Saturday, April 20, 2024

सांसदों ने की सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था को सशक्त बनाने की वकालत

नई दिल्ली। संसद के मानसून सत्र समापन के पहले 12 अगस्त, 2021 को बच्चों की स्कूली शिक्षा एवं कोविड-19 की चुनौतियों के संदर्भ में राइट टू एजुकेशन फोरम की ओर से सांसदों के साथ एक वर्चुअल संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस ऑनलाइन कार्यक्रम की अध्यक्षता पूर्व विदेश सचिव सह काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट के अध्यक्ष मुचकुंद दुबे ने किया। कार्यक्रम के दौरान फोरम की ओर से एंजेला तनेजा, असमानता अभियान नेतृत्वकर्ता और शिक्षा विशेषज्ञ, ऑक्सफेम इंडिया ने पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन के जरिए बच्चों की शिक्षा की मौजूदा स्थिति से अवगत कराया। उन्होंने महत्वपूर्ण तथ्यों और आंकड़ों का हवाला देते हुए भारत में स्कूली शिक्षा की वर्तमान स्थिति को दर्शाया। राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय सचिवालय में समन्वयक मित्ररंजन ने विषय प्रवेश कराते हुए कोरोना काल में बच्चों की शिक्षा की चुनौतीपूर्ण स्थिति पर प्रकाश डाला।

इस कार्यक्रम के दौरान सांसद सर्वश्री प्रदीप टम्टा (इंडियन नेशनल कांग्रेस, राज्य सभा, उत्तराखंड); डॉ. मोहम्मद जावेद (इंडियन नेशनल कांग्रेस, लोकसभा, बिहार); विशंभरप्रसाद निषाद (समाजवादी पार्टी, राज्य सभा, उत्तर प्रदेश) और पूर्व सांसद रवि प्रकाश वर्मा (समाजवादी पार्टी, राज्य सभा, उत्तर प्रदेश) ने अपने-अपने विचार प्रकट किए। जबकि सांसद प्रोफ़ेसर मनोज कुमार झा (आरजेडी, राज्यसभा, बिहार); कुंवर दानिश अली, (बीएसपी, लोकसभा, उत्तर प्रदेश) और राम शिरोमणि वर्मा (बीएसपी, लोकसभा, उत्तर प्रदेश) ने अपना संदेश भेजकर बच्चों की शिक्षा की मौजूदा स्थिति को लेकर राइट टू एजुकेशन फोरम की चिंताओं के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया। इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से आरटीई फोरम के राज्य संयोजक व प्रतिनिधियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, जमीनी कार्यकर्ताओं समेत विभिन्न नेटवर्क और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। 

फोरम द्वारा पेश 13 सूत्री मांगों के मद्देनजर सांसदों ने एक स्वर से अफसोस जताया कि जब शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए अतिरिक्त वित्तीय जरूरत थी, तब वर्ष 2021 में शिक्षा के राष्ट्रीय बजट में भारी कटौती की गई। कोरोना की पहली लहर के बाद अतिरिक्त सहायता नहीं मिलने की स्थिति में भारत के ग्रामीण इलाकों के 64% बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाने की आशंका को लेकर उन्होंने गहरी चिंता जताई। गौरतलब है कि एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस महामारी के प्रारंभ में जब ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई थी उस समय ग्रामीण क्षेत्र में 15 फीसदी से भी कम घरों में इन्टरनेट की सुविधा थी जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 96% घरों में कंप्यूटर नहीं था।

काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट के अध्यक्ष मुचकुंद दुबे ने कहा कि हालांकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 ने पूर्व-प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्कूल शिक्षा के सर्वव्यापीकरण (यूनिवर्सलाइजेशन) के लक्ष्य को हासिल करने की सिफ़ारिश की है, लेकिन इसे कानूनी दायरे में लाये बगैर यह कतई संभव नहीं है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि सरकार द्वारा शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई एक्ट) की निरंतर अवहेलना गहरी चिंता का विषय है और इसके पूर्ण जमीनी क्रियान्वयन के लिए ठोस कदम उठाने की तत्काल जरूरत है। उन्होंने कहा कि बच्चों के अधिकारों के प्रति सरकार की जो  है वह निश्चित समय सीमा के अंतर्गत क़ानून द्वारा लागू की जाए। कोरोना काल में बच्चों की पढ़ाई पर हुए भयावह असर को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि सभी विकसित देश अब बच्चों को स्कूल भेजने को प्राथमिकता दे रहे हैं ताकि देश को हो रहे जबरदस्त नुकसान से बचा जा सके। जाहिरा तौर पर हमें भी यथाशीघ्र बच्चों को स्कूल वापस भेजने का निर्णय करना चाहिए पर यह बच्चों, और शिक्षकों की पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम के साथ होना चाहिए।  

डॉ. मोहम्मद जावेद ने अपने निर्वाचन क्षेत्र, किशनगंज, बिहार में पेश आने वाली शिक्षा की चुनौतियों के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि वहां शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है। और यह हालत देश के तमाम पिछड़े व दूर-दराज के इलाकों की ही नहीं है बल्कि आज राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों की शिक्षा तमाम किस्म की गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है। डॉ. जावेद ने सूचित किया कि उन्होंने संसद के मानसून सत्र में शिक्षा अधिकार कानून के तहत उल्लिखित दिशानिर्देशों के अनुपालन को लेकर कई प्रश्न उठाए। इनमें शिक्षा के क्षेत्र में बजट आवंटन को न्यूनतम जीडीपी का 6% तक बढ़ाने की समय सीमा, स्कूल के दायरे से बाहर छूट गई लड़कियों, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में जिक्र किए गए समावेशी लैंगिक कोष (जेंडर इंक्लूसिव फण्ड) और अन्य समय सीमाओं तथा रोडमैप से संबन्धित सवाल शामिल थे। उन्होंने इस बात पर निराशा जताई कि शिक्षा मंत्रालय द्वारा उनकी जिज्ञासाओं के जो भी उत्तर दिए गए, वे काफी अस्पष्ट थे। 

प्रदीप टम्टा ने पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के बारे में बात की जिसका वर्तमान सरकार समर्थन कर रही है। उन्होंने कहा कि यह कदम हाशिये के समुदाय से आने वाले बच्चों को शिक्षा के अधिकार से पूरी तरह वंचित कर देगा। उन्होंने बताया कि महामारी की वजह से जब स्कूल बंद हुए और ऑनलाइन पढ़ाई  शुरू हुई तो डिजिटल विभाजन के कारण कमजोर एवं वंचित वर्गों के बच्चों के व्यापक समूह शिक्षा तक पहुँचने से वंचित हो गए और उनका जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई मुश्किल है। उन्होंने दोहराया कि शिक्षा के निजीकरण का सभी स्तरों पर विरोध किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अपने बच्चों की शिक्षा राष्ट्र का कर्तव्य और संवैधानिक जवाबदेही है, और इसे किसी निजी जिम्मेदारी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने शिक्षा के अधिकार कानून 2009 के कार्यान्वयन पर जोर देते हुए कहा कि यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। उन्होंने नागरिक समाज और जन प्रतिनिधियों के साथ आने पर भी जोर दिया जिससे कि जनहित की मांगों को संसद में उठाया जा सके। उन्होंने राईट टू एजुकेशन फोरम की मांगो का समर्थन करते हुए कहा कि शिक्षा के वैश्वीकरण के लक्ष्य को पूरा करने के लिए शिक्षा की सार्वजनिक व्यवस्था को मजबूत करना ही एकमात्र विकल्प है।        

रवि प्रकाश वर्मा ने भी दोहराया कि डिजिटल शिक्षा की हालत बेहद निराशाजनक है। मौजूदा सरकार इस माध्यम को बढ़ावा तो दे रही है, लेकिन वहाँ तक देश के लाखों बच्चों की पहुंच नहीं होगी। उन्होंने सुझाव दिया कि जमीनी स्तर पर समुदाय के लोगों, नागरिक सामाजिक संगठनों और बच्चों के माता-पिता को मिलकर काम करने और साथ ही, अपनी मांगों को संगठित रूप से सरकार के सामने रखने की जरूरत है जिससे कि बच्चों को शिक्षा से वंचित होने से रोका जा सके। उन्होंने गांव में बच्चों के अनुकूल वातावरण बनाने पर जोर दिया जिससे कि पिछले दो सालों में उनकी शिक्षा में आई कमी को पूरा किया जा सके।

विशंभर प्रसाद निषाद ने शिक्षा के बढ़ते निजीकरण को लेकर चिंता व्यक्त की और इसके कारण शिक्षा क्षेत्र में बढ़ रही असमानताओं के बारे में वक्ताओं की सामूहिक आशंकाओं से सहमति जताई। महामारी के दौरान बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करने के बारे में सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के प्रति उन्होंने निराशा व्यक्त की। साथ ही, सामाजिक संगठनों से शिक्षा के प्रति चिंताओं को व्यापक फ़लक पर उठाने की अपील करते हुए उन्होंने फोरम की मांगों के प्रति समर्थन व्यक्त किया और कहा कि अपने क्षेत्र में वे इन मांगों को लागू कराने के लिए सहयोग करेंगे। 

इससे पूर्व प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए, मित्ररंजन, समन्वयक, राईट टू एजुकेशन फोरम, राष्ट्रीय सचिवालय ने फोरम की तेरह सूत्री मांगों #अनलॉकशिक्षा को प्रस्तुत किया और सांसदों से अनुरोध किया कि अपने निर्वाचन क्षेत्र में इन मांगों को लागू कराने का प्रयास करें। उन्होंने कहा कि भारत के स्कूलों और आंगनबाड़ी केन्द्रों को दुनिया के चौथे सबसे बड़े लॉक डाउन से गुजरना पड़ा है। इसने बच्चों की शिक्षा, उनके मानसिक स्वास्थ्य और खासकर हाशिए के बच्चों की सामाजिक सुरक्षा को अस्त-व्यस्त किया है। एक अनुमान के अनुसार स्कूल लॉकडाउन की वजह से भारत को भविष्य में होने वाली 400 बिलियन डॉलर की कमाई का नुकसान उठाना होगा। यह देश के लिए बड़ी क्षति होगी। उन्होंने कहा कि आज हम सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को नजरंदाज करने और उस पर पर्याप्त खर्च न करने का खामियाजा भुगत रहे हैं। इसे दुरुस्त करने और पटरी पर लाने के लिए सरकार को मजबूत इच्छा शक्ति के साथ सकारात्मक एवं ठोस पहल करनी होगी। उन्होंने कहा कि डिजिटल विभाजन के कारण शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती नई गैरबराबरी ख़ासी चिंताजनक है। इसने 80 फीसदी बच्चों के शिक्षा की पहुँच से बाहर हो जाने का खतरा पैदा कर दिया है जबकि पहले से ही सामाजिक,  आर्थिक, लैंगिक एवं अन्य स्तरों पर कई असमानताएं व्याप्त हैं।

कार्यक्रम के दौरान देश भर से जुड़े आरटीई फोरम के राज्य प्रतिनिधियों एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी अपनी राय व्यक्त की और शिक्षा के बढ़ते निजीकरण और व्यवसायीकरण पर रोक लगाने की मांग की। उन्होंने कहा कि सबके लिए गुणवत्तापूर्ण, समावेशी शिक्षा और बच्चों के समग्र विकास की बुनियादी अवधारणा आज ध्वस्त होने के कगार पर खड़ी है। ऐसे में गरीब एवं कमजोर वर्गों तथा हाशिये के समूहों, जिनमें लड़कियां, विकलांग, दलित, आदिवासी समेत कोविड के कारण अनाथ हुए बच्चों की नई श्रेणी तथा प्रवासी मजदूरों के बच्चे शामिल हैं, की शैक्षिक जरूरतों को पूरा करने और औपचारिक शिक्षा व स्कूलों से उन्हें जोड़े रखने के लिए सुस्पष्ट रणनीति बनाने और उस पर अमल की सख्त जरूरत है। उन्होंने याद दिलाया कि आपदाग्रस्त एवं मुश्किल हालातों से जूझते इलाकों में बच्चों की शिक्षा की हालत पहले भी काफी खराब रही है। कोरोना महामारी के दौरान यह खतरा और भी गंभीर रूप से देखने में आया है। इस संदर्भ में भविष्य में ऐसे किसी संकट से निबटने की तैयारी के लिए आपात स्थिति में शिक्षा की दीर्घकालिक नीति विकसित करना एक अहम व बुनियादी जरूरत है। 

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