इतिहास की बुनियाद पर खड़े सम्बन्धों को रेत की तरह नहीं बहाया जा सकता

पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में नूपुर शर्मा की टिप्पणी ने वैश्विक स्तर पर खूब सुर्खियां बटोर ली हैं। अरब, खाड़ी देशों सहित इस्लामिक संगठनों ने इस मामले में कड़ा प्रतिरोध जताने के लिए भारतीय दूतावास को तलब किया। कुछ देशों में भारतीय उत्पादों के बहिष्कार करने तक की खबरें हैं। इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि खाड़ी देशों से भारत पर दबाव बनाने के लिए कुछ भारतीय पत्रकारों और पाकिस्तानी मीडिया का बड़ा हाथ रहा लेकिन सवाल है क्या जिस तरह से इस्लामिक राष्ट्र धर्मांधता के जाल में फंसकर भारत के प्रति कड़ा रुख अपना रहे हैं इससे भविष्य की दीवार का निर्माण किया जा सकता है ?

इतिहास के परिप्रेक्ष्य में झांका जाए तो भारत के ऐतिहासिक रूप से अरब प्रायद्वीप, विशेष रूप से इसके पूर्वी तटों के साथ खाड़ी क्षेत्र के साथ घनिष्ठ आर्थिक संबंध रहे हैं। दुनिया में पहला ऐतिहासिक रूप से दर्ज समुद्री व्यापार मार्ग, वास्तव में, सिंधु घाटी सभ्यता और दिलमुन की सभ्यता के बीच था, जो बहरीन द्वीप और सऊदी अरब के निकटवर्ती तट पर स्थित था। ऐसा नहीं है कि केवल हमारा इतिहास ही पारस्परिक सहयोग का उदाहरण रहा बल्कि वर्तमान भी इसका नमूना है। साल 2006 में सऊदी किंग अब्दुल्ला की दिल्ली यात्रा ने पहले दोनों राष्ट्रों के मेल-मिलाप को बढ़ावा दिया था। इस यात्रा ने “दिल्ली डिक्लेरेशन” के हस्ताक्षर का मार्ग प्रशस्त किया, जिसका उद्देश्य भारत-सऊदी संबंधों को एक रणनीतिक ढांचा प्रदान करना था लेकिन सार्वजनिक घोषणाओं के बावजूद, साझेदारी निष्क्रिय रही। हालांकि, 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव ने भारत-खाड़ी संबंधों को एक नई दिशा दी।

गुजरात राज्य में मुख्यमंत्री के अपने विवादास्पद जनादेश से धूमिल हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि खाड़ी और अरब देशों के लिए चिंता का विषय जरूर थी लेकिन नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से न केवल खाड़ी के नेताओं, और विशेष रूप से, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेताओं ने मोदी को अलग तरह से देखा बल्कि एक सामरिक गठजोड़ पर सार्थक बहस की कल्पना भी की गई। राजनीतिक इस्लाम को संबोधित करने के लिए मोदी का सुरक्षा आधारित दृष्टिकोण उनके अपने विचारों के अनुरूप था।

कुछ समय पहले दिल्ली में एक समारोह में बोलते हुए, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने मोदी को अपने “बड़े भाई” के रूप में सम्बोधित किया। इसी तरह, मोदी ने अबू धाबी के क्राउन प्रिंस, मोहम्मद बिन के साथ अभूतपूर्व संबंध विकसित किए। मई 2018 में जब अमेरिकी दबाव के चलते, दिल्ली ने आधिकारिक तौर पर इन खरीद को निलंबित किया तो सऊदी अरब और यूएई दोनों ने घोषणा की कि, वे इस नुकसान की भरपाई के लिए भारत को अतिरिक्त बैरल की आपूर्ति करेंगे।

ताज़ा विवाद में ओआईसी राष्ट्रों को यह स्वीकार करना चाहिए कि औरंगजेब पंथ के विकृत इस्लामी जेहादी आतंकवादी लोग उनकी कूटनीति के प्रमुख संकटमोचक हैं। ओआईसी (इस्लामिक देशों का संगठन) के इतिहास को देखा जाए तो कश्मीर के मुद्दे पर नियमित रूप से भारत विरोधी प्रस्ताव पारित करता रहा है। भले ही भारत के अरब राष्ट्रों के साथ उत्कृष्ट संबंध हैं, लेकिन अरब कश्मीर पर पाकिस्तानी रुख के पक्षधर हैं। भारत भी तेल, गैस के आयात और खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों की बड़ी संख्या के कारण कश्मीर पर भारतीय रुख का समर्थन करने के लिए अरबों को मनाने या दबाव बनाने में विफल रहा है।

पैगम्बर मोहम्मद साहब के मामले में जैसा एक्शन अरब देश ले रहे हैं मैं समझता हूं इनकी हरकतें बहुत बचकानी हैं। उदाहरण के लिए, एक फ्रांसीसी पत्रिका में चार्ली कार्टून, फिर स्वीडन में दंगे, और नूपुर का यह ताजा मामला। इन देशों को परवाह नहीं है कि वास्तविक जीवन में मुसलमानों या किसी अन्य के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है या नहीं। उदाहरण के लिए, चीन में उइगर मुसलमानों के प्रति कड़ा रुख, यमन और म्यांमार में अरबी मुसलमानों का अत्याचार, अफगानिस्तान में इस्लामी मुल्क के हिमायती मुस्लिम पलायन कर रहे हैं, 9/11 के बाद मुसलमानों के साथ अमेरिका का दुर्व्यवहार इसका उम्दा उदाहरण है।

मूल रूप से, इन देशों और ओआईसी के पास कोई नैतिक कम्पास नहीं है;  वे मुसलमानों की मदद नहीं करते, केवल उनके शेखों और सुल्तानों का सपोर्ट करते हैं जो मुसलमानों के तथाकथित आका बने हुए हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक आप इस्लाम की आलोचना नहीं करते तब तक आप मुसलमानों के साथ बुरा व्यवहार कर सकते हैं। जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस और रूस सभी मुस्लिम देशों पर बमबारी करते हैं, लेकिन वे कुरान या अन्य धार्मिक ग्रंथों के बारे में बात नहीं करते हैं। चीन उइगर मुस्लिमों पर ज़ुल्मो सितम बरपा रहा है लेकिन ओआईसी की हिम्मत नहीं कि मुंह खोल सके।

सद्दाम हुसैन को फांसी दी गई लेकिन इन्होंने चूं तक नहीं बोला। सद्दाम भारत के हितैषी थे। बांग्लादेश संकट के समय उन्होंने खुलकर भारत का साथ दिया। सद्दाम हुसैन के नेतृत्व में इराक ने कश्मीर पर भारतीय रुख का समर्थन किया। भारतीय कंपनियों को रेल, सड़कें, पुल और भवन आदि बनाने के बड़े-बड़े ठेके दिए। लीबिया के शासक मुअम्मर गद्दाफी को उनकी हिम्मत के लिए दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने दुनिया के सर्वोच्च महाबली को खुली चुनौती दी थी, वरना इस्लामिक नाम पर बने संगठनों की पोल उसी दिन खुल चुकी थी जब उन्होंने अमेरिकी प्रभुत्व के आगे घुटने टेक दिए थे।

जब पूरी मुस्लिम दुनिया भारत के खिलाफ हो गई थी तब सद्दाम ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को लेकर अपने देश में कोई हिंसा नहीं होने दी थी। यासर अराफात के तहत फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) ने भी कश्मीर पर भारतीय रुख का समर्थन किया था। भारत का इराक से संबंध ईसा के जन्म से बहुत पहले से है। सद्दाम की भारत के बारे में अच्छी राय थी। पीएलओ ने पाकिस्तान से ज्यादा भारत को तरजीह दी क्योंकि एक बार पाकिस्तानी सेना ने जॉर्डन की तरफ से फिलीस्तीन पर फायरिंग की थी। यासिर अराफात इंदिरा गांधी को बड़ी बहन मानते थे।

मुस्लिम जगत की यह खास विडंबना रही कि जब-जब उसका सामना अमेरिकी प्रभुत्व के हुआ, हमेशा नतमस्तक दिखाई दिए। जब सद्दाम को फांसी दी गई तब अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे राष्ट्र अपना मुंह सिए हुए थे। मानो उनकी जुबान को लकवा मार गया हो। वे सद्दाम की फांसी की निंदा नहीं कर रहे थे। हैरत है ये दोनों राष्ट्र सद्दाम विरोधी नहीं हैं। सद्दाम ने इनका कुछ नहीं बिगाड़ा लेकिन हम ये कैसे भूल सकते हैं कि ये दोनों अमेरिका के अंगूठे के नीचे दबे हुए थे इसीलिए इन दोनों राष्ट्रों ने सद्दाम की फांसी को इराक का आंतरिक मामला बताकर मुंह मोड़ लिया था।

(प्रत्यक्ष मिश्रा स्वतंत्र पत्रकार हैं, आजकल अमरोहा में रहते हैं।)

प्रत्यक्ष मिश्रा
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