Friday, March 29, 2024

हिन्दू-मुस्लिम समस्या का मर्म 

पूरा देश दावानल में धूं-धूं कर जल रहा है। गरीब हिन्दू-मुसलमान दोनों जंगल में लगी भयानक आग में झुलस-झुलसकर दम तोड़ रहे हैं। बादलों का कहीं नामों निशां नहीं हैं। इंद्रदेव आंखे चुरा रहे हैं। पता नहीं ये दावानल कब बुझेगा? पता नहीं ये देश फिर कब हरा-भरा होगा ?

मुसलमानों की रोजी-रोटी, शिक्षा, रोजगार, मान-सम्मान, धर्म-संस्कृति और राजनीति पर चारों ओर से हमला किया जा रहा है। कहर बरपा हो रहा है। पूरे देश की अवाम को ‘घृणा की अवाम’ में तब्दील कर दिया गया है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों की सारी ऊर्जा इसी मुद्दे पर केन्द्रित हो गयी है। ऊपर से तुर्रा ये कि देश की सारी मुसीबतों की जड़ ये मुस्लिम ही हैं। क्या कोई भी शख्स अपने दिल पर हाथ रखकर ये बात कह सकता है कि ये खुद मुसीबत के मारे सबके लिए मुसीबत की जड़ हैं ?

दूसरा सवाल ये है कि मुसलमानों पर तो अब जुल्मों-सितम की इंतिहा हो गयी। अब तो हिंदुओं के सारे दुख-दलिद्दर दूर हो जाने चाहिए ? लेकिन क्या हिन्दू गरीबों की रोजी-रोटी, शिक्षा, रोजगार, मान-सम्मान, धर्म-संस्कृति तथा राजनीतिक अधिकार सुरक्षित हैं ? क्या हिन्दू सुख-चैन से ज़िंदगी जी रहे हैं ? जरा सोचना एक बार तनहाई में बैठकर।

ये समस्याएं कभी दूर नहीं हो सकतीं। क्योंकि देश की नीतियां वाशिंगटन, लंदन और टोक्यो में बनती हैं। उन देशों की बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के अनुसार बनती हैं न कि देश की अवाम की प्राथमिकताओं के अनुसार। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम पर पूरे देश की नीलामी बोली जा रही है विदेशियों के लिए। जिसके परिणामस्वरूप पूरा देश तबाह हो रहा है। आम लोगों का जीना दूभर हो गया है। भूख, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, ज़लालत, नशाखोरी, वेश्यावृत्ति, गुलामी, दमन, उत्पीड़न, शोषण और वंचना देश की लाइलाज समस्याएं बन चुकी हैं !

देश की इन असली समस्याओं पर पर्दा डाला जा रहा है।

इस पर्दानशी में भाजपा, कांग्रेस तथा देश के तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक दल पूरी तरह एकमत हैं। बस सत्ता हथियाने के लिए कुछ फर्क दिखाने की कोशिश करते हैं। वामपंथी पार्टियां भी कुछ हाय-तौबा मचाकर अपने फर्ज की इतिश्री कर लेती हैं।

देशी-विदेशी पूंजीपति, बड़े फार्मर, संसद, विधायिकाएं, न्यायालय, नौकरशाही, पुलिस-फोर्स, प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक, टीवी, सोशल मीडिया, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय गुंडों के गैंग, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों और गिरिजाघरों के नामचीन ठेकेदार- इस यथास्थिति के रक्षक और पोषक हैं।

मजदूर, गरीब किसान, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, उप-राष्ट्रीयताएं, औरतें, छात्र और तरक्की पसंद बुद्धिजीवी इस व्यवस्था द्वारा शोषित-दमित-उत्पीड़ित और वंचित हैं।

आज की यही सच्चाई है। लेकिन यह सच्चाई नदी में तैरते हिम शैल का बस कंगूरा है। सम्पूर्ण हिम शैल देखने के लिए हमें इतिहास रूपी नदी में डुबकी लगानी पड़ेगी। चलिये हिन्दू -मुस्लिम समस्या का असली मर्म पकड़ने के लिए इतिहास का एक विश्लेषण करें। 

समाज की कोई भी समस्या उस खास समाज की बनावट-बुनावट से ही पैदा होती है। उदाहरण के तौर पर चंदन का वृक्ष शीतल होता है और बबूल के वृक्ष पर शूल लगते हैं। ये उन वृक्षों की एक खास बनावट-बुनावट, उनके तासीर, उनकी अंतर्वस्तु पर ही निर्भर करता है। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का मर्म भी भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में निहित है। वह संरचना है जातिवादी-पितृसत्तात्मक । जिसको स्वर्ग-नरक, मोक्ष, ज्ञान, कर्म, जन्म-जन्मांतर तथा अवतारवादी भक्ति के दृष्टिकोण से जायज ठहराया जाता है। इस सामाजिक संरचना में ऊपरी जातियों का प्राकृतिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संसाधनों पर कब्जा होता है तथा मर्दों का औरतों पर प्रभुत्व। निचली जातियां अपने-अपने सोपानक्रम के अनुसार शोषित-दमित-उत्पीड़ित और वंचित रहती हैं।

इस्लाम धर्म की सामाजिक संरचना सिद्धान्त के रूप में बराबरी और सार्वभौमिक भाईचारे को मानती है। उपरोक्त जातिवादी सामाजिक संरचना के विरुद्ध है और इसके बरक्स एक विकल्प पेश करती है। इसी वजह से इन दोनों सामाजिक संरचनाओं में टकराव है। यानि हिन्दू-मुस्लिम समस्या दो मुख्तलिफ़ सामाजिक संरचनाओं के टकराव से पैदा हुई समस्या है। यही इस समस्या का मर्म है।

इस समस्या की पैदाइश, विकास और वर्तमान का एक इतिहास है।

आर्यों की सामाजिक संरचना और बौद्धों-जैनों का विरोध 

यह जानने के लिए पूर्व इस्लामिक भारत पर एक सरसरी नज़र डालना ज़रूरी है। आर्यों ने भारत में जातिवादी-पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की नींव डाली और इसे सुदृढ़ किया। जिसे स्वर्ग-नरक, कर्म, ज्ञान, मोक्ष, जन्म जन्मांतर और भक्तिवाद के दृष्टिकोण से जायज ठहराया। क्षत्रिय और पुजारी इस सामाजिक संरचना के शीर्ष पर थे। वैश्य, शूद्र, अछूत और औरतें शोषित-दमित-उत्पीड़ित और वंचित थे।

बौद्ध और जैन धर्म ने इस जातिवादी-पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना को चुनौती दी। इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद की। इस आवाज़ को आर्य राजाओं ने कत्लेआम से तथा शंकराचार्य जैसे दार्शनिकों ने दृष्टिकोण के क्षेत्र में ध्वस्त किया। क्योंकि बौद्ध और जैन भी स्वर्ग-नरक और मोक्ष के दृष्टिकोण में विश्वास रखते थे। फिर किस आधार पर वे जातिवाद को दार्शनिक आधार पर खारिज कर सकते थे।

छठी-सातवीं शताब्दी आते-आते भारत जातिवादी-पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की हथकड़ी-बेड़ी में पूरी तरह जकड़ चुका था। स्वर्ग-नरक, कर्म, ज्ञान, मोक्ष जन्म-जन्मांतर और भक्तिवाद के दृष्टिकोण ने जनमानस को दिमागी गुलाम बना लिया था। राजनीतिक सत्ता आर्य राजाओं के हाथों मे केंद्रीकृत हो चुकी थी। आम जन का कोई सुदृढ़ संगठन नहीं बचा था। समाज धार्मिक रीति-रिवाजों से निर्देशित होने लगा। जिसमें जन्म से मरण तक सब तय था। जनमानस की सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो गयी थी।एक विचारक एमएन रॉय ने कहा है कि उस समय भारत औंधे मुंह पड़ा हुआ था। 

इस्लाम धर्म का आगमन और उसका विरोध 

इसी दौरान 7 वीं- 8 वीं सदी में भारत में इस्लाम धर्म के कदम पड़े। पहले-पहल इस्लाम भारत में अरब व्यापारियों और सूफी संतों के भेष में आया। इस्लाम की सामाजिक संरचना बराबरी और सार्वभौमिक भाईचारे के सिद्धान्त पर आधारित थी। जो श्रम के जातिवादी बँटवारे पर आधारित सामाजिक संरचना के लिए एक चुनौती बन गयी और एक नया विकल्प पेश की।

बौद्ध और जैन धर्म की तरह इस्लाम की सामाजिक संरचना ने भी क्षत्रिय और पुजारियों की नींद उड़ा दी। उन्हें डर सताने लगा कि शारीरिक श्रम करने वाली निचली जातियां उनके चंगुल से निकाल जाएंगी। ये जातियां इस्लाम कबूल कर लेंगी। ऐसा होने पर उनके परजीवी जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। इन्होंने तुरंत इस्लाम के खिलाफ हमला बोल दिया। जाति की व्यवस्था को एकदम जड़ बना दिया और जनमानस के दिमाग को स्वर्ग-नरक के दृष्टिकोण से एकदम जकड़ दिया। इस्लाम के खिलाफ जहर भरना जारी रखा।

इसके बावजूद भी निचली जातियों ने इस्लाम कबूल किया। लेकिन विडम्बना यह है कि इस्लाम में भी निचली जातियों को आर्थिक-राजनीतिक बराबरी नहीं मिली। बस सामाजिक और धार्मिक बराबरी मिली।

11 वीं-15 वीं सदी तक इस्लामिक सुल्तान और बादशाह भारत आते रहे। यहीं पर बसते गए। इसको उन्होंने अपना वतन माना। इन सुल्तानों और बादशाहों ने क्षत्रिय राजाओं और पुजारियों के साथ-साथ जमींदारों,जागीरदारों, नवाबों ,अमीर-उमरा की एक भारी परजीवी जमात निचली श्रमिक जातियों की छाती पर रख दी। भारतीय इस्लाम में भी जातिवादी ऊँच-नीच पैदा हो गयी। शेख,सैयद, खान,पठान, भारतीय इस्लाम में शिखर पर माने जाते हैं। यही लोग आर्थिक और राजनीतिक संसाधनों पर वर्चस्व रखते हैं। दूसरी ओर धोबी, नाई, तेली, सकके, जुलाहे, लुहार, दर्जी आदि निचले स्तर पर आते हैं तथा कोई आर्थिक राजनीतिक हक नहीं रखते हैं। बस सिवाय सामाजिक और धार्मिक भाईचारे के।

हिन्दू और इस्लामिक शासकों ने निचली श्रमिक जातियों को अपने-अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों के अनुसार अपने पीछे गोलबंद किया। एक-दूसरे के धर्म के खिलाफ उनके दिमागों में जहर भरा, उन्हें आपस में लड़वाया और दुश्मनी की खाई गहरी की। हरेक धर्म की आर्थिक-राजनीतिक सत्ता का यही चरित्र होता है।

इसके विपरीत इस्लामिक और हिन्दू संतों, फकीरों, गायकों, लेखकों तथा कलाकारों ने मेल-जोल के बीज बोये और भाईचारे को बढ़ावा दिया। लेकिन वे आपसी दुश्मनी के बीज का खात्मा नहीं कर पाये। करते भी कैसे बीज तो जातिवादी आर्थिक-राजनीतिक सामाजिक संरचना में था जिसको वे तोड़ नहीं पाये।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद और हिन्दू-मुस्लिम समस्या 

16 वीं-17 वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। इन उपनिवेशवादियों ने जातिवादी-पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना को ज्यों का त्यों बनाए रखा। इसी संरचना पर पूंजीवाद आरोपित किया। इस संरचना से पैदा हुए हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा दिया तथा दुश्मनी की दरार को और चौड़ा कर दिया। उन्होंने पूरे देश का बर्बरता पूर्ण तरीके से विध्वंस किया। हिन्दू-मुस्लिम शासक वर्ग और विशेषाधिकार प्राप्त लोग अंग्रेज़ों के पिट्ठू बन गए। उनकी लूट में हिस्सा बंटवाने लगे। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग इन्हीं पिट्ठू विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की पैदाइश थी जिसकी परिणति हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बँटवारे की त्रासदी में हुई। 

1947 की आजादी 

1947 में देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजाद हुआ। देश की बागडोर टाटा-बिड़ला जैसे पूंजीपति और सामन्तों, जमींदारों, जागीरदारों तथा अमीर-उमरा के हाथों में आई। जिनका प्रतिनिधित्व नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कर रही थी। इन जातिवादी-पितृसत्ता के रक्षक और पोषकों ने इस व्यवस्था को बनाए रखा। दूसरी ओर हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जातिवादी समाज संरचना को बनाए रखने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए हुए थे। अब भला जातिवादी समाज संरचना से पैदा हुई हिन्दू- मुस्लिम समस्या कैसे खत्म हो सकती थी ? हुई भी नहीं। 

नेहरू सरकार ने पूंजीपतियों और सामंतों के हितों को वरीयता दी। जातिवाद और पितृसत्ता को बनाए रखा। सभी निचली जातियों और औरतों को जमीनों का मालिक नहीं बनाया। उनकी राजनीति में भागीदारी नहीं हुई। इनको स्वर्ग-नरक के दृष्टिकोण से मुक्त करने के लिए वैज्ञानिक शिक्षा नहीं दी तथा वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण नहीं किया। हिन्दू-मुस्लिम दुश्मनी पर आधारित अंग्रेज़ों का लिखा इतिहास पढ़ाया जाता रहा। हिन्दू- मुस्लिम तथा गरीब जातियों को लड़वाकर अपना आर्थिक और राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहे। 

1990 में उपनिवेशवाद की वापसी 

1990 में भारत नया उपनिवेश बना। अमरीका ने नवउदारवादी ‘नयी आर्थिक नीति’ पेश की। जिसका मतलब था निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण। कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री पी.वी नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने गुलामी के इस काले दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए।अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन द्वारा इस नयी गुलामी को संचालित किया गया। अब अमरीका के नेतृत्व में ये साम्राज्यवादी वित्त और तकनीक के दम पर हमारे आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक भाग्य का फैसला करते हैं। सब उन्हीं के रहमोकरम पर है। सारे फैसले टोक्यो,वाशिंगटन और लंदन में लिए जाते हैं। देशी पूंजीपति उनके दुश्मन-सहयोगी (collaborator) बन गए और शोषण में हिस्सा बंटवाने लगे तथा हमारी सरकारें उनके विदेश मंत्रालय बन गयीं। 

नयी साम्राज्यवादी गुलामी ने देश को तबाह कर दिया है। अमीरी-गरीबी का फर्क आसमान छू रहा है। मजदूर-गरीब किसान, दलित, आदिवासी तथा उपराष्ट्रीयताएं असहाय हैं। अल्पसंख्यकों के खिलाफ पूरे देश की रगों में घृणा और जहर फैल गया हैं। छात्र-नौजवान बेरोजगारी, अशिक्षा, धूर्तता, नशाखोरी और अपराधों की भेंट चढ़ रहे हैं। देश की लड़कियां देशी-विदेशी अमीरों की सेज सजा रही हैं।  

इस कुकृत्य को अंजाम देने के लिए जरूरी था कि जातिवाद-पितृसत्ता को मजबूत किया जाए और हिन्दू-मुस्लिम दुश्मनी को बढ़ाया जाए। मण्डल कमीशन जैसे कामों से जातिवाद को सुदृढ़ किया गया तथा बाबरी मस्जिद विध्वंस से हिन्दू-मुस्लिम दुश्मनी को आम कर दिया गया। जैसे-जैसे ये लुटेरे साम्राज्यवादी हमारा सब कुछ छीनते जा रहे हैं वैसे-वैसे हिन्दू-मुस्लिम समस्या को भी बढ़ावा देते जा रहे हैं। सबका ध्यान इसी समस्या पर केन्द्रित कर दिया गया है। यही आज की हिन्दू- मुस्लिम समस्या का मर्म है।

हम सभी छात्रों-नौजवानों और तरक्की पसंद बुद्धिजीवियों से गुहार करते हैं। सभी एकजुट होकर इस नयी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी गुलामी के बारे में सोच-विचार करें। साम्राज्यवाद के रहते कभी जातिवाद-पितृसत्ता से मुक्ति नहीं मिल सकती।पूंजीवादी-साम्राज्यवादी-जातिवादी-पितृसत्तावादी शोषणकारी व्यवस्था के रहते कभी हिन्दू-मुस्लिम समस्या खत्म नहीं हो सकती। पूरा देश दावानल में झुलस-झुलसकर दम तोड़ता रहेगा। अदम गोंडवी ने बहुत ही प्रासंगिक बात कही है :

छेड़िए एक जंग मिल-जुलकर गरीबी के खिलाफ 

दोस्त मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िए 

(पत्रकार हरेंद्र कुमार का लेख।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

‘ऐ वतन मेरे वतन’ का संदेश

हम दिल्ली के कुछ साथी ‘समाजवादी मंच’ के तत्वावधान में अल्लाह बख्श की याद...

Related Articles