पंजाब विधान सभा चुनाव: कहां खो गईं कम्युनिस्ट पार्टियां

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11 मार्च, 2022 को एक छोटी सी खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी। इसका हिंदी तर्जुमा इस प्रकार से है- पंजाब चुनावः नोटा ने सीपीआईएम और जदयू से अधिक वोट हासिल किये। इस खबर को थोड़ा और पढ़ने पर पता चला कि नोटा का कुल वोट सीपीआई और सीपीआईएमल लिबरेशन से भी अधिक था। इस खबर के अनुसार ‘भारतीय चुनाव आयोग के आंकड़े दिखाते हैं कि सीपीआई एमएल, सीपीआई और सीपीआईएम चुनाव में महज 0.03, 0.05 और 0.06 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सके।’ यह कुल मतों का 1 प्रतिशत भी नहीं बैठता। जबकि नोटा के पक्ष में कुल 0.71 प्रतिशत वोट पड़े थे, जो पिछले चुनाव से थोड़ा बढ़कर है।

ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है। 2002 के बाद से ऐसे ही हालात बने हुए हैं। 2002 में कांग्रेस के भरोसे दो सीट सीपीआई को मिल सकी थी। इसके बाद 2004 और 2007 में क्रमशः 2.06 और 1.03 प्रतिशत वोट हासिल हुआ। इसके बाद पांच विधान सभा चुनाव में यह पार्टी मोर्चा बनाने के बाद भी कुल वोट में 1 प्रतिशत की हिस्सेदारी भी नहीं कर पाई। सीपीआईएम की भी यही स्थिति रही है। सीपीआई और सीपीएम ने 1992 में क्रमशः 5 और 4 सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन, यह मानो उनके लिए अंतिम जीत जैसी थी।

इसके पहले आपातकाल के बाद हुए पंजाब विधान सभा चुनाव में सीपीआई और सीपीएम ने क्रमशः 7 और 8 सीटें हासिल की थीं। 1980 में हुए चुनाव में यह क्रमशः 9 और 5 हो गया। 1985 में हुए चुनावों में ये महज 1 सीट पर सिमट गये। हालांकि 1992 में स्थिति सुधरी लेकिन गिरावट का जो सिलसिला शुरू हो गया था, वह रुकने का नाम नहीं लिया।

यदि आप पंजाब चुनाव में थोड़ा और पीछे जायें तब भी कम्युनिस्ट पार्टी की उपस्थिति इतनी खराब नहीं रही है जितना पिछले 20-22 सालों से दिख रही है। यदि पंजाब की सामाजिक स्थिति को देखें तो यहां हमेशा ही तनाव से भरा रहा है। भारत विभाजन को लेकर चाहे जितना हिंदू-मुस्लिम के बीच की कहानी को दोहराया जाये, लेकिन इस विभाजन का सबसे गहरा असर सिख समुदाय पर पड़ा था। यह समुदाय जिस राजनीति का शिकार हुआ उसका सिलसिला ऑपरेशन ब्लू स्टार और  1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में भी दिखा, और जारी रहा। यह राज्य मूलतः खेती पर टिका रहा।

पंजाब में दोतरफा प्रवासी मजदूरों की कहानी है। एक तरफ पंजाब के लोग कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों की तरफ बढ़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर पंजाब में बिहारी मजदूरों का बड़े पैमाने पर आगमन होता रहा है। यह राज्य अपनी सम्पन्नता के बावजूद लगातार संकटग्रस्त रहा है और संकट का चरित्र हमेशा एक सा नहीं रहा है। ऐसे में यह सवाल बनता ही है कि चुनाव लड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां इन संकटों में जनता के साथ किस तरह खड़ी थीं, उन संकटों का विश्लेषण क्या था और वर्गीय पक्षधरता में ये संगठन बनाकर रोजमर्रा की जिंदगी की लड़ाई में किस दूर तक वे जनता के साथ खड़े थे।

इस पतन की एक और सरल व्याख्या हो सकती। पिछले 20-25 सालों में भाजपा और उसके सहयोगियों का दौर शुरू हुआ। जितना उनका ग्राफ ऊपर की ओर गया उतना ही ये नीचे की ओर गये। यह समस्या से निकल भागने का एक तर्क तो हो सकता है लेकिन समस्या से सीखने और हल निकालने वाली बात नहीं हो सकती। जैसे इस बार के पंजाब विधानसभा चुनावों के ठीक पहले तक पंजाब के किसान और वहां की अन्य समुदाय के लोग भी दिल्ली की सीमाओं पर आकर डटे रहे। उनकी कुल मांग क्या थी? यदि इसे एक वाक्य में कहा जाय तो- खेती की लागत में कमी करो या लागत के अनुसार उत्पाद का दाम दो। वे खेत और खेती की सुरक्षा की मांग कर रहे थे। यदि इस सूत्र को थोड़ा और हल करें तो पंजाब के लोग आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की बेहतरी की मांग कर रहे थे।

पंजाब में विधानसभा चुनाव के परिणाम इसके अनुरूप ही रहे। आप पार्टी अपने दिल्ली के अनुभवों को पंजाब के लोगों के साथ जोड़ने में सफल रही। लेकिन यह भी सच है कि यह एक तात्कालिक हल ही है। लेकिन, आप की इस तात्कालिकता या भाजपा के उन्मादी राजनीति से चुनाव लड़ रही पार्टियों का पतन सीधे जुड़ा हुआ है, ऐसा नहीं लगता है। यह समस्या चुनाव की राजनीति से जुड़ी हुई है। किसी विचारधारा का चुनाव में उतरने का अर्थ चुनावी राजनीति के दांवपेंच में अपने कार्यक्रम को उतारना होता है, इसकी सीमाओं और संभावनाओं को देखना होता है, …और यदि लगता है कि चुनाव उसके कार्यक्रम और विचारधारा को बुरी तरह प्रभावित कर जायेंगे तब उसे अपने निर्णयों से पीछे हटना होता है और जनता की गोलबंदी पर नई रणनीति और कार्यनीति को तलाशना होता है। मुझे लगता है कि सीखने का अर्थ यही होता है। सीपीआई और सीपीएम को देखकर लगता है कि वे सीखने से अभी दूर हैं। बंगाल के चुनावों की समीक्षाएं फिलहाल यही बताती हैं। पंजाब के चुनाव से उन्होंने क्या सीखा, अभी देखना बाकी है।

लेख- जयंत कुमार

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