Wednesday, April 17, 2024

मौजूदा कृषि कानूनों में छिपी हैं भविष्य के बंगाल के अकाल और लाखों मौतों की तस्वीरें!

हर बीतते दिन के साथ दिल्ली की सीमाओँ पर चल रहे किसान संघर्ष के असंख्य आयाम अब तक काफी खुल कर सामने आ चुके हैं और यह भी साफ है कि आने वाले दिनों में इसके और भी नये-नये रूपों और इसके संकेतों को देखने का मौका मिलेगा । किसानों की अपनी लड़ाई और इसके बरअक्स हमारे देश की सरकार और समूचे राजनीतिक संस्थान के समग्र रूप से हमेशा इसके और भी ऐसे कई पक्षों के सामने आने की प्रबल संभावना बनी रहेगी जो राजनीति के परंपरागत सोच और विश्लेषण के लिए किसी चमत्कार की तरह होगी। ऐसा चमत्कार, जिसके बारे में आज सोचना तक असंभव लग सकता है, इसीलिए इस संघर्ष का कोई भी विश्लेषण यदि राजनीति के चालू मुहावरों की सीमाओँ में किया जाता है तो राजनीतिक विश्लेषण का उससे ज्यादा उथलापन और बेतुकापन शायद और कुछ नहीं हो सकता है।

वह कोरा पत्रकारी पिष्टपेषण, और कुछ रटी-रटाई बातों को दोहराना होगा। इसे अब अच्छी तरह से समझने की जरूरत है कि यह मसला सिर्फ मोदी अथवा मोदी-विरोध का मसला नहीं है। इसमें हमारे समाज के वे सारे मसले सतह के ऊपर आ गए हैं, जो पहले से लंबे काल से आभासित तो थे, लेकिन बलात् उपायों से अन्य तमाम अवांतर विषयों में उलझी हुई

राजनीति की चर्चा के बाहर रख दिए जाते थे। किसानों के इस आंदोलन ने अब एक-एक कर उन सारे विषयों को चर्चा के मंच पर उतारना शुरू कर दिया है। और भी रेडिकल तरीके से सोचें तो इसने न सिर्फ भारत के लिए, बल्कि सारी दुनिया में पूंजीवाद की जकड़न में फंसी हुई सभ्यता की यात्रा के गतिरोध को तोड़ने के एक रास्ते का संकेत देना शुरू कर दिया है।

राजनीति से बेअसर
आज यह आंदोलन मूलतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई के क्षेत्रों और कुछ हद तक राजस्थान में सीमित दिखाई देता है। पर हर बीतते दिन के साथ यह सुदूर तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र से लेकर बिहार और बंगाल तक में जड़ें जमाने लगा है। इसमें पूरे भारत को अपने दायरे में ले लेने की शक्ति और तमाम संभावनाएं निहित हैं। इसका एक सबसे उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि अब तक इसका कोई दलगत राजनीतिक चरित्र सामने नहीं आया है; अर्थात् यह इतना खुला हुआ है कि इसके अंतिम स्वरूप के बारे में कोई भी निश्चय के साथ कुछ नहीं कह सकता है।

यही एक बड़ी वजह है कि इसके पक्ष या विपक्ष में कितनी भी राजनीतिक बयानबाजियां क्यों न की जाएं, इस आंदोलन पर उन बयानबाजियों से कोई असर नहीं पड़ सकता है। इन तीन कृषि कानूनों के पक्ष में दलील देने वालों से किसानों का एक बिल्कुल साधारण सवाल होता है कि वे उन्हें वह फार्मूला बता दें, जिससे शुद्ध रूप में पूंजीपतियों के भरोसे, अर्थात् खुले बाजार की दया पर रह कर किसानों को लाभ हो सकता है। सरकारी नेता तोतों की तरह जिन बातों को रटते हैं, खुद उन्हें ही अपनी बातों पर कोई भरोसा नहीं है। खुद मोदी कितने संशय ग्रस्त हैं, इसे इन कानूनों में संशोधनों के प्रति उनकी स्वीकृति में ही देखा जा सकता है। संशय ही किसी के भी भ्रमित होने का पहला संकेत हुआ करता है।

संघर्ष की शक्ति और राज्य
राज्य यदि अपनी दमन की शक्ति के खौफ के बल पर शासन करता है, तो जन आंदोलन भी अपनी जन शक्ति के प्रदर्शन के बल पर ही चला करते हैं। किसान आंदोलन की एक सबसे बड़ी ताकत यह भी है कि राज्य के सबसे बड़े दमन-यंत्र सेना-पुलिस का पूरा ढांचा किसानों के बेटों से ही तैयार होता है।

यदि किसी भी चरण में कोई सरकार नग्न रूप में किसान मात्र के अस्तित्व के दुश्मन की भूमिका में उतर जाती है, तो मुमकिन है कि एक क्षण के लिए तो वह अपने उद्देश्यों में सफल हो जाए, पर उसी क्षण में वह अपने ही दमन-यंत्र पर से भरोसा खो कर खुद को पूरी तरह से पंगु बना लेने का आत्महंता कदम भी उठा रही होगी। दुनिया में तमाम औपनिवेशिक शासनों के पतन का इतिहास इसी सच की गवाही देता है। ऐसे शासन के अंत के सबसे पहले लक्षण तभी बनने लगते हैं जब शासन का अपनी बनाई फौजों पर से ही विश्वास उठने लगता है।

जलियांवाला बाग के बाद अंग्रेजों ने भारत में बने रहने के अपने नैतिक अधिकार को ही हमेशा के लिए खो दिया था। हम जब मोदी सरकार और किसान आंदोलन के बीच ज़ोर आज़माइश के समीकरण के इस अंतिम सार को जान लेंगे, किसान आंदोलन की शक्ति के बरअक्स इस फासिस्ट सरकार का भवितव्य देखने में भी हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। किसानों, अर्थात् देश की सबसे बड़ी मेहनतकश आबादी से खुली दुश्मनी रख कर किसी का भी देश की सत्ता पर ज्यादा दिनों तक बने रहना इसीलिए असंभव होता है ।

फिर भी आज लगता है कि जैसे एक ओर यदि किसान इन तीनों कानूनों को रद्दी की टोकरी के सुपुर्द कर देने पर आमादा हैं, तो दूसरी ओर मोदी और आरएसएस भारत के पूरे कृषि क्षेत्र को देशी-विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों को सौंप देने पर तुले हुए हैं। वे इसे किसानों के हित में बताते हैं, अर्थात् किसानों के न चाहने पर भी वे उनका कल्याण करने की जिद में उतरे हुए हैं? लगता है जैसे वे ऐसे आत्महंता विकृत पंथ के धर्मगुरु की भूमिका में हैं, जो अपने अनुयायियों को उनकी परम मुक्ति के लिए मृत्यु का वरण करने, सामूहिक आत्म-हत्या करने के लिए प्रेरित किया करते हैं।

इस परिस्थिति में किसी के भी सामने सबसे बुनियादी सवाल यह है कि आखिर वह कौन सी बात है, जिसमें लगता है जैसे मोदी के पास इतनी नग्नता के साथ कॉरपोरेट की सेवा में उतरने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं बचा है! निस्संदेह यह पूंजीवाद के बर्बर लठैत वाली फासिस्टों की चिर-परिचित भूमिका है और इस भूमिका के सामने आने के लिए शायद यही सबसे अनुकूल समय भी है। इसी काल में जिस प्रकार की धींगा-मुश्ती से धारा 370, राम मंदिर की तरह के मुद्दों पर असंवैधानिक कदम उठाए गए, वैसे ही इजारेदार पूंजीपतियों के लिए भारत की पूरी खेतिहर आबादी की संपत्तियों पर डाकाजनी का रास्ता खोल देने वाले इन काले कानूनों को भी लाया गया है।

पूंजी का आदिम संचय
राजनीतिक अर्थशास्त्र की शब्दावली में पूंजीवाद के लिए इस प्रकार की डाकाजनी की प्रक्रिया को पूंजी का आदिम संचय कहा जाता है- ‘Primitive Accumulation of Wealth’। यह पूंजी के इतिहास का वह सबसे कलंकित पन्ना है, जहां से वास्तव में मनुष्यों के खून और पसीने के कीचड़ में सनी पूंजी की विकास यात्रा का प्रारंभ होता है।

कार्ल मार्क्स के ग्रंथ ‘पूंजी’ में इस आदिम संचय पर अलग से एक पूरा अध्याय है, जिसमें वे इसे परिभाषित करते हुए लिखते हैं, “पूंजीवादी उत्पादन के अस्तित्व में आने के लिए आवश्यक है कि मालों के उत्पादकों के हाथ में भारी मात्रा में पूंजी और श्रमशक्ति पहले से मौजूद हो। अर्थात् पूंजी का ऐसा संचय जो पूंजीवादी उत्पादन के जरिS पैदा होने वाले मुनाफे के बाहर से होता है।” यह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का परिणाम नहीं होता है, उस उत्पादन प्रणाली का एक प्रस्थान बिंदु होता है।

मार्क्स ने कहा था कि यह चीज दूसरों की संपत्ति को लूट कर अपना बना लेने के जरिये ही संभव है। इस पर उनकी टिप्पणी थी कि यह काम जिन तरीकों से भी क्यों न होता हो, सुंदर कतई नहीं हो सकता है। “इस आदिम संचय का जो क्षण पूंजीपतियों के लिए उसके विकास के लीवर का काम करता है, उसी क्षण में बड़ी संख्या में मनुष्यों को यकायक और जबर्दस्ती उनके जीवन निर्वाह के साधनों से अलग कर दिया जाता है और सर्वहारा के रूप में उन्हें श्रम की मंडी में फेंक दिया जाता है।”

इसी सर्वहाराकरण की प्रक्रिया के मूल में मार्क्स ने किसानों की भूमि के हरण की बात कही थी। उनके शब्दों में, “सामूहिक भूमि की डाकाजनी, राज्य के इलाकों पर धोखाधड़ी से कब्जा, गांव के किसानों की कई पीढ़ियों तक की संपत्ति का हरण और राज्य की मशीन के आतंकवादी तौर-तरीकों के अंधाधुंध प्रयोग से इन सबको अपनी निजी संपत्तियों में तब्दील कर लेना, ये ही वे सुंदर तरीके हैं, जिनके जरिये पूंजी का आदिम संचय हुआ था।”

उपनिवेशवाद के इतिहास से परिचित हम सब जानते हैं कि किस प्रकार अंग्रेजों ने भारत के गांवों की संपदा की खुली लूट से इंग्लैंड में औद्योगीकरण के लिए पूंजी जुटाई थी। अंग्रेजों ने ही भारत में भी जिस पूंजीवादी उत्पादन की नींव रखी थी, उसमें ईस्ट इंडिया कंपनी की इसी आदिम संचयकारी लूट की प्रमुख भूमिका थी।

भारत का रास्ता और मोदी का रास्ता !
इस पृष्ठभूमि में जब हम मोदी के इन तीन कृषि कानूनों के लुटेरे चरित्र को देखते हैं तो हमारे सामने चिंता का दूसरा गहरा सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जिनमें किसी जनतंत्र में चुनी हुई कोई सरकार इस प्रकार जनता के एक सबसे बड़े उत्पादक तबके के कुलों की, उनकी पारिवारिक संपत्ति और उनके उत्पादों की लूट का ऐसा कानून बनाने का निर्णय लेने की हद तक चली जाती है? ऐसे निर्णय हवा में या किसी की सनक के आधार पर ही नहीं लिए जा सकते हैं, हमेशा इनके पीछे से कुछ ठोस परिस्थितियों के दबाव बोला करते हैं।

भारत में पूंजीवाद का विकास अब कोई नया घटनाक्रम नहीं है। अंग्रेजों के जमाने की बात हम एक बार के लिए छोड़ देते हैं। आजादी के बाद हमारी नई सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के खोल में आर्थिक विकास का जो रास्ता अपनाया था, उसके मूल में भी हमेशा भारत में पूंजीवाद को पनपाने की एक सायास कोशिश किसी न किसी रूप में काम कर रही थी। आजादी की लड़ाई के दिनों में ही भारत के विकास के उस रास्ते की नींव रख दी गई थी।

टाटा-बिड़ला योजना के नाम से प्रसिद्ध बॉम्बे प्लान (1944 और 1946) के आर्थिक विकास के ब्लूप्रिंट ने ही हमारी पंचवर्षीय योजनाओं की आधारशिला रखी थी। इस पूरे दौर का इतिहास एक प्रकार से सरकार के द्वारा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के लिए जरूरी पूंजी के आदिम संचय में सहयोग करने का इतिहास रहा है, लेकिन हमारे यहां आदिम संचय की उस प्रक्रिया में खेतिहर आबादी या जनता की निजी संपत्तियों की खुली डाकाजनी का कोई चिन्ह नहीं मिलता है। राज्य ने इस मामले में यहां हमेशा समानांतर रूप में अपनी एक कल्याणकारी राज्य की भूमिका को भी ध्यान में रखते हुए गरीबों के जीवन को सुरक्षा देने को भी अपनी नीतियों में महत्व का स्थान दिया था।

सरकार ने अपने खुद के राजस्व में पूंजीपतियों को भागीदार बना कर उन्हें पूंजी मुहैय्या कराई थी। 1944-46 के बॉम्बे प्लान में भी कहा गया था कि सरकारी राजस्व के 100 अरब रुपये के निवेश में से उद्योगों के विकास के लिए 44.8 अरब रुपये और ग्रामीण विकास के लिए 55 अरब मुहैय्या कराए जाएंगे। अर्थात् उसमें राजस्व के लगभग 55 प्रतिशत हिस्से को तब गांवों में निवेशित करने की बात कही गई थी, जो अभी मात्र साढ़े सात प्रतिशत रह गई है।

आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार और सत्ता के विकेंद्रीकरण के पंचायती राज से लेकर यहां तक कि आरक्षण के कार्यक्रमों का लक्ष्य भी किसी न किसी रूप में गरीब और कमजोर लोगों के सशक्तिकरण से जुड़ा हुआ था। इसी कड़ी में हम मनरेगा और खाद्य सुरक्षा की तरह के कानूनों को भी देख सकते हैं, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही हम उस पूरी प्रक्रिया में एक अजीब सा व्यतिक्रम देखते हैं।

मोदी ने आने के साथ ही सबसे पहले बैंकों के एनपीए पर ऐसे कदम उठाने शुरू कर दिए, जिनसे बड़ी मात्रा में पूंजीपतियों को राहत देते हुए उनके कर्जों को बट्टे खाते में डाला जाने लगा; कंपनियों को दिवालिया घोषित करने के कानूनों को सरल बना कर पूंजीपतियों के लिए बैंकों की पूंजी को आत्मसात करने के रास्ते को तेजी से आसान बनाया जाने लगा और जब दो साल के अंदर ही यह साफ नजर आने लगा कि बैंकों की पूंजी की इस खुली लूट के चलते अब बैंकों का जिंदा रहना ही कठिन हो गया है।

तमाम बैंकों के तलपट डगमगाने लगे हैं, तब एक झटके में मोदी ने 2016 के नवंबर महीने में रातो-रात नोटबंदी का ऐसा अकल्पनीय कदम उठा लिया, जिसका एक मात्र लक्ष्य था हर भारतीय परिवार के पास जमा नकद राशि को लूट कर बैंकों के घाटे को पूरा किया जाए, अर्थात् एक घुमावदार रास्ते से उसे पूंजीपतियों के सुपुर्द कर दिया जाए। आज लगता है जैसे बैंकों के एनपीए को बट्टे खाते में डालने से लेकर नोटबंदी तक के मोदी के सारे कदम पहले से अच्छी तरह से लिख ली गई एक पटकथा का मंचन भर था।

पूंजीपतियों के लिए इस प्रकार आम जनता की संपत्तियों की डाकाजनी दुनिया के इतिहास में अपने प्रकार की पहली घटना थी। इसी श्रृंखला में जीएसटी के जरिए साधारण व्यापारियों का एक आखेट रचा गया, छोटे से छोटे पान की दुकान वाले तक को कर के जाल में घसीटने के कदम उठाए गए। उन दिनों मोदी खुले आम धमकियां दिया करते थे कि वे आयकर दफ्तर में लाखों लोगों की नियुक्तियां करके एक-एक आदमी को अपनी खुफियागिरी के दायरे में ले आएंगे। वह एक अजीब सा समय था जब आधार कार्ड को भी प्रत्येक नागरिक की एक-एक गतिविधि पर नजर रखने के हथियार के रूप में खूब प्रचारित किया गया।

तुगलकी सनक
हम जानते हैं कि मोदी के इन तुगलकी फैसलों, आम लोगों में भारी खौफ के माहौल ने हमारी पूरी अर्थव्यवस्था को कैसे तेजी के साथ एक गहरे गतिरोध की खाई में धकेल दिया और, इसी क्रम में गांव के लोगों की संपत्तियों पर हाथ साफ करने के मोदी के इन तीन काले कानूनों को देखने से पता चल जाता है कि इनके जरिए मोदी के स्वेच्छाचारी चरित्र के साथ ही हमारे सामाजिक-आर्थिक जीवन की भी कौन सी सच्चाइयां अपने को व्यक्त कर रही हैं।

हम नहीं मानते कि यह शुद्ध रूप में कोई क्रोनी कैपिटलिज्म का मामला है, जिसमें मोदी अपने चंद मित्रों को खुश करने के लिए उन्हें देश की सारी संपदा सौंप दे रहे हैं, बल्कि इसके मूल में अर्थशास्त्र का अपना तर्क भी कहीं ज्यादा प्रबल रूप में काम कर रहा है। एक पूरी तरह से पटरी से उतार दी गई अर्थव्यवस्था का तर्क। नोटबंदी के समय ही तमाम अर्थशास्त्रियों ने उसके दूरगामी विध्वंसक परिणामों की चेतावनी दे दी थी। पर अहंकार में डूबे मोदी को सिर्फ चुनावों में अपनी जीत दिखाई दे रही थी और उसे ही वे अपने हर कदम के सही होने का प्रमाण पत्र समझ रहे थे।

आदम का पहला पाप
बाइबल की कथा के आदम की तरह सेब को चख लेने के इस नोटबंदी के प्रथम पाप के साथ ही हमारी अर्थव्यवस्था के संसार की पतनशीलता का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह सचमुच अब लगने लगा है, जैसे सिवाय किसी महाप्रलय के दिन के पहले और कहीं भी नहीं थमेगा, इसीलिये हम कहते हैं कि हमारा आज का आर्थिक संकट कोई प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि एक मानव-निर्मित तबाही है। मोदी-निर्मित तबाही। मोदी और आरएसएस के दूसरे सभी सामाजिक-राजनीतिक कदमों ने इस विध्वंसक आग में और भी घी का काम किया है। बेरोजगारी पैंतालीस साल के अपने चरम पर चली गई, जीडीपी में वृद्धि की दर तेजी से गिरने लगी और इसे छिपाने के लिए सरकार ने हर विभाग में फर्जी आंकड़ों की फैक्टरियां बना लीं।

बाजार की हत्या
गौर करने की बात है कि पूंजीपतियों के लिए की गई इतनी लूट के बावजूद अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ने के बजाय कम ही होता चला गया, क्योंकि आम लोगों की बढ़ती हुई दरिद्रता ने बाजार के एक प्रमुख घटक, ग्राहक की हत्या करके बाजार मात्र को ही नष्ट कर दिया। बैंकों के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं आया। अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र पर नोटबंदी ने जो प्राणघाती प्रहार किया था, उसके धक्के से वह जरा भी निकल नहीं पाया। मोदी सरकार के खर्च, मोदी की अपनी विदेश यात्राओं और दूसरी ऐय्याशियों के खर्च जिस अनुपात में बढ़े, उसी अनुपात में अर्थव्यवस्था में निवेश में गिरावट होती चली गई। 

इस चौतरफा तबाही में रही-सही कसर को पूरा कर दिया कोरोना महामारी और उसमें मोदी के लॉकडाउन के एक और तुगलकी फैसले ने। मार्च महीने से ही पूरा देश इस कदर ठप हो गया कि देखते-देखते भारत के जीडीपी में एक तिमाही में 24 प्रतिशत की गिरावट आ गई। अर्थात् एक झटके में अर्थव्यवस्था का आकार सिकुड़ कर एक चौथाई कम हो गया। आज सारे अनुमान इस बात पर एकमत हैं कि 2020-21 के आर्थिक वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था पहले के साल की तुलना में लगभग आधी रह जाएगी।

मोदी सरकार अपनी दिलजोई के लिए बीच-बीच में जीएसटी संग्रह में तात्कालिक वृद्धि की तरह के आंकड़ों को उछालने का खेल जरूर खेलती है, पर अर्थव्यवस्था का सत्य इन राजनीतिक खेलों से स्वतंत्र अपनी ही गति से अपने को व्यक्त करता है। यह हमारे यहां भी यथार्थ की ठोस जमीन पर बार-बार साबित हो रहा है।

लाइलाज हालात और लूट का रास्ता
इस प्रकार मोदी ने अपनी ही करतूतों से अर्थव्यवस्था को एक ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां से उसे उबारने का रास्ता बेहद कठिन हो गया और ऐसे काल में मोदी चाहते हैं कि देशी-विदेशी पूंजीपति आ कर निवेश करें और एक मरी हुई अर्थव्यवस्था में किसी तरह से जान डालें! फाइव बिलियन डॉलर इकोनॉमी और आत्म-निर्भर भारत की जिस मरीचिका में वे हमारे राष्ट्र को भटकाना चाहते हैं, आज वह खुद उनके गले का फंदा बना हुआ है।

कहना न होगा, कुल मिला कर यही वह परिस्थिति है, जिसमें प्रारंभ के नोटबंदी के पाप की श्रृंखला में ही इस सरकार ने तीन कृषि कानूनों की पेशकश की है। निवेश की जो गाड़ी उनके ही कर्मों से अटक गई थी, उसे अब वे इस अतिरिक्त लूट के माल के बल पर आगे बढ़ाना चाहते हैं। न उन्हें भारत के लोगों की खाद्य सुरक्षा की कोई परवाह है और न व्यापक किसान जनता के जीवन में सुधार की। वे किसानों की बलि चढ़ा कर अपने स्वेच्छाचार के पापों को धोना चाहते हैं, और किसान उनकी इस इच्छा की पूर्ति के लिए तैयार नहीं हैं। इसी बिंदु पर आ कर आज सरकार और किसानों के बीच एक प्रकार का अनुलंघनीय गतिरोध कायम हो गया है।

खाद्य सुरक्षा और कंपनी की इजारेदारी के अतीत का अनुभव
किसानों के इस संघर्ष से ही बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है हमारी खाद्य सुरक्षा का मुद्दा। भारत में सन् 1757 के पलासी के युद्ध के बाद ही गांवों पर ईस्ट इंडिया कंपनी की इजारेदारी कायम हो गई थी। भारत की जनता में खाद्य की आपूर्ति पर उसका कितना गहरा और डरावना प्रभाव पड़ा था, इसे बंगाल के अकालों के इतिहास पर काम करने वाले तमाम इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों ने दिखाया है। आज अंबानी-अडानी के प्रभुत्व को कायम करने के मोदी के अभियान की उससे एक अनोखी सादृश्यता देखी जा सकती है।

सन् 1757 के 13 साल बाद ही सन् 1770 में बंगाल में इतिहास का सबसे भयानक दुर्भीक्ष हुआ था। इसमें तब भूख से एक लाख लोगों की मौत हुई थी। गांव-शहर सब जगह नर-कंकालों की कतारें दिखाई देती थीं। सड़कों पर पड़ी हुई लाशों पर गिद्ध मंडराया करते थे। डॉ. अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘Poverty and Famines’ (1981) में उस दुर्भीक्ष का विश्लेषण किया है।

अपने विश्लेषण में उन्होंने दुर्भीक्ष के कारणों में खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी को नहीं, बल्कि उनके असमान वितरण, बेरोजगारी और आम लोगों की क्रयशक्ति में कमी, जनतंत्र के अभाव और साथ ही परिवहन सहित तमाम विषयों में सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताया है। उन्होंने लिखा है कि यह सच है कि 1769-70 में भारत के पूरे गांगेय क्षेत्र में इतनी कम वर्षा हुई थी, जिससे उस साल की पूरी फसल बर्बाद हो गई थी, लेकिन उनका कहना था कि सिर्फ एक साल की फसल के खराब हो जाने से कहीं भी ऐसा दुर्भीक्ष नहीं आ सकता था।

भारत के इसी काल के इतिहास का एक चित्र विलियम हंटर के ‘The Annals of Rural Bengal’ में भी मिलता है, जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल का दीवान बन जाने के कारण बंगाल के गांवों के जमींदारों और नवाबों की तबाही का वर्णन किया गया है। इसका सबसे बुरा प्रभाव ग्रामीण आबादी के पिरामिड के नीचे के विशाल हिस्से पर पड़ा था। कंपनी ने ग्रामीण जीवन के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने में जो गहरी दरारें पैदा कर दी थीं, उसने लाखों गरीबों को पूरी तरह से बेसहारा बना दिया था। इसकी एक मात्र वजह थी, गांवों में कंपनी की इजारेदारी का विस्तार। गांव की सारी संपदा को अपने हाथ में केंद्रीभूत कर लेने की कंपनी की अंतहीन वासना।

गौर करने की बात है कि उसी समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाबी जमाने के सिक्कों को खारिज करके अपना टकसाल स्थापित किया था। उससे बंगाल में सारी आर्थिक गतिविधियां रुक गई थीं। बाजार खाली हो गए और देश का सारा धन कंपनी की तिजोरी में आ कर जमा हो गया था।

कंपनी ने अपना टकसाल बैठाने के अलावा तब वणिकों के कामों में भी दखलंदाजी शुरू की थी। किसानों के अलावा कारीगरों और मजदूरों के साथ भी व्यवसायियों के परंपरागत संबंधों को कंपनी ने तोड़ दिया था। पहले से चली आ रही दादनी प्रथा को खत्म कर दिया गया, जिससे सारे कारीगर सीधे कंपनी के गुमाश्तों में तब्दील हो गए।

कहने का तात्पर्य यह है कि गांवों में अपनी पूर्ण इजारेदारी कायम करने के लिए तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने गांव के लोगों के परस्पर सह-अस्तित्व के संबंधों को जिस प्रकार तोड़ कर पूरे ग्रामीण जीवन के ढांचे को अंदर से खोखला बना दिया था, उसी ने 1770 के दुर्भीक्ष में लाखों असहाय लोगों की मौत में प्रमुख भूमिका अदा की थी। सन् 1757 से लेकर 1770 तक के ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रारंभिक काल के इस इतिहास से आप मोदी के इन छः सालों की तुलना कीजिए, आपको उस अतीत से हमारे भविष्य के सारे संकेत मिलने लगेंगे।

ग्रामीण जीवन के सह-अस्तित्व पर हमला
मोदी ने भी हूबहू उसी प्रकार पहले नोटबंदी से जनता को निःस्व करके उनके जमा धन को इजारेदारों को सौंपने के कदम से अपनी यात्रा शुरू की है। अब पूरी अर्थव्यवस्था को ठप करके वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इजारेदारों के वर्चस्व को कायम करने के अभियान में उतरे हुए हैं। किसानों की मंडियों, बिचौलियों तथा उत्पादन और कृषि पण्यों के विपणन के दायरे से सभी मध्यस्थों को खत्म करके पूरे ग्रामीण समाज के परस्पर सहयोग पर टिके ताने-बाने को वे हमेशा के लिए नष्ट कर देना चाहते हैं। अर्थात् गांव के गरीबों को शहरी पूंजीपतियों के वेतन का गुलाम बनाने के काम में लगे हुए हैं।

पहले से खाली हो चुके बाजार, व्यापार-वाणिज्य का संकट और पूरे समाज में गहरे तक तैयार कर दी गई दरारों का किसी भी संकट की घड़ी में बेसहारा गरीबों की पूरी आबादी पर क्या असर पड़ सकता है, इसे बंगाल के दुर्भीक्ष के इतिहास के तमाम आयामों से बखूबी समझा जा सकता है। आज वैसे ही दुनिया में भूख के सूचकांक में भारत का स्थान लगातार गिरता जा रहा है।

सभ्यताओं का संघर्ष
यही वजह है कि हमारी नजर में, किसानों ने आज जो लड़ाई शुरू की है वह उनके किन्हीं तात्कालिक हितों की रक्षा मात्र के लिए नहीं है, बल्कि उसका संबंध परंपरागत कृषि समाज के अंदर के सभी बेहतरीन और पवित्र मूल्यों की रक्षा की लड़ाई से भी है। इन्हें कुचल कर तमाम मनुष्यों को वेतन के गुलाम में बदलना पूंजीवाद का एक तात्विक सच, उसकी प्राणी सत्ता की नैसर्गिकता है।

किसानों के वर्तमान संघर्ष के स्वरूप, इसके सर्व समावेशी समग्र चरित्र का, इसमें दिखाई दे रहे भाईचारे और सौहार्द का ही यदि हम विश्लेषण करें तो हमें यह देखने में कोई कष्ट नहीं होगा कि इस लड़ाई के जरिये हम हमसे खोते जा रहे किन श्रेष्ठ मूल्यों को फिर से अर्जित करने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। किसानों के इतने बड़े जमावड़े में किसान-मजदूर एकता के नारों का ही अपने आप में जो महत्व है, उसे अलग से बताने की जरूरत नहीं है।

पूंजीवाद और कार्ल मार्क्स
मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में पूंजीवाद के चरित्र के बारे में बहुत सटीक लिखा था, “पूंजीपति वर्ग ने, जहां भी उसका पलड़ा भारी हुआ, वहां सभी सामंती, पितृसत्तात्मक और ‘काव्यात्मक’ संबंधों का अंत कर दिया। इसने मनुष्य को अपने स्वाभाविक बड़ों के साथ बांध कर रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला; और नग्न स्वार्थ के, ‘नकद पैसे-कौड़ी’ के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया।”

पूंजीवादी युग के बारे में उनकी यह एक निर्णायक टिप्पणी थी कि इसमें ‘जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।’ अर्थात् एक प्रकार से पूंजीवाद मनुष्यों को बलात् उन असहनीय परिस्थितियों के सम्मुख खड़ा कर देता है, जो अन्यथा उसके पहले तक की परिस्थिति में सहनीय बना कर रखी हुई थी!

अब, किसी भी प्रगतिशील समाजशास्त्री और विचारक की तरह ही मार्क्स के सामने भी यही सवाल था कि क्या हर प्रकार की गलाजत और गुलामी पर से निष्ठुरता के साथ पर्दा उतार कर मनुष्य को उसकी दीन परिस्थितियों के सामने खड़ा कर देना ही सभ्यता के पैमाने पर कोई काम्य लक्ष्य हो सकता है? मार्क्स ने इसे स्वयं में कभी भी काम्य नहीं माना था, बल्कि उन्होंने साम्यवाद के रूप में पूंजीवाद सहित मनुष्यों को गुलाम बनाने वाली सभी व्यवस्थाओँ के एक सटीक विकल्प को स्थापित करने की रूपरेखा पेश की थी।

आदमी को पूरी तरह से निःस्व और विपन्न दिखाने मात्र में कोई क्रांतिकारिता नहीं है, बल्कि उसे स्वतंत्र और समृद्ध बनाने की लड़ाई में क्रांतिकारिता है। आदमी को यथार्थ के सम्मुख खड़ा करके उसे हर गुलामी से मुक्ति के लिए संघर्षरत करने में क्रांतिकारिता है। इस बात को धर्म के बारे में मार्क्स के समग्र दृष्टिकोण में भी लक्षित किया जा सकता है, जिसमें वे पूरी दृढ़ता के साथ शुद्ध नास्तिकतावादियों से अपने को अलग करते हैं।

फ्रेडरिख एंगेल्स ने जब फ्रांस और जर्मनी के किसानों के सवाल पर विचार किया था तो उन्होंने बहुत ही साफ शब्दों में यह लिखा था, “समाजवाद का काम यह नहीं है कि संपत्ति को श्रम से अलग किया जाए, उलटे, उसका काम यह है कि समग्र उत्पादन के इन दो उपकरणों (श्रम और संपत्ति) को, उत्पादन के साधनों को उत्पादकों के हाथ में, उनकी सम्मिलित संपत्ति के रूप में, अंतरित किया जाए। समाजवाद का काम उत्पादकों और उत्पादन के साधनों के संबंधों को काटना नहीं, बल्कि उन्हें एक बिल्कुल नए आधार पर मजबूती से स्थापित करना है। उत्पादकों की यह सामूहिक समृद्धि ही उसकी स्वतंत्रता की गारंटी है।

इस लेख में इस पूरे प्रसंग को लाने का मकसद यही है कि गांवों में समाजवादी आंदोलन की भूमिका को आज हम एक नए रूप में समझे और इसके ऐतिहासिक सार को आत्मसात करें। समाजवादी आंदोलन गांवों में पूंजीवाद के प्रसार के दृढ़तम विरोध के कर्त्तव्य से अपने को अलग नहीं कर सकता है।

‘कृषि संकट’ और किसान सभा
इसी संदर्भ में हमें कृषि संकट और उसके तात्पर्य के विषय को भी समझने की जरूरत है। कृषि संबंधी सभी सामान्य सैद्धांतिक विश्लेषणों में ‘कृषि संकट’ की काफी बातें की जाती हैं, लेकिन शायद किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन ने ही हमारे लिए पहली बार इस संकट की सच्चाई को ठोस रूप में समग्रता से समझने का एक बड़ा मौका तैयार किया है।

इस आंदोलन में जिस प्रकार पूरा कृषि समाज, उसके सारे घटक तत्व, जमीन का मालिक किसान, बंटाईदार, खेत मजदूर, मंडियों के व्यापारी और आढ़तिए अपने पूरे के पूरे परिवारों के साथ, अपनी राजनीतिक निष्ठाओं के परे जाकर पूरे तन-मन-धन से शामिल हो गए हैं, उसी से प्रकारांतर से पूरे कृषि समाज पर असली संकट की व्यापकता का एक समग्र चित्र भी हमारे सामने आता है।

यह संकट कृषि समाज के अंदर के किन्हीं वर्गीय अन्तरविरोधों से उत्पन्न संकट मात्र नहीं है। यह पूरी कृषि सभ्यता के अस्तित्व का संकट है, इस सभ्यता के साथ जुड़े जीवन के सभी मान-मूल्यों का संकट है, जिसके विभिन्न आयामों के हम ऊपर संकेत दे चुके हैं, इसीलिए इस आंदोलन के बारे में अपने पहले के एक लेख में हमने लिखा था कि इसने जिस प्रकार के सामाजिक आलोड़न के स्वरूप को पेश किया है उसे न सिर्फ अभूतपूर्व, बल्कि चालू राजनीतिक शब्दावली के दायरे में अचिन्त्य (unthinkable) और अनुच्चरणीय (unpronounceable) भी कहा जा सकता है।

मिथकों के बारे में कहा जाता है कि जब तक किसी मिथक के साथ कोई सामाजिक कर्मकांड नहीं जुड़ता है, तब तक उसकी कोई सामाजिक अहमियत नहीं होती है। उसी प्रकार जब तक किसी सामाजिक परिस्थिति की धारणा का भी किसी सामाजिक कार्रवाई के साथ संबंध नहीं जुड़ता है, उस धारणा, कल्पना या विश्लेषण का कोई वास्तविक मायने नहीं हुआ करता है। अब तक ‘कृषि संकट’ की तमाम बातों के बावजूद इस संकट का सामाजिक प्रकट स्वरूप, इस किसान आंदोलन के जरिए जिस प्रकार सामने आया है, उसी से इस संकट का वह अर्थ प्रकट हुआ है, जिसका हमारे अनुसार इसके पहले तक शायद किसी भी मंच पर सही-सही आकलन नहीं किया जा सका था।

मसलन इस किसान आंदोलन की एक प्रमुख शक्ति अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) को ही हम लेते हैं। हम सब जानते हैं कि किसान सभा के नेतृत्व में भारत में कृषि आंदोलनों का अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। सन् 1936 में इसके गठन के बाद जमींदारी उन्मूलन से लेकर हाल के पंचायती राज्य के लिए आंदोलन तक में इसने नेतृत्वकारी, महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, लेकिन किसान आंदोलन के इतने व्यापक अनुभवों के बावजूद इसके लिए भी अभी का यह किसान आंदोलन एक ऐसे स्वरूप में उपस्थित हुआ है, जिसका शायद उसे भी कभी पूरा अनुमान नहीं रहा होगा।

इस आंदोलन में उसकी अब तक की सबसे सक्रिय भागीदारी के बावजूद कृषि आंदोलनों का उसका अब तक का अनुभव और ज्ञान ही जैसे इसके अलीकपन को, इसकी अन्यन्यता को पूरी तरह से आत्मसात करने में शायद उसके लिए कहीं न कहीं एक बाधा-स्वरूप भी काम कर रहा होगा। किसान सभा के अब तक के सारे आंदोलनों के अनुभव के केंद्र में सामंती ज़मींदार नामक एक तत्व के ख़िलाफ़ लड़ाई की भूमिका प्रमुख रही है।

आज़ादी के दिनों से लेकर परवर्ती भूमि सुधार के आंदोलनों और कुछ हद तक पंचायती राज के ज़रिये सत्ता के विकेंद्रीकरण के आंदोलन तक में गांवों में सामंतों के वर्चस्व का पहलू उसके सामने प्रमुख चुनौती रहा है, लेकिन एक जनतांत्रिक परिवेश में गांवों से जुड़े तमाम आंदोलनों की लंबी प्रक्रिया में ही ग्रामीण जीवन के संतुलन में जो क्रमिक बदलाव हुआ है, वह बदलाव किसान सभा के इधर के आंदोलनों के मंच पर बार-बार किसी न किसी रूप में अपने को व्यक्त करने के बावजूद किसान सभा उनके समग्र सार को सैद्धांतिक स्तर पर अपनाने में किस हद तक कामयाब रहा है, यह एक गहरे विचार का विषय है।

‘कृषि संकट’ इस कृषि समाज का अपना आंतरिक संकट ही है या कुछ ऐसा है जो उसके अस्तित्व को ही विपन्न करने वाला, उसके बाहर से आया हुआ संकट है, इसे जिस प्रकार से समझने की जरूरत थी, शायद उस तरह से नहीं समझा जा सका है।

पिछले दिनों किसान सभा के अलावा खेत मजदूरों के अलग संगठन बनाने की बात पर जिस प्रकार अतिरिक्त बल दिया जा रहा था, उसकी कुछ तात्कालिक उपयोगिता होने के बावजूद, उसमें भी समग्र रूप में कृषि समाज मात्र के अस्तित्व के संकट के पहलू के प्रति जागरूकता की कमी की एक भूमिका जरूर थी। बड़े पैमाने पर ऋणग्रस्त किसानों की आत्म हत्याओं के बाद भी ‘कृषि संकट’ के व्यापक सामाजिक स्वरूप के प्रति किसान सभा में चिंता रहने पर भी जिस प्रकार की व्यग्रता और आंदोलनात्मक उत्तेजना जाहिर होनी चाहिए थी, उसका किंचित अभाव जरूर बना रहता था।

यहां यह नोट किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल की प्रादेशिक किसान सभा ने किसान आंदोलन के अपने अनुभवों के आधार पर ही, कुछ अपने ही कारणों से खेत मजदूरों के अलग संगठन की बात को काफी सालों की हिचक के बाद स्वीकार किया था। इसे लेकर सीपीआई (एम) की बहसों की उत्तेजनाओं से हम सभी परिचित हैं।

बहरहाल, यहां इस प्रसंग का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आज मोदी ने यदि अपनी निरंकुश सत्ता के अहंकार में इन तीन कृषि कानूनों के जरिए पूरे कृषि क्षेत्र को भारत के इजारेदार घरानों को सौंप देने और तमाम किसानों को पूंजी का गुलाम बना देने की तरह का निष्ठुर कदम इतनी नंगई के साथ न उठाया होता, और पंजाब-हरियाणा के उन्नत किसान समाज ने इसमें निहित भयंकर खतरे को अच्छी तरह से पहचान कर इसके प्रतिरोध में अपनी पूरी ताकत के साथ उतरने का फैसला न किया होता, तो शायद किसान सभा के परंपरागत सोच में भी ‘कृषि संकट’ के इस व्यापक सत्य को उतारने में अभी और ज्यादा समय लग सकता था।

विश्लेषण में विश्लेष्य की भूमिका और जनता की जनवादी क्रांति
जब हम किसी भी परिस्थिति का विश्लेषण करते है तब सिर्फ उस परिस्थिति के यथार्थ की पर्तों को ही नहीं उधेड़ते हैं, बल्कि वह परिस्थिति भी हमारी समझ की पर्तों को उधेड़ा करती है। विश्लेषण में सिर्फ विश्लेषक ही अपनी भूमिका अदा नहीं करता है, विश्लेष्य भी विश्लेषक पर अपना काम किया करता है; उसकी भी अपनी मांगे हुआ करती हैं, जो कई ऐसी नई दिशाओं के संकेत प्रदान करने लगता है जो इसके पहले तक हमारी सोच के क्षितिज में आता ही नहीं था। किसानों का यह संघर्ष इसी अर्थ में भारत में जनतांत्रिक क्रांति के कार्यक्रम के लिए भी अपनी समझ के विस्तार का एक नया रास्ता खोल रहा है। हम तो कहेंगे कि इसने राजसत्ता के वर्गीय चरित्र के मूल्यांकन के विषय में भी हमारे लिए नए रूप में विचार करने की एक जरूरत पैदा कर दी है।

सत्तर साल के भारतीय गणतंत्र में कृषि सुधार के तमाम कार्यक्रमों और इसके समानांतर पूंजी के अबाध केंद्रीकरण की प्रक्रिया ने कैसे राजसत्ता में पूंजीपतियों के साथ तथाकथित सामंतों की भागीदारी के संतुलन को बिगाड़ कर उसे शुद्ध इजारेदार पूंजीवाद की सत्ता में तब्दील कर दिया है, यह सच राजनीति के धरातल पर जहां एक फासिस्ट शक्ति के सत्तासीन होने के बीच से जाहिर हुआ है, वहीं किसानों के इस प्रतिरोध आंदोलन के जरिये भी इसका दूसरा सामाजिक पहलू सामने आ रहा है। इस आंदोलन में सड़कों पर एक साथ उतरा हुआ पूरा ग्रामीण समाज हमसे सत्ता में कथित सामंती ताकतों की भागीदारी के विषय को गहराई से खंगालने की मांग कर रहा है।

एमएसपी की क्रांतिकारी मांग
आज यह साफ है कि पूरे कृषि समाज का संकट कृषि पण्यों के बाज़ार की परिस्थितियों से पैदा हुआ संकट है; किसान को अपने उत्पाद पर लागत जितना भी दाम न मिल पाने से पैदा हुआ संकट है; अर्थात् एक प्रकार से किसानों की फ़सल को बाज़ार में लूट लिए जाने से पैदा हुआ संकट है। और, जो इजारेदार अब तक इस बाजार को परोक्षतः प्रभावित कर रहे थे, अब उनके खुल कर सामने आकर कृषि समाज पर अपना पूर्ण आधिपत्य की कोशिश का सीधा परिणाम है यह प्रतिरोध संघर्ष।

कृषि क्षेत्र में भूमि-सुधार ही हर समस्या की रामबाण दवा नहीं है। किसान को जीने के लिए जोतने की ज़मीन के साथ ही फ़सल का दाम भी समान रूप से ज़रूरी है। भारत के किसान आंदोलन को भी हमेशा इसका अहसास रहा है, इसीलिये तो एमएसपी को सुनिश्चित करने की मांग किसान आंदोलन के केंद्र में आई है।

सन् 2004 में स्वामिनाथन कमेटी के नाम से प्रसिद्ध किसानों के बारे में ‘राष्ट्रीय आयोग’ का गठन भी इसी पृष्ठभूमि में हुआ था, जिसने अक्तूबर 2006 में अपनी अंतिम रिपोर्ट में कृषि पण्य पर लागत के डेढ़ गुना के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करने का फार्मूला दिया था। तभी से केंद्र सरकार पर उस कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का लगातार दबाव है। यह तो साफ है कि यदि कृषि बचेगी तो उसके साथ जुड़े हुए ग्रामीण समाज के सभी तबकों के हितों की रक्षा भी संभव होगी।

सरकारें कुछ पण्यों पर एमएसपी तो हर साल घोषित करती रहीं, एपीएमसी की मंडियों वाले दो-तीन राज्यों के किसानों को थोड़ा लाभ भी हुआ, लेकिन लागत के डेढ़ गुना वाला फार्मूला सही रूप में आज तक कहीं भी और कभी भी लागू नहीं हुआ है और न ही एमएसपी से कम कीमत पर फसल को न खरीदने की कोई कानूनी व्यवस्था ही बन पाई है। जब किसान अपनी इन मांगों के लिए जूझ ही रहे थे कि तभी अंबानी-अडानी की ताकत से मदमस्त मोदी ने बिल्कुल उलटी दिशा में ही चलना शुरू कर दिया और इस प्रकार, एक झटके में पूरी कृषि संपदा पर हाथ साफ करने के इजारेदारों के सारे बदइरादे खुल कर सामने आ गए। आज इस आंदोलन ने देश के हर कोने में पहले से बिछे हुए असंतोष के बारूद में जिस प्रकार एक पलीते की भूमिका अदा करनी शुरू कर दी है, उससे इस ज्वालामुखी के विस्फोट की शक्ति का एक संकेत मिलने पर भी कोई भी इसका पूरा अनुमान नहीं लगा सकता है।

राजनीतिक दलों से निवेदन
इस आंदोलन में निहित संभावनाओं के राजनीतिक आकलन की चुनौती के इसी बिंदु पर भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों से हमारी यह वाजिब उम्मीद है कि कम से कम अब तो वे अपने वैचारिक खोल से बाहर निकले और इस आंदोलन पर खुद के किसी भी पूर्वकल्पित विश्लेषणात्मक ज्ञान के बोझ को लादने की कोशिश के बजाय इसमें अपनी भूमिका अदा करने के लिए इस आंदोलन को निर्द्वंद्व भाव से अपनाएं और इसकी स्वतंत्र गति को खुल कर सामने आने देने का अवसर प्रदान करें।

इस आंदोलन की स्वतंत्र गति खुद राजनीतिक ताकतों के सोच के क्षितिज के अभूतपुर्व विस्तार की संभावना तैयार कर सकती है। यही किसी भी विश्लेषण में विषय को अपनी भूमिका निभाने देने, तथ्यों से निष्कर्ष निकालने का तरीका है। जब भी हम अपनी अहम्मन्यता में विषय पर खुद को लाद देने की कोशिश करते हैं, विषय हमारी पहुंच के बाहर, बहुत दूर चला जाता है। एमएसपी केंद्रित कृषि सुधारों में राष्ट्र के लिए क्रांतिकारी राजनीतिक संभावनाएं निहित हैं। यह ग्रामीण अर्थनीति के साथ ही पूरे देश की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प कर सकता है। सारे आर्थिक समीकरणों और संतुलन का पुनर्विन्यास कर सकता है।

पूरी सख़्ती के साथ एमएसपी की स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू किया जाए और लागत में वृद्धि या कमी के अनुसार इसे हर छ: महीने में संशोधित करने का पूरा सांस्थानिक ढांचा तैयार हो; गांवों में खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी पर सख़्ती से अमल और इसमें भी संशोधनों के लिए एक सांस्थानिक ढांचा विकसित हो; बटाईदारों का पंजीकरण करके उनके अधिकारों को सुरक्षित किया जाए; कृषि क्षेत्र में बैंकों के ऋण के अनुपात को आबादी के अनुपात में बढ़ाया जाए; कृषि के आधुनिकीकरण के संगत कार्यक्रम अपनाए जाएं; भूमि हदबंदी के क़ानूनों पर सख़्ती से अमल हो; मंडियों और भंडारण का व्यापक नेटवर्क विकसित किया जाए। कृषि क्षेत्र में सुधार के ऐसे एक व्यापक कार्यक्रम को राजनीति के केंद्र में लाकर ही किसानों के इस व्यापक जन-आलोड़न को उसकी तर्कपूर्ण संगति तक पहुंचाया जा सकता है।

‘अरब वसंत’
इन तमाम संभावनाओं को देखते हुए ही हमने बहुत शुरू में इस आंदोलन को भारत में शुरू हुआ ‘अरब वसंत’ का आंदोलन कहा था। यह अपने अंतर में पूंजीवाद के खिलाफ क्रांतिकारी रूपांतरण की संभावनाओं को लिए हुए हैं और यही इसका सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक आयाम भी है। सामाजिक परिवर्तन में किसानों की भूमिका का आयाम। यह अब तक की सभी समाजवादी क्रांतियों के इतिहास को भी पुनर्संदर्भित करने की मांग करता है। सभी परिवर्तनकामी राजनीतिक दलों को इसे अच्छी तरह से पकड़ने और इसका खुल कर समर्थन देने की जरूरत है।

‘कृषि सभ्यता’
खेती-किसानी उत्पादन के एक खास स्वरूप से जुड़ी खुद में एक पूरी सभ्यता है। पूंजीवाद से पूरी तरह से भिन्न सभ्यता। इतिहास में पूंजीवाद का स्थान इसके बाद के क्रम में आता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि पूंजीवाद कृषि समाज का कोई अपरिहार्य, स्वाभाविक उत्तरण है। इसे डार्विन के विकासवाद की तर्ज पर जीव के स्वाभाविक विकासक्रम में होने वाले कायंतरण की तरह देखना कृषि समाज और पूंजीवाद, दोनों की ही अपनी-अपनी वास्तविकताओं से आंख मूंदने की तरह है।

पूंजीवाद के विकास के पीछे कृषि समाज नहीं, उत्पादन की नई पद्धितयां और स्वचालित प्रणालियां रही हैं। उत्पादन के साधनों का लगातार क्रांतिकरण इसके अस्तित्व की एक मूलभूत शर्त है। कृषि समाज के हजारों सालों के मान-मूल्य पूंजीवादी समाज के मूल्यों से बिल्कुल भिन्न अर्थ रखते हैं और कहना न होगा कि अपनी अपेक्षाकृत प्राचीनता के कारण ही प्रतिक्रियावादी, बेकार और पूरी तरह से त्याज्य नहीं हो जाते हैं।

आज जब सारी दुनिया में पूंजीवादी सभ्यता में आदमी के विच्छिन्नता-बोध से जुड़े मानवीयता के संकट, पूरी मानव-जाति के अस्तितव के संकट के बहु-स्तरीय रूप में खुल कर सामने आ चुके हैं, तब पूंजीवादी श्रेष्ठता की पताका लहराने में कोई प्रगतिशीलता नहीं है, बल्कि प्रगतिशीलता का स्रोत इसके वास्तविक विकल्पों की लड़ाइयों में निहित है। वे लड़ाइयां भले शहरी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में लड़ी जा रही हों या किसानों के नेतृत्व में।

वामपंथ और नेतृत्व का प्रश्न
राजनीतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में वामपंथ पूंजीवाद के खिलाफ विशाल कृषि समाज के किसी भी संघर्ष के प्रति उदासीन और आंख मूंद कर नहीं रह सकता है। देहातों की जो विशाल आबादी अभी तक अपनी आत्मलीनता में डूबी हुई पूंजीपतियों की दलाल दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतों को एक प्रकार की निष्क्रिय मदद देती रही हैं, इसके पहले कि वह पूरी तरह से बर्बर फासिस्टों के सक्रिय तूफानी दस्तों की भूमिका में आ जाएं, यह जरूरी है कि वामपंथ के तार इस पूरे समाज के साथ हर स्तर पर सक्रिय रूप में जुड़ जाएं।

पूंजीवादी जनतंत्र की कमियों का विकल्प राजशाही के निर्दयी मूल्यों पर टिका बर्बर फासीवाद नहीं, किसान जनता के अपने स्वच्छंद जीवन और स्वातंत्र्य बोध पर टिका जनता का जनवाद है, किसानों की यह ऐतिहासिक लड़ाई इसी संदेश को प्रेषित कर रही है। किसानों की मंडी में लाखों दोष हो सकते हैं, पर वह उनके समाज की अपनी खुद की मंडी है, किसी बाहरी अमूर्त शक्ति का औपनिवेशिक बाजार नहीं। इस सच्चाई के गभितार्थ को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है।

किसी भी सरकार को यदि देहात की जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करना है तो उसका दायित्व सिर्फ इस मंडी व्यवस्था को और सबल बनाने, इन्हें किसानों की फसल की लूट के प्रतिरोध के केंद्रों के रूप में विकसित करने भर की हो सकती है। इस विषय में मंडियों को खत्म करने का मोदी का तर्क उपनिवेशवाद के जरिए उपनिवेशों की जनता को सभ्य बनाने के घृणित तर्क से रत्ती भर भी भिन्न नहीं है।

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के किसानों ने पूंजीपतियों के दलाल के रूप में मोदी की करतूतों के मर्म को जान लिया है। तीनों काले कानूनों के पीछे इजारेदारों की उपस्थिति का नजारा उनके सामने दिन के उजाले की तरह साफ है। भारत के बृहत्तर किसान समाज के बीच इन्हीं क्षेत्रों के किसान हैं, जो अपने ग्रामीण जीवन के समूचे ताने-बाने में सबसे अधिक सबल हुए हैं। इस तबके को अपनी स्वतंत्रता के मूल्य का एहसास है और इसीलिए भारत के किसानों की इस ऐतिहासिक लड़ाई के वे अभी स्वाभाविक नेता हैं।

कामरेड लेनिन से जब किसी ने भावी विश्व समाजवादी क्रांति के नेतृत्व के बारे में सवाल पूछा था तो उन्होंने अमेरिका में मजदूर वर्ग के विकसित स्वरूप को देखते हुए निःसंकोच कहा था कि वह नेतृत्व अमेरिकी मजदूरों के हाथ में होगा। अमेरिका के मजदूरों ने अपने संघर्षों से सबसे पहले और सबसे अधिक जनतांत्रिक स्वतंत्रता के अधिकार अर्जित किए थे।

पूंजीवाद का विकल्प
हमारे किसानों की यह लड़ाई सारी दुनिया के लिए पूंजीवादी व्यवस्था और सभ्यता के संकट के एक सटीक समाधान की तलाश की लड़ाई को नई दिशा दिखा सकती है। यह इतिहास में वेतन की गुलामी का प्रसार करने वाले पूंजी के विजय-रथ को रोकने के एक नए अध्याय का सूत्रपात कर सकती है। यह लड़ाई भारत की पूरी किसान जनता के लिए अपने वैभवशाली स्व-स्वरूप को पहचानने की लड़ाई साबित हो सकती है।                       

अपनी इस लंबी कथित सिद्धांत चर्चा का अंत हम हेगेल की एक प्रसिद्ध उक्ति के हवाले से करेंगे- ‘The owl of minerva spreads its wing with the falling of the dusk’, स्वर्ग का उल्लू रात के अंधेरे के उतरने पर ही अपने पंख फैलाता है। यह स्वर्ग का उल्लू ही है- सिद्धांत चर्चा। जब दिन की सारी गतिविधियां थम जाती हैं तभी उन गतिविधियों पर सही सिद्धांत चर्चा का प्रारंभ हो पाता है। पर यहां हम यह और जोड़ना चाहेंगे कि ‘tragedy of the owl of minerva is that it perpetually flies only in the dusk’, हर सिद्धांत चर्चा की ट्रैजेडी यह है कि वह हमेशा अंधेरे में ही उड़ानें भरा करती हैं। यह बात संभवतः हमारी इस चर्चा पर भी लागू होती है। ठोस राजनीति का स्वरूप पूरी तरह से सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए तय नहीं हुआ करता है।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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