मणिपुर और मेवात में चल रहा है ‘हिंदुओं के सैन्यीकरण’ का संघी प्रयोग

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मेरे पिछले लेख का शीर्षक था ‘मणिपुर और मेवात गुजरात के आगे का डिजाइन है’। इस कड़ी में कुछ चीजें रह गयी थीं और मणिपुर में हुए कुछ नये घटनाक्रम के बाद तस्वीर और साफ हो गयी है। लिहाजा उसके आईने में यह लेख बेहद जरूरी हो गया था। मणिपुर और मेवात के पीछे मोदी से ज्यादा संघ है। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं इसके पीछे कारण है। दोनों जगहों पर एक प्रयोग चल रहा है और दोनों तकरीबन एक किस्म का है। आप अगर आरएसएस के बारे में जानते हों तो उसका एक नारा हुआ करता है ‘सैनिकों का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण’। इस समय वह अपने इसी नारे के जमीनी प्रयोग के दौर में है। आइये इसको समझते हैं। पहले बात हिंदुओं के सैन्यीकरण पर। मणिपुर में हथियारों के लूटने की खबर आयी थी। और यह खबर बिल्कुल सच थी। लेकिन इसके पहलू अलग-अलग थे। 

मसलन पहाड़ी इलाकों में रहने वाला कुकी समुदाय एक दौर में नागा समुदाय के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष में रहा है। और परोक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर उसे केंद्र का समर्थन भी मिलता रहा है। लेकिन जब नागा विद्रोही उस रूप में देश के लिए खतरा नहीं रह गए तो 2008 में केंद्र के साथ कुकी के हथियारबंद समूहों का समझौता हुआ जिसके तहत उनके हथियार अलग-अलग स्थानों पर बनाए गए शस्त्रागारों में रखवा लिए गए थे। जहां पर स्टेट और हथियारबंद संगठनों दोनों का बराबर दखल रहता था। लेकिन अभी जब उनका मैतेइयों के साथ संघर्ष शुरू हुआ तो उन्होंने उन शस्त्रागारों में रखे गए हथियारों को लूट लिया। 

इसी तरह से मैतेई समुदाय के लोगों द्वारा भी हथियारों के लूटने की खबर आयी थी। लेकिन उसकी सच्चाई यह है कि उसे बाकायदा आधार कार्ड देख कर बांटा गया था जिसकी पुष्टि वहां के रहने वाले कई नागरिकों ने अलग-अलग मंचों पर की है। यह बात सही है कि मैतेई समुदाय में भी कुछ अतिवादी संगठन हैं लेकिन उस स्तर पर यह समुदाय हथियारबंद नहीं है। ऐसे में बाकायदा फैसला लेकर बीरेन सिंह सरकार ने इन हथियारों को बांटा। इस देश के भीतर अभी तक इस तरह की शायद ही कोई घटना हुई हो जिसमें संघर्ष को शांत करने की जगह सरकार ने जनता को और हथियारबंद करने का फैसला लिया हो। यानि सरकार ही चाहती है कि पूरा समाज आपस में लड़े। मैतेई और कुकी एक दूसरे से सड़क पर निपटें।

और सुरक्षा बलों की भूमिका इसमें महज मूकदर्शक की होगी। जैसा कि इन पंक्तियों के लेखक को चूराचांदपुर की सीमा पर सुरक्षा बल के एक जवान ने बताया था कि उसे किसी भी हालत में गोली चलाने का अधिकार नहीं है जब तक कि खुद उसकी जान पर न बन आए। यह चीज क्या दर्शाती है? यह बताती है कि समाज को हथियारबंद किया जा रहा है। आपने कई बार इस तरह की खबरें सुनी होंगी कि आरएसएस हिंदुओं को अपनी रक्षा के लिए खुद तैयार होने की बात करता है। इसके लिए पार्कों में लगने वाली उसकी शाखाओं में लड़ाई के लिए मार्शल आर्ट से लेकर तलवार, बंदूक और तमाम तरह के हथियारों को चलाने की ट्रेनिंग दी जाती है। और कई जगहों पर तो बाकायदा बंदूक के साथ स्वयंसेवक गणवेष में मार्च करते हुए देखे गए हैं। इसकी तस्वीरें गूगल कर कोई भी देख सकता है।

दरअसल ये उसी का जमीनी संस्करण है जिसमें ‘हिंदू मैतेइयों’ को हथियारबंद कर ‘कुकी ईसाइयों’ के सामने लगा दिया गया है। इसमें सुरक्षा बल के जवान तभी हस्तक्षेप करेंगे जब कभी मैतेइयों को कुछ नुकसान होगा। और इसके पहले वह मैतेइयों के लिए बैकअप की भूमिका में बने रहेंगे। चुराचांदपुर और विष्णुपुर की सीमा पर एक बार फिर मैतेइयों द्वारा हथियारों की लूट की खबर से यह बात और पुख्ता हो गयी है। इस तरह से हिंदू मैतेइयों के पक्ष में खुल कर खड़ी बीजेपी की बीरेन सिंह सरकार ‘हिंदुओं’ का सैन्यीकरण कर रही है। और पूरे समाज के लिए कैसे हथियार जरूरी है इसका अहसास दिलाया जा रहा है। इसीलिए मणिपुर गुजरात से आगे खड़ा हो जाता है। इसीलिए मोदी जी तीन महीने तक चुप रहे। क्योंकि यहां आरएसएस और बीजेपी का एक खुला प्रयोग होना था। जिसको इस समय संपादित किया जा रहा है। 

और दूसरा प्रयोग मेवात में किया गया। यहां पहले वीएचपी और बजरंग दल को मोर्चे पर लगाया गया। और इस बात की पूरी गारंटी की गयी कि मुस्लिम बहुल इलाके मेवात से निकाली जाने वाली यात्रा पूरी तरह से हथियारबंद हो। मोनू-मानेसर और बिट्टू बजरंगी को बाकायदा माहौल को भड़काने और उसे बड़े स्तर पर मुद्दा बनाने के लिए छोड़ दिया गया। और इस तरह से जब एक तरफ इस तरह की तैयारी होगी तो स्वाभाविक है कि उसके रास्ते में पड़ने वाले दूसरे समुदाय और तबकों की मजबूरी वश अपनी आत्मरक्षा में ही सही उस दिशा में न केवल सोचना होगा बल्कि बढ़ना भी होगा। दूसरा समुदाय भी उसी तरह से उतरा। और नतीजा सामने है। इसमें पुलिस की भूमिका संदिग्ध नहीं बल्कि बिल्कुल साफ रही। उसे न तो पहले तैयारी करनी थी और न ही आयोजन के दौरान कुछ हस्तक्षेप करना था। बल्कि ऑपरेशन के दौरान अगर वीएचपी और बजरंग दल कमजोर पड़ें तो उन्हें उनके बैकअप के तौर पर ज़रूर खड़ा होना था। जैसी कि कुछ तस्वीरें आयीं जिसमें वीएचपी कार्यकर्ता फायरिंग कर रहे हैं और पुलिस हथियारों के साथ उनके पास खड़ी है। 

इस तरह से ‘हिंदुओं’ को पूरे राज्य के संरक्षण में इस हमले की जिम्मेदारी दी गयी थी। और सामने से भी हमला हो इसकी गारंटी जरूरी थी। क्योंकि हिंदुओं में भय पैदा करना बहुत जरूरी होता है तभी वह हथियारबंद होने के बारे में सोचेंगे। और इस तरह से दोनों पक्ष अपनी असुरक्षा और खासकर ऐसे दौर में जबकि पुलिस उदासीन भूमिका में रहे, तो उनका हथियारबंद होना और जरूरी हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में अगर आपरेशन में शामिल हिंदू समुदाय के युवकों का मनोबल थोड़ा गिर गया हो तो उसे उठाने और मुसलमानों के मनोबल को गिराने के लिए घटना के बाद मुसलमानों के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई के जरिये इसको पूरा किया जाता है। जैसा कि इस समय मेवात में दिख रहा है। एकतरफा तौर पर आरोपी के नाम पर मुसलमान युवकों की गिरफ्तारी हो रही है और बुल्डोजर के जरिए गरीब मुसलमानों के घर गिराए जा रहे हैं। यानी पूरी स्टेट मशीनरी को मुसलमानों के खिलाफ उतार दिया गया है। यह ‘हिंदुओं के सैन्यीकरण’ का दूसरा प्रयोग है।

इसका एक और प्रयोग सेना के जरिये किया जा रहा है। अग्निवीर योजना जब आयी तो लोगों को लगा कि यह सरकार की सेना में रोजगार के क्षेत्र में कटौती का हिस्सा है। या फिर खर्चे को कैसे कम किया जाए उस मंशा से इसे तैयार किया गया है। लेकिन सच यह नहीं है। सच यह है कि इसके पीछे आरएसएस की पूरी योजना है। और वह ‘सैनिकों के हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यीकरण’ की अपनी योजना को इसके जरिये ठोस रूप दे रहा है। 

इसमें उसे दोनों चीजें मिल रही हैं। मसलन अगर यह योजना आगे बढ़ी तो बहुत कम सालों में सारे सैनिक ‘हिंदू’ बन जाएंगे। क्योंकि चार-चार साल की नौकरी के बाद सेना के बड़े हिस्से को इससे कवर कर लिया जाएगा। अब यह जांच का विषय ज़रूर है कि नई भर्तियों में आरएसएस क्या भूमिका निभा रहा है। या फिर कांवड़ियों की पैदल चलने वाली जमात के रिक्रूटमेंट के भरोसे ही उसे छोड़ दिया गया है। लेकिन इसके साथ ही हिंदुओं के सैन्यीकरण का उसका मंसूबा भी पूरा हो रहा है। क्योंकि महज चार साल की नौकरी के बाद वह सैनिक समाज का हिस्सा होगा और इस तरह से अगर प्रक्रिया आगे बढ़ी तो समाज का एक बड़ा हिस्सा सैन्यीकृत हो जाएगा। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आरएसएस जो अपनी शाखाओं में नहीं कर पाया उसको अब इस योजना के जरिये पूरा कर रहा है।

और इसी से जुड़ा एक दूसरा पहलू भी है। आप देखेंगे कि इन सब मामलों में कहीं भी आरएसएस का नाम सीधे नहीं आ रहा है। जबकि पूरा खेल उसी का है। वह पर्दे के पीछे से इस पूरे खेल को नियंत्रित कर रहा है। यहां तक कि शुरुआती दौर में उसने अपने इन प्रयोगों में आरएसएस बैकग्राउंड से आए मुख्यमंत्रियों का भी इस्तेमाल नहीं किया। उसने सबसे पहले योगी आदित्यनाथ को लगाया जो दूसरी पार्टी से आए थे। असम में उसने हेमंत विस्व सर्मा का इस्तेमाल किया जो कांग्रेस की पृष्ठभूमि से हैं और कट्टरता के मामले में वह किसी संघी का भी कान काट रहे हैं।

मणिपुर में बीरेन सिंह हैं जिनकी पृष्ठभूमि भी कांग्रेस की है। लेकिन ये अपने को और ज्यादा हिंदू साबित करने के लिए किसी संघ के स्वयंसेवक से भी बड़े स्वयंसेवक बन गए हैं। यूपी में आयी बुल्डोजर स्कीम भी किसी योगी की देन नहीं है यह आरएसएस की सोच की उपज है जिसका बारी-बारी से जरूरत पड़ने पर दूसरी बीजेपी सरकारें इस्तेमाल कर रही हैं। ऐसे में आरएसएस को अभी खुल कर सामने अपने स्वयंसवकों के साथ आना बाकी है। और वह तब सामने आएगा जब उसे लगेगा कि पूरे हिंदू समाज को सैन्यीकृत किया जा चुका है और अब फाइनल कॉल देने का समय आ गया है। हालांकि संघी गोदी मीडिया ‘फाइनल सोल्यूशन’ की बात करने लगा है। लेकिन लगता है कि आरएसएस अभी उसके लिए तैयार नहीं है। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।) 

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