Thursday, March 28, 2024

आरएसएस नेता ठेंगड़ी के धर्म और जाति संरक्षित ‘हिंदू अर्थव्यवस्था’ का कॉर्बन कॉपी है पीएम मोदी का आत्मनिर्भरता का नया ‘दर्शन’

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 मई को राष्ट्र के नाम संबोधन से आत्मनिर्भर भारत अभियान शुरू किया। उस दिन राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को 39 दिन पूरे हो रहे थे और यह घोषणा विनाशकारी आर्थिक गिरावट से निपटने के लिए सरकार द्वारा शुरू किए गए राजकोषीय पैकेज के एक हिस्से के रूप में की गई थी। महामारी फैलने के बाद से यह देश की जनता के नाम उनका पांचवां संबोधन था और मोदी ने इस मौके पर लोगों को यह याद दिलाया कि वे यह सुनिश्चित करने की “जिम्मेदारी” लें कि “21वीं सदी भारत की होगी।”

उन्होंने सुझाव दिया कि महामारी के कारण मौजूदा “वैश्विक व्यवस्था” के उभार ने भारत को उस जिम्मेदारी को पूरा करने का “अवसर” प्रदान किया है और इसका लाभ कमाने का एकमात्र तरीका “आत्मनिर्भर भारत” है। अपने 33 मिनट के भाषण में मोदी ने लगभग आधा समय आत्मनिर्भर भारत के दृष्टिकोण के बारे में चर्चा की।

ऐसा लग रहा जैसे मोदी एक दयालु गुरु भूमिका में हैं। मोदी ने आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा पर चर्चा करने में काफी वक्त खर्च किया लेकिन मिशन की रूपरेखा क्या होगी ऐसे विवरणों को केंद्रीय वित्त मंत्री पर छोड़ दिया। मोदी ने कहा कि आत्मनिर्भर भारत का “विचार” सदियों पुरानी “संस्कृति,” और “संस्कार” की उपज है और इसकी जड़ें वेद और शास्त्रों जैसे हिंदू धार्मिक ग्रंथों में हैं। उनकी व्याख्या में संस्कृत उद्धरणों की भरमार थी, जो भविष्य के इस सिद्धांत को प्राचीन ज्ञान परंपरा से जोड़ रही थी।

आत्मनिर्भरता क्यों जरूरी है इसके लिए उन्होंने मुंडकोपनिषद का हवाला देते हुए कहा, “एश: पंथ:” यानी यही आपकी राह है। भारतीयों के अपनी मातृभूमि से जुड़ाव को नमन करते हुए उन्होंने एक और श्लोक पढ़ा, “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या” (यह पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं)। मोदी ने सुझाव दिया कि यह भारतीय गुण वैश्विक व्यवस्था के लिए भी आवश्यक है। वह “संस्कृति जो जय जगत में विश्वास करती है, जो जीवित प्राणियों का कल्याण चाहती है, जो पूरी दुनिया को अपना परिवार मानती है। अगर उस भारत की भूमि आत्मनिर्भर हो जाती है तो यह स्वचालित रूप से दुनिया की समृद्धि सुनिश्चित करता है।” उन्होंने एक अन्य संस्कृत उद्धरण के साथ अपना संबोधन समाप्त किया, “सर्वम् आत्म् वसन: सुखम्” और एक उपदेशक की तरह इसका अर्थ भी समझाया। “अर्थात जो हमरे वश में है, जो हमार नियंत्रण में है, वही सुख है।”

आधिकारिक तौर पर आत्मनिर्भर भारत को स्थानीय विनिर्माण को बढ़ाने के लिए एक अभियान के रूप में शुरू किया गया है, जो धीरे-धीरे अपनी आर्थिक नीतियों के माध्यम से देश को आयात-मुक्त बना देगा। लेकिन मोदी के भाषण ने यह स्पष्ट कर दिया कि आत्मनिर्भरता का विचार आर्थिक नीतियों से आगे का है। स्पष्टत: “अपने दृष्टिकोण” की वैधता के लिए उन्होंने धर्मग्रंथों पर जोर दिया और उसे देश की संस्कृति और चरित्र में निहित बताया। इसके बाद के हफ्तों में मोदी ने कई मंचों पर इस नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की वकालत की। भारतीय उद्योग परिसंघ के प्रमुखों और भारतीय वाणिज्य मंडल के अध्यक्ष के साथ बातचीत में, मन की बात में और मिशन के एक हिस्से के रूप में एक रोजगार योजना की शुरुआत करते हुए भी इसका उल्लेख किया।

मोदी के संबोधन से पहले के हफ्तों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व ने उसी आत्मनिर्भरता मॉडल पर बात की थी। आरएसएस मोदी का मातृ संगठन है। उन्होंने तीन दशक तक संघ के साथ काम किया है। 6 मई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने विदेशी पत्रकारों के साथ बातचीत की। होसाबले, जो संगठन के नेतृत्व में तीसरे नंबर पर हैं, ने सुझाव दिया कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का एक नया मॉडल समय की आवश्यकता है और यह मॉडल “आत्मनिर्भरता और स्वदेशी विचारों पर आधारित” होना चाहिए। होसबोले ने कहा कि नए स्वदेशी मॉडल की आवश्यकता है क्योंकि “महामारी ने वैश्विक पूंजीवाद और वैश्विक साम्यवाद दोनों ही विचारधाराओं की सीमाओं को उजागर किया है।”

बता दें कि आत्मनिर्भरता का पहला उल्लेख आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया था। 26 अप्रैल को भागवत ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए “वर्तमान स्थिति और हमारी भूमिका” विषय पर भाषण दिया। उन्होंने “विकास के नए मॉडल” की पेशकश की जो “स्वावलंबन” पर आधारित होना चाहिए। इसी शब्दावली का उपयोग करते हुए जिसे मोदी ने बाद में प्रयोग किया, भागवत ने कहा कि नागरिकों को इस “संकट” को एक अवसर में बदल देना चाहिए।” तीन लेखों की श्रृंखला में कारवां पहले ही बता चुका है कि लॉकडाउन के दौरान संघ किस तरह गोलबंद हुआ और जिसे वह “सेवा” कहता है वह किस तरह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का उसका साधन है।

इस नए सामाजिक-आर्थिक मॉडल को संघ और बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व ने नहीं बनाया है। भागवत, होसबोले और मोदी द्वारा आत्मनिर्भर स्वदेशी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा द थर्ड वे नामक पुस्तक में सावधानीपूर्वक रखा गया है। ठेंगड़ी का निधन 2004 में हुआ था, वे क्रमशः संघ की व्यापार, मजदूर और किसान शाखा, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान सभा के संस्थापक थे। सोवियत संघ के पतन के चार साल बाद 1995 में पहली बार यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी। पुस्तक में ठेंगडी ने अर्थव्यवस्था और समाज को “मानवता को बचाने” के लिए एक नए और एकमात्र मॉडल के रूप में “हिंदू दृष्टिकोण” प्रस्तुत किया क्योंकि “साम्यवाद के पतन” और निरंतर “पूंजीवाद के क्षय” ने विश्व में एक “वैचारिक शून्यता” पैदा कर दी थी।

संघ के हिंदू वर्चस्ववादी आदर्शों के अनुरूप, ठेंगड़ी की पुस्तक “वैश्विक आर्थिक प्रणाली के हिंदू दृष्टिकोण” और ऐसे सिद्धांतों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है जिसे वह “हिंदू अर्थशास्त्र” कहते हैं। इसी अंधराष्ट्रवादी भावना से अभिभूत होकर, पुस्तक ने “स्वदेशी कानूनी प्रणाली” के ढांचे की वकालत करके दुनिया के बाकी हिस्सों से हिंदुओं को अलग बताया। इसी “स्वदेशी” ढांचे को “हमारा संविधान” के रूप में प्रस्तावित किया।

ठेंगड़ी की हिंदू आर्थिक प्रणाली का मूल यह है कि वह हिंदू धार्मिक शास्त्रों (वेद, स्मृति शास्त्र और अन्य ब्राह्मण साहित्य) में निर्धारित नियमों द्वारा शासित होना चाहिए। उन्होंने मूल्य निर्धारण, औद्योगिक संबंधों, सामाजिक कल्याण, आर्थिक सिद्धांतों को तैयार करने के लिए शास्त्रों से श्लोक का हवाला दिया और उनकी प्रभावशीलता और उपयुक्तता को प्रदर्शित करने के लिए हिंदू शासकों के ऐतिहासिक संदर्भों का इस्तेमाल किया।

ठेंगड़ी ने आजादी के बाद के भारत के आर्थिक मॉडल को “पश्चिमी” विचार के रूप में खारिज कर दिया, जो अपरिहार्य रूप से “अराजकता” की ओर ले जाएगा। “पश्चिमी विचारों” के प्रति उनकी घृणा ऐसी है कि उन्होंने “अंतर्राष्ट्रीयतावाद” यानी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को बनाए रखने को भारत की समस्याओं के मूल कारणों में से एक माना। 1990 के दशक के शुरूआत में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की “उदारीकरण” की नीति को “सरासर भोलापन” कहा और देश में “अंतर्राष्ट्रीयतावाद” फैलाने का दोषी ठहराया। पुस्तक में कहा गया है कि वैश्विक विचारों को अपनाने से भारत ने उन सामाजिक संस्थानों को, जिन पर उसे गर्व है, जैसे “जाति” को नष्ट कर दिया और लोगों के जीवन से धर्म की भूमिका को हटा दिया। ठेंगड़ी के अनुसार जाति का टूटना और समाज में धार्मिक ढांचे की अनुपस्थिति देश को घेरे सभी संकटों के लिए दोषी है।

ठेंगड़ी की पुस्तक शुरू से आखिर तक पढ़ी जाने लायक है क्योंकि मोदी द्वारा आत्मनिर्भर मिशन के तहत शुरू की गई कई योजनाओं को थर्ड वे में बताया गया गया है। आरएसएस के तीन वरिष्ठ विचारक- रामाशीष सिंह, डी. विजयन और बिप्लव रॉय, जो चार दशक से अधिक समय तक संघ के पूर्णकालिक सदस्य रहे हैं, उन्होंने स्पष्ट रूप से मुझे बताया कि मोदी का आत्मनिर्भर भारत एक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जो ठेंगड़ी द्वारा निर्धारित है।

इसके अलावा, पुस्तक के एक करीबी विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि मोदी की कई पिछली आर्थिक और सामाजिक योजनाओं में से कई का वैचारिक उद्भव सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक प्रणाली के बारे में ठेंगड़ी के “हिंदू दृष्टिकोण” में है। वास्तव में 11 जून को वाणिज्य चैंबर के एक संबोधन में, मोदी ने कहा कि “पिछले पांच से छह वर्षों में देश की नीति और प्रशासन में आत्मनिर्भर भारत एक प्राथमिकता रहा है। अब, कोरोनावायरस ने हमें उस मिशन में तेजी लाने की सीख दी है।”

आत्मनिर्भर भारत अभियान के तत्वावधान में की गई घोषणाओं पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि मोदी सरकार द्वारा कम से कम दो प्रमुख आर्थिक फैसलों ने औद्योगिक मामलों से सरकार के “हिंदू अर्थशास्त्र” के मूल सिद्धांतों में से एक को लागू किया। थर्ड वे के अध्याय एक के भाग चार में, ठेंगड़ी ने औद्योगिक क्षेत्र में सरकार के केवल एक “संरक्षक” के रूप में कार्य करने की वकालत की है। उन्होंने इस विचार की व्याख्या के लिए दो ऐतिहासिक उदाहरणों का इस्तेमाल किया।

“मौर्य काल में नागरिक बोर्डों के तहत कारखानों में उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री का उपयोग किया जाता था, और उसमें कर्मचारियों को नगरपालिका बोर्ड द्वारा उचित वेतन दिया जाता था। इसी अवधि के दौरान, सरकारी खर्च पर खानों को खोदने और कारखानों के काम करने की प्रथा अस्तित्व में आई। विजयनगर साम्राज्य के तहत 500 कारीगरों के सरकारी कारखानों में सोने और चांदी के धागे पर काम करने को दर्ज किया गया है। फिर भी ऐसे उद्योगों के मामले में राज्य की भूमिका एक संरक्षक की थी। ऐसा कोई केंद्रीकरण नहीं था जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करता हो और मानव व्यक्तित्व की प्राकृतिक वृद्धि को निष्फल करता हो।”

मौर्य और विजयनगर साम्राज्य भौगोलिक रूप से और सांस्कृतिक रूप से अलग थे और कम से कम दोनों के बीच 1400 वर्षों का फासला था। यह भी ठेंगड़ी को राज्य की नीतियों में एक संदिग्ध निरंतरता स्थापित करने से रोकते नहीं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि ठेंगड़ी ने कैसे निष्कर्ष निकाला कि “राज्य” केवल इस तथ्य के बावजूद एक संरक्षक था कि वह जिन खानों का उल्लेख करता है वे राज्यों के नियंत्रण में काम कर रहे थे।

केवल एक संरक्षक के रूप में राज्य की ठेंगड़ी की अवधारणा के अनुरूप, 16 मई को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आधिकारिक तौर पर वाणिज्यिक खनन शुरू करने की घोषणा की। वाणिज्यिक खनन निजी खनिकों को बिना किसी सीमा के उसी स्थान से कोयला और खनिज खनन करने और उनका भंडारण करने और उन्हें बिना किसी नियामक निगरानी के मूल्य वसूलने की अनुमति देता है। सीतारमण ने कहा कि आत्मनिर्भर भारत अभियान राहत उपायों की चौथी किश्त के तहत, “50 कोयला ब्लॉक नीलामी के लिए तुरंत पेश किए जाएंगे।”

दत्तोपंत ठेंगड़ी।

18 जून को, मोदी ने इस योजना को शुरू किया – 41 ब्लॉक ऑफर पर थे – और कहा, “हम आज केवल वाणिज्यिक कोयला-खनन के लिए नीलामी शुरू नहीं कर रहे हैं, बल्कि कोयला क्षेत्र को दशकों के लॉकडाउन से बाहर ला रहे हैं।” पिछले नियमों के विपरीत, खनिक जिनके पास कोई पूर्व अनुभव नहीं था, वे 18 जून को आयोजित नीलामी में बोली लगा सकते थे, जब तक कि वे एक अग्रिम भुगतान कर सकते थे। जबकि निजी क्षेत्र ने सरकार के स्वामित्व वाली कोल इंडिया लिमिटेड के एकाधिकार के अंत के रूप में इस कदम की सराहना की। इस निर्णय ने देश के विशाल प्राकृतिक संसाधनों के खनन पर सरकार के नियंत्रण को प्रभावी ढंग से हटा दिया।

जनवरी 2020 में आर्थिक मामलों के एक कैबिनेट पैनल ने खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 और कोयला खान (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 2015 में संशोधन की अनुमति देने के लिए अध्यादेश मार्ग का इस्तेमाल किया। अध्यादेश संसद की मंजूरी के बिना, केंद्रीय कैबिनेट द्वारा प्रख्यापित कानून होते हैं जो छह महीने की अवधि के लिए वैध होते हैं। इन संशोधनों ने वाणिज्यिक खनन को सुविधाजनक बनाया। न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, खानों की पहली किश्त की नीलामी मूल रूप से अप्रैल में होनी थी, लेकिन महामारी के कारण देरी हो गई थी।

सीतारमण ने मिशन की तीसरी किश्त के तहत राज्य के निरीक्षण को हटाने का दूसरा बड़ा आर्थिक निर्णय 15 मई को कृषि बाजारों को नियंत्रण मुक्त करने की घोषणा करके लिया। सरकार ने सरकारी मंडियों में कृषि उपज बेचने की आवश्यकता को समाप्त कर दिया। अखिल भारतीय किसान सभा जैसे वामपंथी किसान संघों ने फैसले पर चिंता व्यक्त की और समाचार वेबसाइट द वायर को बताया कि यह किसानों को ”कृषि व्यवसाय निगमों की दया पर छोड़ देगी क्योंकि फसलों का कोई समर्थन मूल्य और मूल्य स्थिरीकरण की कोई व्यवस्था नहीं होगी।”

राज्य की एक संरक्षक की भूमिका को कम करने से अलग, मॉडल “औद्योगिक संरचना” जिसे ठेंगड़ी द्वारा प्रस्तावित किया गया था, और आरएसएस द्वारा सक्रिय रूप से वकालत की गई, संसद की भूमिका को केवल एक समन्वयक के रूप में मानती है। ठेंगड़ी के आदर्श मॉडल के अनुसार, एक औद्योगिक संरचना “आम लोगों द्वारा वित्तपोषित,” “उपभोक्ताओं द्वारा उपयोगी,” “संसद द्वारा समन्वित,” “राज्य द्वारा सहायता प्राप्त”, और अंततः “धर्म द्वारा शासित” होनी चाहिए।

अगर इन सुधारों के पीछे की मंशा पर कोई संदेह था, तो 2 जून को मोदी ने सीआईआई को संबोधित किया और कहा, “हमारे लिए, सुधार का मतलब है निर्णय लेने और उन्हें अपने तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने की हिम्मत। चाहे वह आईबीसी [इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड] हो, जीएसटी [गुड्स एंड सर्विस टैक्स] हो या फेसलेस इनकम टैक्स की व्यवस्था हो, हम हमेशा से इस प्रणाली में सरकार के हस्तक्षेप को कम करने का प्रयास करते रहे हैं।” उन्होंने आगे कहा, “और मैंने तो लाल किले से कहा कि लोगों की जिंदगी से हम सरकार को जितना कम कर सकते हैं करना चाहिए।

यह दिखाने के लिए कि उनकी सरकार ने इस प्रतिबद्धता का पालन कैसे किया, मोदी ने कोयला और खनिजों के वाणिज्यिक खनन की अनुमति देने और कृषि बाजार को नियंत्रण मुक्त करने के अपने फैसले का उदाहरण दिया। इसके अलावा, 24 जून को मोदी की कैबिनेट ने अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में निजी कंपनियों के प्रवेश को भी मंजूरी दी।

इस नई आत्मनिर्भर सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के तहत एक और बड़ा फैसला तालाबंदी के दौरान घर लौटने वाले कर्मचारियों की “स्किल मैपिंग” का था। जून की शुरुआत में घोषित, यह अभ्यास राज्य सरकारों की मदद से कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है। मंत्रालय प्रवासी श्रमिकों के कौशल की मैपिंग कर रहा है और उन्हें प्रमाणित कर रहा है ताकि उन्हें अपने घरों के करीब काम के अवसर प्रदान कर सकें।

इसे शुरू करने वाले पहले राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश था, जिसने उत्तर प्रदेश आत्मनिर्भर रोजगार योजना के तहत इसकी शुरूआत की। राज्य की योजना, स्थानीय उद्योगों में श्रमिकों को आत्मसात करने के वादे के अलावा, श्रमिकों के व्यापार और उनके कौशल से संबंधित ऋण सुविधाएं भी प्रदान करती है। राज्य ने अपनी स्वयं की रोजगार योजना के लिए स्किल-मैपिंग डेटा का उपयोग करने का भी निर्णय लिया है, जिसे विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजना के रूप में जाना जाता है।

वीएसएसवाई वित्तीय रूप से “पारंपरिक व्यवसायों” को प्रोत्साहित करता है। योजना हेतु अर्हता प्राप्त करने के लिए, एक मजदूरों को नाई, दर्जी, बढ़ई, मोची, हलवाई, टोकरी बुनकर, लोहार, राजमिस्त्री, सुनार जैसे “पारंपरिक व्यवसायों” में लगा होना पड़ता है। भारत में, कई पारंपरिक व्यापार जाति-विशेष हैं। उदाहरण के लिए, मोची और सफाई कर्मचारी ज्यादातर दलित हैं, जबकि नाई, सुनार, लोहार और हलवाई अक्सर शूद्र होते हैं।

मोदी ने 26 जून को योगी आदित्यनाथ के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट के साथ एक वीडियो कॉल के माध्यम से आत्मनिर्भर उत्तर प्रदेश रोजगार योजना का उद्घाटन किया। कॉल के दौरान, बिष्ट ने विश्वकर्मा योजना के लिए आंकड़े प्रस्तुत किए और कहा, “उत्तर प्रदेश वीएसएसवाई के तहत 5000 से अधिक पारंपरिक व्यापारियों को टूल किट का वितरण भी आज प्रधानमंत्री के कर कमलों से किया जाएगा।”

बिष्ट ने मोदी से कहा कि 5000 पारंपरिक व्यवसाइयों में, “1650 दर्जी हैं, 1088 लोहार और सुनार जैसे धातु के कामों में लगे हैं, 250 कांच का काम करने वाले, 130 गद्दे के काम करने वाले, 669 हलवाई, 212 नाई, 137 बुनकर, 120 कुम्हार हैं जो मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, 95 राजमिस्त्री हैं और 112 जूता बनाने के काम में लगे हैं।” मोदी ने रोजगार योजना के लिए बिष्ट को बधाई दी और कहा, “योगी जी की सरकार ने गुणात्मक और साथ ही मात्रात्मक तरीके से केंद्र सरकार की योजना को लागू किया है। यूपी सरकार ने इसमें और योजनाएं नहीं जोड़ीं, बल्कि लाभार्थियों की संख्या में भी वृद्धि की। वास्तव में, उन्होंने उन्हें आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के साथ जोड़ा।

यह योजना उस सिद्धांत को लागू करती है जिसका उल्लेख ठेंगड़ी ने द थर्ड वे में किया है। ठेंगड़ी ने लिखा, “उत्पादन, संचार आदि की तकनीकों में बदलाव की शुरुआत के साथ, 3,000 से अधिक पारंपरिक व्यवसाय अप्रचलित या असंवैधानिक हो गए, और नए अस्तित्व में आए। इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक जाति-व्यवस्था टूट गई।” ठेंगड़ी ने ही सबसे पहले “पेशा आधारित संगठनों” के गठन के इस सुझाव को जाति व्यवस्था को बहाल करने के साधन के रूप में पेश किया था।

यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश योजना भारत में जाति-व्यवस्था के आधार वर्णाश्रम, को प्रोत्साहित करती है और उसे मजबूत करने की मांग करती है। वर्णाश्रम व्यवस्था ऋग्वेद वर्णित एक पदानुक्रमित सामाजिक-व्यवस्था है जो लोगों को उनके जन्म के आधार पर चार वर्णों में विभाजित करती है। इस पदानुक्रम में ब्राह्मण सर्वोच्च हैं और शूद्र सबसे निचले पायदान पर हैं, जबकि दलितों को इस संरचना के बाहर रखा गया है और उन्हें अवर्ण या गैर-वर्ण का दर्जा दिया जाता है और उन्हें बहिष्कृत माना जाता है।

ठेंगड़ी ने कहा, “व्यावसायिक या व्यापारिक समूहों के समेकन और संगठन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाना चाहिए और बाद में ऐच्छिक निकायों पर उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए … हमारे लोगों का विशाल बहुमत, जैसे कि किसान, प्रबंधकीय और तकनीकी काडर, स्व-रोजगार कारीगर, कृषि और वन मजदूर आदि अभी भी असंगठित हैं। उनके व्यवसाय-वार संगठन को तेज किया जाना चाहिए।” हालांकि, ठेंगड़ी ने इस विचार का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर को दिया। थर्ड वे गोलवलकर को समर्पित है, जो ठेंगडी की तरह ब्राह्मण थे।

जबकि महामारी ने सरकार को आरएसएस की विचारधारा को एक नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में तेजी लाने का मौका दिया, मोदी को लगता है कि उनकी नीतियों में पहले भी उन विचारों को आत्मसात किया गया था। नवंबर 2019 में सरकार ने औद्योगिक संबंध विधेयक, 2019 पर श्रम संहिता की शुरुआत की। अन्य बातों के अलावा, विधेयक ने प्रस्तावित किया कि राज्यों के पास किसी भी सरकार की मंजूरी के बिना उद्योगों के लिए छंटनी करने की सीमा को 100 से बढ़ाकर 300 करने की शक्ति होगी।

विधेयक ने कई अन्य श्रमिक-विरोधी नीतियों की भी सिफारिश की जैसे कि छंटनी किए गए श्रमिकों को पहले के 45 दिन के औसत वेतन के मुआवजे को कम कर 15 दिन कर दिया; यूनियनों को अब बातचीत के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए 66 प्रतिशत की पूर्व की सीमा के विपरीत अपनी सदस्यता के 75 प्रतिशत का समर्थन दिखाना होगा; और किसी भी संघ समर्थित हड़ताल की घोषणा करने से पहले 14 दिन की नोटिस अवधि देनी होगी। इस विधेयक ने मजदूरों के अधिकारों को उनके नियोक्ताओं के साथ प्रभावी रूप से कम कर दिया है।

मजदूरों और मालिकों के बीच गैर-हस्तक्षेप की यह अवधारणा भी ठेंगड़ी की पुस्तक में प्रस्तावित है। उन्होंने अर्थशास्त्र के हवाले से कहा कि कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच एक काल्पनिक संस्कृति मौजूद हो सकती है यदि उन्हें किसी राज्य-शासित ढांचे के बिना आपस में शिकायतों को सुलझाने की अनुमति हो। निजी निगमों को अर्थशास्त्र में सहकारी समितियों या गिल्ड के रूप में जाना जाता है। ठेंगड़ी ने लिखा, ”गिल्ड का स्वायत्त चरित्र था।

गिल्ड के सदस्य अपने स्वयं के संविधान के अनुसार सभी आंतरिक विवादों को स्वयं निपटाते थे। गिल्ड के बाहर कोई भी शक्ति या व्यक्ति इस काम को करने के लिए सक्षम नहीं था। गिल्डों के आंतरिक प्रशासन में राज्य द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता है, सिवाय तब जब अध्यक्ष और सदस्यों के बीच विवाद उत्पन्न हो जाए।” ठेंगड़ी की दृष्टि में, राज्य तभी हस्तक्षेप करेगा जब मालिकों के विवाद होंगे; कर्मचारियों को किसी तीसरे पक्ष के सहारे की जरूरत नहीं थी।

ठेंगड़ी की दृष्टि में, धर्म द्वारा शासित एक सामाजिक-आर्थिक प्रणाली के तहत, ब्राह्मणों और वैश्यों के लिए व्यवसायों का स्वामित्व सीमित होना चाहिए। इन वर्णों में एक स्वतंत्र शिकायत निवारण प्रणाली होनी चाहिए, जबकि शूद्र, जिनके अपने पारंपरिक व्यापारों को करने और मजदूरों के रूप में काम करने की अपेक्षा की जा ती थी, उन्हें अपने मालिकों को सुनना चाहिए, जैसा कि धर्म द्वारा निर्धारित है। ठेंगड़ी के “हिंदू अर्थशास्त्र” के तहत, एक समाज को “उसके अंग के रूप में व्यक्तिगत शरीर के साथ” के रूप में परिभाषित किया गया था। यह परिभाषा ऋग्वेद के पुरुषसूक्त की एक ऋृचा में है, जो जाति व्यवस्था की आज्ञा देती है।

मोदी सरकार ने सार्वजनिक रूप से इस नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को केंद्रीय बना दिया है और इस पर आरएसएस की मुहर है। भागवत 26 अप्रैल को अपने भाषण के दौरान “विकास के नए मॉडल” का आह्वान करने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि नया मॉडल “आधुनिक विज्ञान के सबसे उपयोगी पहलुओं” का संयोजन होना चाहिए जो हमारी “अच्छी तरह से स्थापित परंपराओं” का पूरक हो। भागवत के अनुसार, यह मॉडल अकेले राज्य द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है, इसे नागरिकों के समर्थन की आवश्यकता है और यह समर्थन आत्मनिर्भरता को आकार प्रदान करेगा। वह यह कहने वाले पहले व्यक्ति थे कि नागरिकों को अपना व्यवहार बदलने की जरूरत है क्योंकि विकास का यह नया मॉडल सिर्फ एक आर्थिक मॉडल तक सीमित नहीं है। भागवत ने लोगों से “स्व आधारित तंत्र” प्रणाली का पालन करने के लिए कहा।

स्व आधार तंत्र की अवधारणा और एक व्यक्ति को इसके भीतर कैसे व्यवहार करना चाहिए इसे ठेंगड़ी की समाज की अवधारणा से अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। ठेंगड़ी ने स्वधर्म की एक अवधारणा का वर्णन किया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उस समुदाय के लिए निर्धारित सामाजिक संहिता का पालन करना चाहिए जिससे वे संबंधित हैं। यह सभी समुदायों की “स्वस्थ निरंतरता” के लिए आवश्यक है। व्यवहार में यह अवधारणा जाति व्यवस्था को बहाल करने का प्रयास करती है। ठेंगड़ी ने लिखा है :

ब्रह्मांड की भांति मानव जीवन का सही क्रम जो प्राचीन भारतीय विचार के अनुसार संरक्षित किया गया है वह है कि प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने स्वधर्म का पालन निष्ठापूर्वक करते हुए, उसकी प्रकृति और प्रकार के सच्चे नियम और जैविक सामूहिक जीवन का पालन। परिवार, कबीले, जाति, वर्ग, सामाजिक, धार्मिक, औद्योगिक या अन्य समुदाय, राष्ट्र, लोग सभी जैविक समूह हैं जो अपने स्वयं के धर्म का विकास करते थे और इसका पालन करने के लिए उनके संरक्षण, स्वस्थ निरंतरता और उचित कार्य का अनुसरण करते हैं।”

ठेंगड़ी ने आगे लिखा है कि भारतीय राजनीति “सामुदायिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की एक जटिल प्रणाली है जिसमें समुदाय की प्रत्येक इकाई का अपना प्राकृतिक अस्तित्व होता था और अपने स्वयं के समुचित जीवन और व्यवसाय का संचालन करता है, जो प्राकृतिक रूप से शेष से अलग होता है।” नतीजतन, आरएसएस और मोदी सरकार द्वारा वकालत की जा रही “आत्मनिर्भरता” का अर्थ एक ऐसा वर्गीकृत समाज है जिसके सदस्य जन्म के समय बनाई गई सीमाओं को स्वयं लागू रखते हैं।

ठेंगड़ी और एक हद तक आरएसएस का यह दर्शन, धर्म की अवधारणा में दुनिया में सर्वोच्च शक्ति के रूप में औचित्य पाती है। ठेंगड़ी ने धर्म को इस रूप में परिभाषित किया, “धर्म में इन सार्वभौमिक कानूनों के प्रकाश में अपरिवर्तनीय, शाश्वत, सार्वभौमिक कानून और कभी बदलते सामाजिक-आर्थिक क्रम शामिल हैं।” उनके अनुसार, धर्म किसी भी मामले को तय करने के लिए अंतिम “संदर्भ बिंदु” है। उदाहरण के लिए, स्त्री-पुरुष संबंधों में नैतिकता सार्वभौमिक कानून है। लेकिन नैतिकता को बनाए रखने और बढ़ावा देने की संस्थागत व्यवस्था न तो शाश्वत हो सकती है और न ही सार्वभौमिक।”

अपनी पुस्तक में ठेंगड़ी ने विभिन्न स्मृतियों को धर्म या सार्वभौमिक कानून के संहिताकरण के रूप में बताया, जिसे प्राचीन ज्ञान से तैयार किया गया था। हालांकि, भीमराव अंबेडकर ने प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति नामक एक शोध पत्र में इसे खारिज कर दिया। अंबेडकर ने स्मृतियों को “ब्राह्मणवाद का साहित्य” कहा, और लिखा कि वे 185 ईसा पूर्व के कुछ समय बाद रचे गए थे। अंबेडकर ने यह भी लिखा कि “बहुत पुराने समय” में स्मृतियों में जिस हिंदू विश्वास लिखा गया था वह “विश्वास” के अलावा और कुछ नहीं था।

राज्य के मामलों के लिए भी एकमात्र मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में धर्म की रक्षा में, ठेंगड़ी ने लिखा है कि “वैदिक ऋषियों ने सरकार के 13 विभिन्न रूपों के प्रयोग किए थे।” उनके अनुसार, “मुस्लिम आक्रमण” से पहले मौजूद “भारतीय राजतंत्र” शासन का एक धर्मी रूप था जिसमें राजा “धर्म की दिव्य शक्ति और संरक्षक” के रूप में कार्य करते थे। उन्होंने लिखा, “एक राजा की तुलना में महान संप्रभु धर्म था – धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक और प्रथागत कानून लोगों के जीवन को नियंत्रित करते हैं।” नतीजतन, आरएसएस के सामाजिक-आर्थिक क्रम में, राज्य और सरकारें धर्म के अधीन हैं।

ठेंगड़ी ने भी ऐसे शासन को आदर्श माना क्योंकि जाति जैसी सामाजिक संस्थाओं को प्राचीन भारतीय सामाजिक-राजनीतिक प्रणाली के “प्राकृतिक जैविक विकास” के रूप में परिभाषित किया गया था जो सभी समुदायों की “एकता” के लिए आवश्यक था। उन्होंने लिखा, “जाति, धार्मिक समुदाय, समाज, गांव, कस्बा या क्षेत्र या प्रांत के जैविक रिवाज या उनके अधिकारों का हनन करने या उनके अधिकारों को निरस्त करने के लिए हस्तक्षेप करना राज्य प्राधिकरण का कार्य नहीं था. ये अंतर्निहित थे क्योंकि वे सामाजिक धर्म को लागू करने के लिए आवश्यक थे।”

मोदी के भाषण और स्पष्ट दिखने वाले संकेतों के साथ राज्य और शासन के इस विचार को तेजी से आगे बढ़ाया गया है। 19 जून को मोदी ने जैन धर्म गुरु आचार्य महाप्रज्ञ के जन्म शताब्दी के अवसर पर श्रद्धांजलि अर्पित की। वीडियो को मोदी के आधिकारिक यूट्यूब चैनल के साथ-साथ कई सरकार समर्थित टेलीविजन चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट किया गया था। मोदी ने कहा, “मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं। मुझे याद है जब मैं गुजरात का मुख्यमंत्री था; आचार्य जी गुजरात आए थे। उस समय, मुझे उनकी अहिंसा यात्रा में भाग लेने और मानवता की सेवा करने का अवसर मिला।” जब मोदी बोल रहे थे तो, धार्मिक गुरु के पैर छूने की एक तस्वीर उनके आधिकारिक यूट्यूब चैनल के स्क्रीन पर दिखाई दी। एक अन्य फ्रेम में, मोदी हाथ जोड़कर गुरु के सामने खड़े थे।

मोदी ने कहा, “और मैंने तब आचार्य जी के सामने कहा था, मैं चाहता हूं ये तेरा पंथ मेरा पंथ बन जाए। आचार्य महाप्रज्ञ के स्नेह से तेरा पंथ मेरा पंथ बन गया। और मैं भी आचार्य श्री का बन गया।”  एक धार्मिक गुरु के प्रति प्रधान मंत्री की चापलूसी और प्रतिमाओं के सानिध्य का मतलब यह था कि राज्य का मुखिया एक धार्मिक गुरु से भी नीचे है, और मोदी को कुछ समय के लिए गुरु का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। उन्होंने यह कहते हुए अपनी श्रद्धांजलि समाप्त की, “मुझे विश्वास है कि जल्द ही हमारा देश हमारे ऋषियों, हमारे संतों और उनके आध्यात्मिक स्व द्वारा हमारे सामने रखे गए समाज और राष्ट्र के उदाहरण को बनाए रखने के दृढ़ संकल्प को पूरा करेगा।”

यह तथ्य कि ठेंगड़ी के सिद्धांतों ने मोदी सरकार के लिए खाका तैयार किया है, आरएसएस के वरिष्ठ सदस्यों द्वारा प्रबलित था। दक्षिण बंगाल के राज्य प्रभारी बिप्लव रॉय ने मुझे बताया कि मोदी का “कौशल भारत,” एक उद्योग-प्रासंगिक कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम जिसे आधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री कौशल योजना कहा जाता है और “मुद्रा योजना,” जिसे केंद्र सरकार के कार्यक्रम के रूप में जाना जाता है जो ऋण प्रदान करता है, छोटे उद्यमों के लिए “ठेंगडी के दर्शन का कार्यान्वयन भी था।” वाराणसी के एक प्रचारक रामाशीष सिंह ने एक कदम आगे बढ़कर कहा, “अगर आप दत्तोपंत जी को अच्छी तरह से पढ़ें, तो आप देखेंगे कि मोदी जी की नीतियों और उनके सिद्धांतों में कोई अंतर नहीं है।”

(सागर का यह लेख कारवां से साभार लिया गया है।)

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