आरएसएस का हिंदुत्व की प्रयोगशाला में जातिगत जनगणना पर स्वीकृति एक कूटनीतिक पहल 

Estimated read time 1 min read

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) इस समय अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष की दहलीज पर खड़ा है। 1925 में अपनी स्थापना के साथ आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी विवादास्पद भूमिका के साथ शुरुआत करते हुए सरसंघ प्रमुखों की वैचारिकी ने 1947 में मिली आजादी से लेकर भारतीय संविधान और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं, जिनको लेकर आज भी उसे अक्सर लीपापोती करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। 

2014 से आरएसएस की राजनीतिक ईकाई भाजपा का देश में राजनीतिक प्रभुत्व बना हुआ है, और इन 10 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र की दशा-दिशा पर उसने निर्णायक प्रभाव डाला है। 

लेकिन 2024 आम चुनाव में न सिर्फ मोदी के नेतृत्व में भाजपा पूर्ण बहुमत से पीछे रह गई, बल्कि हिन्दुत्वादी विचारधारा के आधार पर हिंदू समाज को एकजुट बनाये रखने की उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को भी गहरी क्षति पहुंची है।  

पिछले दस वर्षों से देश में हिंदू-मुस्लिम विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति को आधार बनाकर न सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय को लगातार निशाने पर रखा गया, बल्कि बहुसंख्यकवाद के शोर को आतंक का पर्याय बनाकर भारतीय लोकतंत्र से धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और लोकतंत्र की अवधारणा को लगभग त्याज्य की श्रेणी में डाल दिया गया था। 

इसके निशाने पर सिर्फ मुसलमान ही रहे हों, ऐसा नहीं है। देशभर में अनुसूचित जातियों, जनजातियों, वंचितों और आम तौर पर महिलाओं के खिलाफ अत्याचार, यौन शोषण की घटनाओं में भी गुणात्मक इजाफा देखने को मिला है।

शिक्षा, तर्क और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के बजाय गाय, गोबर और गौमूत्र की महिमा को आम लोगों के द्वारा ही नहीं बल्कि शिक्षा संस्थानों के प्राचार्यों और वैज्ञानिकों तक ने जमकर बढ़ावा दिया। 

सरकारी नौकरियों की संख्या में भारी गिरावट के इस दौर में हमने देखा है कि किस प्रकार उच्च शिक्षण संस्थाओं में उपकुलपति से लेकर प्राध्यापकों की नियुक्ति में आरएसएस की भूमिका लगभग सर्वव्यापी हो चुकी है।  

असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैंपस से लेकर विधानसभाओं, लोकसभा ही नहीं न्यायपालिका तक में स्थान मिलना खत्म होने लगा। इलेक्टोरल बांड के माध्यम से चुनावी चंदे को राजनीति में पारदर्शिता लाने का क्रांतिकारी पहल बताया गया। 

राफेल सौदे में कॉर्पोरेट की एंट्री कर तीन गुने दाम पर रक्षा सौदे की खरीद को देशभक्ति का उदाहरण बताया गया। नोटबंदी कर छोटे और मझौले व्यवसाय की कमर तोड़ दी गई, लेकिन आम लोगों को समझा दिया गया कि इससे देश में काला धन, आतंकवाद की कमर टूट गई है। 

कोविड-19 महामारी के दौरान भारत में विश्व का सबसे भीषणतम लॉकडाउन लगाया गया, जिसके चलते नोटबंदी के बाद दोबारा एक बार फिर लाखों छोटे और मझौले उद्योग धंधों को अपना व्यवसाय ठप करना पड़ा और करोड़ों प्रवासी मजदूरों को पैदल ही अपने गांवों की ओर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। 

इन सबका कुल नतीजा यह हुआ कि एक तरफ जहां बड़ी पूंजी और क्रोनी कैपिटल के मुनाफे में दिन दूनी-रात चौगुनी की वृद्धि हुई, वहीं दूसरी तरफ करोड़ों की संख्या में निम्न मध्य वर्ग और असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत काम करने वाले श्रमिक, स्वरोजगार हमेशा के लिए बंद हो गये। 

गुजराती व्यापारियों की देखा-देखी देश ने उद्योग-धंधों के माध्यम से कमाई करने के बजाय चीन से सस्ते दामों पर आयात कर आत्मनिर्भर भारत बनने की संभावना को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी।  

और यह सब हुआ उसी आरएसएस की सरपरस्ती में, जिसके प्रवचनों में आप हमेशा स्वदेशी, भारतीयता और अखंड भारत के स्वप्न को अक्सर दोहराते पाते हैं। असल में आरएसएस की वैचारिकी हमेशा से इसी प्रकार के विरोधाभास से भरी पड़ी है।

इसका एक मुज़ाहिरा कल एक बार फिर से तब देखने को मिला जब केरल के पलक्कड़ में अपने तीन दिवसीय अखिल भारतीय समन्वय बैठक के आखिरी दिन आरएसएस की ओर से उनके प्रचार प्रमुख सुनील आम्बेकर ने जातिगत जनगणना को लेकर एक विचित्र विरोधाभासी बयान दे दिया।   

इस बयान को पढ़कर जातिगत जनगणना के पक्षकार बल्लियों उछल रहे हैं, और उनका दावा है कि आरएसएस ने जातिगत जनगणना की बात को सिद्धांततः स्वीकार कर सितंबर 2024 में होने वाली राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत जनगणना कराने के लिए आधार तैयार कर दिया है। 

लेकिन आरएसएस के इतिहास और उसकी बुनावट के बारे में जिसे थोड़ी भी समझ है, वह आसानी से समझ सकता है कि इस मुद्दे पर संघ की स्वीकृति उसके द्वारा स्वंय के अस्तित्व को नकारना हुआ। भला कोई भी शक्ति अपनी ही वैचारिकी के खिलाफ कैसे खड़ी हो सकती है? इसके लिए हमें उस बयान को बारीकी से परखना होगा। 

जातिगत जनगणना पर आरएसएस की हां के साथ किंतु-परंतु 

प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए आरएसएस के प्रचार प्रमुख, सुनील आम्बेकर ने कहा, “आरएसएस के विचार में, वे जातियां जो पिछड़ गई हैं, को लक्षित करके सभी कल्याणकारी कार्यों को करते हुए, यदि सरकार को किसी समय संख्या की जरूरत महसूस होती है, तो यह एक सुविचारित व्यवस्था रही है। लेकिन इस मुद्दे चुनावों में राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।”

सुनील आम्बेकर ने आगे कहा, “हिंदू समाज के तौर पर जाति और जाति संबंध एक संवेदनशील मुद्दा है। यह हमारी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए एक अहम मुद्दा है। इसे बेहद संवेदनशीलता के साथ निपटना चाहिए और चुनावी जोड़-तोड़ या चुनावी राजनीति के आधार पर इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए”। 

इसके साथ ही सुनील आम्बेकर सामजिक समरसता और समाज को एकजुट करने की बात को भी प्रेस कांफ्रेंस में मजबूती से उठाते हैं। आरएसएस की यह प्रस्थापना उसके राजनीतिक प्रतिनधि भाजपा की प्रस्थापना से भिन्न है, जो अभी तक जातिगत जनगणना को हिंदू समाज में विभाजनकारी बता रही थी। 

वास्तविकता तो यह है कि कल तक आरएसएस की भी यही वैचारिकी थी, जिसे उसने बेहद चतुराई से बदल दिया है। जातिगत जनगणना के प्रश्न पर आरएसएस की सहमति के पीछे कई किंतु-परंतु लगे हुए हैं, जिसे फिलहाल बेहद सफाई के साथ छिपा दिया गया है। 

मनुवादी व्यवस्था के उसके कट्टर समर्थकों के लिए फिलहाल दुविधा की स्थिति है, और न्यूज़ चैनलों पर उसकी वैचारिकी को आगे बढ़ाने वाले सिद्धांतकार इस नई सैद्धांतिकी के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश में लगे देखे जा सकते हैं। 

आरएसएस ने अचानक से यह गुलाटी क्यों मारी है? इसे समझना कोई राकेट साइंस नहीं है। संघ को बखूबी पता है कि हिन्दुत्वादी राजनीति और क्रोनी कैपिटल को बढ़ाने वाली उसकी दस वर्षीय राजनीति ने देश को किस कंगाली की हालत पर ला खड़ा कर दिया है।

उसके तुरुप के इक्के, मोदी है तो मुमकिन है, के चेहरे पर इस बार आम चुनाव में उसकी वैचारिकी का नामलेवा नहीं बचा था।  अब कई शोधकर्ताओं ने इस तथ्य की ओर देश का ध्यान खींचा है कि सात चरणों में चले इस चुनाव में चुनाव आयोग ने करीब 5 करोड़ वोटों को 5 से लेकर 11 दिनों के अंतराल में बढ़ी संख्या बताकर कम से कम 79 लोकसभा चुनाव के नतीजों को प्रभावित किया है। 

इसी प्रकार, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को ऐन चुनाव से पहले उसके बैंक खातों तक पहुंच से वंचित करने से लेकर, दो-दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ईडी की जांच के तहत जेल के सींखचों के पीछे रखने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर ईडी सीबीआई और आयकर विभाग की मदद से चुनाव परिणामों को प्रभावित करने का काम किया गया, अन्यथा 2024 का चुनाव परिणाम काफी भिन्न होता। 

यही कारण है कि चुनाव हारकर भी इंडिया गठबंधन का बर्ताव किसी विजेता की तरह है, और वह अपने चुनावी घोषणापत्र एवं जातिगत जनगणना के मुद्दे पर देश की 90% आबादी को अपने पीछे गोलबंद करने में कामयाब दिख रही है। वहीं दूसरी तरफ, एनडीए गठबंधन के घटक दल जो भले ही पीएम मोदी की सरपरस्ती में अभी भी भाजपा के तीसरे कार्यकाल में गठबंधन सरकार में शामिल हैं।

लेकिन यह 10 वर्ष में पहली बार है कि संसद में भाजपा की हर पहल पर एनडीए में गहरे मतभेद उभर रहे हैं, और हर बार मोदी मंत्रिमंडल को अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। बिहार में सहयोगी दल, जेडीयू, लोजपा और जीतन राम मांझी की पार्टियां उन्हीं सामजिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनकी आवाज को इंडिया गठबंधन बुलंद कर रहा है। 

कमोबेश यही हाल उत्तर प्रदेश में भी है। अपना दल, राष्ट्रीय लोकदल या संजय पासवान जैसे छोटे क्षेत्रीय दलों के बगैर भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के ख्वाब देख पाना लगभग असंभव है।

फिलहाल तो इनके साथ रहने के बावजूद राज्य में ओबीसी, दलित एवं आदिवासी तबकों का बड़ा हिस्सा छिटककर इंडिया गठबंधन के पाले में जा चुका है, जो जून 2024 के बाद और भी बड़े पैमाने पर खूंटा तोड़ने के लिए बेकरार है।  

मंडल बनाम कमंडल से सोशल इंजीनियरिंग की काट के बाद एक बार फिर बैतलवा डाल पर 

1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू किये जाने के बाद जिस एक राजनीतिक दल ने इसका जमकर विरोध किया था, वह पार्टी थी भारतीय जनता पार्टी। आरएसएस और भाजपा को इसका तात्कालिक लाभ भी हासिल हुआ। इससे पहले तक बनिया पार्टी कही जाने वाली भाजपा और आरएसएस को ब्राह्मण, क्षत्रिय सहित अन्य अगड़ी जातियों का पूर्ण समर्थन मिला। 

लेकिन मंडल की राजनीति का दायरा लगातार बढ़ रहा था, जिसकी काट के लिए तत्कालीन पार्टी प्रमुख लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकालने का फैसला किया। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के उद्येश्य के पीछे असली मकसद मंडल की शक्तियों को पस्त करने और पिछड़ों एवं अनुसूचित जातियों को हिंदुत्व की विचारधारा के छतरी तले लाने की योजना थी।

इसके लिए हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को लगातार निशाने पर लिया गया।  छद्म धर्मनिरपेक्षता शब्द की ईजाद की गई और इसके लिए कांग्रेस को निशाने पर लेते हुए मुस्लिमों, धर्मनिरपेक्षता, देश के संघीय ढांचे को निशाने पर लिया गया था। 

भाजपा और आरएसएस ने पिछड़ों और दलितों के लिए सामाजिक न्याय की जगह सोशल इंजीनियरिंग की ईजाद की। ओबीसी समुदाय के भीतर यादव जाति को निशाने पर लेकर अति पिछड़ों को गोलबंद करने की सोशल इंजीनियरिंग पर काम किया गया। 

इसी प्रकार दलित समुदाय में जाटव के खिलाफ गोलबंदी कर गैर जाटव समुदाय को हिंदुत्व के फोल्ड में लाकर अगड़ों, अति पिछड़ों और महादलित समुदाय का एक ऐसा अनोखा संगम तैयार किया गया, जिसके बल पर राजनीतिक सत्ता पर अपने पूर्ण बहुमत को हासिल कर पाना भाजपा के लिए बायें हाथ का खेल बन गया, जिसका सीधा लाभ देश की बड़ी पूंजी को संसाधनों की खुली लूट में मिला।  

इस बात को कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने तब समझा जब तक भाजपा अपना दो कार्यकाल पूरा करने के करीब थी। इस बार सामाजिक न्याय की शक्तियां 90 के दशक की तुलना में काफी परिपक्व नजर आती हैं, क्योंकि सरकारी नौकरियों में उन्हें बार-बार अयोग्य बताकर बाहर किया जा रहा है।

संघ लोक सेवा आयोग तक की परीक्षाओं के माध्यम से होने वाली भर्तियों को परे कर लेटरल एंट्री के माध्यम से सरकार के भीतर उच्च पदों पर कॉर्पोरेट के नुमाइंदों की भर्ती की जा रही है। जाहिर है, दूध का जला इस बार फूंक मार-मार कर छाछ को पीएगा। 

आरएसएस के बदले सुरों को भी घोर शंका की निगाह से देखा जायेगा और देश दम साधे उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करेगा। जाति जनगणना की मांग को स्वीकार करने के बाद अगला कदम देश के आर्थिक संसाधनों की मैपिंग और आबादी के आधार पर हिस्सेदारी का मुद्दा ही वह वास्तविक प्रश्न है, जिसे मंजूर कर पाना सत्ता पर काबिज प्रभु वर्ग के लिए खून के आंसू पीने के समान है।

अब इन प्रभु वर्ग की वास्तविक रहनुमाई कौन सा दल कर रहा है, इसका खुलासा अगले दौर की लड़ाई में देश के सामने स्वंय हो जाने वाला है। असली प्रश्न यह है कि क्या संघर्ष को इस मुकाम तक ले जा पाना संभव भी है या यह अभी भी दूर की कौड़ी है?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author