Wednesday, April 24, 2024

‘लायक बनाता है, नालायक बेचता बिगाड़ता है’

नरेंद्र मोदी नीत भाजपा सरकार रेलवे बेच रही है। सरकारी बैंक बेचने को तैयार है। पुलिस विभाग बेच रही है। सड़कें बेच रही है। बस स्टेशन बेच रही है। बीएसएनएल-एमटीएनएल की जमीनें और इमारतें बेच रही है। कई और सरकारी कंपनियां बेच रही है। ऐतिहासिक धरोहर बेच रही है। यानी सरकार सब कुछ बेच ही रही है।

निजीकरण के नाम पर सरकारी संस्थानों की सेल लगी हुई है। इस तमाशे पर आपने बहुत से आर्थिक समाजिक, राजनीतिक विशेषज्ञों की राय देखा सुना-पढ़ा होगा, पर निजीकरण पर गांव-देहात के लोग क्या सोचते हैं, विशेषकर स्त्रियां, इसे जानना भी मौजूं है।

जनचौक संवाददाता ने इस विषय पर कुछ ग्रामीण महिलाओं से बात करके उनकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की।

नकारा, निकम्मा बिगाड़ने छोड़ कुछ बना नहीं सकता
प्रतापगढ़ निवासी सुशीला देवी कभी स्कूल नहीं गईं, पर जीवन की पाठशाला में पढ़े सबक के आधार पर वो निजीकरण जैसे मसले पर भी प्रतिक्रिया देती हैं। स्कूल, रेलगाड़ी, बैंक, सड़क, स्टेशन सरकार बेच रही है, बताने पर पर प्रतिक्रिया देते हुए गृहिणी सुशीला देवी कहती हैं, “जो नालायक होता है वो बिगाड़ना छोड़, बनाने की नहीं सोचता, और जो लायक होता है वो बनाना छोड़, बिगाड़ना नहीं सोचता।”

उन्होंने कहा कि जो नकारा होता है, निकम्मा होता है, बदचलन होता है वही बेचता है। वो पहले अपनी गैरज़रूरी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए घर के सामान बेंचता है और जब बेचने को कुछ नहीं बचता है तो आखिर में वो घर दुआर सब बेचकर पूरे परिवार को भीख मांगकर सड़कों पर गुज़ारा करने के लिए छोड़ देता है।

सार्वजनिक संसाधनों पर वर्ग विशेष के प्रभुत्व की घोषणा है निजीकरण
सुलतानपुर निवासी मैट्रिक पास गृहिणी कंचन निजीकरण के बाबत अपने निजी जीवन के अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “हम छः भाई बहन थे। मामूली आय में भी पिता ने हम लोगों को शिक्षा दिलवाया। कारण यही था कि सरकारी और एडेड स्कूलों का ताना-बाना बहुत मजूबत था, लेकिन आज हाल ये है कि दो बच्चों को प्राइमरी कक्षा पढ़ाने में हर करम हो जा रहा है।”

उन्होंने कहा कि निजी स्कूलों में पढ़ाना पहाड़ चढ़ने से कम मुश्किल नहीं है आज। निजी स्कूलों को खड़ा करने के लिए सरकारी स्कूलों को चौपट कर दिया गया। अब आर्थिक स्वायत्तता के नाम पर उच्च शिक्षा संस्थानों को निजी हाथों में बेंचने की तैयारी है। गरीब का अपने बच्चों को तालीम दिलाना नामुमकिन हो जाएगा।

संगीता निजीकरण को समाजिक न्याय विरोधी कदम बताते हुए कहती हैं, “सब कुछ बेच देने पर शिक्षा और तमाम सार्वजनिक संस्थानों, व्यवस्थाओं में दलित, आदिवासी, पिछड़ों को मिलने वाले प्रतिनिधित्व के अधिकार को खत्म करके ही सामाजिक न्याय की व्यवहारिक जमीन को नेस्तोनाबूद किया जा सकता है, जोकि ब्राह्मणवादी हिंदू राष्ट्र के लिए एक ज़रूरी शर्त है। इसीलिए सरकार सब कुछ बेचने पर उतारू है।”

बैंकों का निजीकरण हुआ तो बैंक जनता का भरोसा खो देंगे
सरकारी बैंकों और एलआईसी को बेंचने के सवाल पर गोरखपुर की 70 वर्षीय बुजुर्गवार करतोला देवी कहती हैं, “आय हो दादा! ई सरकार पगलाय गई बा का? दुनिया आगे जात बा और ई लोगे पीछे! पहिलेव प्राइवेट बैंक होत रहेन भैय्या। और अक्सर सुनै में आवै कि बैंक वाले सबके पैसा समेट के भाग जाएं। जिन कर रुपिया पइसा लइके बैंक और बीमा वाले भागि जायं ऊ बेचारेन के लागै जैसे अपने हथवे आपन रुपिया पइसा चोर डाकू के दई आएं औ फिर ऊ दहाड़ मार के रोवै। हालत ई रहा कि लोग-बाग बैंक में आपन पैसा रखै से कतराय लागे। बाद में इंदिरा गांधी सेठ साहूकार के हाथन से छीन के बैंकन के सरकारी कइ देहलिन। बैंकन के सरकारी भए के बादै हमन लोगन के भरोसा बैंकन में जमले हो बबुआ।”

करतोला देवी की बात का विस्तार करते हुए सवाल उठाया जा सकता है कि- यस बैंक के मालिक द्वारा 3760 करोड़ के घोटाले के बाद बैंक के डूबने के जो हालात रहे, जो लोग यस बैंक में खातेदार रहे हैं उनके दिल से पूछा जाना चाहिए कि उन पर क्या बीता होगा उस दौरान, जब आरबीआई ने यस बैंक से पैसा निकालने पे पाबंदी लगा दी थी। विजय माल्या और मेहुल चौकसी की तर्ज पर यदि यस बैंक का मालिक राणा कपूर सारा पैसा बटोर के विदेश भाग जाता तो? शारदा चिटफंड घोटाला और सहारा घोटाला में जिन गरीब किसान मजदूर लोगों का पैसा गया है उसके लिए क्या सरकारें जिम्मेदार नहीं हैं?  

सार्वजनिक संस्थान में एक अपनापन होता है। हमसे हमारा अपनापन छीना जा रहा है। एक मजदूर महिला गुलाबो देवी कहती हैं,  “हम गरीब गुरबे के लोग सरकारी संपत्ति में अपना हक़ समझते थे। गांव के सरकारी स्कूल में सिर्फ़ हमारे बच्चे ही नहीं पढ़ते। ग्रामीण जीवन के तमाम विशेष मौकों पर स्कूल भी शामिल होता है। शादी-ब्याह जैसे विशेष आयोजन हम सरकारी स्कूल के परिसर में आयोजित कर लेते हैं। बारिश होने पर सरकारी स्कूल के कमरे में बारात टिकाते आए हैं, लेकिन प्राइवेट स्कूल में हम ये सब नहीं कर सकते।”

उन्होंने कहा कि सरकारी अस्पताल जाते कभी डर नहीं लगा। दिक-बीमार होने पर खाली जेब भी पहुंच जाते, लेकिन प्राइवेट अस्पताल में हम ऐसा नहीं कर पाते। वहां पैसा गिनाने के बाद ही डॉक्टर मरीज को हाथ लगाता है। सरकारी अस्पताल सिर्फ़ एक व्यवस्था नहीं हैं हम गरीब मजलूमों के दुख में हमारे साथ खड़ा सबसे बड़ा संबल है।

गुलाबो देबी आगे कहती हैं, “रेलगाड़ी का तो क्या ही कहूं। हम गरीबों का अपने बच्चों को शहर में रखकर पढ़ाने का समरथ नहीं। रोजाना मेरे गांव के बच्चे रेलगाड़ी पर चढ़कर शहर की यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाते और शाम होते इसी से गांव लौट आते। गांव के पुरुष रेलगाड़ी पकड़कर ही शहर रोटी कमाने जाते-आते। बिल्कुल मामूली से किराए पर, लेकिन अगर रेलगाड़ी को सरकार ने प्राइवेट कर दिया तो किराया कई गुना बढ़ जाएगा।”

उन्होंने कहा कि हमारे बच्चे महंगा किराया चुकाकर शहर पढ़ने नहीं जा पाएंगे। हमारे गांव के पुरुष महंगा टिकट लेकर रोटी कमाने शहर नहीं जा पाएंगे। हम औरतें दो लुगरी उठाती और रेलगाड़ी से कभी मायके पहुंच जातीं, तो कभी गंगा नहाने। हमारी औरतों के लिए रेलगाड़ी जीवन की उम्मीद है सरकार रेलगाड़ी को बेंचकर हमसे हमारे जीवन की उम्मीद छीन रही है।

जब 70 साल में कुछ हुआ ही नहीं था तो बेंच क्या रहे हैं
गृहणी पुष्पा कहती हैं, “पिछले सात साल से ये सुनते-सुनते कान पक गए कि आजादी के बाद 70 साल में कुछ हुआ ही नहीं। जब कुछ हुआ ही नहीं, बना ही नहीं तो ये बेंच क्या रहे हैं। एकमुश्त रुपये और ताक़त की ज़रूरत बर्बादी के लिए होती है, आबादी के लिए नहीं।”

आंगनबाड़ी शिक्षक मीना देवी कहती हैं, “अमूमन संपत्ति बेंचने की ज़रूरत तब होती है जब आपको किसी बड़े खर्च के लिए एकमुश्त रकम चाहिए होती है। आखिर इस सरकार को इतने पैसे क्यों चाहिए? वो क्या नया बनवा रहे हैं। मंदिर? मूर्तियां? ये देश में कोई नया स्ट्रक्चर नहीं खड़ा कर रहे हैं। सरकार को देशव्यापी एनआरसी के लिए लगभग 55,000 करोड़ रुपये चाहिए जो कुछ न कुछ बेंचकर ही जुटाया जाएगा।”

उन्होंने कहा कि डिटेंशन कैंप और गैस चैंबर के लिए हजारों करोड़ रुपये चाहिए। कश्मीर और तूतीकोरिन की तरह बाकी राज्यों में विरोध करने वाले नागरिकों पर बंदूक तानने वाली सेना और पुलिस को मजबूत बनाने के लिए रुपये चाहिए, हिंदुओं के सशस्त्रीकरण के लिए रुपये चाहिए। इसीलिए ये सरकारी संपत्ति बेंच रहे हैं, ताकि एकमुश्त रुपये आ जाएं तो इनके मंसूबे फलीभूत हो सकें।” 

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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