राजनीति निर्मम होती है। बेहद लोकप्रिय, सरल और सौम्य व्यक्ति भी कब आक्षेपों के थपेड़े में आ जाय कहा नहीं जा सकता है। 31 अक्टूबर 1984 को जब इंदिरा गांधी की अपने ही अतिसुरक्षित आवास में अपने ही सुरक्षा गार्ड के जवानों द्वारा हत्या कर दी गयी तो, राजीव को तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी। एक हृदयविदारक दुर्घटना के बाद वे प्रधानमंत्री बने थे और उनकी पहली चुनौती थी 1984 के सिख विरोधी दंगे। अनायास ही फूट पड़ने वाले इस दंगे ने पूरी सुरक्षा मशीनरी को किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में ला दिया।
आज़ादी के बाद का यह संभवतः सबसे भयानक नरसंहार था। यह चला तो एक सप्ताह ही पर आफत लाने वाली प्राकृतिक आपदा सुनामी की तरह इसने विनाश के जो ज़ख्म छोड़े वे आज भी टीस देते रहते हैं। 1984 में ही देश मे आम चुनाव घोषित हुये। इंदिरा गांधी की दुःखद हत्या का रोष और आक्रोश दोनों ही जनमानस में विद्यमान था। 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस को अपार बहुमत मिला। लेकिन यह बहुमत राजीव गांधी की वजह से नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी की शहादत के कारण एक सहानुभूति की लहर थी। सरकार कांग्रेस की बनी और प्रधानमंत्री हुये राजीव गांधी। इस प्रकार देश के अग्रणी राजनीतिक परिवार में जन्म लेने के बाद, और खुद को राजनीति से दूर रखने की इच्छा के बाद भी राजीव को एक दुर्घटना के कारण, राजनीति में आना पड़ा । इसी को संभवतः नियति कहते हैं।
राजीव का भारतीय राजनीति में आगमन एक सुखद बयार के समान था। वे युवा थे, आधुनिक थे और बदलती दुनिया के अनुसार थे। अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के समान वे ओल्ड स्कूल ऑफ थॉट के नहीं थे। उनके आने से सरकार में परम्परा से हट कर शासन और प्रशासन के गति की झलक मिली। उनके कुछ योगदानों की चर्चा करते समय हमें यह याद रखना होगा कि उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों को सभी की सहभागिता के लिये खोला, दुनिया में हो रही नयी नयी आईटी क्रांति के चरणों से भारत को परिचित कराया।
शासन में नीचे तक सहभागिता हो इस लिये पंचायती राज व्यवस्था को विधेयक ला कर संवैधानिक रूप दिया, युवाओं की जनप्रतिनिधियों के चुनने में महत्वपूर्ण भूमिका हो, उसके लिये मतदान की आयु 18 वर्ष किया, विदेश नीति में लंबे समय से आ रहे भारत चीन सम्बन्धों में उन्होंने 1988 में अपनी चीन यात्रा से नए युग का सूत्रपात किया, पंजाब और असम समझौते कर के देश के समक्ष दो बड़ी समस्याओं के समाधान की दिशा तय की। यही नहीं उनके कार्यकाल में और भी नये कार्य शुरू हुए। उनके कार्यकाल के योगदानों में कुछ की सराहना होती है तो कुछ की गम्भीर आलोचना । जैसे शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी उनकी सरकार द्वारा संसद में संविधान संशोधन का विधेयक पारित कराना, और अयोध्या मामले में आगे आना, आज भी आलोचना के प्रमुख बिंदु हैं। राजीव के कार्यकाल में हुआ बोफोर्स कांड इतने सालों और इतनी जांचों के बाद आज भी कांग्रेस और गांधी परिवार के पीछे साये की तरह घूमता नजर आता है ।
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो 1952 तक का काल संक्रमण काल था। इस अवधि में देश का संविधान बना, भविष्य की योजनाओं की रूपरेखा के रूप में पंचवर्षीय योजनायें प्रारंभ हुयीं । तब विकास का जो मॉडल सरकार ने स्वीकार किया, वह मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल था। नेहरू से लेकर इंदिरा तक विकास का मॉडल सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था का था। यह मॉडल सोवियत मॉडल की नकल तो नहीं था पर उसका अनुसरण ज़रूर था। लेकिन जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था और विकास मॉडल की समीक्षा शुरू हुयी और समय के अनुसार उसे बदलने की बात राजीव गांधी ने सोची। बंद दरवाज़े खोले जाने लगे। हम अक्सर 1991 से प्रारंभ हुये पीवी नरसिम्हाराव की सरकार को उदारवाद का जनक मानते हैं, पर उस उदारवाद का प्रत्यूष राजीव के कार्यकाल में ही हो गया था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में राजीव के हवाले से एक स्थान पर लिखते हैं,
“भारत लगातार नियंत्रण लागू करने के एक कुचक्र में फंस चुका है। नियंत्रण से भ्रष्टाचार और चीजों में देरी बढ़ती है। हमें इसको खत्म करना होगा।”
राजीव का यह बयान यह बताता है कि उदार अर्थव्यवस्था अब समय की मांग है। उन्होंने अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में सरकार की दखल और नियंत्रण को समाप्त करने की कोशिश की थी। पर वह शुरुआत थी। हालांकि बड़े पैमाने पर नियंत्रण और लाइसेंस राज 1991 में ही खत्म किया गया जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और डॉ मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने ।
राजीव गांधी की सरकार ने कुल पांच बजट प्रस्तुत किये। उनके कार्यकाल में जो बजट पेश हुये उनसे कर प्रणाली में परिवर्तन और उदार अर्थव्यवस्था के संकेत मिलने लगे थे। उनकी सरकार ने आयकर और कॉर्पोरेट टैक्स घटाया, लाइसेंस प्रदान करने की प्रणाली का सरलीकरण किया और कंप्यूटर, ड्रग और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों से सरकारी नियंत्रण खत्म किया। साथ ही कस्टम ड्यूटी भी घटाई और निवेशकों को बढ़ावा दिया। बंद अर्थव्यवस्था को बाहरी दुनिया की खुली हवा महसूस करवाने का यह पहला मौका था। 1989 में उनके अपदस्थ होने के बाद वीपी सिंह और चंद्रशेखर थोड़े थोड़े अंतराल के लिये प्रधानमंत्री बने ज़रूर पर उन्हें अर्थव्यवस्था के बारे में कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेने का अवसर नहीं मिला। फिर जब 1991 में पीवी नरसिम्हाराव देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उदारता का एजेंडा वहीं से शुरू किया जहां से राजीव गांधी सरकार ने छोड़ा था।
पंचायती राज व्यवस्था लागू करना उनकी एक बड़ी उपलब्धि रही। ‘पॉवर टू द पीपुल’ राजीव गांधी का एक नायाब आइडिया था। नगर निगम, महापालिकाएँ, जिला परिषदें और विकास खण्ड की व्यवस्था पहले भी थी। लेकिन वर्ष 1985 में पंचायती राज अधिनियम के द्वारा राजीव गांधी सरकार ने पंचायतों को महत्वपूर्ण वित्तीय और राजनीतिक अधिकार देकर सत्ता के विकेंद्रीकरण तथा ग्रामीण प्रशासन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल किया था। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को लागू करवाने की दिशा में कदम बढ़ाकर इसे लागू किया। कांग्रेस ने 1989 में एक प्रस्ताव पास कराकर पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिलाने की दिशा में कोशिश की थी। 1990 के दशक में पंचायती राज एक वास्तविक रूप में सबके सामने आया ।
मतदान में युवाओं की भागीदारी को बढ़ाना उनकी आधुनिक और युवा सोच को दर्शाती है। उनके कार्यकाल में मतदान की उम्र सीमा 21 से घटाकर 18 साल कर दी गयी। सरकार के इस फैसले से तब, 5 करोड़ युवा मतदाता बढ़ गए थे। हालांकि उनके इस फैसले का विरोध भी हुआ, पर कालान्तर में यह फैसला एक उचित फैसला सिद्ध हुआ। राजीव गांधी को यह भरोसा था कि राष्ट्र के निर्माण और तरक़्क़ी के लिए युवाशक्ति की भागीदारी जरूरी है। वे जिस विकास का स्वप्न देखते थे, यह उन्ही के शब्दों में पढ़िये, “भारत एक प्राचीन देश, लेकिन एक युवा राष्ट्र है…मैं जवान हूं और मेरा भी एक सपना है। मेरा सपना है भारत को मजबूत, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और दुनिया के सभी देशों में से प्रथम रैंक में लाना और मानव जाति की सेवा करना।
कारखानों, बांधों और सड़कों को विकास नहीं कहते… कारखानों, बांधों और सड़कों को विकास नहीं कहते। विकास तो लोगों के बारे में है। इसका लक्ष्य लोगों के लिए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पूर्ति करना है। विकास में मानवीय मूल्यों को प्रथम वरीयता दी जाती है।”
राजीव गांधी अपने भाषणों में अक्सर 21वीं सदी का जिक्र किया करते थे। वे देश की प्रगति की दिशा और दशा को समय के बदलते आयाम के अनुसार बदलना चाहते थे। वे तकनीक के युग के थे। दुनिया मे कम्प्यूटर क्रांति हो चुकी थी। सूचना प्रद्योगिकी के रूप में विश्व में एक नयी विधा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। राजीव का मानना था कि इन बदलावों के लिए तकनीक को अपनाना ही श्रेयस्कर होगा। उन्होंने टेलीकॉम और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सेक्टर्स में विशेष काम करवाया। राजीव को अगले दशक में होने वाली तकनीक क्रांति के बीज बोने का श्रेय भी जाता है। उनकी सरकार ने पूरी तरह असेंबल किए हुए मदरबोर्ड और प्रोसेसर लाने की अनुमति दी। इसकी वजह से कंप्यूटर सस्ते हुए। ऐसे ही सुधारों से इंफोसिस और विप्रो जैसी विश्वस्तरीय आईटी कंपनियां अस्तित्व में आयीं और इसने बहुतों को प्रेरित भी किया। कम्प्यूटर क्रांति के प्रारंभ में अनेक आशंकाएं भी लोगों के मन में थीं। लोगों का मानना था कि यह बड़े स्तर पर लोगों को बेरोजगार कर देगा। पर यह आशंका गलत निकली जब कंप्यूटर और आईटी सेक्टर ने रोज़गार के नए और वृहद आयाम खोल डाले। शिक्षा के क्षेत्रों में नवोदय विद्यालयों की स्थापना ग्रामीण क्षेत्रों से प्रतिभा की खोज का एक उल्लेखनीय कदम था।
राजीव के समक्ष देश में दो बड़ी समस्याएं थीं जो शांति व्यवस्था के साथ-साथ देश की एकता और अखंडता के लिये भी खतरा थीं। ये थी पंजाब और असम समस्या। पंजाब में खालिस्तान आंदोलन तेज़ी पर था और असम में घुसपैठियों की समस्या। अकाली दल ने आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव पास कर अपना रुख स्पष्ट कर दिया था। असम में भी रोज़ रोज़ गम्भीर खबरें मिल रही थीं। पर राजीव गांधी के प्रयास से 24 जून 1985 को राजीव गांधी और अकाली दल के हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच समझौता हुआ जो पंजाब समस्या की ओर एक दृढ़ कदम था। पर यह बात भी सही है कि इस समझौते से पंजाब में शान्ति बहाली की उम्मीद पूरी नहीं हो सकी। पंजाब शांत तो हुआ पर समझौते के काफी बाद। इसी प्रकार असम में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और सरकार के बीच समझौता हुआ जिससे असम में शान्ति की दिशा में एक सार्थक प्रयास हुआ।
विदेश मामलों में चीन के साथ भारत के सम्बन्धों की एक नयी शुरुआत हुयी, जब राजीव और देंग के बीच लंबी बात हुई। हालांकि उसी कार्यकाल में श्रीलंका के साथ भारत के विदेश नीति की बहुत आलोचना भी होती है। श्रीलंका में भारत के सैन्य अभियान से न केवल भारतीय सेना को नुकसान उठाना पड़ा बल्कि दुर्दांत आतंकी संगठन एलटीटीई की शत्रुता भी मोल लेनी पड़ी। तमिलनाडु में राजीव के इस कदम की आलोचना हुयी। अंत में वही आतंकी संगठन राजीव गांधी की मृत्यु का कारण भी बना।
कोई भी सरकार या राजनेता सदैव सकारात्मक या सफल ही नहीं होता है। उसके कार्यकाल के स्याह पक्ष भी होते हैं। राजीव भी अपवाद नहीं थे। शाहबानो का प्रकरण भी ऐसा ही था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शाहबानो के मामले में मुस्लिम कट्टरपंथी समाज के दबाव में, संविधान संशोधन करना उनके सरकार की एक बड़ी भूल थी। यह एक ऐसा ब्लंडर था जिसने मुस्लिम कट्टरपंथियों को तुष्ट किया तो हिंदुत्व के कट्टरपंथी तत्वों को एकजुट होने का एक अवसर प्रदान कर दिया। अचानक, विकास, वैज्ञानिक प्रगति, आधुनिक सोच की ओर कदम बढ़ाती सरकार धर्मांधता के पंक में जा पड़ी, जिसका परिणाम, साम्प्रदायिक हिंसा, ध्रुवीकरण और वैमनस्य के एक स्थायी भाव के रूप में हो गया। राजीव कोई राजनीति के सधे और अनुभवी खिलाड़ी नहीं थे, जो इस जटिल साम्प्रदायिक संकट से निकलने की कोशिश करते। वे जब इस विवाद में फंसे तो फंसते ही चले गए।
शाहबानो संविधान संशोधन के इस कदम को मुस्लिम तुष्टीकरण के रूप में खूब प्रचारित किया गया। ऐसा बिल्कुल भी नहीं था, कि कांग्रेस के सारे मुस्लिम नेता इस विधेयक के साथ थे, बल्कि आरिफ मुहम्मद खान सहित अनेक उदारवादी सोच के नेता इस विधेयक के खिलाफ थे। जब कि एमजे अकबर जो आज भारतीय जनता पार्टी में हैं, तब संविधान संशोधन के पक्ष में थे। कहते हैं एमजे अकबर ने ही शाहबानो मामले में संविधान संशोधन के लिये राजीव पर दबाव डाला। राजीव जो पहले संविधान संशोधन के पक्ष में नहीं थे ने सरकार का इस संबंध मे पक्ष रखने के लिये केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को सदन में उतारा। आरिफ मोहम्मद खान ने बेहद प्रखरता और तार्किकता से सरकार का पक्ष रखा। पर बाद में जब एमजे अकबर की लॉबी ने राजीव पर मुस्लिम वोटों की गणित का नुकसान समझाया तो उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिये। इस प्रकरण पर संतोष भारतीय जी की हाल ही में प्रकाशित और चर्चित पुस्तक ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’ में विस्तार से लिखा गया है।
राजीव गांधी, इस संविधान संशोधन विधेयक के पास होने के बाद जो दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, उसका अनुमान नहीं लगा पाये। इसे संतुलित करने के लिये उन्होंने रामजन्मभूमि अयोध्या मामले को चुनाव के केंद्र में ला दिया। 1989 में राजीव गांधी ने कांग्रेस के लोक सभा चुनाव प्रचार की शुरुआत अयोध्या से की थी, हालांकि वे हनुमान गढ़ी नहीं जा पाए थे, जबकि यह उनके कार्यक्रम में था। इन दो धार्मिक मुद्दों की सवारी का परिणाम चुनाव में साम्प्रदायिक एजेंडे का प्रत्यक्ष प्रवेश था जो देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के लिये बाद में एक चुनौती और समस्या के रूप में सामने आया। इसी प्रकार, बोफोर्स और राजीव गांधी की सरकार का एक विचित्र रिश्ता है। कई जांचों के बाद भी इस सौदे के तह तक पहुंचा नहीं जा सका, पर राजीव गांधी की सरकार आज भी उस सौदे की कालिमा से मुक्त नहीं हो पाई है। क्वात्रोची और इटली कनेक्शन आज भी उन्हें सन्देह के घेरे में रखता है।
आज राजीव अगर ज़ीवित होते तो, 77 वर्ष के होते। पर नियति को यह मंजूर नहीं था। अपनी मृत्यु के कुछ महीने पूर्व वे कानपुर आये थे। कानपुर ने अप्रत्याशित उत्साह के साथ उनका स्वागत किया था। तब मैं कानपुर में ही नियुक्त था। उस दौरान, मुझे उनकी सुरक्षा ड्यूटी में लगातार उनके साथ बने रहने का सौभाग्य मिला था। शहर में आयोजित एक लंबे रोड शो के बाद, देर रात, जब वे सर्किट हाउस आये तो थकान तो उन्हें थी, पर चेहरे पर वही चिरपरिचित और निश्छल मुस्कान थी।
राजनीति में कोई अजातशत्रु नहीं होता है। राजनीति ही नहीं बल्कि जीवन में भी कोई व्यक्ति अजातशत्रु नहीं हो सकता है। यह शब्द एक नाम तो हो सकता है पर एक विशेषण नहीं। राजीव भी नहीं थे। वे अपने विरोधियों के प्रति सदय भी थे। पूर्व प्रधानमंत्री, अटल बिहारी बाजपेयी के प्रति उनकी सदाशयता, जिसका उल्लेख स्वयं अटल जी ने कई बार किया है, उनके व्यक्तित्व के मानवीय पक्ष को उजागर करती है। राजीव गांधी का सबसे बड़ा योगदान था, जड़ता को तोड़ कर आधुनिकता के सोपान पर बढ़ जाना। संचार क्रांति, आईटी, कम्प्यूटर, आदि जो कभी बेरोजगारी बढ़ाने के साधन समझे गए थे, आज इन क्षेत्रों में भारतीय पेशेवर दुनिया भर में छाये हुये हैं। राजीव को इस वैज्ञानिक क्रांति का अग्रदूत कहा जा सकता है। 1991 में अगर उनकी हत्या न हुयी होती तो क्या हुआ होता, ऐसे सवालों का जवाब नियति ही दे सकती है। आज उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण।
( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)