इस संसार में सबका दुखड़ा अलग-अलग है। एक गरीब आदमी के बेरोजगार का दुखड़ा तो समझ में आता है अगर महामहिम अपना दुखड़ा पेश करेंगे तो उस पर आश्चर्य होना, तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। लगता है इस देश में लाखों करोड़ों लोगों की तरह देश के प्रथम नागरिक का भी एक दुख है। देश के प्रथम नागरिक ने पिछले दिनों जब अपना दुखड़ा बयान किया तो सोशल मीडिया पर उनका यह दुख वायरल हो गया और उन पर कटाक्ष करने वालों की लंबी लाइन लग गई। आखिर देश के प्रथम नागरिक के इस दुखड़े में कौन सी ऐसी बात थी जिसके कारण काफी तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं? क्या उस प्रथम नागरिक ने अपनी टिप्पणी से खुद को एक्सपोज कर दिया या उसने अपनी टिप्पणी से शिक्षक समुदाय को आहत कर दिया जिससे सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं लेकिन इन सारे पहलुओं पर विचार करने से पहले हम अपने देश के प्रथम राष्ट्रपति को भी जरा याद कर लें।
एक महामहिम वह थे जो राष्ट्रपति पद से अवकाश ग्रहण लेने के बाद पटना के सदाकत आश्रम में एक खपरैल मकान में रहने लगे थे जहां एक गर्मी में एक कूलर भी नहीं हुआ करता था। उस महामहिम को बचत करने की फिक्र नहीं थी और जब उनका निधन हुआ तो उनके बैंक खाते में कुछेक हजार रुपए ही थे। उस महामहिम ने अपने लिए स्टाफ भी लेने से मना कर दिया जबकि वह उसके हकदार थे। लेकिन वह सादगी और ईमानदारी के प्रतीक थे।
आजादी के करीब 40 साल बाद एक ऐसे महामहिम हुए जो अवकाश ग्रहण करने के बाद अपनी सरकारी कोठी को सुंदर आरामदेह बनाने के लिए तीस लाख रुपए सरकारी खजाने से खर्च किये तब इस घटना को लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया मीडिया में हुई थी। उनके बाद एक और महामहिम हुए जो जब रिटायर हुए तो वे अपने कार्यकाल में मिलने वाले सभी उपहारों को निजी संपत्ति मानकर राष्ट्रपति भवन से अपने घर ले गए। तब भी मीडिया में इस घटना की बड़ी तीखी आलोचना हुई थी। आज फिर एक ऐसे महामहिम देश के सामने उपस्थित हुए हैं जिनकी एक टिप्पणी ने लोगों में तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया है।
यह महामहिम कहते हैं कि उनकी आधी कमाई तो टैक्स भरने में लग जाती है और उससे अधिक बचत तो देश का एक टीचर कर लेता है। इन महामहिम की तनख्वाह 5 लाख रुपए हैं जबकि इस देश में जब राज्यपाल की तनख्वाह ₹5000 और राष्ट्रपति की तनख्वाह ₹10000 होती थी तब भी किसी महामहिम ने अपनी बचत को लेकर ऐसा दुखड़ा पेश नहीं किया था लेकिन इस महामहिम ने यह दुखड़ा कोरोना काल में पेश किया है जहां बचत करने की बात तो दूर लोगों की नौकरियां जा रही हैं और जहां महंगाई की मार सबसे अधिक एक आम आदमी झेल रहा है और जहां लाखों टीचर अस्थाई नौकरी करने पर मजबूर हो रहे हैं और लाखों पढ़े-लिखे बेरोजगारों को टीचर की नौकरी नहीं मिल रही है जबकि ये पद दस बीस साल से खाली हैं।
ऐसे में महामहिम रामनाथ कोविंद इस टिप्पणी से देशवासियों का चौंकना बहुत स्वाभाविक था जबकि यह देश जानता है कि राष्ट्रपति एक विशालकाय हवेली नुमा महल में रहता है जहां 300 से अधिक कमरे हैं उसे पानी बिजली का भी खर्च नहीं देना होता है उसके पास नौकर चपरासियों और कर्मचारियों की फौज होती है और राष्ट्रपति भवन का पूरा बजट करीब 300 करोड़ का होता है। ऐसे में अगर राष्ट्रपति को अपनी चिंता तनख्वाह में बचत को लेकर करनी पड़ रही है तो देशवासियों की तीखी प्रतिक्रिया बहुत स्वाभाविक है जो इस कोरोना काल में अपने जीने मरने के लिए रोज संघर्ष कर रहे हैं। महामहिम की पेंशन भी नियमतः वेतन का आधा यानी ढाई लाख मिलेगी क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को वेतन डेढ़ लाख रुपए मिलते थे और उन्हें पेंशन ₹75000 मिले थे।
राष्ट्रपति को रिटायर होने के बाद आलीशान बंगला स्टाफ टेलीफोन आदि की सुविधा के साथ चिकित्सा की मुफ्त सुविधा मिलती है। इस देश में कितने लोगों को आज डेढ़ लाख या ढाई लाख रुपए की पेंशन मिलती है जबकि 2004 के बाद पेंशन स्कीम ही खत्म हो गई। आज एक श्रमजीवी पत्रकार को 5 हजार रुपए पेंशन नहीं मिलते और वृद्धावस्था पेंशन तो हजार रुपए मिलते हैं ऐसे में महामहिम की अपनी चिंता करना शर्मनाक है जबकि आज तो महामहिम की तनख्वाह बढ़ कर ₹500000 हो गई है । महामहिम की यह टिप्पणी इस रूप में भी गलत है क्योंकि देश के हर टीचर को ढाई लाख रुपए की तनखाह तो नहीं मिलती है। अगर कॉलेज की टीचर की भी बात की जाए 20 साल की नौकरी करने के बाद ही इतनी तनख्वाह मिलती है लेकिन
आज राष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनते ही ₹5 लाख रुपए मिलने लगते हैं, उसके लिए उन्हें 20 साल तक इंतजार करना नहीं होता है और अब तो टीचरों की पेंशन भी नहीं है कि वह महामहिम की तरह पेंशन को लेकर निश्चित हो सकें । पिछले दिनों जब प्रकाश जावड़ेकर शिक्षा मंत्री थे तो उनके कार्यकाल में आईआईटी से पास छात्रों के लिए एक स्कीम जारी की गई जिसमें 5 साल के लिए एक कॉन्ट्रैक्ट जॉब ऑफर किया गया और वह भी महज ₹75000 की सैलरी पर जबकि यूजीसी के अनुसार एक टीचर की सैलरी 75 से अधिक होती है लेकिन महामहिम को अपने देश की हकीकत नहीं मालूम या उन्होंने यथार्थ से आंख चुराने की कोशिश की है। यह वही महामहिम हैं जिन्होंने कृषि विधेयक पर हस्ताक्षर किए हैं। क्या उन्हें इस विधेयक पर हस्ताक्षर करते किसानों की हकीकत से आंख मूंदने की कोशिश नहीं की? क्या विधेयक पर हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने नहीं सोचा कि वह अपने देश के किसानों के साथ इतना बड़ा धोखा कर रहे हैं और कुछ पूंजीपतियों के हवाले इस देश को बेच दे रहे हैं।
तब महामहिम की संवेदनशीलता कहां गई थी? क्या उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि देश के किसान अपने लिए क्या बचत कर पाएंगे? उनकी तो कोई सैलरी भी नहीं है और उनके पास कोई आलीशान सरकारी कोठी भी नहीं। जब देश का प्रथम नागरिक अपने भविष्य को लेकर, अपनी बचत को लेकर इतना चिंतित रहेगा इतना आत्ममुग्ध रहेगा तो उससे किसानों के हितों की रक्षा की कैसे उम्मीद की जा सकती है। महामहिम ने अपनी इस छोटी सी टिप्पणी से अपने चेहरे से अपना मुखौटा खुद उतार लिया है और इसके लिए कोई और दोषी नहीं है बल्कि महामहिम खुद दोषी हैं। उनकी यह टिप्पणी देश के गणतंत्र के इतिहास में हमेशा याद रखी जायेगी।
(विमल कुमार वरिष्ठ कवि और पत्रकार हैं। आजकल आप दिल्ली में रहते हैं।)
+ There are no comments
Add yours