आजादी का पहला प्रसंग है, बोलने की आजादी। प्राणी धरती पर अस्तित्व में आते ही अपनी उपस्थिति की घोषणा करता है। ‘घोष’ का अर्थ ही होता है, ‘आवाज’। आदमी पूरी जिंदगी एक दूसरे को आवाज देते हुए बिताता है। आवाज की शक्ति को भारतीय मनीषियों ने शुरू में ही पहचान लिया था। तभी तो, उन्होंने आवाज यानी शब्द को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा दी। अच्छी आवाज को ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ तक कहा।
बोलने और कहने में फर्क होता है। कई बार आदमी बोलता बहुत है, कहता कुछ नहीं है। कई बार बोलता कुछ नहीं, कहता बहुत कुछ है। बहुत असर डालती है जीवन में खामोशी भी। विज्ञान के अनुसार आवाज का मौलिक संबंध आघात से होता है। आघात से ही आवाज की उत्पत्ति है। हालांकि ‘आघात’ के अर्थ का रुख नकारात्मक ही दिखता है, लेकिन देखा जाये तो आघात के बिना तो जीवन के महत्वपूर्ण काम-काज हो ही नहीं सकते हैं। न मिस्त्री काम कर सकता है और न इंजीनियर! न कुंभ बन सकता है, न कुम्हार काम कर सकता है। आवाज के बिना न निर्माण हो सकता है न निर्वाचन। जब ‘वाचन’ में ही ध्वनि है तो ‘निर्वाचन’ के क्या कहने! आघात के बिना न आवाज होती है और न आवाज के बिना जीवन के अन्य काम! आघात का तारतम्य सही हो तो संगीत, न हो तो शोर।
आघात न हो तो न गुरु शिष्य को गढ़ पाये, न कुंभ को कुम्हार! राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ भारतीय जनता पार्टी का गुरु ही तो है! यह जरूर है कि पिछले दिनों गुरु गुड़ रह गया और शिष्य तो शिखर हो गया। शिखर हो गया और सिर पर चढ़कर नृत्य-कर्म करने लगा था। ‘दो-चालीसा 240’ का दौर शुरू होते ही ‘सिर पर चढ़कर नृत्य-कर्म’ घटने लगा तो गुरु ने ग्रसना शुरू कर दिया। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख बार-बार भारतीय जनता पार्टी पर ‘आघात’ कर रहे हैं। मीडिया नहीं बता रहा कि इस आघात से कैसी-कैसी और क्या-क्या आवाज निकल रही है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के घर-झगड़ा से विरोधी लोगों में थोड़ी-बहुत राहत महसूस की जा रही है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का भारतीय जनता पार्टी पर चोट कुंभ पर कुम्हार की चोट की तरह है। कबीर की गवाही, ‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै बाहर बाहै चोट।’ कबीर ने बिना बोले जो कहा वह तो यह है कि निर्माणाधीन या कच्चे घड़े को ही संवारने में कुम्हार का अनुशासन-प्रशासन काम करता है!
भारतीय जनता पार्टी के ‘गुरु’ ने जो कमाल का ‘पक्का घड़ा’ गढ़ा है, उसका मिजाज अनुशासन-प्रशासन की आवाज से अब सुधरनेवाला नहीं लगता है। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की सुनने के लिए भी तैयार नहीं है, सुधरने की कौन पूछे! ‘पाप का घड़ा’ भर जाने पर उसका फूटना तय हो जाता है, यह शास्त्र में वर्णित है। इसी शास्त्र को शस्त्र में बदलकर गुरु-शिष्य दोनों, बहुमतवाले मतवाले बने, पूरे देश को धुआं-धुआं कर रहे थे! 2024 के आम चुनाव ने ‘पाप के घड़ा’ में छेद कर दिया है, मतवाले-बहुमत में दरार आ गई है। अब राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के ठोक-पीट से इसकी मरम्मत होनेवाली नहीं है। यह जरूर है कि रिसते हुए ‘पाप के घड़ा’ से कुछ राजनीतिक-दल अपने-अपने जार में माल भरने कि फिराक में लगे हुए हैं। जल्दी ही इस माल के जहरीले प्रभाव का पता उन्हें भी चल जायेगा! राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के ‘चिंतक’! ‘चिंतक’! नहीं-नहीं चिंता करनेवाले ‘बौद्धिक’ का माना है कि ये लोग अभी भी नागरिकों को ‘ट्रोल’ करने के खतरनाक इरादा से बाज नहीं आ रहे हैं, बजट के मामला में दुनिया ने अभी-अभी देखा है!
कहा जाता है कि क्रिकेट के मैदान में कबड्डी का खेल नहीं होता है। लेकिन माइक बंद का खेल कहीं भी हो सकता है। संसद में प्रतिपक्ष का माइक बंद करने का खेल अब नीति आयोग के मैदान में भी पसर गया है। लोकतंत्र में माइक बंद का निर्णय ‘सब कुछ’ पर नियंत्रण का ही तो परिमाण और प्रमाण है, प्रभु! हां, यह भी ठीक है प्रमुख जी कि ‘सब कुछ’ पर नियंत्रण करनेवाला राक्षस होता है। अचरज तो यह है कि इस राक्षसी गुण का पता अब चला है, जब बहुमत में छेद हो गया है! जबरा मारे और रोने भी न दे! यह लोकतंत्र में नहीं चल सकता है, यह दस साल से चल रहा है तो इसका मतलब साफ-साफ समझना चाहिए कि लोकतंत्र नदारद और स्थगित है।
इतना ही नहीं, यह लोकतंत्र के स्थगित होने का ही लक्षण नहीं, बल्कि राक्षसी शासन के सक्रिय होने का भी गाढ़ा लक्षण है। राक्षसी शासन क्या होता है? राक्षसी प्रवृत्ति और फासीवादी प्रवृत्ति में बहुत समानता है; सर्वसत्तावाद, फासीवाद का प्रति-शब्द हुआ यह, ‘राक्षसवाद’। पश्चिम बंगाल की माननीय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का माइक बंद करना सरकारी पक्ष के बेहद खतरनाक इरादा, पक्षपात-पूर्ण रवैया, राजनीतिक प्रतिशोध का ही मामला लग रहा है। ‘सब कुछ पर नियंत्रण’ राक्षसवाद का नमूना है।
किसी भी देश के वर्तमान लोगों की मानसिक बनावट को समझने के लिए उस देश की संस्कृति के बनने कि प्रक्रिया को समझना बहुत जरूरी होता है। समुदाय और व्यक्ति की सांस्कृतिक और इस अर्थ में राजनीतिक संबद्धता को भी परखने का साधारण सा उपाय है कि किसी घटना या प्रसंग में उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया में कितनी समानता और अ-समानता है। व्यक्ति और समुदाय की क्रिया-प्रतिक्रिया का निर्णय, नियंत्रण और निर्धारण उसके मानस की बनावट पर निर्भर करता है।
मानस की बनावट एक तरह से सांस्कृतिक और राजनीतिक संबद्धता से तय होती है। सांस्कृतिक संबद्धता की निर्मिति पुरखों की भौगोलिक परिस्थिति, समग्र पर्यावरण, जीवनयापन शैली, आस्था और विश्वास की मर्म-कथाओं, रस-परंपरा या भाव-परंपरा, ज्ञान-परंपराओं जैसी कई बातों पर निर्भर करती है। राजनीतिक संबद्धता का निर्धारण वर्तमान की भौगोलिक परिस्थिति, समग्र पर्यावरण, जीवनयापन के अवसरों की उपलब्धता की संभावनाओं के आकलन, आस्था और विश्वास, संपर्क और प्रेरणाओं जैसी कई बातों पर निर्भर करती है। इस अर्थ में नया जीवन बिल्कुल ही नया, अपने पुरखों से सर्वथा पृथक, भिन्न और विच्छिन्न नहीं होता है। पुराने पर ही नया पानी चढ़ता है।
भारत के अधिकतर लोगों के मानस की बनावट में जिन मर्म-कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान है उस के दो सह-बद्ध स्रोत हैं, रामकथा और महाभारत। भारत के अधिकतर लोगों की धर्म-कथाओं में भिन्न- अभिव्यक्ति के बावजूद उन की मर्म-कथाओं के मूल प्रभाव में समभाव सक्रिय रहता है। इन मर्म-कथाओं का मूल संदेश राक्षसवाद के विरुद्ध और समभाव के पक्ष का संघर्ष है।
भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के बनने में इस समभाव के पक्ष में हुए और होनेवाले संघर्ष का गहरा असर जरूर है। राजनीतिक तौर पर साफ-साफ कहा जाये तो चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए समभाव पर बहु-तरफा चोट पहुंचती रही है। चुनावी जीत के बाहर भी सामाजिकों और नागरिकों के बीच मानसिकता विभाजन के लिए सत्ताधारी दल और उसके राजनीतिक कार्यकर्ताओं के ध्रुवीकरण में हमेशा लगे रहने की प्रवृत्ति खतरनाक हद तक बढ़ गई है। मुश्किल यह भी है कि तैनाती-तरक्की-तबादला की अनुकूलता की तलाश में लगे सरकार के कार्मिकों में राजनीतिक आका के दबाव में राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल जाने में भी काफी तेजी बढ़ गई है।
ध्रुवीकरण की किसी भी प्रक्रिया को समझने और उसके आधार को निरस्त करने के लिए समभाव के बनने की प्रक्रिया को सक्रिय करने पर अविलंब ध्यान देने की जरूरत है। राजनीतिक समभाव की प्रक्रिया को बहाल रखने में कुछ हद तक संविधान कामयाब है; कायम भी है। सामाजिकों की मानसिकता में विभाजन की दीवार खड़ी करने की प्रक्रिया को निष्क्रिय करने के लिए सामाजिक स्तर पर नागरिक समाज के अगुआ लोगों को ही पहल करनी होगी। कुछ ‘अतिरिक्त-समझ’ के जन-प्रतिनिधियों के मुंह से ऐसी ‘वाणी’ निकल आती है कि ‘जो हमारे साथ हैं, हम उस के साथ हैं’। चतुर शासक कहता भले हो ‘सब का साथ, सब का विकास, सब का विश्वास’ लेकिन व्यवहार में उसकी नीति होती है, ‘सब का साथ लेकर अपना और अपनों में भी गिने-चुने का विकास और किसी पर नहीं कोई विश्वास’!
आवाज शक्ति का महत्वपूर्ण स्रोत है। नागरिकों के स-शक्तिकरण के लिए लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी भी तरह से बाधित, सीमित या समाप्त करना प्रकारांतर से लोकतंत्र को ही खंडित करता है। खंडित लोकतंत्र का नागरिक शक्ति-हीन होता है। खंडित लोकतंत्र के राक्षसतंत्र में बदलते बिल्कुल देर नहीं लगती है! राक्षसवादी विचारधारा को शक्ति-हीन नागरिक अपने अनुकूल लगता है। शक्ति-हीन नागरिक और उसके प्रतिनिधि राक्षसवाद और राक्षसतंत्र के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज न बुलंद करने लग जायें इसलिए राक्षसतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तरह-तरह से बाधित करने में लगा रहता है।
किसी भी जनांदोलन की आवाज को रोकने, बड़े-असर और शक्ति-हीन बनाने के लिए मीडिया का अनुकूलन और माइक बंद कर देना सामान्य प्रक्रिया है। तरह-तरह की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए आवाज को ‘सिस्टम’ से बाहर और आवाज करनेवालों को जेल के अंदर कर दिया जाता है। स्थिति की भयावहता यह है कि प्रतिकूल आवाजों को बंद करने के लिए सत्ता-समर्थित राजनीतिक कार्यकर्ता ’बल-प्रयोग’ और प्राण-नाश से भी बाज नहीं आते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शक्ति का पक्षपात लोकतंत्र के पक्षाघात का कारण होता है। प्रमुख जी, ‘240’ का ही कमाल है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थोड़ी-बहुत सांस ले रही है, आप भी बोल पा रहे हैं! अन्यथा शक्तिशाली दिखनेवाले शक्ति-हीन के मौन को उसकी स्वीकृति का लक्षण तो माना ही जाता है। आवाज में शक्ति है, प्रभु बोलते रहें!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)