संगठन सरकार संस्कृति समीकरण और लोकतांत्रिक संभावनाएं

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केरल के 30 जुलाई 2024 को वायनाड में भीषण भू-स्खलन आया। वायनाड से नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का राजनीतिक संबंध तो जग जाहिर है, वायनाड के लोगों से उनका गहरा भावात्मक संबंध भी है। भीषण भू-स्खलन का राहुल गांधी पर पड़े गहरे मानसिक असर का अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है। वे भू-स्खलन पीड़ित क्षेत्र में थे। वहीं से उन्होंने बीच रात ट्वीट (X) पर लिखा जिसका आशय था कि भीतरी स्रोत से खबर मिली है कि दो में से किसी एक को संसद में उनके भाषण पर आपत्ति हुई है, उन पर ईडी का छापा मारने की तैयारी चल रही है। उन्होंने चाय बिस्कुट के साथ खुली बांह से स्वागत करने की भी बात लिखी।

असामान्य समय में किये गये इस अ-सामान्य ट्वीट (X) का असामान्य असर पड़ना था सो पड़ा। कांग्रेस और इंडिया अलायंस की तरफ जैसी क्रिया-प्रतिक्रिया होनी थी सो हुई। इस ट्वीट (X) का अर्थ लोगों ने भी तरह-तरह से लगाना शुरू कर दिया। राहुल गांधी पर प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) का छापा जब पड़ेगा तब पड़ेगा।

दो संदेश किसी को भी साफ-साफ समझ में आ सकता है। पहला यह है कि सिर्फ नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर ही नहीं इंडिया अलायंस के किसी भी नेता पर संस्थाओं की कार्रवाई होगी। दूसरा यह कि संस्थाओं के अधिकारीगण वर्तमान राजनीतिक हालात को देखते हुए विपक्षी राजनीतिक दलों के भी गुप्त संपर्क में हैं। अब यदि दूसरी बात सही है तो पहली बात का होना इतना आसान नहीं होगा।

जाहिर है कि संस्था के अधिकारियों की निष्ठा विभक्त होने की खतरनाक स्थिति के सामने पड़ जायेगी। यह सामग्रिक रूप से लोकतंत्र की दृष्टि से शुभ नहीं हो सकता है। ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों के नेताओं, खासकर एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की राजनीतिक पहल पर बहुत कुछ निर्भर करता है। उनकी पहल का इंतजार करना होगा।

असल में आम चुनाव 2024 का परिणाम भारत में सरकार और विपक्ष के बीच पहले से चली आ रही तनातनी का नया दौर शुरू हो गया है। इसका कारण यह है कि पूर्ण बहुमत के साथ के दस साल तक सत्ता में रहने बाद भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में स्वाभाविक और उल्लेखनीय गिरावट आई है। ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ और 370 सीट जीतने की तमन्ना के साथ चुनाव में उतरी भारतीय जनता पार्टी को अकेले दम पर बहुमत नहीं मिला और 240 में सिमट जाना पड़ा।

इतना ही नहीं भारतीय जनता पार्टी को मुख्य मुद्दा क्षेत्र में अधिक हार का सामना करना पड़ा। राम मंदिर और हिंदुत्व की राजनीति भारतीय जनता पार्टी का मुख्य राजनीतिक एजेंडा रहा है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ इस मुख्य राजनीतिक एजेंडा के वाहक के मुख्यमंत्री रहते हुए भी उत्तर प्रदेश में निर्णायक हार के कारण भारतीय जनता पार्टी न सिर्फ चुनाव हारी बल्कि अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा हार गई।

बहुत-मुश्किल से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनाव क्षेत्र बनारस से अपेक्षाकृत बहुत कम वोटों के अंतर से ही निर्वाचित हो सके। अपने को अवतारी मान लेने के दंभ में पहुंचे हुए नरेंद्र मोदी के लिए यह व्यक्तिगत धक्के से कम नहीं कहा जा सकता है।

कहावत ही है कि सफलता के सौ दावेदार होते हैं, विफलता हमेशा अनाथ होती है। सार्वजनिक रूप से नरेंद्र मोदी को हार के लिए जिम्मेदार मानना अपने सफल राजनीतिक ब्रांड को ही कमजोर करना हो सकता है। लिहाजा, भारतीय जनता पार्टी की ‘अनाथ विफलता’ के नाथ के रूप में योगी आदित्यनाथ को चिह्नित करने की कोशिश तो भारतीय जनता पार्टी की ओर से की गई, लेकिन इससे अपने भावी राजनीतिक ब्रांड को कमजोर करना होता।

हार के कारणों की तलाश में लगी कार्यकारिणी में घमासान होना ही था। ऐसी परिस्थिति में संगठन और सरकार की महत्व का सवाल उठा दिया गया है। सार्वजनिक रूप से भले ही किसी को जिम्मेदार बना दिया जाये लेकिन भीतरी तौर पर नरेंद्र मोदी भी जानते हैं कि जिम्मेदारी तो उन्हीं की है।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों के समर्थन पर किसी तरह से सरकार बनाने में कामयाब नरेंद्र मोदी और बहुत थोड़े से सरकार बनाने में चूक गये इंडिया अलायंस के बीच राजनीतिक संघर्ष चुनाव के मैदान से निकलकर अब संसद में पहुंच गया है। 18वीं लोकसभा के विभिन्न संसद सत्रों में धुरझाड़ राजनीतिक टकराव का माहौल बना रहेगा। यहां तक तो ठीक है, मुश्किल यह है कि सरकार राजनीतिक टकराव से निपटने के लिए संवैधानिक संस्थाओं के गैर-मुनासिब इस्तेमाल करने की कोशिश से सरकार हिचकेगी नहीं।

दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र में सत्ता के दुरुपयोग से रोकने की हैसियत एन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और नीतीश कुमार के नेतृत्व में जनता दल यूनाइटेड की है। इतनी स्पष्टता से लोकतंत्र की गरिमा को बचाने का उत्तरदायित्व 16 और 12 सांसदों वाले दो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के हाथ में है।

कहां तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को भारतीय जनता पार्टी ने रणनीतिक पुछल्ले के रूप में साथ लगाये रखने का सोचा था और कहां पुछल्ले की पूंछ पकड़कर टिके रह पाने की यह स्थिति! इस राजनीतिक स्थिति को देर-सबेर स्वीकार ले तो भी यह दुर्भाग्यजनक स्थिति नरेंद्र मोदी लंबे समय तक असहज करनेवाली है। असली घमासान तो इस बीच विभिन्न राज्यों के चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा।  

सरकार और विपक्ष दोनों ही लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी और अनिवार्य होते हैं। बल्कि कहना चाहिए कि लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकार से कम नहीं, अधिक ही होती है। ऐसा इसलिए कि विपक्ष की उपस्थिति ही लोकतंत्र को लोकतंत्र बनाता है। क्या राजतंत्र में विपक्ष होता है? सीधा, सरल और सुनिश्चित जवाब होगा, नहीं होता है। औपचारिक रूप से विपक्ष नहीं होता है, लेकिन हितों में टकरावों के चलते शासन के परिचालन के दौरान किसी भी प्रकार के शासन तंत्र में विपक्ष तो बन ही जाता है।

राज्य के शासन तंत्र में ही नहीं, संगठन और परिवार के तंत्र में भी पक्ष-विपक्ष तो बन ही जाता है! सरकार और विपक्ष के बीच षड़यंत्र होता रहता है। इस अर्थ में कहा जा सकता है कि सत्ता अपना विपक्ष खुद बना लेता है। मोटे तौर पर माना जा सकता है लोकतंत्र में विपक्ष ‘लोक’ की भूमिका में होता है। विपक्ष के स्वर में ‘चाहिए’ का प्रयोग अधिक होता है। ‘चाहिए’ में सपना छिपा होता है। सरकार के स्वर में ‘हुआ’ का प्रयोग अधिक होता है। ‘हुआ’ में यथार्थ अधिक होता है।

मुश्किल तब होती है जब सरकार का जोर यथार्थ से अधिक सपना पर हो जाता है। सरकार का जोर सपना पर अधिक होने की प्रवृत्ति सरकार को विपक्ष के कार्य-क्षेत्र में ले जाती है, और विपक्ष से टकराव शुरू हो जाता है। सरकार के पास सत्ता की शक्ति होने के कारण वह विपक्ष को दबाना शुरू कर देता है। दबा हुआ विपक्ष सत्ताधारी दल को सत्ता में बने रहने की स्थिति को अनुकूल बनाये रखता है। भारत के लोकतंत्र में सरकार के रुख और रवैये को इस नजर से देखने पर सरकार और विपक्ष की स्थिति कुछ अधिक स्पष्ट हो सकती है।

पिछले दिनों संगठन बड़ा है या सरकार बड़ी है, इस पर नये सिरे से चर्चा शुरू हो गई है। इस मिजाज की चर्चा पहली बार नहीं हो रही है। यह जरूर है कि 2024 के भारतीय जनता पार्टी के परिसर में शायद पहली बार इस तरह की चर्चा शुरू हो गई थी। समझौता के बाद लगता है, अभी भारतीय जनता पार्टी में यह संगठन और सरकार का द्वंद्व फिलहाल शांत दिखता है।

जाहिर है कि भारतीय जनता पार्टी की इस सांगठनिक ‘शांतिकाल’ में विपक्ष को निपटाने का और सत्ता के सहयोगियों को इसी ‘शांतिकाल’ में आत्मसातीकरण (Assimilations) की प्रक्रिया से मिलाने का पवित्र कार्य नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दक्षतापूर्वक संपन्न हो जायेगा ‘शांतिकाल’ का ‘शुभ मुहूर्त’ विधानसभा के चुनाव के बाद आयेगा। जब भी आयेगा देखा जायेगा।   

राहुल गांधी वायनाड में भू-स्खलन से पीड़ित लोगों के बीच न का दुख-दर्द सुनने गये थे, वहां उन्हें प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate ) के गुप्त स्रोत का संदेश सुनाई पड़ रहा था। लोकतांत्रिक और प्राकृतिक विपदाओं के संदेश कान में एक साथ घुल-मिलकर सुनाई देते हैं। आदमी किसको पहले सुने और किस को बाद में सुने उसके हाथ में नहीं रह गया है।

लोकतांत्रिक विपदाओं की आवाज तो हम सुनते ही रहते हैं। लेकिन, प्राकृतिक विपदाओं की बढ़ती हुई घटनाओं की चेतावनियों को ध्यान से पढ़े जाने की जरूरत है। पर्यावरण और पर्यावरण-समस्याओं का अध्ययन करनेवालों की बात को अधिक ध्यान से सुने और समझे जाने की जरूरत है।

साधारण मनुष्य इस मामला में क्या कर सकता है? अपने कान खड़े रख सकता है और चेतावनियों पर चिंता व्यक्त कर सकता है। यह ठीक है कि अत्यधिक घबराने की जरूरत नहीं है, लेकिन सावधान रहने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। अभी यह कहना ठीक नहीं है कि प्रकृति हमलावर हो गई है, लेकिन इतना समझना जरूरी है कि प्रकृति क्रोध में है।

प्रकृति के इस क्रोध की अभिव्यक्ति प्राकृतिक विपदाओं में हो रही है। यहां यह ध्यान में रखकर ही बात की जा सकती है कि ‘प्रकृति के क्रोध में’ होने की बात कहना प्रकृति के मानवीकरण से शुरू करते हुए हमें प्रकृति के ईश्वरीयकरण तक ले जा सकता है। प्रकृति के अप्राकृतिक स्वभाव का प्रभाव कुछ देर के लिए ही सही, डर की मनःस्थिति में तो डाल ही देता है।

ध्यान दिया जा सकता है कि यह डर बहुत आसानी से मनुष्य को ईश्वर का शरणागत बना देता है। ईश्वर का शरणागत होना तब तक बुरा नहीं है, जब तक कि ईश्वर की शरणागति मनुष्य के द्वारा मनुष्य के हर प्रकार के शोषण के अवरोध और विरोध की नैतिक प्रेरणाओं का सक्रिय आधार बनी रहती है।

कोई चश्मा के बिना पढ़ सकता है तो पढ़ ले, ईश्वर की शरणागति में पढ़ सकता है तो पढ़े, लेकिन नैतिकता का मानवीय पाठ पढ़ना मनुष्य के लिए अनिवार्य होता है। ईश्वर की शरणागति या उपस्थिति का बोध मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण की असामाजिक प्रक्रिया में न तो नैतिक अवरोध पैदा करता है, न राजनीतिक विरोध की दृष्टि देता है। बल्कि होता इसके विपरीत ही है।

उदाहरण के लिए एक प्रसंग इतिहास से। 15 जनवरी 1934 को बिहार में विनाशकारी भूकंप आया था। 24 जनवरी 1934 की सभा में महात्मा गांधी ने अंध-विश्वासी कहे जाने की परवाह के बिना इसे सामाजिक समस्या, अर्थात  इंसान से जोड़ते हुए अस्पृश्यता-जनित व्यवहार के लिए मिले प्राकृतिक दंड कहा।

26 जनवरी 1934 को व्यापारियों की सभा में कहा कि अहंकार ही किसी से अपने को श्रेष्ठ मानने के भ्रम में डालता है। वे लगातार अस्पृश्यता के दंड के रूप में भूकंप की व्याख्या करते रहे। कवि-गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भौतिक घटनाओं को भौतिक तथ्यों से जोड़ने का तर्क देकर महात्मा गांधी के वक्तव्य को अंध-विश्वास फैलानेवाला बताते रहे। लेकिन महात्मा गांधी तर्क-वितर्क करते हुए भी अपनी ही बात पर कायम रहे।

यहां, इस प्रसंग का उल्लेख महात्मा गांधी को अंध-विश्वासी बताने के लिए नहीं किया जा रहा है। ईश्वर की उपस्थिति पर आस्था और विश्वास के साथ जीनेवाले किसी मनुष्य के द्वारा अन्य मनुष्य के साथ किये जानेवाले असामाजिक व्यवहार के चलन में अवरोध उत्पन्न करने के लिए अंध-विश्वास का भी इस्तेमाल करने से नहीं झिझकनेवाले ‘महात्मा’ के रूप में किया जा रहा है। चाहे इसके लिए कवि-गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसा महान और निकटस्थ व्यक्ति भी उसे अंध-विश्वास फैलानेवाला ही क्यों न मान ले!

यहां, यह भी कहना जरूरी है कि इस अर्थ में महात्मा गांधी ‘निष्फल महात्मा’ ही साबित होते हैं। क्योंकि आस्था और विश्वास के साथ जीनेवालों को दिया गया ईश्वरीय दंड की अंध-विश्वासपूर्ण सलाह मनुष्य के साथ किये जानेवाले उनके असामाजिक व्यवहार में धार्मिक झिझक या नैतिक संकोच में नहीं डालती है।

ईश्वर अंतिम न्याय का भ्रामक आश्वासन होने के बावजूद असहाय साधारण जन के लिए एक सहारा तो होता ही है। इस आश्वासन का छिन जाना दुख को असह्य बना देता है। ईश्वर और नैतिकता में विच्छिन्नता को नहीं रोक पाना इस सभ्यता की सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनीतिक विफलता साबित हो रही है।

इस सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनीतिक विफलता से निकलने के लिए नागरिक समाज के अगुआ लोगों को संवैधानिक न्याय के सुनिश्चित होने के उपायों के बारे में तत्पर प्रयास करना होगा। स्पष्टीकरण कुछ भी हो, कौन कहेगा कि अन्याय से मनुष्य को न ईश्वर बचा पा रहे हैं, न तंत्र बचा पा रहा है।

मनुष्य तंत्र से ही उम्मीद कर सकता है, तंत्र पर ही भरोसा कर सकता है। यह उम्मीद और भरोसा तभी बच सकता है, जब मनुष्य तंत्र को दुरुस्त रखने में कामयाब रहे। तंत्र को बिगाड़ने में लगे लोगों की पहचान कर उन्हें लोकतांत्रिक सत्ता से दस अंगुली दूर ही रोक ले।  

इन दिनों भारत में आस्था और विश्वास का जबरदस्त राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। आस्था और विश्वास का नहीं, राजनीतिक उद्देश्य से अंध-विश्वास का भी जोरदार इस्तेमाल हो रहा है। आस्था और विश्वास के नाम पर फैलाये गये अंध-विश्वास का जोरदार माहौल और सामाजिक अन्याय और आर्थिक शोषण एक साथ सहज जीवनयापन और जीवन में एक साथ संकट खड़ा कर रहा है।  

प्राकृतिक विपदाओं के चलते देश में अनिश्चितता की आशंकाओं और मौत का वातावरण बन गया है। आस्था और विश्वास के नाम पर अंध-विश्वास फैलानेवालों के कारोबार में लगे लोगों के लिए बहुत मुफीद मौसम है। जन-साधारण के मन में ईश्वर के प्रति शरणागति का मनोभाव नये सिरे से जग रहा है। ईश्वर के प्रति शरणागति और समर्पण का यह मनोभाव अन्याय और शोषण का हथियार बनता रहा है। इस मनोभाव से बचाव का रास्ता क्या हो सकता है? यह विचारणीय है। रास्ते कई हो सकते हैं। इनमें से एक रास्ता लोकतंत्र का है। इसी मनोभाव से लोकतंत्र को भी खतरा है।  

आज पवित्र राष्ट्र के रूप में भारत का मूल-संघर्ष क्या है? मनुष्य के रूप में भारतीयों का मूल-संघर्ष क्या है? मानव सभ्यता का मूल-संघर्ष क्या है? आर्थिक गैरबराबरी, सामाजिक अन्याय से बचना-बचाना मूल-संघर्ष है। सह नागरिकों, व्यक्तियों और समुदाय का ‘मूल’ खोजने और खोदने की प्रवृत्ति और शक्ति से बचाव का संघर्ष सभ्यता का मूल-संघर्ष है।

सह नागरिकों के बीच गंगा-जमुनी संस्कृति के अनुरूप  संगठन, सरकार, संस्कृति, समीकरण और भेद-भाव मुक्त लोकतांत्रिक संभावना को बचाये रखने का संघर्ष आज भारत के लोगों का मूल-संघर्ष है। “हम भारत के लोग” ही इस संघर्ष में निर्णायक भूमिका निभाते आये हैं, उम्मीद है तो यही है; उम्मीद की बात तो कोई और नहीं!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं) 

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