Thursday, March 28, 2024

किसी व्यक्ति को उसके खिलाफ बिना किसी दर्ज़ अपराध के समन करना और हिरासत में लेना अवैध: सुप्रीम कोर्ट

आप इस पर विश्वास करेंगे कि हाईकोर्ट की एकल पीठ ने उच्चतम न्यायालय द्वारा अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) 8 एससीसी 273 में जारी निर्देश की सही व्याख्या की और इसके खिलाफ दो जजों की खंडपीठ  ने गलत व्याख्या की। नहीं न! लेकिन आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट में ऐसा ही हुआ। मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा तो इसका भेद खुला। उच्चतम न्यायालय के जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस. रवींद्र भट और जस्टिस  बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने व्यवस्था दिया है कि किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई अपराध दर्ज किए बिना उसे समन करना और हिरासत में लेना बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन है। पीठ ने कहा कि अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) 8 एससीसी 273 में जारी निर्देश कोई अपराध दर्ज नहीं होने पर भी लागू होंगे।

इस मामले में, एक व्यक्ति ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41 ए के तहत उचित नोटिस दिए बिना उसे गिरफ्तार न करने का निर्देश देने की मांग की। उनकी पत्नी ने भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत अपराध का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई थी। इस प्रकार एकल न्यायाधीश ने पुलिस को अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करने का निर्देश दिया।

बाद में उसने यह आरोप लगाते हुए अवमानना का मामला दायर किया कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के बावजूद, उन्हें पुलिस अधिकारी जबरन अकिविडु पुलिस स्टेशन ले गए और वहां हिरासत में ले लिया।

एकल पीठ ने इस मामले में मेट्रोपॉलिटन सत्र न्यायाधीश द्वारा दायर जांच रिपोर्ट पर ध्यान दिया जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता को परामर्श के नाम पर न केवल अकिविडु पुलिस स्टेशन बुलाया गया था बल्कि उसे हिरासत में भी लिया गया था। इस प्रकार पीठ ने कहा कि पुलिस अधिकारी अदालत की अवमानना का दोषी है। उन्हें तीन महीने कैद की सजा सुनाई गई थी।

इस आदेश को रद्द करते हुए खंड पीठ ने कहा कि चूंकि कोई अपराध दर्ज नहीं किया गया था, अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य में जारी निर्देश लागू नहीं होंगे। लेकिन मौजूदा मामले में, आज तक कोई अपराध दर्ज नहीं किया गया था। खंडपीठ ने कहा कि जब कोई अपराध नहीं होता है, तो रिट याचिकाकर्ताओं को गिरफ्तार करने का सवाल ही नहीं उठता। 

उच्चतम न्यायालय  ने जांच रिपोर्ट पर ध्यान देते हुए कहा कि यह न केवल अर्नेश कुमार बल्कि डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में उच्चतम  न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। पीठ ने कहा कि केवल तथ्य यह है कि कोई अपराध दर्ज नहीं किया गया था, बचाव नहीं हो सकता था, और न ही यह इस न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों की कठोरता से बच जायेगा। वास्तव में, व्यक्ति को उसके खिलाफ कोई अपराध दर्ज किए बिना समन करना और उसे हिरासत में लेना अपने आप में बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन होगा ।एकल पीठ  के आदेश को बहाल करते हुए कोर्ट ने तीन महीने की मूल सजा को संशोधित कर 15 दिन कर दिया।

अर्नेश कुमार में, उच्चतम न्यायालय  ने कहा था कि सभी राज्य सरकारें अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देश दें कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत अपराध दर्ज होने पर किसी व्यक्ति को स्वचालित रूप से गिरफ्तार न करें। गिरफ्तारी की आवश्यकता तब उत्पन्न होती है जब मामला दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के पैरामीटर के अंतर्गत आता है।सभी पुलिस अधिकारियों को धारा 41 (1) (बी) (ii) के तहत निर्दिष्ट खंड वाली जांच सूची प्रदान की जाए।

पुलिस अधिकारी आरोपी को आगे की हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करते समय गिरफ्तारी के लिए आवश्यक कारण और सामग्री के साथ विधिवत दायर और प्रस्तुत चेक लिस्ट को अग्रेषित करेगा। मजिस्ट्रेट आगे की हिरासत के आदेश को अधिकृत करते समय पुलिस अधिकारी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर भरोसा करेगा और पुलिस रिपोर्ट पर विधिवत प्रस्तुत कारण दर्ज करने के बाद ही और संतुष्ट होने पर, मजिस्ट्रेट आगे की हिरासत को अधिकृत करेगा।

किसी अभियुक्त को गिरफ्तार न करने के निर्णय को मजिस्ट्रेट की एक प्रति के साथ मामले की स्थापना की तारीख से दो सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट को अग्रेषित किया जाना चाहिए, जिसे जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा लिखित में कारण दर्ज करने के लिए बढ़ाया जा सकता है।आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41-ए के तहत उपस्थिति की सूचना मामले की स्थापना की तारीख से दो सप्ताह के भीतर आरोपी को तामील कर दी जाती है, जिसे पुलिस अधीक्षक द्वारा लिखित में कारण दर्ज करने के बाद बढ़ाया जा सकता है।

निर्देशों में यह भी कहा गया था कि ऊपर उल्लिखित निर्देशों का पालन करने में विफल रहने पर पुलिस अधिकारी को अधिकारिता वाले उच्च न्यायालय के समक्ष अदालत की अवमानना के लिए दंडित किया जा सकता है।बिना कारण दर्ज किए न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निरोध को अधिकृत करते हुए, संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय कार्यवाही के लिए उत्तरदायी होगा।

सटीक: बिना सबूत किसी को भी समन न भेजें अदालतें

एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय के  जस्टिस के एम जोसफ और जस्टिस पी एस नरसिम्हा की पीठ ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति आरोपी नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसने अपराध किया है, तो ऐसे मामलों में अदालतें लापरवाह तरीके से अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर सकती हैं। अदालतें ऐसे व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अपने अधिकार का इस्तेमाल तभी कर सकती हैं, जब उसके खिलाफ पर्याप्त और पुख्ता सबूत हों।  

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 319 के तहत जब किसी अपराध की जांच या मुकदमे के दौरान सबूतों से यह लगता है कि मामले में आरोपी नहीं बनाए गए किसी व्यक्ति ने अपराध किया है, तो अदालत ऐसे व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही कर सकती है।

पीठ ने एक आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि यह एक और मामला है, जिसमें सीआरपीसी की धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए किसी नए व्यक्ति के खिलाफ समन जारी करके उसे इस अदालत में लाया गया है। पीठ ने कहा कि जब किसी व्यक्ति के खिलाफ पर्याप्त और पुख्ता सबूत हों, तभी धारा 319 का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

पीठ  ने रमेश चंद्र श्रीवास्तव द्वारा दायर एक याचिका पर फैसला सुनाते समय यह टिप्पणी की। रमेश चंद्र के ड्राइवर का शव 2015 में मिला था। मृतक की पत्नी ने आरोप लगाया और अदालत में बयान दिया है कि रमेश चंद्र को आरोपी नहीं बनाया गया है, लेकिन उसने अपने दोस्तों की मदद से उसके पति की हत्या कर दी।

निचली अदालत ने मृतक की पत्नी के बयान के आधार पर रमेश चंद्र को आरोपी के रूप में तलब किया था। श्रीवास्तव ने तब निचली अदालत के आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन हाईकोर्ट में उसकी याचिका खारिज कर दी गई, जिसके बाद उसने उच्चतम न्यायालय  का दरवाजा खटखटाया। पीठ ने रमेश चंद्र की अपील को स्वीकार कर लिया और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले व एक आरोपी के रूप में उसे तलब करने के निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया।

पीठ ने कहा कि सत्र न्यायाधीश 30 सितंबर, 2021 को इस मामले की सुनवाई करेंगे। उक्त दिन सभी पक्षकार मौजूद रहेंगे। इसके बाद अदालत हरदीप सिंह मामले (2014 के फैसले) में उच्चतम न्यायालय  द्वारा निर्धारित सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए उचित आदेश पारित करेगी।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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