Thursday, March 28, 2024

कोरोना से ज़्यादा विध्वसंक है नस्लवादी वायरस

कोरोना वायरस को भले ही हम माइक्रोस्कोप (सूक्ष्मदर्शी) के बग़ैर नहीं देख सकते, लेकिन इसकी संक्रमण क्षमता और इसका ताडंव आज पूरी दुनिया के सामने है। इंसान ने अभी तक अपनी ऐसी तबाही कभी नहीं देखी थी। लेकिन साम्प्रदायिकता की आँधी से होने वाली तबाही के पन्ने तो दुनिया भर के देशों में अपनी कालिख़ से रंगे पड़े हैं। इतिहास हमें बताता है कि हमारे पूर्वजों ने क्या अच्छा किया और क्या बुरा? इसके कैसे-कैसे नतीज़े आये? लेकिन साफ़ दिख रहा है कि भारतवर्ष के हिन्दुओं ने इतिहास के सारे सबक भुला दिये हैं। अपने इतिहास के भी और औरों के इतिहास के भी।

वर्ना, एक हमें दिख नहीं रहा कि जिस हिन्दू-मुस्लिम नस्लवाद की आग से भारत, बीते कई दशकों से झुलस रहा है, उसकी लपटें अब खाड़ी के देशों तक पहुँच गयी हैं। इतिहास गवाह है कि नस्लवाद की प्रतिक्रियाएँ होती ही हैं। इसमें देर-सबेर जो भी हो। अपने ही देश में हम कश्मीरी पंडितों का हश्र देख चुके हैं। इन्हें ख़ुद को ‘शरणार्थी’ कहलवाना बहुत पसन्द था। हालाँकि, अपने ही देश में कोई शरणार्थी कैसे हो सकता है? ये शब्दावली भ्रष्ट और विरोधाभासी है। इनकी सियासत करने वाले आज तक एक भी कश्मीरी पंडित की घर-वापसी नहीं करवा सके। क्योंकि ये काम सत्ता परिवर्तन और क़ानून बनाने से हो ही नहीं सकता। क़ानून बन जाने से सामाजिक माहौल नहीं बदलता। वर्ना, निर्भया कांड के बाद महिलाएँ सुरक्षित होतीं, कन्या भ्रूण-हत्या नहीं होती, दहेज-उत्पीड़न नहीं होता, बाल-विवाह नहीं होते।

नस्लवाद का जैसा नंगा नाच आज हमें भारत में दिख रहा है उससे कहीं ज़्यादा क्रूर और वीभत्स वो इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच नज़र आता है। तालिबान और आईएसआईएस का नस्लवादी चेहरा भी हमारे सामने है तो म्यांमार में रोहिंग्या, श्रीलंका में तमिल, अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों के प्रति अपनाया गया रवैया भी हमारी आँखें खोलने के लिए काफ़ी है। जर्मनी में आज भी बच्चों को छोटी कक्षा से लेकर सीनियर लेवल तक बार-बार ये पढ़ाया जाता है कि हिटलर का नाज़ीवाद उनके देश और संस्कृति पर कभी नहीं मिटने वाला कलंक है। हिटलर की तानाशाही के दौरान मौजूदा जर्मनवासियों के पूर्वजों ने यहूदियों पर जो ज़ुल्म ढाए उसके लिए मानवता उन्हें कभी माफ़ नहीं करने वाली।

इतिहास के उन्हीं पन्नों से सबक लेकर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने ऐसे भारत की कल्पना की जो अनेकता में एकता की मिसाल बने। इसके लिए नस्लवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकता का समूल नाश ज़रूरी था। स्वतंत्रता आन्दोलन और आज़ाद हिन्दुस्तान के तमाम नेताओं ने बहुत संघर्ष करके समाज को दिशा दिखायी थी। बेशक़, वो अपने लक्ष्य को पूरी तरह से कभी हासिल नहीं कर सके। लेकिन क्या दस में से सात-आठ-नौ अंक पाने वाले को हम श्रेष्ठ नहीं मानते हैं? बेशक़, उस पीढ़ी के नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्षता सिखाने में अहम भूमिका निभायी। गाँधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद इसके सबसे बड़े पुरोधा थे। उनके अनुयायियों ने भी अपने भरसक उस अलख़ को जलाये रखा।

लेकिन राम मन्दिर आन्दोलन जिस ढंग से, जिन मूल्यों और धारणाओं के साथ आगे बढ़ा उसी ने 35-40 साल के भीतर भारत की आत्मा की हत्या कर दी। जिन ज़हरीली धारणाओं के पनपने से मुल्क का बँटवारा हुआ था, वही हिन्दू-मुस्लिम नफ़रत आज फिर से अपने चरम पर पहुँच चुकी है। बँटवारे के वक़्त तो एक गाँधी था, जिसने अपनी जान की बाज़ी लगाकर हिन्दुस्तान को साम्प्रदायिकता की आग में जलते रहने से बचा लिया। अब तो गाँधीवादी भी ढूँढने से ही मिलते हैं। देश में कोरोना से भी तेज़ी से फैले नस्लवाद ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज को देखते ही देखते इतना विकृत कर दिया कि लगता ही नहीं कि ये अब कभी इंसानियत की ओर लौट भी पाएगा?

दरअसल, साम्प्रदायिक सौहार्द को प्रवचन देकर पैदा नहीं किया जा सकता। पुरानी साख भी बहुत समय तक साथ नहीं देती। आज भारत की वो रवायत ख़त्म होने को है, जिसमें सभी धर्मों, पन्थों, उपासना-पद्धतियों से जुड़े लोग अपने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व पर ग़ुमान करते थे। हमारी इसी ख़ासियत की सारी दुनिया क़द्र करती थी। लेकिन बीते छह सालों में भारत के ज़्यादातर हिन्दुओं, ख़ासकर सवर्णों को प्रगतिशील से बदलकर कट्टरवादी बना दिया गया है। इस कट्टरवाद की भट्ठी में लगातार ईंधन का डाला जाना ज़रूरी है। इसीलिए, एक के बाद एक, ऐसी घटनाएँ हमारे सामने आती रहती हैं, जो हिन्दू-मुस्लिम नफ़रत की आग को लगातार भड़काती रहती हैं।

मध्यम वर्गीय हिन्दुओं के घरों में होने वाली ‘ड्रॉईंग रूम डिबेट’ के दौरान मैंने ख़ुद कई लोगों को ये कहते-सुनते देखा है कि भारत, लोकतंत्र के लायक ही नहीं है। इसे डिक्टेटर की ज़रूरत है। क्योंकि यहाँ के लोग क़ानून की इज्ज़त नहीं करते। अपने हक़ की बातें तो करते हैं, लेकिन फ़र्ज़ की परवाह नहीं करते। यहाँ वोट-बैंक की राजनीति होती है। वग़ैरह-वग़ैरह। ऐसी दलीलों के पीछे कभी सुभाष चन्द्र बोस के कुछेक बयानों का वास्ता दिया जाता है तो कभी शरिया क़ानून की बेरहमी की तारीफ़ की जाती है। चट-पट इंसाफ़ का गुणगान होता है। न्याय-तंत्र को कोसा जाता है। राज नेताओं को धिक्कारा जाता है। लेकिन कभी अपने गिरेबान में नहीं झाँका जाता। नहीं देखा जाता कि अपने-अपने दायरे में हम ख़ुद कैसे राष्ट्र-निर्माण कर रहे हैं!

इसीलिए, देखते ही देखते, महज छह साल की तानाशाही ने भारत का चाल-चरित्र-चेहरा, सब बदल दिया। सारी लोकतांत्रिक संस्थाएँ ध्वस्त हो गयीं। सारे सामाजिक सरोकार बदल गये। आज देश भारत के संविधान के मुताबिक़ नहीं, बल्कि मोदी-शाह के ‘मेरी मर्ज़ी’ वाले विधान से चल रहा है। इन्होंने जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली जगह पर देश को खड़ा कर दिया है। ये ख़ुद लाठी हैं, और देशवासी भैंस। सरकार की आलोचना को उसका विरोध बताकर, विरोध की हर आवाज़ को कुचलने का नंगा नाच चल रहा है। राजा की गोदी में खेलने वालों के सात ख़ून भी माफ़ हैं जबकि जनता यदि नज़र भी ऊपर करे तो उसकी आँखें निकाल लेने का फ़रमान है।

इसीलिए, समाज को आईना दिखाने वाली सारी विधाएँ मृतप्राय हो गयीं। अख़बार भोथरे हो गये, पत्रिकाओं का वजूद ही मिट गया, साहित्य सफ़ाचट हो गया और टीवी तो समाज में ज़हर फैलाने का सबसे बड़ा मंच बन गया। इतना सब कुछ इतने कम वक़्त में हो चुका है। अब ये अनुमान लगाना भी मुश्किल हो गया है कि दस साल बाद का भारत कैसा होगा? जो विचारधारा अख़लाक़, पहलू खान, रोहित वेमुला के हत्यारों की थी, उसी ने दादरी में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार और पालघर में साधुओं की लिंचिंग करके दिखा दिया है कि उनका मकसद कैसा हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने का है? हमने दिखा दिया कि तबलीगी जमात के कुछ लोग नहीं बल्कि देश के सारे मुसलमान, कोरोना-जिहादी हैं।

गौरक्षा के नाम पर गरमाया हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव अब बहुत आगे निकल आया है। अब सब्ज़ी वाले, फल वाले, दूध वाले जैसे लोगों का मज़हब सबसे ख़ास बना दिया गया है। लाश और भूख से उसका धर्म पूछा जाने लगा है। इंसानियत का फलसफ़ा किताबों में दफ़्न किया जा चुका है। भारत के हिन्दुओं ने सबसे ज़्यादा प्रेरणा पाकिस्तान के मुसलमानों से ली है। जैसे वहाँ हिन्दुओं का सफ़ाया हुआ वैसे ही यहाँ मुसलमानों का सफ़ाया करने के ख़्वाब देखे जा रहे हैं। भारतीय हिन्दुओं में सबसे उच्च स्थान पर बैठे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों जैसे सवर्णों को इतना कट्टरवादी और मूर्ख बनाया जा चुका है कि इनके ऊपर अब समझदारी वाली किसी बात का असर नहीं होता। 

इस्लामोफोबिया के जिस वायरस का जन्मदाता अमेरिका है, उससे उसके ही पूर्वजों ने करीब सौ साल पहले भारत को भी संक्रमित किया था। भारत में इस वायरस का नाम है, ‘फूट डालो और राज करो’। बीते दशकों में इस वायरस ने एक बार फिर से अपना सिर उठाकर भयावह रूप हासिल कर लिया है। अब सवाल ये है कि नस्लवादी आग में अभी भारत जैसे तिल-तिल करके मर रहा है, जैसा हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव हमें अभी देश में दिखता है, वैसे ही यदि भारतीयों और ख़ासकर हिन्दुओं के ख़िलाफ़ दुनिया के अन्य देशों में चलने लगा तो क्या होगा? जैसा रवैया भारतीय हिन्दू अपने देश में अपने ही मुसलमानों को लेकर दिखा रहे हैं, यदि वैसा ही खेल विदेश में रहने वाले हिन्दुओं के ख़िलाफ़ भी छिड़ गया तो फिर क्या होगा?

रातों-रात विदेश से उजड़कर भारत आने वालों को क्या हम कश्मीरी पंडितों की तरह ‘शरणार्थी’ कहेंगे? विदेश मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़, क़रीब तीन करोड़ भारतीय मूल के लोग विदेश में रहते हैं। इनमें बड़ी संख्या में सवर्ण हिन्दू हैं। इसका सम्पन्न तबका तो बाक़ायदा उन देशों में नागरिकता भी ले चुका है, लेकिन इतिहास गवाह है कि भीड़ वैसे ही सिर्फ़ हमारी खाल का रंग देखती है, जैसे लोगों को उनके कपड़ों से ही पहचान लिया जाता है। खाल के अलावा भीड़ को नागरिकता और पेशा कभी नज़र नहीं आता। भीड़ की आँख और कान कब हुई है, जो आगे होगी। उसकी धमनियों में सिर्फ़ अफ़वाह बहती है, उसका ज़िस्म कट्टरता की कोशिकाओं से बना होता है।

इसीलिए जब विदेश में बसे प्रवासी भारतीयों पर नस्लवाद का हंटर चलने लगेगा तो उनकी सारी रईसी फ़ाख़्ता हो जाएगी। भागकर भारत लौटेंगे तो यहाँ भी कोई कम नहीं दुत्कारे जाएँगे। कोई उनके इस योगदान का लिहाज़ नहीं करने वाला कि उन्होंने विदेश से कितना डॉलर देश को भेजा था? नस्लवादी नफ़रत की बेल भी जंगल की आग की तरह फैलती है। बचाव के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं देती। मत भूलिए कि विकसित देशों को सिर्फ़ भारतीय डाक्टरों और इंज़ीनियरों की ज़रूरत है।

बाक़ी तबकों को तो वो कहीं और से भी जुटा लेंगे। सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि यदि हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव का उल्टा यदि सिर्फ़ खाड़ी के देशों में होने लगा तो कश्मीरी पंडितों जैसा हाल वहाँ बसे लाखों भारतीय हिन्दुओं का क्यों नहीं होगा? लेकिन इतने दूर की यदि भारत में बसे हिन्दुओं ने सोची होती तो हमें ये दिन देखने ही क्यों पड़ते!

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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