Saturday, April 20, 2024

पंजाब: गणतंत्र को ‘लहरों’ से मिलती चुनौतियां 

26 जनवरी को भारत के हर राज्य के लिए यह सवाल कुछ ज्यादा मौजूं हो जाता है कि ‘गणतंत्र’ को असली चुनौती कहां से और कैसे मिल रही है? पंजाब के संदर्भ में यह सवाल इसलिए भी और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है कि यह सीमांत प्रांत है और चिरकाल से ही यहां का ‘गण’ और ‘तंत्र’ अथाह चुनौतियों का सामना करता रहा है। पंजाब जैसा अन्य कोई सूबा नहीं, जो हमेशा लहरों अथवा आंदोलनों की कश्ती में सवार रहा और कश्ती सदैव मंझधार में ही रही।

1947 में देश का बंटवारा हुआ तो विभाजन के दौरान हुई बेइंतहा हिंसा ने सबसे ज्यादा पंजाब को ही अपनी जद में लिया। इतिहास के पन्नों की गवाहियां हैं कि पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में लाखों लोग बेघर हुए और कत्लेआम का शिकार भी। व्यवहारिक तौर पर देखें तो 47 में असली बंटवारा तो पंजाब का ही हुआ। या फिर बंगाल का। तीन साल बाद जब प्रथम गणतंत्र दिवस मनाया गया तो वह पंजाबियों के लिए तब बेमानी था। लुटे-पिटे लोग बसाहट के साथ-साथ रोजी-रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहे थे।

कई साल लग गए, बेवतनों को पराई-सी लगती जमीन को अपना बनाने में। गणतंत्र की बुनियादी अवधारणा ने यहां उनका कोई साथ नहीं दिया। अस्थिरता का वैसे भी उत्सव से क्या नाता? उजड़ कर भारतीय पंजाब आए लोगों से बेहतर कौन इसे जान-समझ और भुगत सकता है? हिजरत के जख्म कितने गहरे होते हैं- यह सिर्फ उन्हीं को मालूम होता है जो इसके शिकार बनते हैं। विभाजन की हिजरत इतिहास की सबसे बड़ी हिजरत है और इसके साथ हुआ अमानुषिक खून-खराबा भी।

आज गणतंत्र दिवस है और बहुतेरे लोगों के तब के मिले जख्म अभी भी ताजा हैं। 1947 का बंटवारा भी अपने किस्म की एक ‘लहर’ ही था जो अपने साथ बहुत कुछ ले गया और पीछे छोड़ गया मनहूस उजाड़; कमोबेश दोनों मुल्कों में।

इसके बाद गणतंत्र को चुनौती देती सिलसिलेवार कई घटनाएं हुईं। उन्होंने भी गणतंत्र की अवधारणा पर सवालिया निशान लगाए कि शासन-व्यवस्था के लिए किसका ‘गण’ और कौन-सा ‘तंत्र’? जैसे आजादी एक अधूरा शब्द है, ठीक उन्हीं अर्थों में गणतंत्र भी पूरा नहीं। अवाम के बहुतेरे सपनों और उम्मीदों को गणतंत्र पूरा नहीं कर पाया और सत्ता हस्तांतरण के प्रभाव निकट से दिखने लगे। शेष देश के साथ-साथ पंजाब में भी।

1966 में भारतीय संयुक्त पंजाब का बंटवारा हुआ। महापंजाब हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और मौजूदा पंजाब में बंट गया। भाई-भाई के खेल में पानी का मसला खड़ा हुआ और बेतहाशा उलझ गया तथा आज तक सुलझ नहीं पाया। सतलुज यमुना लिंक नहर (एसवाईएल) सड़क से सुप्रीम कोर्ट तक हवा में लटक रही है। गणतंत्र का कोई लिखित पन्ना फिलहाल तक तो इस मसले को निर्णायक समाधान की तरफ नहीं ले जा पाया।

चंडीगढ़ भी ऐसा ही मसला है। पंजाब का उस पर अपना स्वाभाविक दावा है तो हरियाणा का अपना। कहने को यह दोनों प्रदेशों की संयुक्त राजधानी है। लेकिन त्रिशंकु। तदर्थ भी। इस अत्याधुनिक शहर पर अधिकार जमाने की लड़ाई, दोनों राज्यों के बीच आज भी जारी है। दावों-प्रतिदावों के बीच कभी कोई नहीं पूछता कि शहर चंडीगढ़ के मूल बाशिंदे आखिर क्या चाहते हैं। यानी पंजाब का हिस्सा होना चाहते हैं या हरियाणा का या फिर एकदम अलहदा। गणतंत्र ने कभी मौका नहीं दिया कि चंडीगढ़ के लिए जारी जंग के मद्देनजर जनमत सर्वेक्षण करवाया जाए। यह दिगर बहस का विषय है।

पानी और चंडीगढ़; दो ऐसे मसले हैं जो सुलझ गए तो बहुतेरे खाए-पीए राजनीतिज्ञों के पल्ले कुछ नहीं बचेगा। इनके उलझाव में ही उनका मुनाफा है। दोनों मसले ही गणतंत्र को चुनौती की मानिंद हैं। पंजाब में तो ये अलगाववादी आतंकवाद की एक अहम बुनियाद भी बने रहे और आज भी गर्मख्याली पंथक राजनीति के पैरोकार इसी पर रोटियां सेंकते हैं। गणतंत्र की मूल अवधारणा के तहत किसी नतीजे तक पहुंचा जाए तो यह सब खुद-ब-खुद बंद हो जाएगा और गणतंत्र को मिलतीं इन दोनों मसलों के जरिए चुनौतियां भी।

1966 के बाद पंजाब में हरित क्रांति की लहर आई और इसे लाने वाले शायद तब नहीं जानते थे कि भविष्य में यह लहर पंजाब की किसानी के लिए मुफीद साबित होगी या नागवार। सिर्फ मौके का फायदा देखा गया। ऐसा नहीं कि इसके नीति निर्धारक बेईमान व नौसिखिए थे। लेकिन दूरअंदेशी का एक अर्थ भविष्य के प्रभावों को देखना भी होता है। हरित क्रांति के दौर में सबकुछ हुआ लेकिन यह नहीं हुआ। आसन्न कृषि संकट हरित क्रांति की कुछ ऐसी विसंगतियों की भी देन है, जिनसे तब बचा जा सकता था। लेकिन दोहन के लालच में बहुत कुछ तबाह होता रहा और परिणाम अब मिल रहे हैं।

पंजाब का व्यापक कृषि संकट भी गणतंत्र के लिए कई बार चुनौती बना। किसानी लहर यहां सदा जारी रही। डेढ़ साल तक पहले दिल्ली बॉर्डर पर जो मोर्चा किसानों ने लगाया था- वह इसलिए भी काफी हद तक कामयाब रहा कि सूबे के किसानों अथवा अन्नदाताओं को लहरों-आंदोलनों का बहुत पुराना अनुभव है। याद रखिए कि यह देश का सबसे बड़ा किसान आंदोलन तो था ही, साथ ही गणतंत्र के लिए आजाद भारत के बाद की सबसे बड़ी चुनौती भी। उस गणतंत्र के लिए; जिसे आज फासीवाद की सोच वाले लोग अपने तौर-तरीकों से हांक रहे हैं।

किसान आंदोलन दरअसल गणतंत्र को चुनौती भी था और उसके जनसरोकारों को बचाने की जद्दोजहद भी। इसके लिए 700 से ज्यादा किसानों ने अपनी जान दे दी लेकिन जो खुद को गणतंत्र का सच्चा रखवाला घोषित करते नहीं थकते, वे भूल से भी शहीद किसानों का जिक्र तक नहीं करते। घालमेल-सा है कि वे गणतंत्र के तहत हैं या गणतंत्र उनके तहत?

हरित क्रांति के बाद पंजाब में नक्सली लहर आई। सुदूर नक्सलबाड़ी से। आज तक इस पर गंभीर विमर्श नहीं हुआ कि बीच के कितने राज्यों को लांघकर कैसे नक्सली लहर ने पंजाब में प्रवेश किया और यहां के लोकाचार में अपनी जड़ें जमाईं। वह लहर गणतंत्र को खुली चुनौती थी और तब गणतंत्र जिनकी बपौती बन गया था, उन्होंने इसे बेहद बेरहमी के साथ कुचला।

सांसद सिमरनजीत सिंह मान और अकाली दिग्गज प्रकाश सिंह बादल आतंकवाद के दौरान हुईं फर्जी पुलिसिया मुठभेड़ों की बात अक्सर करते रहे हैं लेकिन इस पर खामोशी क्यों अख्तियार करते हैं कि जब इस सूबे में नक्सली लहर जोरों पर थी तब कितने फर्जी पुलिस मुकाबले बनाए गए? बनाने वालों में तब के आईपीएस पुलिस अधिकारी सिमरनजीत सिंह मान थे और बनवाने वालों में प्रकाश सिंह बादल सरीखे मुख्यमंत्री। दोनों शासन-व्यवस्था का खास हिस्सा।

गणतंत्र को सलाम करना जिनके कर्तव्य पालन में शामिल था। प्रसंगवश, पंजाब में लगभग दो साल चली उस नक्सलवादी लहर ने परिवर्तन का जज्बा रखने वालों को नए सांस्कृतिक आयाम दिए जो आज भी बिसराए नहीं गए। संस्कृतिकर्मी गुरशरण सिंह, अजमेर सिंह औलख, जसवंत सिंह कंवल, अवतार पाश, लाल सिंह दिल, संतराम उदासी, अमरजीत चंदन, कॉमरेड अमोलक सिंह इत्यादि लोक-शब्द सितारे और संस्कृतिकर्मी उसी लहर की देन हैं।

इन सब का मानना रहा है कि गणतंत्र का मौजूदा स्वरूप गण से दूर, तानाशाह तंत्र के ज्यादा करीब कर लिया गया है। उन्होंने भी अपनी कलम के जरिए गणतंत्र को चुनौती दी और उसकी हिफाजत के लिए जंग भी लड़ी। इस अंतर्विरोध को नहीं समझा गया और नतीजतन पंजाब एक और लहर के हवाले हो गया।

अस्सी के दशक में संत जरनैल सिंह भिंडरांवाला की अगुवाई में यह लहर चली और कई चिराग बुझा कर भी नहीं थमी। पंजाब से गणतंत्र को यह पहली हिंसक चुनौती थी। इस लहर में हजारों बेगुनाह लोग आतंकवादियों या खाकी वर्दीधारियों के हाथों खेत रहे। जमीनी हकीकत है कि इस लहर ने शिद्दत से साबित किया था कि ‘गणतंत्र’ को एकदम कैसे गायब कर दिया जाता है। हुकूमत के जरिए।

उस लहर ने ऑपरेशन ब्लूस्टार कराया। प्रतिशोध में श्रीमती गांधी की हत्या हुई और इस एक हत्या के प्रतिशोध में ही हजारों सिखों को एकतरफा हिंसा का बेरहम शिकार होना पड़ा। (जिसे नवंबर-84 के सिख विरोधी दंगे कहा जाता है)। गणतंत्र बेगुनाह सिखों के लिए इंसाफ के उपयुक्त रास्ते नहीं तलाश पाया और आज भी 84 की वह हिंसा गणतंत्र की प्रासंगिकता को सवालिया घेरे में लिए हुए है।

अलगाववादी खालिस्तानी आंदोलन के बाद पंजाब में सत्ता के अंधे कहर की जनद्रोही लहर पनपी। कतिपय राजनेताओं ने इसकी अगुवाई की, जिनकी आंखों पर मोटे काले चश्मे चढ़े हुए थे और वे कभी गुंडई के लिए बदनाम थे लेकिन एकाएक पंजाब की शांति के मसीहा बन बैठे। यह लहर और उनका दौर कुछ समय के बाद इस सच को बेपर्दा करता हुआ चला गया कि आतंकवाद का सफाया खुद पंजाबी अवाम ने अपनी अमन और सद्भावना कायम रखने की रिवायत के चलते किया।

पंजाब में संगीत-गायकी की एक लहर आई जो अपने साथ अपसंस्कृति का नया मुहावरा भी लेकर आई। अपसंस्कृति का वह मुहावरा बेशुमार नौजवानों को बौद्धिक कंगाली आज भी दे रहा है। उसी लहर से नशों की लहर ने जन्म लिया और जो भस्मासुर बन गई है। दनदनाता गैंगस्टर कल्चर भी वस्तुतः उस लहर में से पैदा हुआ था जो अमरबेल की तरह चौतरफा फैल गया। नतीजा सबके सामने है।

इस बीच पंजाब में विदेश गमन की लहर चली। गणतंत्र बेरोजगारी और बाजारवाद की अलामतों को रोकने में नाकामयाब रहा तो लाखों की तादाद में युवा पंजाब से पलायन करने लगे। अधिकांश का रुख विदेश था। बेशक सभी को वहां मंजिल नहीं मिली। लेकिन इस लहर ने पंजाब में बेशुमार घर उजाड़ दिए। लोगों ने कर्ज लेकर अपने बच्चों को रोजी-रोटी के लिए विदेश भेजा लेकिन खुद क्या पाया, यह जानना हो तो पंजाब के कस्बों-गांवों का सूनापन भी देखिए और यह भी देखिए कि ‘खुदखुशी की लहर’ भी इसी लहर की देन है।

जी हां, खुदकुशी पंजाब में बकायदा लहर की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। कोई सूरज ऐसा नहीं चढ़ता और कोई शाम ऐसी नहीं ढलती जो आत्महत्या करने वालों की गिनती न करती हो। क्या यह गणतंत्र और उसके पैरोकार बने फिरते चंडीगढ़ से लेकर दिल्ली तक बैठे ऊंचे ओहदेदारों की ‘गण’ के प्रति बेरुखी का एक नागवार नतीजा नहीं है? खैर, अंत में यह कि पंजाब में इस वक्त कई समानांतर लहरें चल रही हैं।

विकल्प के नाम पर सियासी फरेब की लहर, नशों की लहर, गैंगस्टर लहर, खालिस्तान के मुद्दे को पहले की मानिंद पुनर्जीवित करने की लहर, स्थानीय प्रेस को विभिन्न हथकंडों के जरिए खामोश करने की लहर, अवैध तरीकों से विदेश जाने की लहर इत्यादि। यकीनन ये सब लहरें गणतंत्र के लिए बहुत बड़ी चुनौती हैं। जब तक शीर्ष स्तर पर इस चुनौती की जटिलताओं और समीकरणों को समझा जाएगा तब तक तो यहां गणतंत्र एकदम बेमानी और अप्रसागिक हो जाएगा। इन तमाम लहरों के बीच गंभीर बीमार तो वह हो ही गया है।           

(पंजाब से वरिष्ठ पत्रकार अमरीक की रिपोर्ट।)

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