(30 जून 1950- 17 नवंबर 2013)
दोस्तो !
बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष
इस इंतज़ार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
ज़हरीले पंजों समेत
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता सदियों का संताप की उपरोक्त चंद पंक्तियां ही नहीं, उनका सारा साहित्य इस बात की गवाही देता है कि वे यातना, संघर्ष और उम्मीद के कवि और लेखक हैं। यातना, संघर्ष और उम्मीद की उनकी यह यात्रा व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि उस पूरे समुदाय की है, जिसमें उन्होंने जन्म लिया। जन्म लेते ही जिसकी नियति तय कर दी गई। वे आजीवन उस नियति को बदलने के लिए संघर्ष करते रहे। इसी नियति की ओर इशारा करते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में लिखते हैं कि “जाति पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है। पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में होता, तो मैं भंगी के घर पैदा क्यों होता?” लेकिन उन्होंने अपनी नियति को बदलने की चुनौती को स्वीकार किया और इस प्रक्रिया में हिंदी साहित्य की नियति अपनी कविताओं, कहानियों, नाटकों और आत्मकथा ‘जूठन’ से बदल दिया।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का हिंदी साहित्य में प्रवेश लंबे समय से सुप्त पड़े ज्वालामुखी के फूट पड़ने जैसा था। जिसकी आंच पूरे हिंदी साहित्य ने महसूस की। उन्होंने हिंदी पाठकों को उस जीवन से रू-ब-रू कराया जिससे वह अब तक अनभिज्ञ और अनजान था। इस यथार्थ की अभिव्यक्ति की दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। पहली जो पाठक यथार्थ के इस रूप से अपरिचित थे, उन्हें यह बिजली के झटके की तरह लगा। दूसरा जो पाठक इस यथार्थ की यातना को जी रहे थे, उन्हें अपनी भावना-संवेदना की अभिव्यक्ति लगी।
प्रचलित परिपाटी के अभ्यस्त हिंदी साहित्य को ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य को स्वीकार करने में काफी देर लगी। स्वीकृति के बाद भी सारिका ने 10 वर्षों तक उनकी कहानी ‘जंगल की रानी’ को लटकाए रखा। अपनी आत्मकथा जूठन के पहले भाग में इस पूरे प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि “साहित्य के बीच भी एक सत्ता है, जो अंकुरित होते पौधों को कुचल देती है।” पहली बार राजेन्द्र यादव ने हंस में उनकी कहानियां प्रकाशित करना शुरू किया। जब एक बार ओमप्रकाश वाल्मीकि पाठकों के सामने अपनी रचनाओं के साथ आए, तो पाठकों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया।
उनकी आत्मकथा जूठन की लोकप्रियता का आलम यह है कि 1997 में पहली बार प्रकाशित होने के बाद उसके पहले खंड के अब तक तेरह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। दूसरा खंड 2015 में प्रकाशित हुआ। उसके भी चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी आत्मकथा का देश-दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सच यह है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा ‘जूठन’ दलितों में भी दलित जाति में पैदा होने की यातना और उससे उबरने के संघर्ष का सुलगता दस्तावेज है। यह एक व्यक्ति की आपबीती होते हुए भी एक पूरे-के-पूरे समुदाय की आपबीती कहानी का जीता-जागता दस्तावेज बन जाता है। आप आंबेडकर की आत्मकथा ‘वेटिंग फॉर वीजा’ और ‘जूठन’ में बहुत सारी समानताएं देख सकते हैं। जो भी इस आत्मकथा से गुजरता है, उसे महसूस होता है कि जैसे वह धधकते ज्वालामुखी में कूद पड़ा हो। यह आत्मकथा ने भारतीय समाज के उन सारे आवरणों को तार-तार कर दिया, जिनकी ओट में सच्चाई छिपाई जाती थी और महान भारतीय संस्कृति का गुणगान किया जाता था।
‘जूठन’ ने हिंदी के वर्ण-जातिवादी प्रगतिशीलों और गैर-प्रगतिशीलों, दोनों के सामने एक ऐसा आईना प्रस्तुत कर दिया, जिसमें वे अपना विद्रूप चेहरा देख सकते थे। यथार्थ के नाम पर हिंदी साहित्य में परोसे जा रहे बहुत-से झूठ को भी यह आत्मकथा बेनकाब करती है और बताती है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के जीवन-यथार्थ का न तो हिंदी के द्विज साहित्यकारों को बोध है, न उसकी अभिव्यक्ति वे कर सकते हैं। इस आत्मकथा की पहली पंक्ति ही इन शब्दों से शुरू होती है- “दलित-जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव, जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांस ली है, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है।” (वही, पृ.-7)
उनके तीन कहानी संग्रहों ‘सलाम’, ‘घुसपैठिए’ और ‘सफाई देवता’ कहानियां पाठकों-आलोचकों के सामने एक ऐसी दुनिया प्रस्तुत कीं, जिससे वे अब तक अनजान थे। इसमें कोई शक नहीं है कि इस दुनिया का यथार्थ विचलित कर देने वाला और झकझोर देने वाला था। उनकी कहानियों की अंतर्वस्तु और अभिव्यक्ति शैली, सच को इस तरह सामने लाती हैं कि पाठक का पूरा वजूद हिल उठता है। वह इस सच को सच मानने को तैयार नहीं हो पाता और इसे झूठ मानकर खारिज भी नहीं कर पाता। वह बेचैन और उद्विग हो उठता है।
वाल्मीकि जी की कविताएं पाठकों को एक साथ कबीर और रैदास दोनों की याद दिलाती हैं। उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो बिल्कुल ज्वालामुखी के ताजे लावे की तरह है। आंच एवं ताप भरा। उनका पहला कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’ एक दहकता लावा है।
दलित समाज के हजारों वर्षों की पीड़ा को अपने भीतर समेटे वे कभी चैन से जी नहीं पाते हैं, सुकून की सांस नहीं ले पाते हैं-
जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्कारें गूँजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हों लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।
मैं उठकर भागना चाहता हूँ
शंबूक का सिर मेरा रास्ता रोक लेता है
ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी और अपने समाज की यातना को सहते हुए भी किसी समुदाय विशेष या व्यक्ति विशेष से बदला नहीं लेना चाहते। उनका संघर्ष उस व्यवस्था और उन विचारों से है, जो इंसान-इंसान के बीच समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित संबंधों को बनने नहीं देता। वे अपने सारे दुख, आक्रोश और यातना को समेटकर एक न्याय और समता आधारित दुनिया का स्वप्न देखते हैं-
इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्तों में लपेटकर
ठूँठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टाँग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताज़े लहू से महकती सड़कों पर
नंगे पाँव दौड़ते
सख़्त चेहरों वाले साँवले बच्चे
देख सकें
कर सकें प्यार
दुश्मनों के बच्चों से
99अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर
(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)