कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में रविवार को हुयी रैली बंगाल की राजनीति के पिच के बारे में अब तक बनाई और बताई गयी धारणा से अलग संकेत देकर गयी है। ये क्या हैं और क्यों हैं यह मुद्दा अगले कुछ दिनों तक राजनीतिक विश्लेषकों की बहस का विषय बना रहने वाला है। फिलहाल इतना साफ़ है कि इसमें जुटे जनसमूह ने खासतौर से बंगाल और आमतौर से अगले दो महीनों में होने वाले चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभाओं के लिए होने वाले चुनावों को लेकर योजनाबद्ध तरीके से तैयार किये गए एकतरफा नैरेटिव के कुहासे को सूरज दिखा दिया है।
यह रैली सिर्फ परिमाण में ही बड़ी नहीं थी। इसमें परिणाम को भी प्रभावित कर सकने वाले ऐसे कारक थे जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यूँ भी राजनीतिक रैलियों में आयी जनता सिर्फ अपनी तादाद से ही नहीं बोलती – वह इस भागीदारी के दौरान अपनी मुखरता की तीव्रता के जरिये भी कुछ कहती है। इन दोनों ही मायनों में वामपंथी दलों द्वारा बुलाई गयी तथा वाम-कांग्रेस-इंडियन सेक्युलर फ्रंट गठबंधन वाले संयुक्त मोर्चा बंगाल की हिस्सेदारी वाली रैली, कम से कम भी कहें तो, आगामी विधान सभा चुनाव के बारे में एक नया आयाम सामने लाती है। बंगाल को लेकर हाल के दौर में गढ़े गए समीकरणों की विश्वसनीयता पर बड़े प्रश्न चिन्ह खड़े करती है।
ब्रिगेड परेड ग्राउंड (बंगाल इसे सिर्फ मैदान के नाम से जानता है) देश का सबसे बड़ा सभा स्थल है। इसमें कोई 10 लाख लोग समाते हैं। इसे जब भी भरा है तब सिर्फ सीपीएम या उसकी अगुआई वाले वामपंथ ही ने भरा है। रविवार की रैली में यह न सिर्फ पूरा भरा था बल्कि इसमें न समा पाने वालों की भीड़ मैदान के बाहर भी बड़ी तादाद में थी। इससे भी बढ़कर था उस भीड़ का जाहिर उजागर मुखर उत्साह। सूचनाओं के लिए कथित बड़े मीडिया पर निर्भर देश की जनता को बंगाल के बारे में अभी तक दो ही बातें बताई गयी थीं। एक; बंगाल में वाम पूरी तरह ख़त्म हो चुका है और अब मुकाबला सिर्फ टीएमसी और भाजपा के बीच है और दो; टीएमसी भी चलाचली की बेला में हैं। उसके भी ज्यादातर बड़े नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं इसलिए ममता की हार उतनी ही तय है जितनी कि भाजपा की जीत।
यूं तो पिछले दो महीने से जिलों जिलों में की जा रही वाम मोर्चे की विशाल भागीदारी वाली रैलियों – जिनका देश के इस बड़े मीडिया ने जिक्र तक नहीं किया – ने ही इस दावे की जमीनी सच्चाई उजागर कर दी थी, मगर रविवार की रैली ने तो इस गुब्बारे की हवा ही निकाल दी है। इसमें कोई शक नहीं कि मेहनतकश जुझारू जनता के बीच अपनी दैनंदिन मौजूदगी और गाढ़े रिश्ते के चलते वामपंथी दल दूसरे दलों की तुलना में सभाओं, जुलूसों में हमेशा ही ज्यादा बेहतर भागीदारी करा ले जाते हैं। मगर रविवार को हुए मैदान के उत्सवी समावेश का महत्त्व इस आधार पर कम करके देखना सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा सकता। खासतौर से इसलिए कि वाम की भागीदारी प्रायोजित नहीं स्वैच्छिक होती हैं। भीड़ लुभाने के लिए भुगतान और दीगर व्यवस्थाएं या साधन इस्तेमाल करना वाम राजनीति का अंग नहीं है। ऐसे में इस तरह की भागीदारियां तभी मुमकिन हैं जब एकदम धरातल तक जुड़ा नेटवर्क हो, समर्पित और जनस्वीकार्यता वाले कार्यकर्ता हों। ठीक यही बात है जिसे अनेक “मनीषी राजनीतिक विश्लेषक” नहीं समझ पा रहे हैं। ठीक यही बात है जिसके चलते बंगाल भाजपा के लिए अभी भी बहुत दूर है।
इसकी एक बड़ी वजह बंगाल भाजपा का प्रोफाइल है। जिस भाजपा को ममता बनर्जी का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी और सत्ता में पहुँचने का तगड़ा दावेदार बताया जा रहा है उस भाजपा के पास बंगाल में अपना कुछ भी नहीं है। छः साल के मोदी राज और सारे छलबल, उसके लिए झोंके गए अकूत पैसे और दलबल के बाद भी वह अभी तक अपना कहने लायक कुछ भी नहीं दिखा पाई है। उसके घनघोर समर्थक भी दो बातों पर एकमत हैं कि बंगाल में भाजपा को नेता टीएमसी से उठाकर लाने पड़े हैं और मतदाता वामपंथ से जुटाने पड़े हैं। यह जानने के लिए हालांकि मैदान रैली की जरूरत नहीं थी तब भी इस समावेश ने यह बता दिया है कि आज भी गाँव-बस्ती-टोले-मजरे और मोहल्लों तक नीचे तक फैला सांगठनिक ढांचा या तो वामपंथ के पास है या उसके बाद कांग्रेस के पास। इसके अलावा किसी के पास कोई नेटवर्क है तो वह टीएमसी के पास है जो अब इसके अनेक नामी नेताओं के भाजपा की तिजोरी में दाखिल हो जाने के बाद काफी हद तक था हो गया। भाजपा को अब इन्ही उधार लिए खिलाड़ियों से काम चलाना होगा।
राजनीति में दो का दो से मिलना हमेशा चार नहीं होता। तृणमूलियों को गाजर मूली की तरह खरीद कर अपना बनाने की इस डेढ़ सियानपट्टी में भाजपा ने हासिल कम किया गंवाया ज्यादा है। उसके रणनीतिकार यह भूल गए कि गुजरे कुछ चुनावों में जो मतदाता भाजपा की तरफ शिफ्ट हुए थे उसकी एकमात्र वजह तृणमूल कांग्रेस की वहशी गुंडागर्दी और हत्यारी मुहिम थी। ऐन विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उन्हीं मस्तानों और बाहुबलियों को भाजपा द्वारा अपना नेता बनाना और इसी दौरान वामपंथ का तेजी के साथ उभर कर खुद को संकल्पबद्ध दिखाते हुए बंगाल के धर्मनिरपेक्ष दलों का साझा मोर्चा बनाना – दो ऐसे बड़े पहलू हैं जिनके असर को जांचे बिना बंगाल के बदल चुके राजनीतिक हालात समझे नहीं जा सकते।
दूसरा बड़ा और बुनियादी आधार है खुद बंगाल का प्रोफाइल। मेहनती जनता के आंदोलनों की इसकी लम्बी परम्परा। इसके चलते बीच मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानून और चार लेबर कोड बंगाल में मतदान का एक बड़ा और निर्णायक कारण बनेंगे। हाल में हुए केरल के स्थानीय निकायों के चुनाव में वहां के वाम जनवादी मोर्चे की अभूतपूर्व और असाधारण जीत के पीछे एक कारण ठीक उस समय देश भर में चल रहे किसान आंदोलन को भी माना गया था। बंगाल की राजनीति की तो धुरी ही मजदूर और किसान आंदोलन रहे हैं। वाम की चुनावी कमजोरी और पराजयों के बीच भी वहां मजदूर किसानों की लड़ाई में कोई कमजोरी या ढिलाई नहीं दिखी है। इसलिए बिना किसी अतिरंजना के कहा जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में ये निर्णायक मुद्दा होंगे ही।
भ्रष्टाचार एक पहलू है जिस पर ममता और भाजपा एक दूसरे को मात देती नजर आती हैं। किन्तु बंगाल की जनता का सामाजिक स्वभाव एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है। यही स्वभाव है जिसके कारण प्रतिद्वंद्वात्मक साम्प्रदायिकता फैलाने के सारे धतकर्मों के बावजूद ममता बनर्जी बंगाल में भाजपा को न्यौता देकर लाने के अपराध से मुक्त नहीं हो पाई हैं। बंगाल की धर्मनिरपेक्षता की मजबूत परम्परा में मट्ठा डालने के उनके पाप के लिए जनता ने उन्हें कभी माफ़ नहीं किया। कभी वाजपेई तो कभी आडवाणी की तारीफ़ के पुल बाँधने और गुजरात दंगों के बाद भी मोदी पर अनुराग उड़ेलने के ममता बनर्जी के काम इतने ताजा हैं कि उनके पक्के समर्थक भी दावे से नहीं कह सकते कि वे आइंदा कभी भाजपा के साथ नहीं जाएंगी। रविवार की मैदान रैली ने धर्मनिरपेक्षता की हिमायती इन ताकतों को भी हौसला दिया है।
मैदान के संदेशे भारतीय संविधान और लोकतंत्र की सलामती को लेकर उठ रहे अंदेशों के बरक्स उम्मीद जगाने वाले हैं।
(बादल सरोज पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)