द्विज बौद्धिकों के मुकाबले हैनी बाबू और साई बाबा ने चुकाई है कुछ ज्यादा कीमत

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दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के अध्यापक हैनी बाबू मुसलीयारवेटिल थारायिल (हैनी बाबू, 54 वर्ष) को नेशनल इन्विस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने गिरफ्तार कर लिया है। एनआईए ने कहा है कि उन्हें भी भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किया गया है। इस प्रकार, वे इस मामले में गिरफ्तार होने वाले 12 वें बुद्धिजीवी हो गए हैं, जिनमें से कम से कम आधे पिछड़े अथवा दलित समुदाय से आते हैं।

इस मामले में पहले गिरफ़्तार होने वालों में  रोना विल्सन, शोमा सेन, सुधीर धावले, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, पी वरवर राव, सुधा भारद्वाज, वरनोन गोंसालविस, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबडे और अरुण फेरेरा शामिल हैं।

उपरोक्त में से कई की तरह हैनी बाबू का भी भीमा-कोरेगांव में आयोजित यलगार परिषद के कार्यक्रम से कोई सीधा संबंध नहीं था। न वे इसके आयोजकों में थे, न वहां आमंत्रित थे, न ही उनका इस आयोजन से कोई जुड़ाव था। लेकिन उनकी गिरफ्तारी इस मामले में दिखाई गई है। हालांकि अगर ऐसा कोई जुड़ाव होता, तब भी वह कोई अपराध नहीं था।

प्रोफेसर हेनी बाबू।

भीमा-कोरे गांव में हर साल होने वाला वह आयोजन भारत की सबसे वंचित आबादी के आत्मसम्मान का आयोजन रहा है, जो हमारे देश में सामाजिक-लोकतंत्र के निर्माण की प्रक्रिया का संकेत है। लेकिन जिस तरह से उसे शहरी मध्यमवर्ग के समक्ष देशद्रोही गतिविधि के रूप में प्रसारित किया गया, वह अपने आप हैरतअंगेज़ और बहुत खौफनाक है।

हैनी बाबू को छह दिन लंबी पूछताछ के बाद गिरफ्तार करने के बाद एनआईए ने प्रेस को कहा है कि “आरोपी हैनी बाबू नक्सली गतिविधियों और माओवादी विचारधारा का प्रचार कर रहे थे और इस मामले में गिरफ्तार अन्य अभियुक्तों के साथ सह-साजिशकर्ता थे।”

इससे पहले, जून 2018 में पुणे पुलिस ने कहा था कि भीमा-कोरेगांव मामले में  गिरफ्तार रोना विल्सन से एक पत्र (संभवत: पंपलेट) बरामद किया गया है, जिसमें  “एक संदिग्ध अंडर कवर माओवादी नेता” कॉमरेड साई (जीएन साई बाबा) के लिए समर्थन जुटाने की अपील की गई है। पुलिस का कहना था कि चूंकि उस पत्र में एक जगह “कामरेड एच.बी.” का उल्लेख है, इसलिए उन्हें संदेह है कि वे एच.बी. – हैनी बाबू ही हैं। इसी सबूत के आधार पर सितंबर, 2019 में पुणे पुलिस ने हैनी बाबू के नोएडा स्थित घर पर छापा मारा था तथा उनका लैपटॉप, पेन ड्राइव, ईमेल एकाउंट का पासवर्ड व दो किताबें और साई बाबा की रक्षा और रिहाई की मांग के लिए गठित समित द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकाएं जब्त की थीं। पुलिस द्वारा जब्त की गई दो किताबें थीं From Varna to Jati:Political Economy of Caste in Indian Social Formation (यलवर्थी नवीन बाबू ) और  Understanding Maoists: Notes of a Participant Observer from Andhra Pradesh (एन. वेणुगोपाल)। इनमें से पहली किताब जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे  यलवर्थी नवीन बाबू की एम.फिल. की थिसिस है, जिसे उन्होंने पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया है, जबकि दूसरी किताब आंध्रप्रदेश के माओवादी आंदोलन का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करती है।

विभिन्न अखबारों में प्रकाशित एनआईए के बयानों से जाहिर है कि हैनी बाबू की गिरफ्तारी का आधार जीएन साई बाबा की रक्षा और  रिहाई के लिए गठित समिति में सक्रियता के कारण हुई है, जिसका भीमा-कोरेगांव की घटना से कोई संबंध नहीं है।

इसलिए इस प्रकरण में यह समझना आवश्यक है कि साई बाबा और हैनी  बाबू का सामाजिक और बौद्धिक रिश्ता क्या है।

केरल के हैनी बाबू दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं जबकि आंध्रप्रदेश के साईबाबा भी आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने तक इसी यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। शारीरिक रूप से 90 प्रतिशत अक्षम साई बाबा को 2014 में प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।

मार्च, 2017 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिला न्यायालय ने साई बाबा, जेएनयू के शोधार्थी हेम मिश्र और पत्रकार प्रशांत राही को देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिसके बाद से वे जेल में बंद हैं।

हैनी बाबू “राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए समिति” के प्रेस सचिव हैं। इस नाते वे साई बाबा की रिहाई के जारी होने वाली अपीलों, प्रदर्शनों आदि में भी सक्रिय रहते थे। इससे संबंधित उनके प्रेस नोट निरंतर मीडिया-संस्थानों को मिलते थे।

मार्च, 2019 में साई बाबा की रक्षा और बचाव के लिए  एक 17 सदस्यीय समिति का गठन किया गया था, जिसमें प्रोफेसर एके रामकृष्णन, अमित भादुड़ी, आनंद तेलतुंबडे, अरुंधति राय, अशोक भौमिक, जी. हरगोपाल, जगमोहन सिंह, करेन गेब्रियल, एन रघुराम, नंदिता नारायण, पीके विजयन, संजय काक, सीमा आजाद, कृष्णदेव राव, सुधीर ढवले, सुमित चक्रवर्ती और विकास गुप्ता थे। हालांकि इस समिति के सदस्यों में हैनी बाबू का नाम नहीं था, लेकिन यह सच है कि वे साई बाबा के बिगड़ते स्वास्थ्य और उन्हें जेल में दी जा रही प्रताड़ना से लगातार चिंतित थे। संभवत: इसी  समिति ने साई बाबा के मामले से संबंधित जानकारी देनी वाली वे पुस्तकाएं प्रकाशित की थीं, जिन्हें  हैनी बाबू के घर पर छापे के दौरान पुलिस ने जब्त किया था।

दक्षिण भारत से आने के नाते, एक ही यूनिवर्सिटी, एक ही विषय का शिक्षक होने के नाते भी हैनी बाबू का साई बाबा के पक्ष में खड़ा होना होना अनूठी बात नहीं थी।

लेकिन उनके बीच एक और रिश्ता था, जिस पर एनआईए की नजर भले ही रही हो, लेकिन जिस तबके के लिए वे काम करते रहे हैं, उनमें से अधिकांश को इससे कोई लेना-देना नहीं है।

साई बाबा और हैनी बाबू अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से आते हैं तथा इस तबके को उसका जायज हक दिलाने के लिए इन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी है।

आंध्रप्रदेश के अमलापुरम् में जन्मे जीएन साई बाबा का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा था, उनके घर में बिजली तक नहीं थी। छुटपन में उनके पिता के पास तीन एकड़ जमीन थी, जिसमें धान की फसल लहलहाया करती थी, लेकिन साई बाबा के 10 वीं कक्षा में पहुंचने से पहले ही वे खेत कर्ज देने वाले साहूकार की भेंट चढ़ गए थे।

विलक्षण मेधा के धनी साई बाबा ने अपनी पढ़ाई फ़ेलोशिप और पत्नी वसंथा (उस समय मित्र) के सहयोग से पूरी की थी। वसंथा से उनकी मित्रता 10 वीं कक्षा में ही गणित का होम-वर्क करते समय हुई थी। साई बाबा कॉलेज में नामांकन के लिए वसंथा द्वारा उपलब्ध करवाए गए टिकट के पैसे से जब पहली बार हैदराबाद गए तो उन्होंने पहली बार ट्रेन देखी। बचपन से लेकर युवावस्था का एक लंबा चरण पार हो जाने तक उनके पास व्हील चेयर तक नहीं थी और वे घुटनों के बल पर जमीन पर घिसट कर चला करते थे। 2003 में दिल्ली आने के बाद उन्होंने पहली बार व्हील चेयर खरीदी। दिल्ली ने उन्हें बहुत कुछ दिया। उनकी प्रतिभा पर देश-विदेश के अध्येताओं की नजर गई और उनके शोध-पत्रों को विश्व के अनेक प्रतिष्ठित मंचों पर जगह मिली। उन्होंने इस दौरान पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के लिए आवाज उठाना जारी रखा तथा कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत के राज्याें में जारी विभिन्न आंदोलनों में भागीदारी की।

एक अखबार को दिए गए साक्षात्कार में साई बाबा ने बताया था कि हैदराबाद में “मेरा राजनीतिक जीवन मंडल आयोग और आरक्षण की लड़ाई से शुरू हुआ।” जिसमें वसंथा  भी उनके साथ शामिल थीं। उसी दौरान मार्च, 1991 में उन्होंने विवाह भी किया। वह लड़ाई वे आजीवन लड़ते रहे।

इसी प्रकार हैनी बाबू ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग के हितों की अनेक  बड़ी लड़ाइयां, जिस प्रकार बिना किसी आत्मप्रचार के, बहुत धैर्य और परिश्रम से लड़ीं और जीतीं वह अपने आप में एक मिसाल है। 

उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 2006 में ही 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया था, लेकिन  2016 तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों ने अन्य पिछड़ा वर्गों के विद्यार्थियों का नामांकन नहीं करने के लिए अघोषित रूप से तरह-तरह के नियम बना रखे थे। नतीजा यह होता था कि सामान्य वर्ग में ओबीसी के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का नामांकन तो दूर, 27 प्रतिशत आरक्षित सीटों में आधी से अधिक सीटें भी खाली रह जाती थीं तथा उन पर बाद में सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों का नामांकन कर लिया जाता था। 

हैनी बाबू ने इसे रोकने के लिए दलित एवं पिछड़े वर्गों तथा अल्पसंख्यक समुदायों के अध्यापकों और विद्यार्थियों के फोरम “एकैडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस” के तहत सक्रिय रहते हुए अथक परिश्रम किया। उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत सैकड़ाें आवेदन किए, अपील पर अपीलें की और उन आंकड़ों का संधान कर दिल्ली यूनिवर्सिटी में आरक्षण की स्थिति की वह तस्वीर पेश की, जिसे देखकर हम सब हैरान रह गए। उन दिनों मैं बहुजन मुद्दों पर केंद्रित एक मासिक पत्रिका का संपादन किया करता था।

हमने अपनी पत्रिका में उनके द्वारा पेश किए गए आंकड़ों को प्रकाशित करते हुए शीर्षक दिया था – “ओबीसी सीटों की लूट”! ओबीसी आरक्षण के नाम पर केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में सरकार ने विद्यार्थियों की भर्ती 54 प्रतिशत बढ़ा दी थी, ताकि अनारक्षित वर्ग को जाने वाली सीटों में कमी न हो और उन्हें इसके लिए सैकड़ों करोड़ रूपए का अनुदान भी मिला था, लेकिन हैनी बाबू द्वारा जमा किए गए आंकड़े साफ तौर पर बता रहे थे इसका फायदा वास्तव में द्विज समुदाय से आने वाले विद्यार्थियों को हो रहा था और अन्य पिछड़ा वर्ग के हजारों विद्यार्थियों को साल दर साल उनके वाजिब हक से वंचित किया जा रहा था।

हैनी बाबू द्वारा जमा किए गए इन आंकड़ों को उनके संगठन ने ओबीसी की राजनीति करने वाले नेताओं तक पहुंचाया, जिससे उसकी गूंज संसद में भी पहुंची। हैनी बाबू की इस मुहिम में उनके संगठन के एक और पिछड़े वर्ग से आने वाले शिक्षक केदार मंडल निरंतर शामिल रहते थे। केदार भी साई बाबा की तरह शारीरिक रूप से अक्षम हैं। दो वर्ष पहले उन पर भी हिंदू भावनाओं के अपमान के आरोप में मुकदमा दर्ज करवाया गया था तथा उन्हें नौकरी से निलंबित कर दिया गया था।

हैनी बाबू द्वारा संकलित उन आंकड़ों के प्रकाश में आने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों के लिए ओबीसी सीटों की लूट जारी रखना संभव नहीं रह गया। 2016 के बाद से हर साल दूर-दराज क्षेत्रों से आने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के हजारों अतिरिक्त विद्यार्थी देश के दिल्ली यूनिवर्सिटी के विभिन्न प्रतिष्ठित कॉलेजों में नामांकन पाकर अपना भविष्य संवार रहे हैं। लेकिन उनमें से बहुत कम को ही हैनी बाबू के नाम की भी जानकारी होगी।

इसी प्रकार 2018 में जब केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए आरक्षण रोस्टर में बदलाव कर दिया गया, जिससे दलित व अन्य पिछड़ा वर्ग की हजारों सीटें कम हो गईं तो उसके विरोध को व्यवस्थित करने में हैनी बाबू का बहुत बड़ा योगदान था। इन संघर्षों ने उन्हें आरक्षण संबंधी जटिल नियमों का इनसाक्लोपीडिया बना दिया था। जिसे भी इससे कोई भी जानकारी चाहिए होती, वह उन्हें ही फोन लगाता और वे हरसंभव जानकारी देते। उन्होंने उस दौरान विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा जारी विज्ञापनों में दलित, ओबीसी और आदिवासी सीटों की गणना करके बताया कि किस प्रकार रोस्टर में होने वाला यह परिवर्तन इन वर्गों के हितों पर भारी कुठराघात है। उस लड़ाई में भी बहुजन तबक़ों की जीत हुई और सरकार को आरक्षण बहाल करने के लिए नए नियम बनाने पड़े।

जीएन साईंबाबा।

बहरहाल, हैनी बाबू और साई बाबा जैसे लोगों द्वारा किए गए संघर्ष और उनकी प्रताड़ना का एक और ऐसा पहलू है, जिस पर प्राय: नजर नहीं जाती।

साई बाबा के मामले पर नजर रखने के वाले अनेक पत्रकारों ने लिखा है कि उन्हें जिस प्रकार आजीवन कारावास की सजा हुई वह अपने आप में न्यायपालिक का एक “इतिहास” है। ऐसा संभवत: पहली बार हुआ था कि किसी मामले में पुलिस द्वारा लगाई गई सभी की सभी धाराओं को कोर्ट ने स्वीकार कर लिया और मामले में आरोपित सभी व्यक्तियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि साई बाबा जैसे लोग उस कमजोर सामाजिक समुदाय का हिस्सा थे, जिसमें इस प्रकार की लड़ाइयों में अपने लोगों के साथ खड़ा होने की क्षमता नहीं है।

साई बाबा के मामले को नजदीक से देखने वाले पी. विक्टर विजय ने अपने एक लेख में लिखा है कि प्रोफेसर साई बाबा ने अपने श्रम और मेधा से बहुत मूल्यवान बौद्धिक पूंजी का निर्माण किया, लेकिन वह उनकी लुटी-पिटी सामाजिक पूंजी से मेल नहीं खाती थी। वे देशी-विदेशी अकादमिक दायरे में में सबसे संतुलित और तीक्ष्ण विचारों वाले बौद्धिक के रूप में जाने जाने लगे थे। लेकिन  उनके समुदाय के पास वास्तव में उतनी सामाजिक पूंजी थी ही नहीं, जितनी कि इस प्रकार की सक्रियता के लिए आवश्यक होती है। यही कारण था कि वे समान आरोपों में समय-समय पर फंसाए जाते रहे  द्विज बौद्धिकों की तुलना में उन्हें अपनी जनपक्षधर सक्रियता की बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ी।

साई बाबा को मुकदमे के दौरान कानूनी-परामर्श की कमी का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सीमाओं में इसके लिए बहुत कोशिश की, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उनके प्रयास एक सीमा से आगे जाने में असमर्थ थे।

हैनी बाबू की गिरफ्तारी पर विचार करते हुए हमें इन पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए। बहुजन तबके से आने वाले अन्य लोगों की ही तरह उन्हें भी समान आरोपों से घिरे अनेक लोगों की तुलना में अधिक आर्थिक, नैतिक और कानूनी संबल की आवश्यकता होगी।

[फारवर्ड प्रेस नामक पत्रिका के प्रबंध संपादक रहे प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास  में रही है। पेरियार के लेखन और भाषणों का उनके द्वारा संपादित संकलन तीन खंड में हाल ही में प्रकाशित हुआ है।  संपर्क : +919811884495, [email protected]

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