अपनी सुविधा की नहीं, युवाओं के असुविधाजनक सवालों की सोचिये श्रीमान!

सेना में भर्ती की ‘अग्निपथ’ भर्ती योजना से नाराज कई राज्यों के युवा सड़कों पर उतर आये हैं और अपने प्रदर्शनों में हिंसा, आगजनी व तोड़फोड़ तक से परहेज नहीं कर रहे तो नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा कहा जा रहा है कि वे उसकी योजना को समझ नहीं पाये हैं। पाठक जानते हैं कि पिछले आठ सालों में देश की आजादी को आंशिक व लोकतंत्र को लंगड़ा कर चुकी इस सरकार को किसी भी महत्वपूर्ण फैसले से पहले उससे प्रभावित होने वाले पक्षों से सलाह-मशवरे से कैसा अटूट परहेज रहा है। उन्हें यह भी मालूम ही है कि यह परहेज जैसे ही उसे असंतोषों के दल-दल में फंसाता है, वह आन्दोलित समुदायों के ‘समझ न पाने’ वाले जुमले को दोहराने लग जाती है। 

उसकी इस ‘परम्परा’ की विडम्बना यह है कि पहले तो वह प्रभावित पक्षों तक को सम्बद्ध फैसले की बाबत बताना, समझाना या विश्वास में लेना जरूरी नहीं समझती। फिर जैसे ही वे उसके विरुद्ध आवाजें उठाते हैं, इस दावे के साथ सामने आ जाती है कि उसने जो कुछ भी किया है, उनके हित में बहुत सोच-समझकर किया है, लेकिन क्या करे, यह बात वे समझ ही नहीं पा रहे। बात आगे बढ़ जाती है तो वह आन्दोलनकारियों के विरोधियों के बहकावे में आ जाने की बात कहने में भी संकोच नहीं करती। भले ही उसके लस्त-पस्त विरोधी किसी को बहकाने की कूबत ही खो बैठे हों। 

याद कीजिए, उसका नोटबन्दी का फैसला कितना रहस्यमय और गुपचुप था। फिर कैसे उसने कहा था कि जो लोग उसका विरोध कर रहे हैं, वे तो वे, कई अर्थशास्त्री भी उसके फायदे नहीं समझ पा रहे। फिर अचानक वह नागरिकता संशोधन कानून ले आई और उसके खिलाफ देश भर में उद्वेलन व आन्दोलन उठ खड़े हुए, तो भी उसकी टेक यही थी कि आन्दोलनकारी इस कानून को समझ नहीं पा रहे। जम्मू-कश्मीर सम्बन्धी संविधान के अनुच्छेद 370 का खात्मा करके उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में बांट देने के फैसले के वक्त तो खैर कश्मीरियों या उनके प्रतिनिधियों के समझ पाने या न समझ पाने का सवाल ही उन्हें खुली या बन्द जेलों में डालकर खत्म कर दिया गया था।  

तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को अपने जीवन-मरण का प्रश्न बनाकर किसान राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जा डटे तो उनके बारे में भी इसने वही सब कहा था, जो नागरिकता संशोधन कानून के विरोधी आन्दोलनकारियों के बारे में। यह बात और है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी की संभावनाएं दांव पर लगी देखकर अपनी तपस्या में कमी स्वीकारते हुए उन कानूनों को वापस और अपने पांव पीछे खींच लेने पड़े थे। दूसरी ओर उनकी सरकार अब तक नागरिकता संशोधन कानून के नियम नहीं बना पायी है, जिसके कारण उसके ‘लाभ’ समझने वाले लोग भी उसके तहत नागरिकता नहीं प्राप्त कर पा रहे। 

इसी तर्ज पर सेना में संविदा पर चार चाल के लिए भर्ती की अग्निपथ योजना के विरुद्ध, जो इस सरकार की उक्त ‘परम्परा’ के अनुसार स्वतंत्र विशेषज्ञों से विचार विमर्श के बगैर लाई गई है, युवाओं का गुस्सा भड़क उठा है और सरकार फिर कह रही है कि वे उसके लाभ नहीं समझ पा रहे तो इससे क्या समझा जाये? क्या वह ‘अग्निपथ’ को लेकर भी कृषि कानूनों या नागरिकता संशोधन कानून जैसा ही कुछ करेगी? खासकर जब अग्निपथ को तो उसके समर्थक मोदी का कृषि कानूनों जैसा मास्टरस्ट्रोक भी नहीं बता पा रहे-ज्यादा से ज्यादा इजरायल वगैरह की नजीरों से उसका औचित्य सिद्ध कर रहे हैं। यही कारण है कि आन्दोलित युवाओं के इस सवाल का जवाब अभी तक नदारद है कि क्या इजरायल और भारत की जमीनी हकीकतें एक जैसी हैं या इजरायल हमारा आदर्श है? 

हालत यह है कि सरकार के प्रति नरम रुख रखने वाले कई जानकारों को भी अग्निपथ की सफलता को लेकर कुछ कम शक व शुबहे नहीं हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि पहले इसे ट्रायल के तौर पर धीमी गति से यानी चरणों में लागू किया जाये और आगे के चरणों से पूर्व पहले चरण की सफलताओं व विफलताओं की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जाये। कई और जानकार तो युवाओं के आक्रोश को देखते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल देने को भी कहने से नहीं चूक रहे।    

तिस पर सरकार की असहायता यह कि उसके पास हिंसक प्रदर्शनों पर उतरे युवाओं के सवालों के तर्कसंगत जवाब ही नहीं हैं और जो जवाब हैं, वे नये सवालों कों जन्म देते हैं। मसलन, सरकार आश्वस्त कर रही है कि ‘अग्निपथ’ योजना के तहत सेना में भर्ती 75 प्रतिशत युवा चार साल बाद उससे बाहर किये जायेंगे तो उन्हें राज्यों के पुलिस व केन्द्र के अर्धसैनिक बलों में भर्ती में वरीयता दी जायेगी। लेकिन आन्दोलित युवा पूछ रहे हैं कि ऐसा करने के बजाय सरकारें इन पुलिस व अर्धसैनिक बलों में भर्ती की प्रक्रिया ही फौरन क्यों नहीं शुरू कर देती तो उन्हें कोई जवाब नहीं मिल रहा।  

गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने मार्च, 2021 में संसद में बताया था कि अकेले सीएपीएफ में ही कुल स्वीकृत पदों में से 1,11,093 पद रिक्त हैं, जिनमें से ज्यादातर कांस्टेबलों के हैं। इसी तरह बीएसएफ में 28,924, सीआरपीएफ में 26,506, सीआईएसएफ में 23,906, एसएसबी में 18,643, असम राइफल्स में 7238 पद रिक्त हैं। सवाल है कि क्या ये भर्तियां इसलिए नहीं की जा रहीं कि चार साल बाद सेना से बाहर हुए अग्निवीरों से भरी जायेंगी? अगर नहीं तो किसे नहीं मालूम कि पहले से कोटा निर्धारित न होने पर भर्ती में वरीयता का हासिल क्या होता है? युवाओं को सेना में चार साल के लिए भर्ती होकर उस ‘हासिल’ के भरोसे क्यों रहना चाहिए? 

लेकिन इन बलों की तो छोड़िए, तीनों सेनाओं में ही कुल मिलाकर 1,22,555 पद खाली हैं, जिन पर भर्तियों के बजाय मोदी सरकार सुधार के नाम और संविदा के आधार पर चार साल की सेवा वाली अग्निपथ योजना लेकर युवाओं के सामने चली आई है। क्यों? इसका कोई तार्किक जवाब उसके पास नहीं है, जबकि युवाओं के पास उसके लिए कई और असुविधाजनक प्रश्न हैं। पहला यह कि उनके आन्दोलन में रेलों में आगजनी व तोड़-फोड़ से देश का नुकसान हो रहा है, तो क्या सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को कौड़ियों के मोल पूजीपतियों को बेच देने से देश का नुकसान नहीं होता? रेलों को निजीकरण की ओर ले जाकर वह उन्हें पूरी तरह देश की सम्पत्ति कहां रहने दे रही है? फिर इस सरकार को शांति से होने वाले प्रदर्शन पसन्द ही कहां हैं? वह उनका जल्दी नोटिस ही कहां लेती है? 

निस्संदेह, जब बेरोजगारी दर 45 साल का रिकार्ड तोड़ चुकी है, सरकार इन सवालों का जवाब पहले की तरह पकौड़ा तलने व बेचने को रोजगार बताकर नहीं दे सकती, न ही ‘आत्मनिर्भरता’ का यह पाठ पढ़ाकर कि युवा नौकरियां मांगने वाले नहीं दूसरों को रोजगार देने वाले बनें। क्योंकि इससे उद्वेलित युवाओं के जख्मों पर नमक ही पड़ेगा आगे वे और उद्वेलित हो जायेंगे।  

ऐसे में बेहतर यही होगा कि सरकार इस योजना को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर युवकों से टकराव मोल न ले और उनकी आशंकाओं को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए खुले मन से वार्ता करे-वैसे पाला बदकर नहीं जैसे किसानों से कर रही थी। साथ ही यह समझकर हालात को बदले कि उसके लिए सैन्य नीति को लेकर ऐसे किसी भी प्रयोग से, जिसे लेकर आम सहमति न हो, उलटे इतने उद्वेलन फैल गये हों, हर हाल में बचना ही श्रेयस्कर होगा। 

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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