Thursday, April 18, 2024

आरएसएस और डॉ. आंबेडकर के विचारों में है 36 का रिश्ता

अगर हिन्दूराज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दूधर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है।इन पैमानों पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है।हिन्दूराज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।

–  डॉ. आंबेडकर (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338) 

हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः प्रजातंत्रविरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है।अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाएऔर हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ हैतो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं।यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है।यह दमित वर्गों और गैरब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है‘‘ (सोर्स मटियरल आन डा. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)

भले ही कई सारे तथाकथित आंबेडकरवादी आर.एस.एस. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की शरण में चले गए हों या संघ आंबेडकर को अपनाने का खेल खेल रहा हो, उन्हें पचाने की कोशिश कर रहा हो और अपनी हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने के लिए उनका इस्तेमाल कर रहा हो, लेकिन सच यह है कि संघ की विचारधारा और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के बीच कोई ऐसा सेतु नहीं जहां दोनों का एक दूसरे से मेल कायम होता हो। सच यह है कि यदि संघ की विचारधारा फूलती -फलती है, तो इसका निहितार्थ है कि डॉ. आंबेडकर की विचारधारा की जड़ें खोदी जा रही हैं। इसके उलट यह भी उतना ही सच है कि यदि डॉ. आंबेडकर की विचारधारा फूलती-फलती है तो संघ की विचारधारा की जड़ों में मट्ठा पड़ रहा है।

दोनों के आदर्श समाज की परिकल्पना, राष्ट्र की दोनों की अवधारणा, दोनों के आदर्श मूल्य, दोनों के आदर्श नायक, दोनों के आदरणीय ग्रंथ, धर्म की दोनों की समझ, दोनों की इतिहास दृष्टि, स्त्री-पुरूष संबंधों की दोनों की अवधारणा, व्यक्तियों के बीच रिश्तों के बारे में दोनों के चिंतन, व्यक्ति और समाज के बीच रिश्तों के बारे में दोनों की सोच, दोनों की आर्थिक दृष्टि और राजनीतिक दृष्टि बिल्कुल जुदा-जुदा हैं। एक शब्द में कहें दोनों की विश्व दृष्टि में कोई समानता नहीं है। दोनों के बीच कोई ऐसा कॉमन तत्व नहीं है, जो उन्हें जोड़ता हो या उनके बीच एकता का सेतु कायम करता हो।

संघ की विचारधारा और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का कोई भी अध्येता सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जायेगा कि जो कुछ संघ की विचारधारा के लिए अमृत है, वह सब कुछ आंबेडकर की विचारधारा के लिए जहर जैसा है। इसे उलट कर कहें तो जो कुछ आंबेडकर की विचारधारा में अमृत है वह संघ के लिए जहर है। अपने असली रूप में दोनों एक दूसरे को स्वीकार और पचा नहीं सकते हैं। हां फरेब तो किसी भी चीज का रचा जा सकता है जिसमें संघ-भाजपा और उनके आनुषंगिक संगठन और उसके नेता माहिर हैं। इस आलेख की शाब्दिक सीमाओं को देखते हुए मैं उपर्युक्त में से सिर्फ कुछ एक बिंदुओं पर दोनों की विचारधाराओं को आमने-समाने रखकर देखने की कोशिश करूंगा।

संघ की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा और डॉ. आंबेडकर

सबसे पहले हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना पर विचार करते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि संघ का सबसे बड़ा लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है। यह लक्ष्य संघ ने कमोबेश हासिल भी कर लिया। संवैधानिक और कानूनी तौर पर भले भारत आज भी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हो लेकिन वास्तविक और व्यवहारिक अर्थों में भारत एक हिंदू राष्ट्र बन चुका है। भले यह सब कुछ अघोषित और अनौपचारिक तौर पर हुआ दिखता हो। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की आशंका मात्र से डॉ. आंबेडकर किस कदर भयभीत थे। इसका अंदाजा उनके इस कथन से लगाया जा सकता है- “‘अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। इस पैमाने पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338)।

आखिरकार आंबेडकर संघ के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना से इतने भयभीत क्यों थे? क्या सिर्फ इसका एकमात्र कारण यह है कि हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की दोयम दर्जे की स्थिति होगी? जैसा कि बहुत सारे अध्येता संघ के हिंदू राष्ट्र का विश्लेषण करते समय यह कहते रहे हैं और कुछ आज भी कहते हैं। हिन्दू राष्ट्र के अर्थ को धार्मिक अल्पसंख्यकों के दमन तक सीमित करना या व्याख्यायित करना उसकी बहुत ही सतही व्याख्या है। सामान्य तौर पर माना जाता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद के मूल में मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति घृणा है। परन्तु यह घृणा, हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है।

सच यह है कि हिंदू राष्ट्र जितना मुसलमानों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है, उतना ही वह हिंदू धर्म का हिस्सा कही जानी वाली महिलाओं, अति पिछड़ों और दलितों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म दोयम दर्जे का ठहराता है। यह उन आदिवासियों के लिए भी उतना ही खतरनाक है, जो अपने प्राकृतिक धर्म का पालन करते हैं और काफी हद तक समता की जिंदगी जीते हैं, जिनका हिंदूकरण करने और वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की असमानता की व्यवस्था के भीतर जिन्हें लाने की कोशिश संघ निरंतर कर रहा है। यह उसके हिंदू राष्ट्र की परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

आंबेडकर हिंदू धर्म पर टिके हिंदू राष्ट्र को हर तरह की स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा मानते थे और इसे पूर्णतया लोकतंत्र के खिलाफ मानते थे। आंबेडकर के लिए हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निहितार्थ शूद्रों-अतिशूद्रों (आज के पिछड़े-दलितों) पर द्विजों के वर्चस्व और नियंत्रण को स्वीकृति और महिलाओं पर पुरूषों के वर्चस्व और नियंत्रण को मान्यता प्रदान करना है। जिस हिन्दू धर्म पर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा टिकी हुई है, उसके संदर्भ में आंबेडकर का कहना है कि “मैं हिंदुओं और हिंदू धर्म से इसलिए घृणा करता हूं, उसे तिरस्कृत करता हूं क्योंकि मैं आश्वस्त हूं कि वह गलत आदर्शों को पोषित करता है और गलत सामाजिक जीवन जीता है।

डॉ. बीआर आंबेडकर।

मेरा हिंदुओं और हिंदू धर्म से मतभेद उनके सामाजिक आचार में केवल कमियों को लेकर नहीं हैं। झगड़ा ज्यादातर सिद्धांतों को लेकर, आदर्शों को लेकर है। (भीमराव आंबेडकर, जातिभेद का उच्छेद पृ. 112)। डॉ.आंबेडकर साफ शब्दों में कहते हैं कि हिन्दू धर्म के प्रति उनकी घृणा का सबसे बड़ा कारण जाति है, उनका मानना था कि हिन्दू धर्म का प्राण-तत्व जाति है और इन हिन्दुओं ने अपने इस जाति के जहर को सिखों, मुसलमानों और क्रिश्चियनों में भी फैला दिया है। वे लिखते हैं कि ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि जाति आधारभूत रूप से हिन्दुओं का प्राण है। लेकिन हिन्दुओं ने सारा वातावरण गन्दा कर दिया है और सिख, मुस्लिम और क्रिश्चियन सभी इससे पीड़ित हैं।’’

‘जाति का उच्छेद’ किताब का उद्देश्य बताते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘‘मैं हिन्दुओं को यह अहसास कराना चाहता हूँ कि वे भारत के बीमार लोग हैं, और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और खुशी के लिए खतरा है’’ इसका कारण बताते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘हिन्दुओं की पूरी की पूरी आचार-नीति जंगली कबीलों की नीति की भांति संकुचित एवं दूषित है, जिसमें सही या गलत, अच्छा या बुरा, बस अपने जाति बन्धु को ही मान्यता है। इनमें सद्गुणों का पक्ष लेने तथा दुर्गुणों के तिरस्कार की कोई परवाह न होकर, जाति का पक्ष लेने या उसकी अपेक्षा का प्रश्न सर्वोपरि रहता है।” डॉ. आंबेडकर को हिन्दू धर्म में अच्छाई नाम की कोई चीज नहीं दिखती थी, क्योंकि इसमें मनुष्यता या मानवता के लिए कोई जगह नहीं है।

अपनी किताब ‘जाति का उच्छेद’ में उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबन्धों की भीड़ है। हिन्दू-धर्म वेदों व स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों की खिचड़ी संग्रह मात्र है। हिन्दुओं का धर्म बस आदेशों और निषेधों की संहिता के रूप में ही मिलता है, और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धान्तों का विवेचन हो, जो वास्तव में सार्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों के लिए हर काम में उपयोगी हो, हिन्दुओं में पाया ही नहीं जाता और यदि कुछ थोड़े से सिद्धान्त पाये भी जाते हैं तो हिन्दुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती। हिन्दुओं का धर्म ‘‘आदेशों और निषेधों” का ही धर्म है। वे हिन्दुओं की पूरी व्यवस्था को ही घृणा के योग्य मानते हैं। उन्होंने लिखा कि ‘‘इस प्रकार यह पूरी व्यवस्था ही अत्यन्त घृणास्पद है, हिन्दुओं का पुरोहित वर्ग (ब्राह्मण) एक ऐसा परजीवी कीड़ा है, जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है… ब्राह्मणवाद के जहर ने हिन्दू-समाज को बर्बाद किया है।” (जाति का विनाश)।

मनुस्मृति-वर्ण-जाति व्यवस्था : संघ और आंबेडकर

वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृ सत्ता का सर्वाधिक पक्ष पोषण करने वाली मनुस्मृति संघ और उसके विचारकों का प्रिय ग्रंथ रहा है। संघ के आदर्श सावरकर मनुस्मृति के बारे में लिखते हैं कि “मनुस्मृति ही वह ग्रन्थ है, जो वेदों के पश्चात हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए अत्यंत पूजनीय है तथा जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति, आचार, विचार एवं व्यवहार की आधारशिला बन गयी है। यही ग्रन्थ सदियों से हमारे राष्ट्र की ऐहिक एवं पारलौकिक यात्रा का नियमन करता आया है। आज भी करोड़ों हिन्दू जिन नियमों के अनुसार जीवन-यापन तथा व्यवहार-आचरण कर रहे हैं, वे नियम तत्वतः मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज भी मनुस्मृति ही हिन्दू नियम (कानून) है।” (सावरकर समग्र, खंड 4, 2000 पृष्ठ 415)।

सावरकर की बात का समर्थन करते हुए गोलवलकर लिखते हैं “स्मृतियां ईश्वर निर्मित है और उसमें बताई गई चातुर्वण्य व्यवस्था भी ईश्वर निर्मित है। किंबहुना वह ईश्वर निर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाता है, तब हम चिंता नहीं करते। क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब भी जो ईश्वर निर्मित योजना है, वह पुन: स्थापित होकर ही रहेगी।” (गुरुजी समग्र, खंड-9, पृ.163)। वे आगे वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि “अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है। किंबहुना आज की भाषा में उसे गिल्ड कहा जाता है और पहले जिसे जाति कहा गया, उसका स्वरूप एक ही है।…जन्म से प्राप्त होने वाली जाति व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु उसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा ही लचीलापन था भी। लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वण्य व्यवस्था उचित ही है।” (वही) 

सावरकर।

वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की संहिता ‘मनुस्मृति’ को जहां संघ ईश्वर निर्मित मानता है और आदर्श ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत करता है, उस ‘मनुस्मृति’ को डॉ. आंबेडकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की गुलामी का दस्तावेज कहते हैं। इस संदर्भ में बार-बार ‘मनुस्मृति’ के निम्न श्लोकों को प्रस्तुत करते हैं- 

  • नीच वर्ण का जो मनुष्य अपने से ऊँचे वर्ण के मनुष्य की वृत्ति को लोभवश ग्रहण कर जीविका-यापन करे तो राजा उसकी सब सम्पत्ति छीन कर उसे तत्काल निष्कासित कर दे।10/95-98
  • ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है। इसके अतिरिक्त वह शूद्र जो कुछ करता है, उसका कर्म निष्फल होता है।10/123-124
  • शूद्र धन संचय करने में समर्थ होता हुआ भी धन का संग्रह न करे क्योंकि धन पाकर शूद्र ब्राह्मण को ही सताता है। 10/129-130
  • जिस देश का राजा शूद्र अर्थात पिछड़े वर्ग का हो, उस देश में ब्राह्मण निवास न करें क्योंकि शूद्रों को राजा बनने का अधिकार नहीं है। 4/61-62
  • राजा प्रातःकाल उठकर तीनों वेदों के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मणों की सेवा करें और उनके कहने के अनुसार कार्य करें। 7/37-38
  • जिस राजा के यहां शूद्र न्यायाधीश होता है उस राजा का देश कीचड़ में धँसी हुई गाय की भांति दुःख पाता है। 8/22-23
  • ब्राह्मण की सम्पत्ति राजा द्वारा कभी भी नहीं ली जानी चाहिए, यह एक निश्चित नियम है, मर्यादा है, लेकिन अन्य जाति के व्यक्तियों की सम्पत्ति उनके उत्तराधिकारियों के न रहने पर राजा ले सकता है। 9/189-190
  • यदि शूद्र तिरस्कारपूर्वक उनके नाम और वर्ण का उच्चारण करता है, जैसे वह यह कहे देवदत्त तू नीच ब्राह्मण है, तब दस अंगुल लम्बी लोहे की छड़ उसके मुख में कील दी जाए। 8/271-272
  • यदि शूद्र गर्व से ब्राह्मण पर थूक दे, उसके ऊपर पेशाब कर दे तब उसके ओठों को और लिंग को और अगर उसकी ओर अपना वायु निकाले तब उसकी गुदा को कटवा दे।  8/281-282
  • यदि कोई शूद्र ब्राह्मण के विरुद्ध हाथ या लाठी उठाए, तब उसका हाथ कटवा दिया जाए और अगर शूद्र गुस्से में ब्राह्मण को लात से मारे, तब उसका पैर कटवा दिया जाए। 8/279-280
  • इस पृथ्वी पर ब्राह्मण-वध के समान दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है। अतः राजा ब्राह्मण के वध का विचार मन में भी न लाए। 8/381
  • शूद्र यदि अहंकार वश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश करे तो उस शूद्र के मुँह और कान में राजा गर्म तेल डलवा दें। 8/271-272
  • शूद्र को भोजन के लिए जूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फ़टे पुराने वस्त्र देना चाहिए ।10/125-126
  • बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, उल्लू, कौआ किसी एक की हिंसा का प्रायश्चित शूद्र की हत्या के प्रायश्चित के बराबर है अर्थात शूद्र की हत्या कुत्ता, बिल्ली की हत्या के समान है। 11/131-132
  • यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देता है तब उसकी जीभ काट देनी चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्मा के निम्नतम अंग से पैदा हुआ है।
  • निम्न कुल में पैदा कोई भी व्यक्ति यदि अपने से श्रेष्ठ वर्ण के व्यक्ति के साथ मार-पीट करे और उसे क्षति पहुंचाए, तब उसका क्षति के अनुपात में अंग कटवा दिया जाए।
  • ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक मात्र कर्म निश्चित किया है, वह है– गुणगान करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना।
  • शूद्र यदि ब्राह्मण के साथ एक आसन पर बैठे, तब राजा उसकी पीठ को तपाए गए लोहे से दगवा कर अपने राज्य से निष्कासित कर दे।
  • राजा बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले अनेक यज्ञ करें और धर्म के लिए ब्राह्मणों को स्त्री, गृह शय्या, वाहन आदि भोग साधक पदार्थ तथा धन दे।
  • जान-बूझकर क्रोध से यदि शूद्र ब्राह्मण को एक तिनके से भी मारता है, वह 21 जन्मों तक कुत्ते-बिल्ली आदि पाप श्रेणियों में जन्म लेता है।
  • ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है।
  • शूद्र लोग बस्ती के बीच में मकान नहीं बना सकते। गांव या नगर के समीप किसी वृक्ष के नीचे अथवा श्मशान पहाड़ या उपवन के पास बस कर अपने कर्मों द्वारा जीविका चलावें।
  • ब्राह्मण को चाहिए कि वह शूद्र का धन बिना किसी संकोच के छीन ले क्योंकि शूद्र का उसका अपना कुछ नहीं है। उसका धन उसके मालिक ब्राह्मण को छीनने योग्य है।
  • राजा, वैश्यों और शूद्रों को अपना-अपना कार्य करने के लिए बाध्य करने के बारे में सावधान रहें, क्योंकि जब ये लोग अपने कर्तव्य से विचलित हो जाते हैं तब वे इस संसार को अव्यवस्थित कर देते हैं।
  • शूद्रों का धन कुत्ता और गदहा ही है। मुर्दों से उतरे हुए इनके वस्त्र हैं। शूद्र टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करें। शूद्र महिलाएं लोहे के ही गहने पहनें।
  • यदि यज्ञ अपूर्ण रह जाये तो वैश्य की असमर्थता में शूद्र का धन यज्ञ करने के लिए छीन लेना चाहिए।
  • दूसरे ग्रामवासी पुरुष जो पतित, चाण्डाल, मूर्ख और धोबी आदि अंत्यवासी हों, उनके साथ द्विज न रहें। लोहार, निषाद, नट, गायक के अतिरिक्त सुनार और शस्त्र बेचने वाले का अन्न वर्जित है।
  • शूद्रों के साथ ब्राह्मण वेदाध्ययन के समय कोई सम्बन्ध नहीं रखें, चाहे उस पर विपत्ति ही क्यों न आ जाए।
  • स्त्रियों का वेद से कोई सरोकार नहीं होता। यह शास्त्र द्वारा निश्चित है। अतः जो स्त्रियां वेदाध्ययन करती हैं, वे पाप युक्त हैं और असत्य के समान अपवित्र हैं, यह शाश्वत नियम है।
  • शूद्रों को बुद्धि नहीं देनी चाहिए अर्थात उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं है। शूद्रों को धर्म और व्रत का उपदेश न करें।
  • जिस प्रकार शास्त्र विधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही श्रेष्ठ देवता हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान दोनों ही रूपों में श्रेष्ठ देवता है।
  • शूद्र की उपस्थिति में वेद पाठ नहीं करना चाहिए।
  • ब्राह्मण का नाम शुभ और आदर सूचक, क्षत्रिय का नाम वीरता सूचक, वैश्य का नाम सम्पत्ति सूचक और शूद्र का नाम तिरस्कार सूचक हो।
  • दस वर्ष के ब्राह्मण को 90 वर्ष का क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पिता समान समझ कर उसे प्रणाम करे।

आंबेडकर अपनी विभिन्न किताबों में बार-बार मनुस्मृति को उद्धृत करके बताते हैं कि यह ग्रंथ किस तरह और किस भाषा में दलित-बहुजनों की तुलना में द्विजों की श्रेष्ठता और महिलाओं की तुलना में पुरूषों की श्रेष्ठता की घोषणा करता है। इतना ही नहीं मनुस्मृति शूद्रों-अतिशूद्रों से कहती है कि उनका मूल धर्म द्विजों की सेवा करना और उनके आदेशों का पालन करना है। इसी तरह वह महिलाओं को बताती है कि उनका धर्म पुरूषों की सेवा करना और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना है। ऐसा न करने वाले शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के कठोर दंड देने का प्रावधान भी मनुस्मृति में किया गया है। इन प्रावधानों में मारने-पीटने से लेकर हत्या करने तक शामिल है। हम सभी को पता है कि वर्ण-व्यवस्था का उल्लंघन करने पर स्वयं राम ने अपने हाथों से शंबूक का वध किया था। (वाल्मिकी रामाणय, उत्तरकांड)। 

सावरकर-गोलवलकर के आदर्श ग्रंथ मनुस्मृति से डॉ. आंबेडकर इस कदर घृणा करते थे कि उन्होंने एकमात्र जिस ग्रंथ का दहन किया- वह ग्रंथ मनुस्मृति है। 25 दिसंबर 1927 को आंबेडकर ने सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था। 

स्त्री-पुरूष समानता का प्रश्न : संघ और आंबेडकर 

स्त्री-पुरूष के रिश्तों के प्रश्न पर भी संघ और आंबेडकर विपरीत ध्रुव पर खड़े हैं। जहां आंबेडकर अपने शोध-आलेख ‘भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ में इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि जाति और पितृसत्ता का जन्म एक साथ ही हुआ था और पितृसत्ता के विनाश के बिना वर्ण-जाति व्यवस्था का खात्मा नहीं किया जा सकता है। हिंदू कोड बिल में वे महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरूषों के समान अधिकार का प्रस्ताव करते हैं। इन अधिकारों में हर बालिग लड़की को मनचाहा जीवन साथी चुनने का अधिकार और तलाक का अधिकार भी शामिल है।

वे इस बिल में महिलाओं को संपत्ति में अधिकार का भी प्रस्ताव करते हैं। यह बिल अंतरजातीय विवाह की भी इजाजत देता था। यह सर्वविदित तथ्य भी है कि संघ ने हिंदू कोड बिल का पुरजोर विरोध किया था और कहा था कि यह भारतीय परिवार व्यवस्था (पितृसत्ता की व्यवस्था) और समाज व्यवस्था (वर्ण-जाति व्यवस्था) को तोड़ने वाला और भारतीय संस्कृति को नष्ट करने वाला है। इतना ही नहीं, आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल से पहले ‘हिंदू नारी, उत्थान और पतन’ किताब लिखी जिसमें उन्होंने तथ्यों के आधार पर स्थापित किया है कि भारतीय समाज में महिलाओं के दोयम दर्जे की स्थिति के लिए हिंदू धर्मग्रंथ- विशेषकर मनुस्मृति- जिम्मेदार है।

उन्होंने अपनी किताब ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ में विस्तार से बताया है कि जो हिंदू धर्मग्रंथ वर्ण-जाति व्यवस्था को जायज ठहराते हैं और शूद्रों-अतिशूद्रों को द्विजों की गुलामी का आदेश देते हैं, वही धर्मग्रंथ महिलाओं को पुरूषों का गुलाम ठहराते हैं और कहते हैं किसी भी परिस्थिति में स्त्री को स्वतंत्र जीवन नहीं जीना चाहिए। आंबेडकर कहते हैं कि “स्त्री विरोध पर आधारित हिंदूवादी विचारधारा तमाम शास्त्रों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता, वेदों व उनसे जुड़ी कथाओं, उपकथाओं, अन्तर्कथाओं और मिथकों तक फैली हुई है। इन सभी का एक स्वर में कहना है कि स्त्री को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। ‘मनुस्मृति’ और ‘याज्ञवल्क्य-स्मृति’ जैसे धर्मग्रंथों ने बार-बार यही दुहराया है कि ‘स्त्री आजादी से वंचित’ है अथवा ‘स्वतंत्रता के लिए अपात्र’ है।  मनुस्मृति का स्पष्ट कहना है कि- 

             पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षित यौवने।

             रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।। (मनुस्मृति 9.3) 

मनु साफ शब्दों में स्त्रियों और शूद्रों को समान ठहराते हैं और उन पर वे सारी अयोग्यताएं लादते हैं जो शूद्रों पर उन्होंने लादी है। आंबेडकर लिखते हैं कि ‘मनु स्त्री का स्थान शूद्र के स्थान के समान मानता है। वेदों का अध्ययन स्त्री के लिए मनु द्वारा उसी प्रकार वर्जित किया गया है, जैसे शूद्रों के लिए।’ इस बात को मनु के श्लोकों के माध्यम से डॉ.आंबेडकर पुष्टि करते हैं। मनु लिखता है कि-

‘नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः।

निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतयिति स्थितिः।।’ (मनुस्मृति) 

मनु शूद्रों की तरह ही स्त्रियों को भी पीटने की अनुमति देता है, उसका कहना है कि-

भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेष्यो भ्राता च सोदरः।

प्राप्तापराधास्ताड्याः स्यू रज्ज्वा वेणुदलेन वा। (मनुस्मृति)

(स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य और छोटा भाई यदि अपराध करे तो उसे रस्सी से बाँधकर लाठी से पीटना चाहिए।)

आंबेडकर ने लिखा है कि ‘मनु जितना शूद्रों के प्रति कठोर है, उससे तनिक भी कम स्त्रियों के प्रति कठोर नहीं है।”

आंबेडकर इन सबको खारिज करते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार की हिमायत करते हैं। इसका सबसे ठोस प्रमाण उनके द्वारा प्रस्तुत हिंदू कोड बिल है। इस कोड बिल को गोलवलकर इतना खतरनाक मानते थे कि दक्षिणपंथी ताकतों के दबाव में इस बिल को नेहरू वापस लेने के बाद भी गोलवलकर ने चेतावनी देते हुए कहा कि “जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए और इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है जो पिछले द्वार से प्रवेश कर उनकी जीवन-शक्ति को खा जायेगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिए अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो।” (श्री गुरुजी समग्र, खंड-6, पृ.64)

प्रतीकात्मक फोटो।

आंबेडकर के बिल्कुल उलट संघ महिलाओं को पुरुषों का अनुगामिनी मानता है और ऐसी स्त्रियों को भारतीय स्त्री के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है जो पूरी तरह से अपने पति की अनुगामिनी थीं और जिनका अपना कोई स्वतंत्र वजूद नहीं था। संघ प्रमुख खुलेआम महिलाओं के समान अधिकारों की मांग को खारिज करते हुए कहते हैं कि “इस समय स्त्रियों के समानाधिकारों और उन्हें पुरुषों की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए भी एक कोलाहल है। भिन्न लिंग होने के आधार पर विभिन्न सत्ता केंद्रों में उनके लिए पृथक स्थानों के संरक्षण की मांग की जा रही है और इस प्रकार एक और नया वाद अर्थात ‘लिंगवाद’ को जन्म दिया जा रहा है जो जातिवाद, भाषावाद, समाजवाद आदि के समान है।”

संघ आज भी स्त्री पुरूष के बीच के उसी रिश्ते को आदर्श मानती है जिसमें स्त्री का दायरा घर के दहलीज तक सीमित है, उसका कर्तव्य है कि वह पुरूष की सेवा करे, बदले में पुरूष उसके जीवन-यापन का इंतजाम करे। इसे आदर्श प्रस्तुत करते हुए वर्तमान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इंदौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रैली के दौरान कहा- ‘वैवाहिक संस्कार के तहत महिला और पुरुष एक सौदे से बंधे हैं, जिसके तहत पुरुष कहता है कि तुम्हें मेरे घर की देखभाल करनी चाहिए और मैं तुम्हारी जरूरतों का ध्यान रखूंगा।

इसलिए जब तक महिला इस कान्ट्रैक्ट को निभाती है, पुरुष को भी निभाना चाहिए। जब वह इसका उल्लंघन करे तो पुरुष उसे बेदखल कर सकता है। यदि पुरुष इस सौदे का उल्लंघन करता है तो महिला को भी इसे तोड़ देना चाहिए। सब कुछ कान्ट्रैक्ट पर आधारित है।’ भागवत के मुताबिक, सफल वैवाहिक जीवन के लिए महिला का पत्नी बन कर घर पर रहना और पुरुष को धन उपार्जन के लिए बाहर निकलने के नियम का पालन किया जाना चाहिए। 

संघ की आधारभूत सैद्धांतिक पु्स्तक इनके दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर की ‘विचार नवनीत’ को माना जाता है। वैसे तो यह पुस्तक पूरी तरह ‘हिंदू पुरुष’ को संबोधित करके ऐसे लिखी गई है, जैसे स्त्रियों का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही न हो लेकिन पुरुषों के कर्तव्य बताते हुए स्त्रियों की चर्चा की जाती है। इस किताब में वे पुरुषों द्वारा महिलाओं को हत्या तक को जायज ठहराते हैं। महिलाओं की सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की चर्चा करते हुए गोलवलकर ने सीता, सावित्री, पद्मिनी (पद्मावती) को भारतीय नारी का आदर्श बताया है। इनमें सीता और सावित्री पतिव्रता स्त्रियां हैं, तो पद्मिनी, पतिव्रता के साथ-साथ ‘जौहर’ करने वाली क्षत्राणी हैं। साथ ही नारीत्व के आदर्श से गिरी हुई बुरी स्त्रियां भी हैं, जिसे हिंदू संस्कृति और हिंदुत्ववादी विचारधारा में ‘कुलटा’, ‘राक्षसी’, ‘डायन’ आदि कहा जाता है।

ऐसी स्त्रियों के साथ हिंसा यहां तक ‘वध’ को भी गोलवलकर पुरूषों का आवश्यक कर्तव्य मानते हैं। इस कर्तव्य को पुरूषों का वास्तविक धर्म बताते हैं और इस वास्तविक धर्म का पालनकर्ता के आदर्श के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को प्रस्तुत करते हैं। गोलवलकर अपनी किताब ‘विचार नवनीत’ में इस संदर्भ में लिखते हैं, “हमारे एक सर्वोच्च आदर्श श्रीराम विजय के इस दर्शन के साक्षात उदाहरण हैं। स्त्रियों का वध करना क्षत्रिय धर्म के विपरीत माना जाता है। उसमें शत्रु के साथ खुले लड़ने का आदेश भी है। लेकिन श्रीराम ने ताड़का का वध किया और बालि के ऊपर उन्होंने पीछे से प्रहार किया।…एक निरपराध स्त्री का वध करना पापपूर्ण है परंतु यह सिद्धांत राक्षसी के लिए लागू नहीं किया जा सकता है।” किस प्रकार की स्त्री ‘निरपराधी’ और आदर्श स्त्री है और कौन अपराधी एवं आदर्शच्युत कुलटा या राक्षसी है? इसकी भी परिभाषा हिंदू धर्मशास्त्रों, मिथकों और महाकाव्यों ने विस्तार से किया है।

संघ के गुरु गोलवलकर इस बात को जायज ठहराते हैं कि यदि पुरुष उस लड़की का वध कर देता है, जिससे वह प्रेम करता है तो वह एक आदर्श प्रस्तुत करता है। इस संदर्भ में वे एक कथा सुनाते हुए कहते हैं, “एक युवक और युवती में बड़ा प्रेम था। किन्तु उस लड़की के माता-पिता उस युवक के साथ विवाह करने की अनुमति नहीं दे रहे थे। इसलिए वे एक बार एकान्त स्थान में मिले और उस युवक ने उस लड़की का गला घोट दिया और उसे मार डाला, लेकिन उस लड़की को किसी पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ।” आगे वे लिखते हैं कि “यही वह कसौटी है जिसे हमें इस प्रकार के प्रत्येक अवसर पर अपने सामने रखना चाहिए।” 

संघ के संविधान और आंबेडकर प्रेम का सच  

जो संघ कभी संविधान और आंबेडकर को खारिज करता था, हाल में वह जोर-शोर से संविधान की शपथ खाने और आंबेडकर को गले लगाने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है। सबसे मुखर रूप में मोहन भागवत के तीन दिवसीय व्याख्यान में दिखाई दिया। दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तीन दिवसीय (17,18 व 19 सितंबर 2018) व्याख्यानमाला कार्यक्रम चला। इस कार्यक्रम का विषय ‘भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ था। इस व्याख्यानमाला को संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संबोधित किया। उन्होंने देश के करीब सभी ज्वलंत मुद्दों पर अपनी राय रखी। उन्होंने संविधान और आंबेडकर के प्रति अपने सम्मान एवं प्रेम की घोषणा किया।

मोहन भागवत।

संघ ने कभी संविधान को स्वीकार नहीं किया। गोलवलकर कुछ थोड़े बदलावों के साथ मनुस्मृति को ही संविधान का दर्जा देने के हिमायती थे। भारतीय संविधान पर अपनी राय संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने अपने संपादकीय में इन शब्दों में प्रकट किया था- “भारत के संविधान की सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।…यह प्राचीन भारतीय सांविधानिक कानूनों, संस्थाओं, शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकास-यात्रा के भी कोई निशान नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था।

आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इस सबका कोई अर्थ नहीं है।” इन संविधान बनाने वाले संघ की भाषा में, सांविधानिक पंडितों के अगुवा डॉ. आंबेडकर थे। इस प्रकार उनके ऊपर भी परोक्ष तौर पर हमला बोला गया। इतना ही नहीं जब संविधान में महिलाओं को दिए गए समता और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया तो संघ बिलबिला उठा। हिंदू कोड बिल को हिंदू संस्कृति और परिवार व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में संघ ने प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसमें उसे कारपात्री महाराज जैसे लोगों का भरपूर समर्थन मिला।

हिंदूवादी संगठन सड़कों पर उतर आए। संघ ने हिंदू कोड बिल को हिंदू कानूनों, हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म के साथ क्रूर और अज्ञानतापूर्ण मजाक बताया। इसे हिन्दुओं के विश्वास पर हमला कहा गया। इसके आगे बढ़कर संघ ने कहा कि “तलाक के लिए महिलाओं को सशक्त करने का प्रावधान हिंदू विचारधारा से विद्रोह जैसा है।” संघ ने आंबेडकर पर व्यक्तिगत हमला करते हुए कहा कि वे तो हिंदू हैं ही नहीं, उनको हिंदू कानूनों में सुधार का क्या अधिकार है। मोहन भागवत के पहले के संघ प्रमुख के. सुदर्शन ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में संविधान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। 

  प्रश्न यह है कि अचानक संघ को क्यों संविधान को पूरी तरह स्वीकार करने की घोषणा करनी पड़ी और यह कहना पड़ा कि हम संविधान के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। केवल मूल संविधान के प्रति ही नहीं, 1976 के संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्दों के प्रति भी। संविधान को स्वीकार करने और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने की घोषणा संघ ने अपनी सदिच्छा के चलते नहीं किया है, ऐसा करने में उसकी धूर्तता और बाध्यता दोनों है। बाध्यता के इसके दो कारण हैं। पहली बात यह कि इस देश के दलित-बहुजनों (कल के शूद्र-अतिशूद्र) को यह लगता है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त हुए हैं, वे संविधान के चलते ही प्राप्त हुए हैं और यह काफी हद तक सच भी है।

औपचारिक-सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर भी इस देश के दलित-बहुजनों को संविधान से ही एक हद तक की समता और स्वतंत्रता मिली है। इसके अलावा आरक्षण और कुछ अन्य विशेष कानूनी संरक्षण संविधान के चलते ही मिला है। संघ द्वारा संविधान को स्वीकार न करने के चलते और पिछले चार वर्षों में संविधान के संबंध में संघ-भजपा के लोगों के बयानों के चलते दलित-बहुजनों के एक बड़े हिस्से की यह राय बनती जा रही थी कि संघ संविधान को बदलना चाहता है और उसकी जगह मुनस्मृति को लागू करना चाहता है। दलित-बहुजनों द्वारा बड़े पैमाने पर संविधान बचाओ अभियान भी चलाया जा रहा है। संघ की संविधान विरोधी छवि का प्रचार-प्रसार तेजी से दलित-पिछड़ों के बीच हो रहा था। हम सभी को पता है कि पिछड़ी जातियों और दलितों को अपने साथ लिए बिना संघ की हिंदुत्व की परियोजना पूरी नहीं हो सकती है।

उसे न तो दंगों के लिए जन-बल मिल सकता है, न ही चुनावी बहुमत प्राप्त करने के लिए वोट। संविधान को स्वीकार कर और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर कर दलित-बहुजनों का विश्वास जीतने के अलावा संघ के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। ऐसा करके संघ ने उन दलित-पिछड़ी जातियों के नेताओं को भी एक अवसर दिया है, जो संघ या भाजपा के साथ है। ये नेता अब खुलेआम दलित-पिछड़ों से कह सकते हैं कि संघ संविधान को स्वीकार करता है, उसके प्रति प्रतिबद्ध है। 

संविधान को स्वीकार करने का दूसरा कारण यह है कि दलित-बहुजनों का एक बड़ा हिस्सा संविधान और डॉ. आंबेडकर को एक दूसरे का पर्याय मानता है, विशेषकर दलित। दलितों में यह धारणा घर कर गई है कि जो संविधान नहीं स्वीकार करता, आंबेडकर को भी स्वीकार नहीं करता है। संविधान को स्वीकार करने की घोषणा और प्रतिबद्धता के साथ संघ ने आंबेडकर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जोर-शोर से घोषित की है। इसी के साथ मोहन भागवत ने कुछ ना-नुकुर के साथ आरक्षण और एस.सी.-एस.टी. कानून के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। गोलवलकर संविधान और आंबेडकर दोनों को खारिज करते थे। मोहन भागवत ने संविधान के साथ आंबेडकर के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता घोषित की। पिछले कई वर्षों से संघ आंबेडकर के प्रति अपना प्रेम प्रकट करने की कोशिश कर रहा है। संविधान को स्वीकार किए बिना आंबेडकर के प्रति प्रेम कम से कम दलितों को तो नहीं ही स्वीकार होगी। 

संविधान और आंबेडकर को स्वीकार करने का यह सारा उपक्रम करने का उद्देश्य दलित-बहुजनों को अपने दायरे में लाने की कोशिश का एक हिस्सा है क्योंकि यदि दलित-बहुजन संघ के  वैचारिक और सांगठनिक दायरे से अलग हो जाते हैं और मुसलमानों के साथ मोर्चा बना लेते हैं, जिसके लक्षण दिख रहे हैं, तो संघ की सारी परियोजना ही ध्वस्त हो जायेगी। इसके साथ ही हिंदुओं के वर्चस्व के नाम पर मुसलमानों, ईसाईयों और दलित-पिछड़ों पर उच्च जातियों के वर्चस्व का खात्मा हो जायेगा और हिंदुत्व के नाम पर उच्च जातीय-उच्च वर्गीय हिंदुओं के वर्चस्व की हजारों वर्षों की परंपरा का भी खात्मा हो जायेगा। इसका निहितार्थ संघ की हिंदू राष्ट्र की पूरी परियोजना का खात्मा होगा। 

संविधान के प्रति इस समय आस्था और प्रतिबद्धता जताने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि संघ-भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि संविधान की औपचारिक स्वीकृति और लोकतांत्रिक चुनाव के माध्यम से बहुमत हासिल किया जा सकता है। यह सफलता पूरी तरह से  मुसलमानों-ईसाईयों को किनारे लगाकर हासिल की जा सकती है। बिना औपचारिक और खुलेआम संविधान को बदले देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील किया जा सकता है। 

तर्क, विवेक और न्यायपूर्ण चेतना रखनेवाला शायद ही कोई व्यक्ति इस तथ्य से इंकार कर पाए कि संघ, उसके अनुषांगिक संगठन और उनकी विचारधारा आज भारतीय समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरी है। यह विचारधारा हमें एक अंधकार और बर्बरता के युग में ले जा रही है। इसका मुकाबला करने में आंबेडकर की विचारधारा हमारे लिए एक महत्वपूर्ण वैचारिक उपकरण साबित हो सकती है।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।) 

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