Tuesday, March 19, 2024

कोरोना की दूसरी लहर पर प्रधानमंत्री की पहली मन की बात

अंततः प्रधानमंत्री जी ने कोविड-19 की विनाशकारी दूसरी लहर के विषय में राष्ट्र को संबोधित किया। निश्चित ही बंगाल और अन्य राज्यों के बेपरवाह और लापरवाह स्टार प्रचारक को देश के प्रधानमंत्री की सधी हुई भूमिका में प्रवेश करने में दिक्कत हुई होगी। यह कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे टी-20 की उच्छृंखलता का आनंद ले रहे किसी खिलाड़ी को अचानक टेस्ट मैच के अनुशासन में बांध दिया जाए। आलोचना बहुत हो रही थी, इसलिए अंततः विवश होकर उन्हें इस अप्रिय विषय पर बात करनी पड़ी, उनका अनमनापन पूरे संबोधन में स्पष्ट झलक रहा था। उनके पास कहने को कुछ विशेष था नहीं- कम से कम ऐसा कुछ तो बिल्कुल नहीं था जो अस्पताल, ऑक्सीजन और दवा के अभाव में बदहवास इधर-उधर भटकते और तड़प-तड़प कर दम तोड़ते लोगों को आश्वस्त कर पाता। उनका भाषण छोटा था। प्रधानमंत्री जी के लंबे भाषणों से थक चुके श्रोताओं के लिए यह आश्चर्यजनक रूप से राहत देने वाला था। भाषण छोटा जरूर था, लेकिन कूटनीतिक दृष्टि से सधा हुआ था। यह दुःखद आश्चर्य ही है कि ऐसी विषम और विकट परिस्थिति में भी देश का मुखिया अपना कूटनीतिक चातुर्य बरकरार रखने पर अधिक ध्यान दे रहा था।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण के प्रारंभ में कोविड-19 की इस घातक और भयंकर दूसरी लहर का जिक्र इस प्रकार किया मानो यह कोई प्राकृतिक आपदा हो। आशा तो यह थी कि प्रधानमंत्री देश से इस बात के लिए क्षमा मांगेंगे कि कोविड-19 की अधिक घातक, अधिक संक्रामक, अधिक संहारक दूसरी लहर के आगमन की वैज्ञानिकों की चेतावनी को उन्होंने अनदेखा किया। यह भी संभव है कि प्रधानमंत्री जी की इच्छा को ही सच साबित करने के लिए समर्पित देश के नीति निर्धारक तथा प्रधानमंत्री जी के सुयोग्य सलाहकार उनके आत्म सम्मोहन और आत्म मुग्धता को तोड़ने का साहस न कर पाए हों। जब प्रधानमंत्री जी भारत के कोविड मैनेजमेंट को विश्व के विकसित देशों के लिए भी अनुकरणीय बता रहे थे तब उनके सामने दूसरी लहर का जिक्र करने की गुस्ताखी उनके अधीनस्थों से न हुई होगी।

उम्मीद यह भी थी कि चुनाव प्रचार के दौरान हुई अपनी विशाल  रैलियों के माध्यम से कोविड प्रोटोकाल की धज्जियां उड़ाने का अप्रत्यक्ष संदेश देने की भूल लिए आदरणीय प्रधानमंत्री जी  क्षमा याचना करेंगे। वे साहसपूर्वक यह स्वीकार करेंगे कि कुंभ का विशाल आयोजन एक भयंकर भूल थी। वे कहेंगे कि अहमदाबाद में स्वयं उनके नाम पर बनाया गया भव्य क्रिकेट स्टेडियम बाद में भी बनाया जा सकता था। बहुत कुछ ऐसा, जिसके लिए मेगा और ग्रैंड जैसी अभिव्यक्तियां प्रयुक्त होती हैं, जरा बाद के लिए स्थगित किया जा सकता था और इसके स्थान पर कोविड-19 से मुकाबला करने के लिए अस्पताल, ऑक्सीजन, दवाई और वैक्सीन के उत्पादन जैसा मामूली और रोमांचहीन कार्य किया जा सकता था।

किंतु प्रधानमंत्री शायद यह जानते हैं कि भूलें और मूर्खताएं भी यदि विशाल हों तब इनमें भी एक महाकाव्यात्मक आकर्षण उत्पन्न हो जाता है जो जनता को चकित-भ्रमित कर सकता है। बहरहाल कोविड-19 की इस दूसरी लहर का जिक्र प्राकृतिक आपदा की भांति करना प्रधानमंत्री जी की विवशता थी। यदि इसे मानवकृत आपदा का दर्जा दिया जाएगा तो इसके लिए वर्तमान सरकार और उसके मुखिया की गलत और गैरजिम्मेदार नीतियों के जिक्र से बचा नहीं जा सकता।

प्रधानमंत्री जी ने अपने निकट परिजनों को गंवा चुके देशवासियों से कहा- परिवार के एक सदस्य के रूप में मैं आपके दुःख में शामिल हूँ। यह स्वाभाविक ही है कि पूरा देश प्रधानमंत्री जी का परिवार है और इस परिवार में किसी के साथ होने वाली कोई भी दुःखद घटना, कोई भी हादसा उन्हें अवश्य शोकग्रस्त करेगा। किंतु इस विशाल परिवार के मुखिया के रूप में देश के लोगों की इस महामारी से रक्षा न कर पाने की नैतिक जिम्मेदारी से प्रधानमंत्री जी बच नहीं सकते। आदरणीय प्रधानमंत्री जी ऑक्सीजन, दवा और बेड की कमी से जूझते परिजनों की तरह बेबस नहीं हैं। वे देश के प्रधानमंत्री हैं। स्वयं उनके पास असीमित शक्तियां हैं। उनके पास सूचना के सर्वश्रेष्ठ स्रोत हैं।

मिशिगन विश्विद्यालय के एपिडेमियोलॉजी और बायोस्टेटिक्स विभाग के इस सेकंड वेव के हमारे देश में भयंकर प्रसार की भविष्यवाणी करते आंकड़े पब्लिक डोमेन में हैं। ऐसी ही अन्य अनेक चेतावनियां दुनिया के अग्रणी देशों के शीर्ष वैज्ञानिकों ने हमें दी हैं। निश्चित ही यह सूचनाएं हमारी सरकार तक भी पहुंची होंगी और स्वाभाविक रूप से जनता में पैनिक न फैले इसलिए सरकार ने इन्हें सार्वजनिक नहीं किया होगा, किंतु यह प्रश्न तो अनुत्तरित ही रहेगा कि क्या हमने इन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया? हमने तो कोविड-19 पर अपनी विजय का जश्न मनाना प्रारंभ कर दिया। हमारी सरकार कोरोना को हराने का मोदी मंत्र- जैसी सुर्खियों से आनंदित होने लगी।

हमने वैक्सीन मैत्री की महत्वाकांक्षी पहल प्रारंभ की जबकि हमारे अपने लोगों को वैक्सीन की जरूरत थी। आज हम विदेशी वैक्सीन्स के आयात को आनन फानन में मंजूरी दे रहे हैं और महज 100 देशवासियों पर एक सप्ताह के परीक्षण के बाद यह हमारे टीकाकरण कार्यक्रम का हिस्सा होंगी। क्या देशवासियों को भारतीय नागरिकों पर लंबे समय से परीक्षित वैक्सीन्स देना अधिक सुरक्षित नहीं होता? यह बिल्कुल संभव था यदि वैक्सीन निर्माता कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता और अन्य सक्षम कंपनियों को भी इन वैक्सीन्स के निर्माण से जोड़ा जाता। इन कंपनियों के मुनाफे का प्रश्न बाद में भी सुलझाया जा सकता था, किंतु आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में वैक्सीन के संबंध में जो घोषणा की वह चौंकाने वाली थी।

उन्होंने कहा- एक मई के बाद से, 18 वर्ष के ऊपर के किसी भी व्यक्ति को वैक्सीनेट किया जा सकेगा। अब भारत में जो वैक्सीन बनेगी, उसका आधा हिस्सा सीधे राज्यों और अस्पतालों को भी मिलेगा। उनकी इस घोषणा के बाद सरकार समर्थक मीडिया ने 18-45 वर्ष के लोगों को टीकाकरण कार्यक्रम के दायरे में लाने के लिए प्रधानमंत्री जी की जयजयकार प्रारंभ कर दी। अभी तक पूरी दुनिया के अनेक देशों में चलाए जाने वाले सफल टीकाकरण अभियानों की कुछ विशेषताएं रही हैं, यह अभियान सरकार द्वारा संचालित होते हैं, टीके बिना भेदभाव के सबको सुलभ कराए जाते हैं और यह टीकाकरण बिल्कुल मुफ्त होता है। स्वतन्त्रता के बाद हमारे देश ने अनेक मॉस वैक्सीनेशन कार्यक्रम चलाए और यह कार्यक्रम सभी के लिए तथा मुफ्त रहे हैं। किंतु भारत सरकार इस वैश्विक महामारी के सबसे भयंकर दौर में टीकाकरण कार्यक्रम में निजी क्षेत्र को प्रवेश करने का अवसर दे रही है और अब यह बाजार के हवाले होगा।

अब तक राज्यों को मुफ्त में मिलने वाली वैक्सीन केंद्र सरकार के फैसले के बाद  उन्हें वैक्सीन निर्माता कंपनियों से खुले बाजार के नियमों के अनुसार बिना किसी मूल्य नियंत्रण के खरीदनी होगी। वैक्सीन निर्माता स्व-निर्धारित वैक्सीन मूल्य की घोषणा करेंगे। यह स्थिति खतरनाक और अकल्पनीय होगी जब 18 से 45 वर्ष की आयु की देश की लगभग 50 करोड़ जनसंख्या सीमित संख्या में उत्पादित हो रहे टीकों के लिए जद्दोजहद करेगी। उस तक टीका तभी पहुंचेगा जब उसकी राज्य सरकार के पास टीका निर्माता कंपनियों से टीके खरीदने लायक पैसा होगा और इसके बाद भी वह तभी इसे लगवा पाएगा जब उसके पास खुद इन टीकों को खरीदने लायक धन होगा। कोई आश्चर्य नहीं कि हम आने वाले समय में टीकों की कालाबाजारी होते देखें और करोड़ों निर्धन लोगों को वैक्सीन के सुरक्षा कवच से वंचित होकर कोविड-19 का शिकार बनता पाएं।

प्रधानमंत्री जी ने कहा कि 18 वर्ष से अधिक आयु के लोगों का वैक्सीनेशन चालू करने से हमारी वर्क फ़ोर्स को सुरक्षा मिलेगी। प्रधानमंत्री जी निश्चित रूप से यह तो जानते ही होंगे कि टीकाकरण के तत्काल बाद ही प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं होती। दूसरी खुराक के 14 दिन बाद ही इम्युनिटी विकसित होने के दावे किए गए हैं। सच्चाई यह है कि इस भयंकर दूसरी लहर में हमारा कामकाजी युवा संक्रमण से लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है।

कोआपरेटिव फेडरलिज्म की बारम्बार चर्चा करने वाले प्रधानमंत्री जी का यह फैसला नोटबन्दी, जीएसटी और लॉकडाउन जैसे फैसलों की अगली कड़ी है, जिसमें केंद्र सरकार बिना राज्यों को विश्वास में लिए एकतरफा निर्णय उन पर थोप देती है। प्रधानमंत्री जी ने देश में 12 करोड़ लोगों को विश्व में सबसे कम समय में वैक्सीनेट करने की उपलब्धि की चर्चा की। सच्चाई यह है कि हम अपनी 140 करोड़ की जनसंख्या के केवल 11.61 प्रतिशत लोगों को वैक्सीनेट कर पाए हैं, जबकि 12 अप्रैल 2021 की स्थिति में ब्रिटेन तथा अमेरिका अपनी कुल आबादी के 29.6 तथा 29.1 फीसदी लोगों का टीकाकरण कर चुके थे। यदि 18 वर्ष से ऊपर के वयस्कों की जनसंख्या को आधार बनाया जाए तो भारत और ज्यादा पीछे है। हमारी जनसंख्या का जितना बड़ा हिस्सा जितनी जल्दी वैक्सीनेट होगा इस वैश्विक महामारी का प्रसार उतना ही कम होगा। इस संबंध में आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने कोई रोड मैप प्रस्तुत नहीं किया।

पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी से रोगियों की मृत्यु के भयावह दृश्य सामने आ रहे हैं। देश के अनेक राज्यों के उच्च न्यायालय इस स्थिति को लेकर सुनवाई कर रहे हैं और अनेक अस्पताल न्यायालय में इस बात की स्वीकारोक्ति कर रहे हैं कि ऑक्सीजन की कमी से भारी संख्या में रोगी मर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बोबड़े ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन इस विषय पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई की और सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि ऑक्सीजन की कमी से लोग मर रहे हैं।

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़े बड़ी चौंकाने वाली तस्वीर हमारे सामने रखते हैं। इनके अनुसार 12 अप्रैल 2021 की स्थिति में ऑक्सीजन की दैनिक खपत 3842 मीट्रिक टन थी। जबकि कुल मेडिकल एवं इंडस्ट्रियल स्टॉक 50000 मीट्रिक टन था और दैनिक उत्पादन क्षमता 7287 मीट्रिक टन थी। वर्तमान में मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन की खपत उत्पादन क्षमता की केवल 54 प्रतिशत है। इंडस्ट्रियल ग्रेड ऑक्सीजन को शुद्ध करके मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन में बदला जा रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि ऑक्सीजन की सप्लाई चेन को कौन बाधित कर रहा है? क्यों ऑक्सीजन जरूरतमंदों और अस्पतालों तक नहीं पहुंच पा रही है? एक तर्क यह दिया जा रहा है कि सिलिंडरों और टैंकरों का अभाव ऑक्सीजन की कमी के लिए उत्तरदायी है। यह अन्वेषण का विषय है कि यह कमी वास्तविक है या मुनाफाखोरों द्वारा कृत्रिम रूप से पैदा की गई है।

हमने अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 के मध्य 9884 मीट्रिक टन इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन का निर्यात किया। जबकि इससे पिछले वर्ष की इसी अवधि में हमारा निर्यात 4500 मीट्रिक टन था। क्या हमें इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन को मेडिकल ऑक्सीजन में बदल कर उसके भंडारण पर अधिक ध्यान नहीं देना था? क्या हम कोविड-19 की दूसरी लहर के आगमन और मेडिकल ऑक्सीजन के महत्व को अनदेखा कर रहे थे? हमें 50000 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन का आयात क्यों करना पड़ रहा है?

यदि समस्या सप्लाई चेन की है तो फिर आयात की गई ऑक्सीजन को भी जरूरतमंदों तक पहुंचाने में दिक्कत होगी। यह विषय इतना गंभीर है कि सरकार को इस पर अविलंब श्वेत पत्र लाना चाहिए। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री जी के भाषण में इस विषय में जो कुछ कहा गया वह नाकाफी था और इसका मूल भाव यह था कि कोविड संक्रमण में तीव्र वृद्धि के बाद ऑक्सीजन की कमी एक स्वाभाविक स्थिति है और सरकार की कोशिशों से दूर हो जाएगी। आग लगने के बाद कुंआ खोदने जैसी सरकारी कोशिशों ने आम आदमी को मरने के लिए छोड़ दिया है।

अपने भाषण में प्रधानमंत्री जी ने राज्य सरकारों से अपील करते हुए कहा- “मेरा राज्य प्रशासन से आग्रह है कि वो श्रमिकों का भरोसा जगाए रखें, उनसे आग्रह करें कि वो जहां हैं, वहीं रहें। राज्यों द्वारा दिया गया ये भरोसा उनकी बहुत मदद करेगा कि वो जिस शहर में हैं वहीं पर अगले कुछ दिनों में वैक्सीन भी लगेगी और उनका काम भी बंद नहीं होगा।” बेहतर होता कि आदरणीय प्रधानमंत्री जी प्रवासी श्रमिकों से क्षमा माँगते कि पिछले एक वर्ष में वे इनके लिए कुछ भी नहीं कर पाए। वे यह स्वीकार करते कि इन श्रमिकों के हुनर का उपयोग उनके अपने गांव-शहर में करने और उन्हें वहीं रोजगार देने के उनके वादे असत्य थे। न केवल इन श्रमिकों को दुबारा महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा अपितु उन्हीं असुरक्षित परिस्थितियों में रहने और काम करने हेतु इन्हें विवश होना पड़ा और अब फिर रोजगार छिनने के बाद वे घर लौटने को मजबूर हुए हैं।

प्रधानमंत्री जी उपलब्धियों का श्रेय तो अकेले ले लेते हैं किंतु अपनी असफलताओं को राज्यों पर थोपने और अप्रिय जिम्मेदारियों के निर्वाह हेतु वे सहकारी संघवाद की शरण में  चले जाते हैं।

आश्चर्यजनक रूप से प्रधानमंत्री जी ने युवकों और बच्चों को भी कुछ टास्क दिए। उन्होंने युवाओं से छोटी-छोटी समितियां बनाकर कोविड अनुशासन का पालन सुनिश्चित कराने को कहा, जबकि बच्चों से ऐसा माहौल बनाने का आग्रह किया जो लोगों को बाहर निकलने के लिए हतोत्साहित करे। प्रधानमंत्री जी द्वारा देश की जनता को फैंसी तथा दिखावटी टास्क देना कोई नई बात नहीं है, लेकिन उस समय जब कोविड-19 की इस खतरनाक दूसरी लहर का निशाना खास तौर पर युवा और बच्चे बन रहे हैं तब भी उनका स्वयं को इन्हें टास्क देने से न रोक पाना आश्चर्यजनक भी था और दुःखद भी।

प्रधानमंत्री को युवाओं और बच्चों से क्षमा याचना करनी चाहिए थी कि वे यह अनुमान नहीं लगा पाए कि कोविड-19 की दूसरी लहर का खास निशाना यही हैं। उनके स्कूलों को खोलने और परीक्षाओं के आयोजन संबंधी निर्णय वैज्ञानिकों और विशेषज्ञ चिकित्सकों की चेतावनी को गम्भीरता से न लेने का परिणाम थे। जब तक इस गलती को सुधारा जाता, बच्चों को वायरस का पर्याप्त एक्सपोज़र मिल चुका था। युवाओं को चुनावी रैलियों और चुनाव प्रचार में लगाए रखना भी एक गलती थी क्योंकि इस प्रकार वे खुद भी संक्रमित हुए और उन्होंने अपने परिजनों तक भी संक्रमण को पहुंचाया।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने जन भागीदारी से कोरोना को हराने की अपील की और समाज सेवी संस्थाओं से सेवा कार्य जारी रखने को कहा। देश की जनता कब तक सरकारी तंत्र की असफलता और निकम्मेपन को सेवा कार्यों के माध्यम से छिपाती रहेगी? पिछले लॉकडाउन और कोविड-19 के लंबे प्रथम आक्रमण के बाद लोगों की आर्थिक स्थिति बदहाल है। बेरोजगारी चरम पर है। करोड़ों रोजगार समाप्त हो गए हैं। करोड़ों लोग वेतन और मजदूरी में भारी कटौती का सामना कर रहे हैं। सबकी आशा भरी निगाहें आदरणीय प्रधानमंत्री जी की ओर हैं, जो खुद याचक की मुद्रा में हैं। कब तक देश की उदार जनता एक असफल नेतृत्व की गलतियों के असर को कम करने के लिए त्याग करती रहेगी?

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने इस भीषण संकट काल में भी अपने मन की बात ही की। हो सकता है कि उनके काल्पनिक भारत की आभासी जनता को उनका यह एकालाप रुचिकर लगा होगा, लेकिन मरते हुए रोगियों और उनके हताश परिजनों के लिए तो यह एक क्रूर परिहास जैसा ही था।

(राजू पांडेय लेखक और गांधीवादी चिंतक हैं।)

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