Thursday, April 25, 2024

रामचरितमानस: साहित्यिक रचना या पौराणिक आख्यानॽ

इसी वर्ष जनवरी के मध्य में बिहार के शिक्षा मंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री चंद्रशेखर के रामचरितमानस संबंधी बयान पर जिस तरह चौतरफा हमला हुआ और उन्हें तरह-तरह की धमकियां दी गयीं, यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अभी भी मध्ययुगीन मान्यताओं की गिरफ्त में जकड़ा हुआ है।

श्री चंद्रशेखर ने एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह मे कहा था कि, ‘रामचरितमानस जैसे धार्मिक पाठों ने उसी तरह घृणा फैलाने का काम किया जिस तरह मनुस्मृति और गोलवलकर की ‘बंच ऑफ थॉट्स’ ने विभिन्न दौर में सामाजिक विभेद बढ़ाने का काम किया।

उन्होंने यह बात वैसे ही नहीं कह दी बल्कि मानस की कुछ वर्णाश्रम समर्थक और स्त्री-विरोधी अंशों को उद्धृत भी किया। चंद्रशेखर ने जो कुछ भी उद्धृत किया वह तथ्यात्मक रूप से सही था। बाद में समाजवादी पार्टी के नेता स्वामीप्रसाद मौर्य ने भी कुछ इसी तरह की बात कही।

भक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एक महाकाव्य है और कुछ विद्वानों का मानना है कि महाकाव्य का मूल्यांकन यहां-वहां से उठाये गये कुछ अंशों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उसे पूर्णता में देखा जाना चाहिए। कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि यह भी देखा जाना चाहिए कि कौन सी बात किसके मुख से कहलायी गयी है और क्या उस बात को तुलसीदास की बात मानी जा सकती है।

कुछ का यह  भी कहना है कि स्त्री-विरोधी कथन तो कबीरदास में भी मिलते हैं, फिर तुलसीदास की ही आलोचना क्यों की जाती हैं। हिंदी साहित्य संसार में तुलसीदास और रामचरितमानस को लेकर विवाद का लंबा इतिहास रहा है और विद्वानों के दो समूह हमेशा से रहे हैं जो एक दूसरे के विपरीत राय रखते रहे हैं।

यहां जो आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है उसका मकसद यह बताना है कि रामचरितमानस में ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था का समर्थन न तो संयोग है और न कुछ अंशों तक सीमित है।

यह दरअसल महाकाव्य की पूरी संरचना में अंतर्निहित है और इस काव्य की रचना का उद्देश्य केवल राम की कथा कहना भर नहीं था बल्कि निर्गुणपंथ के माध्यम से धर्म की लौकिक और प्रगतिशील व्याख्या सामने आ रही थी और जिसके कारण ब्राह्मणवाद, वर्णव्यवस्था, लीलावाद, अवतारवाद आदि की प्रतिगामी मान्यताओं के आगे प्रश्नचिह्न लग रहा था, उसके बढ़ते प्रभाव को खत्म करना था। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबद्ध संगठन भी जनता को एकबार फिर से उसी प्रतिगामिता के दलदल में धकेलना

चाहते हैं और इसमें तुलसीदास का रामचरितमानस उनके लिए बहुत बड़ा हथियार है जो आज भी उत्तर भारत के उच्चवर्णीय परिवारों में धार्मिक पुस्तक की तरह पढ़ी और पूजी जाती है और इस प्रभाव का नतीजा था कि रामजन्मभूमि के नाम पर इतना बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया और आज देश को सांप्रदायिक फासीवाद के मुहाने पर ला खड़ा किया। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि रामचरितमानस को साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथ के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे ग्रंथ के रूप में पढ़ा और समझा जाये जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को किस रूप में और किस हद तक नुकसान पहुंचा रहा है- लेखक)

5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अयोध्या में उस स्थल पर राम के भव्य मंदिर का शिलान्यास किया गया जहां 6 दिसंबर 1992 से पहले बाबरी मस्जिद खड़ी थी और संघ परिवार से जुड़े कार सेवकों ने जिसका उस दिन विध्वंस किया था।

हिंदू यह मानते हैं कि इसी स्थल पर भगवान राम का जन्म हुआ था और यहां राम का भव्य मंदिर बना हुआ था, जिसे मुग़ल बादशाह बाबर के आदेश पर लगभग साढ़े चार सौ साल पहले गिरा दिया गया और उसके स्थान पर बाबरी मस्जिद खड़ी कर दी गयी। तब से बकौल नरेंद्र मोदी के हिंदू राम की जन्मभूमि को वापस हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और पांच सौ साल बाद उन्हें न्याय मिला है।

उनके और संघ परिवार के इस दावे के पक्ष में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने भी मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के किसी साक्ष्य को स्वीकार नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय ने केवल हिंदुओं के इस विश्वास को मानते हुए कि यहीं पर राम का जन्म हुआ था, बाबरी मस्जिद की ज़मीन सांप्रदायिक हिंदुओं को सौंप दी और उन्हें मंदिर बनाने की अनुमति दे दी। यह दरअसल न्याय पर धार्मिक विश्वास की जीत थी। न्यायालय ने मान लिया कि बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय का विश्वास संविधान, इतिहास और विभिन्न धार्मिक समुदायों की एकता और भाईचारे से ज्यादा मूल्यवान है।

जिस राम की बात इस पूरे संदर्भ में की जा रही है, वह दशरथ पुत्र राम है जिसके ऐतिहासिक पुरुष होने का भी कोई प्रमाण नहीं है सिवाय इसके कि यह हजारों सालों से चली आ रही एक ऐसी कथा है जिसको लेकर बहुत से महाकाव्य और नाटक बहुत सी भाषाओं में लिखे गये।

इन ग्रंथों में इतनी अधिक भिन्नता है कि यह भिन्नता ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह कथा ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरित नहीं है बल्कि लोक में प्रचलित कथाओं से प्रेरित है। वाल्मीकि ने शायद इन्हीं से प्रेरित होकर रामायण महाकाव्य की रचना की। लेकिन कालांतर में ब्राह्मणवाद की ज़रूरत ने राम को काव्य के लोकनायक से मिथकीय चरित्र में बदल दिया। उन्हें विष्णु का अवतार माना जाने लगा और कृष्ण और शिव की तरह पूजा की जाने लगी।

हालांकि राम के नाम की लोकप्रियता राम की अवतार कथा से ज्यादा थी। लेकिन दशरथ पुत्र राम के अवतार होने पर संदेह भी किया जाता रहा। भक्ति आंदोलन के दौरान ही कबीर ने जो राम के बहुत बड़े उपासक अपने को मानते थे, लिखा था कि ‘दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना।‘ यानी जिस दशरथ पुत्र का बखान तीनों लोकों में किया जाता है, वह राम नाम के मर्म को जानते ही नहीं। वजह साफ है कि कबीर इस बात में यकीन करते थे कि ईश्वर निर्गुण और निराकार होता है और वह अवतार नहीं लेता जैसाकि अवतारवाद में यकीन करने वाले हिंदू मानते हैं।

स्पष्ट है कि राम (या कोई भी अन्य अवतार) के मनुष्य रूप में जन्म लेने के विश्वास का न कोई वैज्ञानिक प्रमाण है, न ऐतिहासिक प्रमाण है। इसके विपरीत दुनिया भर में धर्मों का विकास बहुदेववाद से एकेश्वरवाद और सगुण से निर्गुण की ओर हुआ है। भारत मे भी बौद्ध, जैन, लोकायत, कबीर पंथ, सिख धर्म आदि भी अपने मूल रूप में निर्गुणपंथी और अवतारवाद विरोधी धर्म हैं।

अवतारवाद में यकीन करने और किसी मिथकीय चरित्र को ईश्वर का अवतार मानने का नतीजा यह होता है कि उस अवतार के साथ जुड़ी हर घटना और हर प्रसंग को आस्थावादी व्यक्ति बिना संदेह के स्वीकार करता चलता है। वह यह सोचने का कष्ट भी नहीं उठाता कि इनके पीछे किसी ताकतवर समूह के स्वार्थ भी काम कर रहे होते हैं।

ऐसा नहीं है कि अंध-आस्था का अपना तर्क नहीं होता। वहां भी तर्क होते हैं लेकिन वे तर्क विवेक और वैज्ञानिक सोच पर आधारित नहीं होते। मसलन, धार्मिक ग्रंथ जिनको संबोधित होते हैं, वे उनसे यह भी कहते हैं कि यहां जो कुछ भी लिखा गया है और कहा गया है वह ईश्वर की वाणी है। यानी स्वयं ईश्वर ने ऐसा कहा है और सच्चा भक्त कभी भी उस पर संदेह नहीं करता।

अगर कोई संदेह या प्रश्न मन में उठता है तो इसका मतलब है कि उसकी आस्था में कोई कमी रह गयी है और इसी अनास्था की वजह से वह ईश्वर की दया और करुणा से वंचित ही नहीं रहेगा वरन उसे मरने के बाद या अगले जन्म में कष्ट उठाने पड़ेंगे।

उसे भयावह नरक भोगने पड़ेंगे या कीड़े-मकोड़े, जानवर या नीच मनुष्य योनि में पैदा होना पड़ेगा। ज़ाहिर है कि भविष्य का यह डर मनुष्य को उन सब बातों को मानने के लिए तैयार कर देता है जिसे यदि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे (जो कि वह अन्य कई प्रसंगों में करता भी है) तो वह उनसे आसानी से अपने को मुक्त कर सकता है।

मुश्किल इसलिए और बढ़ जाती है कि पीढ़ी दर पीढ़ी यह विवेकहीन मानसिकता उसे विरासत में मिलती है और वह न केवल उसमें यकीन करने लगता है बल्कि उस पर गर्व भी करने लगता है। मनुष्य के रूप में अपनी पहचान की बजाय अपनी धार्मिक और जातिवादी पहचान को ही अपने होने की बुनियाद समझने लगता है।

अपने जीवन के सारे क्रियाकलापों को, यहां तक कि अपने राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक निर्णयों को भी उसी से तय करने लगता है। वह यह समझ भी खो देता है कि वह स्वयं अपने निर्णयों का शिकार हो रहा है और वह और उसके अपने ऐसे कष्ट भोग रहे हैं जिनसे वे अन्यथा बच सकते थे।

विडंबना यह है कि ऐसी स्थिति में भी या तो वह अपने पूर्व जन्मों में किये गये कथित कर्मों को दोष देता है या उन्हें जिन्हें उसके शत्रु के रूप में उन लोगों या संगठनों के द्वारा पेश किया गया है जो उसकी संकीर्णतावादी मानसिकता का लाभ उठाकर उनकी चेतना पर अपना वर्चस्व कायम कर चुके हैं।

उपर्युक्त बातों को समझने के लिए रामकथा से ज्यादा उपयुक्त उदाहरण कोई और नहीं हो सकता। रामजन्मभूमि आंदोलन में राम के कई संदर्भ हैं। सबसे पहला तो यह है कि यह राम वह राम नहीं है, जिसका उल्लेख अपने काव्य में कबीर करते हैं।

यह वह राम है जिन्हें अयोध्या के राजा दशरथ का पुत्र माना गया है और जिनकी कथा गोस्वामी तुलसीदास ने अपने ग्रंथ रामचरितमानस में कही है। यह रामचरितमानस पूरे हिंदी प्रदेश में बहुत ही लोकप्रिय है और इसी ग्रंथ में राम को जिस रूप में चित्रित किया गया है, वही रामजन्मभूमि आंदोलन की नैतिक शक्ति है।

इन्हीं राम को एक ओर मर्यादा पुरुषोतम, राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा प्रतीक, और न जाने किन-किन विशेषणों से नवाजा गया है, तो दूसरी ओर उनके द्वारा स्थापित राम राज्य को भी इस लोकतांत्रिक युग में हमारे लिए सर्वाधिक आदर्श राज्य के रूप में गले से उतारने की कोशिश हो रही है।

तुलसीदास द्वारा रचित रामकथा की इस सर्वव्यापी लोकप्रियता के घटाटोप से निकलकर इस बात की परीक्षा अवश्य की जानी चाहिए कि पिछले साढे चार सौ वर्षों में रामचरितमानस ने उत्तर भारत में हिंदू जनता को कैसे संस्कार दिये।

यह भी जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि रामचरितमानस किन हिंदू परिवारों में धार्मिक ग्रंथ के रूप में पढ़ा और पूजा जाता है और किन परिवारों में कबीर पढ़ा जाता है।

प्रश्न यह भी है कि क्या कबीर और तुलसी जिनकी राम संबंधी संकल्पना न केवल अलग-अलग थी, बल्कि एक दूसरे के विपरीत थी, क्या एक ही तरह के भक्त थेॽ जिन ब्राह्मणवादी मूल्यों और रूढियों के विरुद्ध कबीर और अन्य निर्गुणपंथी संतों और कवियों ने संघर्ष किया था, वैसा ही संघर्ष तुलसी ने भी किया थाॽ क्या कबीर और तुलसी के बीच निर्गुण और सगुण का ही भेद था, या उनके बीच मूलभूत जीवन दृष्टि का भेद भी थाॽ कबीर ने अपने काव्य में धर्म के जिस रूढ़िमुक्त लोकोन्मुखी रूप को प्रस्तुत किया, क्या वह तुलसी को स्वीकार्य थाॽ कबीर ने जिन सामाजिक मूल्यों को स्थापित किया, क्या तुलसी उन मूल्यों पर आधारित समाज चाहते थेॽ कुल मिलाकर प्रश्न यह है कि तुलसी ने कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाया या पीछे धकेलाॽ

यहां हम भक्ति आंदोलन का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, लेकिन तुलसी के मानस की भूमिका का सही मूल्यांकन करने के लिए इतना जानना ज़रूरी है कि भक्ति आंदोलन का आरंभ उन निर्गुणपंथी संतों ने किया था जिन्होंने ब्राह्मणवादी धर्म परंपरा को अस्वीकार किया था।

स्वयं कबीर ने अपनी रचनाओं में i) वर्णाश्रम व्यवस्था की तीखी आलोचना की, ii) हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों के बाह्याचारों और कर्मकांडों पर प्रहार किया, iii) अवतारवाद का खंडन किया, iv) वेद, पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों की श्रेष्ठता पर प्रश्नचिह्न लगाया, और v) धर्म की मूलभूत एकता पर जोर देते हुए धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में मानवीय समानता का आदर्श उपस्थित किया था।

अगर इसी परिप्रेक्ष्य में हम तुलसीदास के मानस का मूल्यांकन करें तो हम इसके ठीक विपरीत निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। अगर ध्यानपूर्वक अवलोकन किया जाए तो हम पायेंगे कि तुलसी के मानस का एक उद्देश्य कबीर आदि संतों की मान्यताओं और मूल्यों का खंडन करना भी था।

तुलसीदास के मानस में स्पष्ट रूप से i) वर्णाश्रम व्यवस्था को पुन: स्थापित किया, ii) धर्म के बाह्याचारों और कर्मकांडों को लोक प्रतिष्ठा दिलवाई, iii) अवतारवाद को दृढ़तापूर्वक पुन: स्थापित किया, iv) वेद, पुराण आदि धर्मग्रंथों को ईश्वर रचित बताया और उनका अंधानुकरण करने के लिए हिंदू जनता को प्रेरित कया, और v) सिर्फ़ हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के बीच समन्वय का प्रयास किया। कबीर के विपरीत तुलसी के समक्ष मुस्लिम जनता हमेशा अनुपस्थित ही रही।

तुलसीदास ने इन मान्यताओं को सिर्फ़ कुछ पंक्तियों में ही प्रस्तुत नहीं किया है, जैसाकि कई बार सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। सच्चाई यह है कि मानस की पूरी संरचना में ये मान्यताएं आधारभूत प्रेरक तत्वों के रूप में मौजूद हैं। इस बात को समझने के लिए मानस की संरचना का विश्लेषण करना होगा।

मानस एक महाकाव्य है और उसकी बाह्य संरचना महाकाव्य के अनुरूप है लेकिन कथा को महाकाव्य के रूप में नहीं बल्कि पुराण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि तुलसीदास के अनुसार राम कौन थे? उन्होंने अवतार क्यों लियाॽ रावण कौन थाॽ उसने इतने कुकर्म क्यों कियेॽ सीता का अपहरण क्यों हुआॽ राम को वन-वन क्यों भटकना पड़ाॽ राम दशरथ और कौशल्या के पुत्र बनकर क्यों उत्पन्न हुएॽ इन सभी प्रश्नों के उत्तर रामचरितमानस के बालकांड में दिये गये हैं।

मानस की श्रेष्ठता बताते हुए प्राय: इन प्रश्नों से जुड़े प्रसंगों की उपेक्षा कर दी जाती है। इसी तरह यह जांचने की ज़रूरत है कि तुलसी राम की लीलाओं को किस दृष्टि से देखते थेॽ इन लीलाओं का मानस की रचना पर क्या असर हुआॽ तुलसी की दृष्टि में कलियुग और रामराज्य की परिकल्पना क्या थीॽ स्वयं तुलसीदास रामचरितमानस के वाचन, श्रवण और मनन से क्या भौतिक और आध्यात्मिक लाभ समझते थेॽ ये सभी सवाल उठाने इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इन्हीं प्रश्नों से उनकी जीवन दृष्टि और मानस के प्रभाव का मूल्यांकन किया जा सकता हैॽ

कबीर ने अवतारवाद का विरोध करते हुए कहा था कि ‘दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना’। यानी दशरथ के पुत्र (राम) जिनका गुणगान तीनों लोक करते हैं, उन्हें राम नाम के मर्म को जानने की ज़रूरत है। यानी कबीर की नज़र में उनके राम दशरथ पुत्र राम से भिन्न है।

कबीर दरअसल निर्गुण निराकार ब्रह्म को राम कहते और मानते हैं। तुलसीदास ने मानस के आरंभ में ही कबीर के इस मत का खंडन किया है। उनके सामने कबीर की ये पंक्तियां अवश्य रही होंगी, इसीलिए मानस के बालकांड में शिव-पार्वती प्रसंग का समावेश कर इस बात को दृढ़तापूर्वक स्थापित किया कि दशरथ के पुत्र राम ही वास्तव में राम है। तुलसी इस प्रसंग में न केवल यह सिद्ध करने का यत्न करते हैं कि दशरथ पुत्र राम परब्रह्म है, बल्कि ऐसी शंका उठाने को पाप भी घोषित करते हैं।

तुलसी ने शिव-पार्वती का यह प्रसंग विस्तार से रचा है। एक दिन राम और लक्ष्मण को महादेव और सती (पार्वती का पूर्व अवतार) वन में भटकते हुए देख लेते हैं। अपनी स्त्री के लिए इस तरह राम को भटकते देखकर सती के मन में शंका पैदा होती है कि क्या वे सचमुच विष्णु के अवतार हैं।

सती अपने संशय को दूर करने के लिए सीता का रूप धारण कर राम लक्ष्मण के पास आती है, किंतु राम उसे पहचान लेते हैं और उससे शिव की कुशलता पूछते हैं। माया रूप में ही सही चूंकि सती ने सीता का रूप धारण किया था और सीता शिव के लिए पूज्य है इसलिए शिव अब सती को पत्नी के रूप में कैसे अंगीकार कर सकते हैं। नतीजतन, वे सती का त्याग कर देते हैं।

दूसरे जन्म में सती पार्वती के रूप में जन्म लेती है और घोर तपस्या के बाद शिव को दुबारा पति के रूप में प्राप्त करती हैं। लेकिन पूर्व जन्म का संशय अब भी मिटा नहीं है। इसलिए पार्वती शिव से राम की वास्तविकता के संबंध में उठे संशय का समाधान करने का अनुरोध करती हैं :

राम सो अवध नृपति सुत सोई।की अब अवगुअलखगति कोई।।

जो नृप तनय त ब्रह्म किमि, नारि विरह मति भोरि।

देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि ।।108।।

अर्थात् ‘ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैंॽ या अजन्मा, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैॽ यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसेॽ स्त्री के वियोग में उनकी मति बावली कैसे हो गईॽ इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यंत चकरा रही है’।

मानस की उपर्युक्त पंक्तियों में राम के लिए ‘अवध नृपति सुत’ पद का प्रयोग किया गया है जो कबीर द्वारा प्रयुक्त पद ‘दशरथ सुत’ का ही किंचित् परिवर्तित रूप है। यहां स्पष्ट है कि तुलसी के सामने कबीर की ही उक्ति है, जिसका खंडन वे इस प्रसंग में कर रहे हैं। तुलसीदास कबीर के मत का तार्किक उत्तर नहीं देते वरन इस तरह की शंका उठाने वाले को अधम और पाखंडी कहकर धिक्कारते हैं

कहहिं सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जो मोहपिसाच।

पाषंडी हरिपद  बिमुख, जानहिं  झूठ  न सांच ।।114।।

अर्थात् ‘जो मोहरूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखंडी है, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ नहीं जानते ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते सुनते हैं’।

तुलसीदास कबीर जैसे निर्गुणपंथी संतों को अधम और पाखंडी कहकर ही नहीं रुकते। वे बालकांड में ही आगे कहते हैं:

अज्ञ अकोबिद  अंध  अभागी। काई  विषय  मुकुर-मन लागी।।

लम्पट  कपटी  कुटिल  बिसेखी। सपनेहुं संत-सभा नहिं  देखी।।

कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्हहिं न सूझ लाभ नहिं हानी।।

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप   देखहिं किमि दीना।।

जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।

हरि माया बस जगत भ्रमाही। तिन्हहिं कहत कछु अघटित नाहीं।।(114-1से3।।)

अर्थात् ‘जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए और जिन्हें अपनी लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही वेदों के विरुद्ध ऐसी बातें कहा करते हैं। जिनका ह्रदयरूपी

दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे रामचंद्र जी का स्वरूप कैसे देखें। जिनको निर्गुण-सगुण का भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढंत बातें कहा करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है’।

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि तुलसीदास का संकेत निर्गुण मार्ग की ओर है, जिसने वेदों की श्रेष्ठता और अवतारवाद दोनों को चुनौती दी थी। तुलसीदास इसी निर्गुण मार्ग का खंडन करते हैं। इसलिए वे आगे कहते हैं: सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अवगुन अरूप अलख अज जोई। भगत खेम बस सगुन सो होई।(बालकांड, 115-1)

तुलसीदास का तर्क निर्गुण और सगुण के समन्वय पर आधारित नहीं है, जैसाकि आमतौर पर कहा जाता है। दरअसल यह निर्गुण को सगुण में समाहित कर लेने का प्रयास है क्योंकि एक बार ईश्वर के सगुण रूप को स्वीकार कर लिया जाता है, तो उसके बाद अवतारवाद को भी स्वीकार करना होगा और अवतारवाद को स्वीकार करने का अर्थ है, ईश्वरीय आराधना की उन उपासना पद्धतियों को भी स्वीकारना जो ब्राह्मणवादी कर्मकांडों पर आधारित हैं।

मंदिर जहां दलितों का प्रवेश निषेध है, यज्ञोपवीत जो सिर्फ़ द्विज जातियों के लिए सुरक्षित है, वेदाध्ययन भी जो द्विज ही कर सकते हैं। निश्चय ही कबीर के लिए सगुण और निर्गुण के अभेद की इस कथित समन्वयवादी परंपरा को स्वीकार करना संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक सगुणवादी परंपरा को अस्वीकार किया था।

अवतारवाद की आमतौर पर लोकमंगलकारी व्याख्या की जाती है। शायद तुलसी के पक्ष में यही सबसे प्रबल तर्क है। लेकिन इसकी असलियत क्या हैॽ तुलसीदास ने बालकांड में उन कारणों का विस्तार से वर्णन किया है, जो परब्रह्म ईश्वर को अवतार लेने की प्रेरणा देते हैं। भगवद्गीता का अनुकरण करते हुए तुलसीदास भी कहते हैं :

जब जब होई धरम की हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।

करहिं अनीति जाई नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।

तब तब प्रभु धरहिं विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।(बालकांड, 120-3-4)

तुलसीदास कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और असुर, अधम और अभिमानी लोग बढ़ जाते हैं तब-तब ईश्वर विविध शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा को हरते हैं। लेकिन इन दो चौपाइयों के बीच वे ‘धरम की हानी’ को परिभाषित भी करते हैं। वे कहते हैं कि जब अधम, अभिमानी असुर बढ़ जाते हैं और ब्राह्मण, गाय, देवता और पृथ्वी इनके अत्याचारों से कष्ट पाते हैं तब प्रभु मनुष्य रूप धारण करते हैं। इनमें भी ब्राह्मण की रक्षा को ईश्वर के अवतार का महत्त्वपूर्ण कारण माना है।

राम के कई कल्पों में अवतार लेने के अलग-अलग कारणों का वर्णन मानस के बालकांड में किया गया है। प्राय: वे कारण ब्राह्मण की प्रतिष्ठा की रक्षा से संबद्ध हैं और एक भी कारण ऐसा नहीं है जिसमें कोई मानवीय उदारता और दया का भाव व्यक्त हुआ हो। राम के अवतार के साथ-साथ रावण और कुंभकर्ण के राक्षस रूप में जन्म लेने के कारणों का वर्णन भी किया गया है और उन सबमें ब्राह्मण का अपमान, चाहे वह अनजाने में ही क्यों न हुआ हो पृष्ठभूमि में मौजूद है।

उदाहरण के लिए, श्रीहरि के दो द्वारपालों जय और विजय को ब्राह्मणों के शाप के कारण राक्षस बनना पड़ा। मानस के अनुसार ब्राह्मण का शाप तीन जन्म के लिए था इसलिए वे एक जन्म में रावण और कुंभकर्ण बनकर पैदा हुए। इन राक्षसों को पाप से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान को बार-बार अवतार लेना पड़ा (बालकांड, 122)। एक कथा देवर्षि नारद के मोहासक्त होने की है जिसमें भगवान नारद का मुंह बंदर जैसा बना देते हैं और शिव के दो गण नारद की खिल्ली उड़ाते हैं। परिणामत: नारद के शाप से वे दोनों गण रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लेते हैं।

रावण और कुंभकर्ण का एक जन्म इसलिए होता है क्योंकि राजा प्रतापभानु और उसका मंत्री धर्मरुचि किसी अन्य राजा द्वारा षड्यंत्र किये जाने के कारण अनजाने में ब्राह्मणों को गोमांस खिलाने का अपराध करने में तत्पर हो रहे थे। इस बात को जानकर भोज के लिए आमंत्रित ब्राह्मण राजा और मंत्री को राक्षस होने का शाप देते हैं और वे दोनों रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लेते हैं।

अब राम के जन्म के कारण देखिए। मनु और शतरूपा तपस्या करते हैं। भगवान प्रसन्न होकर वरदान देते हैं कि अगले जन्म में वे उनके पुत्र बनकर अवतार लेंगे। नारद की उपर्युक्त कथा में भगवान को स्त्री के लिए वन-वन भटकने का शाप देते हैं। इसीलिए भगवान (राम) स्त्री (सीता) के लिए वन-वन भटकते हैं।

मानस के इन सभी प्रसंगों से स्पष्ट है कि ‘धरम की हानी’ कुल मिलाकर ब्राह्मणों की सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि थी और रावण-कुंभकर्ण का जन्म बार-बार इसलिए हुआ क्योंकि ब्राह्मण बात-बेबात शाप दे देते थे, जिससे भगवान भी नहीं बच सकते थे।

तुलसीदास ने कहा कि अधम और अभिमानी असुरों के बढ़ जाने पर उनका नाश करने के लिए भगवान अवतार लेते थे, लेकिन ये असुर आख़िर कौन से कुकर्म करते थे। तुलसीदास ने इन असुरों के अत्याचारों का भी वर्णन किया है :

जेहि  बिधि  होइ  धर्म निर्मूला। तो  सब करहिं  बेद प्रतिकूला।।

जेहि जेहि देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाऊं पुर आग लगावहिं।।

सुभ  आचरन कतहु  नहिं कोई। देव  विप्र गुरु  मान  न  होई।।

नाहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ  न बेद पुराना।। (बालकांड, 182)

अर्थात् असुर ‘जिस तरह से धर्म निर्मूल हो, वैसे सभी वेद के प्रतिकूल काम करते हैं। जहां-जहां गाय, ब्राह्मण दिखायी देते हैं, उन नगर, गांव और पुर में आग लगा देते हैं। उनमें कोई शुभ आचरण नहीं होता और देवता, ब्राह्मण और गुरु के प्रति किसी तरह का सम्मान नहीं होता।

न ही उनमें भगवान के प्रति भक्ति होती है और न ही यज्ञ, तपस्या और ज्ञान होता है। वे सपने में भी वेद और पुराण नहीं सुनते’। इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि तुलसीदास के अनुसार असुर ब्राह्मण धर्म के प्रतिकूल काम करते हैं इसलिए वे राक्षस यानी बुरे हैं और इसीलिए उनका संहार करना ज़रूरी है।

यहां भी बल ब्राह्मण और गाय तथा हिंदू देवताओं पर है। हिंदू धर्मग्रंथों पर है और हिंदू आराधना पद्धतियों पर है। जो इन पर श्रद्धा नहीं रखता वे हिंदू धर्म के अनुसार राक्षस हैं। और स्पष्ट है कि उनके वध के लिए यह बताना बहुत ज़रूरी है कि जहां जहां वे गाय और ब्राह्मण को देखते हैं तो आग लगा देते हैं।

इसी तरह का प्रसंग वाल्मीकि रामायण में भी आता है। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के छठे सर्ग में एक प्रसंग आता है जिसके अनुसार जब राम, सीता और लक्ष्मण वनवास के दौरान शरभंग मुनि के आश्रम में रुके हुए थे, तब उनके पास बहुत से मुनियों के समुदाय पधारे और उन्होंने राम से प्रार्थना की कि वनों में रहने वाले वानप्रस्थ महात्माओं जिनमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक है, उन्हें राक्षसों द्वारा अनाथों की तरह मारा जा रहा है।

वे उन्हें मारे गये महात्माओं के शव और कंकाल दिखाते हैं और उन राक्षसों से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं। राम उन्हें वचन देते हैं कि वे इन राक्षसों का संहार करके उनकी रक्षा करेंगे। इसके बाद राम, सीता और लक्ष्मण सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में चले जाते हैं और रात वहीं विश्राम करते हैं।

प्रात:काल वहां से प्रस्थान करते हुए रास्ते में सीता राम से कहती है कि आप महान पुरुष हैं लेकिन सूक्ष्म विधि से विचार करने पर आप अधर्म की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। सीता कहती है कि मनुष्य में काम से उत्पन्न तीन व्यसन होते हैं, मिथ्याभाषण, परस्त्रीगमन और बिना वैर के ही दूसरों के प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव।

वह राम से कहती है कि आपमें पहले दो व्यसन तो नहीं है लेकिन ‘दूसरों के प्राणों की हिंसा रूप जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं। यही दोष आपके सामने उपस्थित है’।

वे आगे कहती हैं कि दंडकारण्यवासी ऋषियों की रक्षा के लिए युद्ध में राक्षसों का वध करने की जो प्रतिज्ञा की है और इसके लिए आप भाई के साथ धनुष-बाण लेकर दंडकारण्य के नाम से विख्यात वन की ओर जा रहे हैं, उससे मेरा चित्त चिंता से व्याकुल हो उठा है। मुझे इस समय आपका दंडकारण्य की ओर जाना अच्छा नहीं लग रहा है। आपको धनुष लेकर बिना वैर के ही दंडकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। बिना अपराध के ही किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझते’।

इस प्रसंग से स्पष्ट है कि सीता ऋषि-मुनियों के इस दावे पर बहुत यकीन नहीं करती कि राक्षस उनकी हत्याएं करते हैं। सीता का यह कहना बहुत अर्थवान है कि बिना अपराध के ही किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझते। यानी सीता की नज़र में राक्षसों ने कोई अपराध नहीं किया है। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि उन पर संहार का आरोप सही नहीं है।

इस प्रसंग का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि वह राक्षसों को मनुष्य की तरह मानकर अपना पक्ष रख रही है, न कि मनुष्य से इतर हिंसक प्रजाति के रूप में जिसका वध किया जाना मनुष्य जाति की रक्षा के लिए ज़रूरी है।

तुलसीदास की मानस में मुख्य चिंता ब्राह्मण के सम्मान और सर्वोच्चता की रक्षा की है। उत्तरकांड में उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि कलियुग में ब्राह्मण का पग-पग पर अपमान होता है। शूद्रों में अहंकार बढ़ गया है और वे अपने धर्म का अनुसरण करने की बजाय ब्राह्मणों को उपदेश देते हैं।

शूद्र द्विजों से विवाद करते हैं कि हम क्या तुमसे कुछ कम है, जो ब्रह्म को जानता है, वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है, ऐसा कहकर वे उन्हें डांटकर आंखें दिखलाते हैं। तेली, कुम्हार, चांडाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुंडाकर संन्यासी हो जाते हैं। वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं।

शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊंचे आसन पर बैठकर पुराण कहते हैं। कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गये हैं। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।

बादहि सूद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्ह तैं कछु घाटि।

जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर, आंखि देखावहिं डाटि ।।99।।

जे धरमा तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।

नारि मुईं गृह संपत्ति नासी। मूंड मुंडाई होहि संन्यासी ।। 3 ।।

ते ब्रिपन्ह सन पांव पुजावहिं। उभय लोक निज हाय नसावहिं।।

विप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचर सठ वृषली स्वामी ।।4।।

सूद्र करहिं जप तप ब्रत ग्याना। बैठि बिरासन कहहिं पुराना।।

सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ।।5।।

भये   बरनसंकर  कलि,   भिन्न सेत  सबलोग ।

करहिं पाप  पावहिं दुख भय, रुज सोक  वियोग ।।

श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ, सज्जुत किरति बिवेक।

तेहि न चलाहिं नर मोह बस,  कल्पहिं पथ अनेक ।।100।।

मानस के उपर्युक्त कथनों से साफ है कि अधिकांश बातें तुलसीदास ने निर्गुण मार्ग और निर्गुणमार्गी संतों को लक्ष्य करके कही हैं। ब्राह्मण चाहे जैसा भी क्यों न हो, तुलसीदास की नज़रों में वह पूज्य है। हालांकि वे इस बात पर अफसोस जाहिर करते हैं कि ब्राह्मण वेद-पुराण से विमुख होते जा रहे हैं। लेकिन वे यह बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है कि कोई शूद्र ब्राह्मण का अपमान कर दें। उत्तरकांड में काकभूशुंडी की कथा इसी का उदाहरण है। वहां तुलसीदास ने शिव के मुख से शूद्र को उपदेश देते हुए कहलाया है:

सुन मम बचन सत्य अब भाई। हरि तोषन ब्रत द्विज सेवकाई।।

अब जनि करहिं बिप्र अपमाना। जानेसु  संत  अनंत   समाना।।

इंद्र  कुलिस मम  सूल बिसाला।  कालदंड   हरिचक्र   कराला।।

जो  इंद्र  कर  मारा नहिं मरई।  बिप्रदोह  पावक  सो   जरई।।

अर्थात् ‘हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजों की सेवा ही भगवान को प्रसन्न करने वाला व्रत है। कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनंत श्री भगवान ही के समान जानना। इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्रीहरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रदोह रूपी अग्नि में भस्म हो जाता है’। यहां सिर्फ़ ब्राह्मणों की सेवा का ही उपदेश नहीं है बल्कि ब्राह्मण का किसी भी तरह का अपमान या विरोध करने पर उनके क्रोध से नष्ट हो जाने की सीधे-सीधे धमकी दी गयी है।

रामचरितमानस के उत्तरकांड में रामराज्य की जो परिकल्पना तुलसीदास ने प्रस्तुत की है, उसमें हालांकि ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहिं काहुहि व्यापा’।। जैसे उद्गार भी हैं, लेकिन तुलसीदास की नज़रों में रामराज्य की आधारभूत विशेषता है:

बरनाश्रम निज निज धरम निरत  वेद पथ लोग।

चलिहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।। उत्तरकांड, 20।।

अर्थात ‘सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर रहते हुए वेदमार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं, उन्हें किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है’।

मानस के ही उपर्युक्त प्रसंगों और कथनों से स्पष्ट है कि तुलसीदास का रामचरितमानस रचने का मकसद वेद और पुराणों से सम्मत उस वर्णाश्रम धर्म की पुन:स्थापना करना था, जिस धर्म पर कबीर आदि निर्गुणपंथी संतों ने प्रश्नचिह्न लगाया था।

सगुण और अगुण यानी निर्गुण के बीच भेद सिर्फ़ दार्शनिक स्तर पर नहीं था, जैसाकि तुलसीदास उसे बताना चाहते हैं वरन इसका संबंध समाज के वर्ण आधारित ढांचे से था। इसीलिए तुलसीदास का रामचरितमानस पिछले चार सौ सालों से हिंदू समाज के सर्वाधिक प्रतिगामी तत्वों की प्रेरक शक्ति रहा है।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि रामकथा के विभिन्न प्रसंगों की प्रस्तुति के तुलसीदास के महान प्रयासों को कम करके आंका जा रहा है। लेकिन ऐसे हर प्रसंग में तुलसीदास यह बताना नहीं भूलते कि राम, सीता और लक्ष्मण जो भी कर रहे हैं, वह सब ईश्वर की लीला है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि राम के आदर्श चरित्र की जो भी बातें कही जाती हैं, वे इस अर्थ में निरर्थक है, क्योंकि तुलसीदास के मानस में राम को परब्रह्म माना गया है और तुलसीदास अपने पाठकों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे मानस पढ़ते हुए एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि राम परब्रह्म का अवतार है। इसका नतीजा यह हुआ है कि राम का चरित्र पूजनीय तो हो गया है, लेकिन अनुकरणीय नहीं। कारण स्पष्ट है, क्योंकि ईश्वर की लीला का अनुकरण तो दूर की बात है, उसे समझना भी मनुष्य के लिए असंभव है।

जब मानस के पाठक को कदम-कदम पर इस बात के लिए सजग किया जा रहा है, तो वह रामकथा को मानवीय संघर्ष के रूप में ग्रहण कैसे कर सकता है और रामकथा से नि:सृत होने वाले आदर्शों को अपना जीवनादर्श कैसे बना सकता हैॽ

यही कारण है कि मानस की लोकप्रियता एक ऐसे ग्रंथ के रूप में अधिक है जिसके पढ़ने-सुनने से पापों का नाश होता है, ईश्वर की दया मिलती है और मोक्ष के द्वार खुलते हैं। स्वयं तुलसीदास मानस में इस भ्रम को बार-बार बड़ी दृढ़ वाणी में दोहराते हैं। इसीलिए आज भी लाखों-लाख लोग रामचरितमानस का पाठ इसलिए नहीं करते कि उन्हें राम जैसा बनना है, वरन उनका धार्मिक विश्वास ही उन्हें मानस से जोड़ता है। इसीलिए मानस का पाठ सवर्ण हिंदू परिवारों में पूरे धार्मिक अनुष्ठान के साथ होता है।

यही कारण है कि सवर्ण हिंदू शबरी और केवट की कथाओं को बार-बार सुनने, पढ़ने और उन प्रसंगों पर करुणा विगलित होने के बावजूद किसी ‘अछूत’ माने जाने वाले का छुआ पानी तक पीने के लिए तैयार नहीं होते। क्योंकि राम तो परब्रह्म है, वह तो वर्णव्यवस्था से परे हैं, वह तो हर तरह की लीला कर सकते हैं, लेकिन मनुष्य को तो राम की बनायी हुई वर्णव्यवस्था का पालन करना ही होगा।

(जवरीमल्ल पारख हिंदी साहित्य और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं। गुडगांव में रहते हैं।)

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