अचरज। पर उनसे कोई शिकायत नहीं, सहानुभूति है।

सदियों पुरानी हमारी हिन्दू-वर्णव्यवस्था ने दलितों-शूद्रों को मनुष्य होने के उनके अधिकार से वंचित ही नहीं किया, उसने उच्च-वर्णीय समुदाय के बड़े हिस्सों से भी उनकी मानवीयता छीनी है। उनमें उत्पीड़ितों के प्रति भेदभाव और नफरत करने की क्रूरता भरी है। इसीलिए डॉ बी आर अम्बेडकर ने वर्ण-व्यवस्था के विनाश की बात की थी, सुधार की नहीं! इसमें सुधार की कोई गुंजायश ही नहीं है। अपने दौर में कार्ल मार्क्स के पास भारत में व्याप्त वर्णव्यवस्था की जटिलताओं की पूरी जानकारी नहीं थी। वैसे भी उनके समूचे अध्ययन के केंद्र में यूरोप था। इसके बावजूद उनका दर्शन सर्वकालिक, सार्वजनीन और भूमंडलीय है क्योंकि वह श्रम सम्बन्धों का सवाल उठाता है। मार्क्स और एंजेल्स ने अपनी मशहूर रचना जर्मन आडियालोजी(1846) में पहली बार जाति(Caste) की चर्चा की थी। उन्होंने भारत और मिस्र के संदर्भ में जाति या जाति-समतुल्य श्रेणियों के परस्पर श्रम-सम्बन्धों और श्रम-विभाजन की श्रेणिय़ों के संदर्भ में इसका उल्लेख किया है।

अगर वीरेंद्र जी के संदर्भ में उक्त लेखक महाशय की टिप्पणी को देखें तो यह सिर्फ निजी घृणा नहीं लगती। क्या निजी घृणा के साथ वर्ण-गत घृणा भी नत्थी हो गई, जिसके आवेग में उन्होंने चार लेखकों में सिर्फ तीन को बधाई देना मुनासिब समझा? हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका मधु कांकरिया जैसे लोगों ने जब इस चूक की तरफ उनका ध्यान आकृष्ट कराया तो उस ‘प्रगतिशील’ शिक्षक ने बचकाना हरकत करते हुए यह तक लिख दियाः ‘यह (वीरेंद्र यादव के बारे में) कौन हैं?’ मुझे लगता है, यह किसी लेखक के प्रति उक्त महाशय की सिर्फ निजी या वर्ण-घृणा ही नहीं है, इसमें कहीं न कहीं गहरी वैचारिक-असहिष्णुता शामिल है। इसके कारण निजी नहीं हो सकते क्योंकि दोनों अलग-अलग पेशे, अलग-अलग शहर के लोग हैं। उनके बीच गली-मोहल्ले, क्लब-सोसायटी या खेत-खलिहान का विवाद नहीं है। किसी लेखक के प्रति ऐसी नफरत और खुन्नस का कारण निश्चय ही वैचारिक हो सकता है। इसलिए उसे वीरेंद्र यादव के लेखों, विचारोत्तेजक टिप्पणियों और उनकी इस चर्चित किताब में खोजा जाना चाहिए। आखिर वीरेंद्र यादव के लेखन में ऐसा क्या है, जो अपने को ‘वामपंथी-जनवादी’ बताने वाले एक पूर्व  विश्वविद्यालयीय शिक्षक  के मन में उनके प्रति इतनी अनुदारता पैदा कर रहा है? 

वीरेंद्र यादव ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ में प्रगतिशील आलोचना के नये सबाल्टर्न आयाम ही नहीं तलाशते, अपनी नयी दृष्टि से वर्ण-संकीर्णताओं में पिचकी हिंदी की नकली प्रगतिशीलता को बहुत तथ्यात्मक ढंग से बेनकाब भी करते हैं। इससे हिंदी की प्रगतिशील आलोचना के कई नये-पुराने बड़े दिग्गजों का ‘मार्क्सवादी-आभामंडल’ धाराशायी होता है। एक समय हिंदी में प्रगतिशील धारा के ध्वजवाहक और मुख्य संचालक समझे जाने वाले इन महा-विद्वानों के वर्ण-संक्रमित सोच का सच भी इस किताब में उजागर होता है। उस दौर के कई बड़े आलोचकों को अपने छात्र-जीवन में मैंने पढ़ा था। अब वीरेंद्र यादव को पढ़ते हुए आलोचना और रचना के उन रंग-बिरंगे दिग्गजों की वैचारिक संकीर्णताएं मुझ जैसे पाठक को भी साफ-साफ दिखाई देती हैं। निस्संदेह, वर्ण-व्यवस्था के वायरस से संक्रमित भारतीय समाज के अंदरूनी अंतविर्रोधों की वीरेंद्र यादव किसी अन्य हिन्दी आलोचक के मुकाबले ज्यादा वस्तुगत और निर्मम होकर पड़ताल करते हैं। वह यथार्थ को ढंकते नहीं, मुख्य अंतर्विरोधों के साथ उसकी शिनाख्त और पड़ताल करते हैं। 

पुस्तक का दूसरा अध्याय-‘औपन्यासिकता, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय किसानः संदर्भ गोदान’ वीरेंद्र यादव की आलोचना के इस खास प्रसंग को समझने के लिए खासतौर पर महत्वपूर्ण है। तीस पृष्ठों का यह अध्याय हिंदी की प्रगतिशील आलोचना के एक बड़े मठाधीश डॉ रामविलास शर्मा और ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवादी सोच’ के प्रतिष्ठित लेखक निर्मल वर्मा, दोनों के ‘गोदान’ के पाठ और विश्लेषण पर गंभीर सवाल ही नहीं उठाता, उनके पाठ और परिप्रेक्ष्य में अंतर्निहित मूल समस्या को उजागर करता है। अचरज की बात कि मार्क्सवादी आलोचक के रूप में विख्यात डॉ शर्मा और ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवादी’ सोच के निर्मल वर्मा, दोनों ही गोदान के किसी भी पात्र के वर्गीय चरित्र से नत्थी वर्णगत अंतर्विरोधों और उससे जुड़े बिल्कुल साफ दिखने वाले जटिल यथार्थ को पूरी तरह नजरंदाज करते हैं।

मुझे याद नहीं, हिंदी में किसी अन्य लेखक ने प्रेमचंद पर डॉ शर्मा के मूल्यांकन की भ्रांत दृष्टि की सीमाओं और समस्याओं को सामने लाते हुए प्रेमचंद के गोदान का इस तथ्यपरक और वस्तुपरक ढंग से पुनर्मूल्यांकन किया हो! इससे पहले मैं प्रेमचंद पर दूधनाथ सिंह के शिक्षण से बेहद प्रभावित था। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक समय प्रेमचंद का साहित्य पढ़ाते थे। मैं उनके व्याख्यानों को कभी छोड़ता नहीं था। उन्हें प्रेमचंद पर सुनना रचना के पाठ और उसके ऐतिहासिक संदर्भों से होकर विचार और ज्ञान की नयी दुनिया में प्रवेश करने जैसा था। हालांकि मुझे याद नहीं, उन्होंने डॉ शर्मा के प्रेमचंद-मूल्यांकन पर कभी इस तरह का विचारोत्तेजक सवाल उठाया हो! वीरेंद्र यादव डॉ शर्मा और इस किताब में उल्लिखित गोदान सम्बन्धी उनकी ज्यादातर स्थापनाओं की न सिर्फ धज्जियां उडाते हैं अपितु ‘गोदान’ का अपना पुनर्मूल्यांकन पूरी तरह उस रचना के पाठ और तत्कालीन सामाजिक इतिहास के ठोस तथ्यों की रोशनी में करते हैं। 

शुरुआती दौर में गांधीवादी विचारों से प्रभावित रहे प्रेमचंद ‘गोदान’ में किस तरह स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्व, खासतौर पर क्षेत्रीय और जमीनी स्तर पर नेतृत्व करने वालों की दुनिया की कहानी बिल्कुल अलग अंदाज में सामने लाते हैं, वीरेंद्र यादव ने इसे बहुत खूबसूरती के साथ रखा है। ‘गोदान’ के अलग-अलग प्रसंगों, सामाजिक संदर्भों और चरित्रों से उभरती आवाजों की रोशनी में स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य पर प्रेमचंद के विचारों में आये गुणात्मक बदलाव को वह सामने लाते हैं। वह कहते हैं: ‘ वास्तव में प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन को आभिजात्य वर्ग की आध्यात्मिक जीवनी के मिथक से बाहर निकालकर उसके आंतरिक गठन, अंग्रेजी राज से उसके टकराव व सहयोग और निम्नजन के हितों से उसकी वास्तविक दूरी लेकिन सतही एकता की संश्लिष्ट पहचान करते हैं। यह कहते हुए वे गोदान में भारतीय समाज पर उस दुहरे उपनिवेशवाद का विमर्श तैयार करते हैं, जिसका एक घेरा अंग्रेजी शासन सत्ता का था तो दूसरा घेरा ब्राह्मणवादी सत्ता का। राय साहब, खन्ना, मेहता और मालती सरीखों को अंग्रेजी सत्ता का ही घेरा तोड़ना था, जबकि होरी को इस दुहरे घेरे के चक्रव्यूह का भेदन करना था। इसीलिए प्रेमचंद होरी की कथा कहते हुए उस सत्ता-विमर्श के बाहर निकलते हैं, जो इसे महज अंग्रेजी उपनिवेशवाद और भारतीय राष्ट्रवाद की टकराहट तक सीमित करता था।’(पृष्ठ-32)।

डा. शर्मा के लिए ‘गोदान’ की मूल-कथा कर्ज की समस्या है। वह गोदान को इसी रूप में व्याख्यायित करते हैं। लेकिन वीरेंद्र इसे डा. शर्मा का सरलीकरण बताते हैं। उनका मानना है कि ‘गोदान’ भारतीय किसान जीवन की महागाथा है। यह स्वाधीनता-पूर्व भारत का एक ऐसा सामाजिक अध्ययन है, जो समाज की पारम्परिक समझ और व्याख्या के बने-बनाये ढांचे को चुनौती देता है।—‘गोदान’ अपने मुकम्मल पाठ में वर्णाश्रमी हिन्दुत्व, उसकी जड़ ‘मर्यादा’ एवं अतीतोन्मुख चिंतन का प्रत्याख्यान है। वह हिन्दू धर्म की समरसता के मिथक का भेदन करता हुआ भारतीय समाज की कुलीनवादी व्याख्या का निम्नवर्गीय(सबाल्टर्न) विकल्प पेश करता है। यही कारण है कि दलित व नारी सरीखे आज के ज्वलंत प्रसंग ‘गोदान’ में अपनी केंद्रीय उपस्थिति दर्ज कराते हैं।’(पृष्ठ-38)।

वीरेंद्र यादव अपनी इस पुस्तक में फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ और राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ जैसे उपन्यासों को दरकिनार करने या कमतर बताने के सोच पर गंभीर सवाल उठाते हैं। हिंदी पाठकों को आज भी यह जानकर अचरज होता है कि इन दोनों उपन्यासों के लिए इनके लेखकों को साहित्य अकादमी जैसा सम्मान क्यों नहीं मिला? अपने मूल वर्णाश्रमी रंग को छुपाकर नकली प्रगतिशीलता चमकाने वाली कुछ दिग्गजों की मानसिकता पर वीरेंद्र यादव ने ऐसे कई उपन्यासों के संदर्भ में कुछ जरूरी सवाल उठाये हैं। यशपाल के ‘झूठा सच’ का पुनर्मूल्यांकन इस पुस्तक का एक और महत्वपूर्ण अध्याय है। वीरेंद्र हिंदी के कुछ पुराने प्रगतिशील आलोचकों के विपरीत श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ को बड़ी रचना मानते हैं। उनका मानना है कि यह मूलतः नकारवादी मुहावरे की रचना है। लेकिन इसका नकारवाद व्यक्तिगत कुंठा व निराशा का परिणाम न होकर उन सामाजिक विद्रूपताओं व कुरूपताओं का परिणाम है, जिनकी भारतीय समाज में गहरी जड़े हैं।

सन् 1991 और 97 में प्रकाशित कमलाकांत त्रिपाठी के दो उपन्यासों-‘पाहीघर’ और ‘बेदखल’ को उनकी इतिहास दृष्टि के नाते वह महत्वपूर्ण रचना बताते हैं। संजीव के ‘जंगल जहां शुरू होता है’, मैत्रेयी पुष्पा के ‘विजन’ भगवान दास मोरवाल के ‘काला पहाड़’, अलका सरावगी के ‘शेष कादम्बरी’ और मधु कांकरिया के ‘खुले गगन के लाल सितारे’ को वह अलग-अलग कारण से समकालीन उपन्यासों में उल्लेखनीय मानते हैं। दूधनाथ सिंह के उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ को वह हिंदी के वैचारिक संसार में नयी पहलकदमी के तौर पर लेते हैं। ‘आखिरी कलाम’ के मूल्यांकन के क्रम में इससे मिलते-जुलते कंटेट पर अंग्रेजी में लिखने वाले तीन भारतीय लेखकों की रचनाओं को सामने लाते हैं। ये लेखक हैं-गीता हरिहरन(इन टाइम्स आॉफ सीज), शशि थरूर(रायॉट) और मेहर पेस्टन जी(परवेज)।

पुस्तक का आखिरी अध्याय ‘दि इंडियन इंग्लिश नॉवेल और भारतीय यथार्थ’ जितना दिलचस्प है उतना ही विचारोत्तेजक। मुझे याद नहीं किसी अन्य हिंदी आलोचक ने अंग्रेजी में लिखने वाले देश-विदेश में विख्यात कुछ भारतीय लेखकों के लेखन और उनकी किताबों पर इतने विश्वास के साथ कभी लिखा हो! ऐसा विश्वास अलग-अलग भाषाओं के साहित्य को नियमित पढ़ने-समझने और समकालीन विमर्शों का सक्रिय हिस्सेदार होने से ही पैदा होता है। इस अध्याय में पंकज मिश्रा, अरुंधति राय, राजकमल झा, उपमन्यु चटर्जी, सलमान रुश्दी, रोहिन्तान मिस्त्री, अमित चौधरी, अनिता देसाई, विक्रम सेठ और अमिताभ घोष जैसे बड़े लेखकों की नयी रचनाओं को हिंदी की समकालीन रचनात्मकता के समानांतर रखकर देखा गया है। कुल मिलाकर दिलचस्प और उपयोगी अध्याय है। समकालीन महत्वपूर्ण उपन्यासों पर इतना प्रखर और विचारोत्तेजक लेखन हिंदी में पहले कब देखा गया!

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और कई किताबों के लेखक हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

*एक सबाल्टर्न प्रस्तावनाः उपन्यास और वर्चस्व की सत्ताः लेखक-वीरेंद्र यादव, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली. पृष्ठ-260

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