Tuesday, March 19, 2024

फिर विवादों के घेरे में कॉलेजियम की कार्यप्रणाली

खबर आ रही है कि केंद्र सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त करने के लिए उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम की कुछ वकीलों के नाम की सिफारिशों पर रोक लगा दी है, जिनकी वार्षिक पेशेवर आय निर्धारित मानदंडों से कम है। दरअसल जब बार के किसी उम्मीदवार की उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए सिफारिश की जाती है, तो उस पर विचार करने के लिए यह जरूरी है कि उस व्यक्ति की कम से कम 5 सालों में औसतन 7 लाख रुपये की वार्षिक आय होनी चाहिए। फरवरी में कॉलेजियम ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए कुछ वकीलों के नामों की सिफारिश की थी।

दरअसल कॉलेजियम प्रणाली पूरी तरह विवादों में घिर गयी है। क्या कॉलेजियम को नहीं मालूम कि निर्धारित आय से कम आय वालों की हाईकोर्ट जज के रूप में नियुक्ति को सरकार की मंजूरी नहीं मिल सकती तो ऐसे नामों की संस्तुति ही क्यों की गयी? यह गड़बड़ी इलाहाबाद हाईकोर्ट के कॉलेजियम ने पहले की फिर उच्चतम न्यायालय ने उन नामों को मंजूरी के लिए केंद्र को भेज कर दूसरी गलती की। जबकि कालेजियम के सामने सबकी फाइलें रहती हैं।

कालेजियम की सिफारिशों में भी बड़ा झोल है और सरकार की मंजूरी भी विवोदों से घिरी है। अब जब उच्चतम न्यायालय किसी हाईकोर्ट की संस्तुति के आधार पर निर्धारित आयु 45 वर्ष से कम के किसी का नाम हाईकोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति के लिए अग्रसारित करती है तो नाम मनोनुकूल होने के नाते केंद्र सरकार उस पर आपत्ति नहीं लगाती और उसकी नियुक्ति हो जाती है क्योंकि उसका नाम उच्चतम अदालत के किसी माननीय के साथ जुड़ा होता है।

पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के लिए कालेजियम ने  जसगुरुप्रीत सिंह पुरी, सुवीर सहगल, गिरीश अग्निहोत्री, अलका सरीन और कमल सहगल  का नाम भेजा है। इनमें से जसगुरुप्रीत सिंह पुरी(जे,एस.पुरी )का नाम वर्ष 2011 में भी उच्च न्यायालय द्वारा भेजा गया था जिसे उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा रद्द कर दिया गया था।

इसी तरह सुवीर सहगल (आत्मज जस्टिस धर्मवीर सहगल) का नाम भी  वर्ष 2011 की सूची में था जिसे उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा रद्द कर दिया गया था। इसी तरह वर्ष 2012 में हरियाणा के तत्कालीन एडवोकेट जनरल कमल सहगल और वर्ष 2013 में गिरीश अग्निहोत्री का नाम पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के कॉलेजियम ने भेजा था और उसे  उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा रद्द कर दिया गया था। अब इसे क्या कहा जाय कि यह पक्षपात , भाई-भतीजा वाद ,राजनीतिक प्रतिबद्धता या न्यायपालिका को प्रतिबद्ध न्यायाधीश देने का अप्रत्यक्ष प्रयास है या ईमानदारी है? क्या कालेजियम का यह निर्णय उचित है।

इसी तरह एक आश्चर्यजनक कदम उठाते हुए उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम ने त्रिपुरा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति अकील कुरैशी के नाम की सिफारिश की है। इससे पहले कॉलेजियम ने 10 मई को केंद्र को भेजी गई अपनी पहली सिफारिश में जस्टिस कुरैशी को मध्य प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने का प्रस्ताव भेजा था, किंतु यह प्रस्ताव केंद्र से वापस आ गया।

इसके पहले गुजरात उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सुभाष रेड्डी को सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति दिए जाने के बाद यह उम्मीद थी कि उनके बाद गुजरात उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश जस्टिस कुरैशी को कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश के तौर पर पदोन्नति दी जाएगी। लेकिन इसकी जगह उनका तबादला बॉम्बे हाईकोर्ट में कर दिया गया और जस्टिस कुरैशी के बाद वरिष्ठतम जज एएस दवे को कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया। यह उच्चतम न्यायालय की कौन सी पारदर्शिता है।

इसी तरह मद्रास हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस  विजया ताहिलरमानी को 12 अगस्त 2018 को पदोन्नति देकर 75 न्यायाधीशों वाले मद्रास उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था, लेकिन अचानक ही उनका तबादला चार न्यायाधीशों वाले मेघालय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर कर दिया गया। जस्टिस ताहिलरमानी ने तबादले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया, जिसे  कॉलीजियम में चीफ जस्टिस  रंजन गोगोई के जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस  एनवी रमना, जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस  आरएफ नरीमन की कालेजियम ने ठुकरा दिया। इसके बाद जस्टिस ताहिलरमानी ने इस्तीफा दे दिया।

जब विधिक क्षेत्रों में इसे लेकर हल्ला मचने लगा तो सांय फुस्स में फैलाया गया कि जस्टिस ताहिलरमानी के तबादले के पीछे बेहतर न्याय प्रशासन की अवधारणा है क्योंकि वह अक्सर देर से आती थीं और अपना काम ख़त्म करके जल्दी ही चली जातीं थीं। इसमें पूर्व न्यायाधीश जस्टिस काटजू भी कूद पड़े थे और कहा था कि जस्टिस ताहिलरमानी कोर्ट में 12 से 12.30 तक बैठती थीं। लंच के बाद के स्तर में वे नहीं बैठती थीं।

अब  जस्टिस ताहिलरमानी ने अपना मौन तोड़ा है। मद्रास बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित  विदाई समारोह में ताहिलरमानी ने अपनी रिपोर्ट कार्ड बताते हुए कहा कि उनको संतुष्टि है कि इस अवधि में उन्होंने पांच हजार से अधिक मामलों का निपटारा किया। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य जस्टिस के रूप में एक साल से अधिक समय तक सेवा करने का मौका मिला इससे वे खुश हैं।

जस्टिस ताहिलरमानी के इस्तीफ़ा देने से यह सवाल उठ रहा है कि आख़िर मद्रास उच्च न्यायालय की चीफ जस्टिस को किस अपराध की सज़ा देते हुए उनका स्थानांतरण चार न्यायाधीशों वाले मेघालय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर किया गया? इस बीच जस्टिस ताहिलरमानी का  इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया है लेकिन इससे  एक बार फिर उच्चतम न्यायालय की कालेजियम की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

एडवोकेट्स एसोसिएशन ऑफ बेंगलुरु ने पत्र लिखकर  चीफ जस्टिस रंजन गोगोई से जजों की नियुक्ति, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, सुप्रीम कोर्ट के जजों के तबादलों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने का आग्रह किया है और उनसे कुछ जजों के “रहस्यमय” तबादलों के कारणों का खुलासा करने का भी निवेदन किया है। एसोसिएशन ने कॉलेजियम की निर्णय लेने की प्रक्रिया की अस्पष्टता पर अपनी चिंता व्यक्त की है।

कॉलेजियम की विवादास्पद कार्यशैली में पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव है और बहुत से निर्णय तर्कसंगत प्रतीत नहीं होते।  उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के लिये न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले की सिफ़ारिश करने वाली मौजूदा व्यवस्था कैसे बदलेगी यह शोध का विषय बन गयी है। दरअसल पूरा देश स्वतंत्र, निष्पक्ष और निडर न्यायपालिका चाहता है जिसमें न कॉलेजियम का हस्तक्षेप हो न सरकार का।

(लेखक जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ ही कानूनी मामलों के जानकार हैं।) 

   

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles