Saturday, April 20, 2024

कृषि कानूनों में काला क्या है-11: केरल में एमएसपी से बाहर हैं नारियल, काजू, रबर, चाय, कॉफी और मसाले

तीनों काले कृषि कानून वापस हो चुके हैं। 29 नवम्बर को कानून वापसी का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुका है राष्ट्रपति की मोहर लगने के बाद जैसे ही तत्संबंधी अधिसूचना जारी होगी तीनों कृषि कानून विधिवत निरसित हो जायेंगे। लेकिन अभी भी कानूनों से सम्बन्धित कुछ तथ्य ऐसे हैं जिन्हें पब्लिक डोमेन में लाना जरुरी है ताकि सरकारी झूठ को बेनकाब किया जा सके। इनमें केरल में एपीएमसी मण्डियां अभी तक न बनाये जाने और बिहार में एपीएमसी कानून को 2006 में समाप्त किये जाने के बाद सालाना कृषि विकास दर में वृद्धि के गलत दावों का मामला शामिल है।

प्रधानमंत्री मोदी ने कई बार कहा है कि जब केरल में एपीएमसी मण्डियां अभी तक नहीं बनायी गईं, तब अन्य राज्यों के लिए एपीएमसी का मुद्दा क्यों उछाला जा रहा है? दरअसल प्रधानमंत्री सफेद झूठ फैला रहे हैं। हकीकत यह है कि केरल में एपीएमसी कानून इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि वहां कृषि में 82फीसद हिस्सा उन व्यावसायिक व प्लाण्टेशन फसलों का है जो सरकारी एमएसपी घोषित होने वाली 23 फसलों में नहीं आतीं। इनमें नारियल, काजू, रबर, चाय, कॉफी, एवं काली मिर्च, लौंग, जायफल, इलायची, दालचीनी जैसे मसाले आदि आते हैं।

केरल में धान, फल व सब्जी आदि की फसलों का इतना उत्पादन नहीं होता कि उनके लिए अलग से एपीएमसी कानून के तहत एक थोक मण्डी की जरूरत पड़े। लेकिन वहां पर राज्य सरकार द्वारा इन फसलों के लिए भी नियम जारी किये जाते हैं। केरल में धान का सरकारी खरीद मूल्य रु. 2748 प्रति कुंटल है, जो कि केन्द्र सरकार की एमएसपी से रु. 900 ज्यादा है।

व्यवसायिक फसलों की अलग मार्केटिंग प्रणाली होती हैं जो भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के तहत बने कमोडिटी बोर्डों द्वारा प्रायोजित की जाती है,जैसे रबर बोर्ड, मसाला बोर्ड, कॉफी बोर्ड, टी बोर्ड, कोकोनट डेवलपमेण्ट बोर्ड आदि. ऐसी फसलों की नीलामी और मार्केटिंग की अलग व्यवस्था है।

ऐसे में सवाल यह है कि प्रधानमंत्री क्यों जानबूझ कर झूठ फैला कर जनता को गुमराह कर रहे हैं? क्योंकि वे जानते हैं कि इन कृषि कानूनों के बचाव में बोलने के लिए सच से काम नहीं बनेगा, झूठ का सहारा ही एकमात्र रास्ता है।

अब बात करते हैं बिहार में एपीएमसी कानून समाप्त करने के बाद वहां कृषि की विकास दर की। बिहार में एपीएमसी कानून को 2006 में समाप्त कर दिया गया था। नवउदारवादी टिप्पणीकार शेखर गुप्ता का मानना है कि एपीएमसी कानून समाप्त होने से बिहार में कृषि विकास दर इतनी ज्यादा बढ़ गई कि पंजाब भी पीछे रह गया। वैसे बिहार के लोग तो खुद ही जानते हैं कि 2006 के बाद से उन्होंने कृषि विकास कितना देख लिया है।

हकीकत में 2011-12 से लेकर आज तक बिहार की सालाना कृषि विकास दर माइनस 1 प्रतिशत है, और पंजाब में यह प्लस 1 प्रतिशत है। बिहार में इस दौरान कृषि में ग्रॉस स्टेट वैल्यू एडेड (जी.एस.वी.ए.) घट गया है, जबकि पंजाब में यह लगातार बढ़ रहा है। हां, साल 2006-07 और 2011-12 के बीच बिहार का जी.एस.वी.ए. 4.8 प्रतिशत रहा था और इसी दौरान पंजाब में यह 1 प्रतिशत था। लेकिन यह आंकड़ा एक छोटी समय अवधि का है और पूरी तस्वीर नहीं दिखाता।

अगर मान भी लें कि बिहार में कृषि का विकास हुआ है, तो सरकारी आंकड़ेबाजों को यह भी बताना पड़ेगा कि क्यों इस दौरान बिहार के किसानों की आय नहीं बढ़ी। क्यों बिहार के किसानों का स्थान आज खेती में आय के मामले में सबसे नीचे आता है? यही नहीं बिहार में 5 एकड़ तक के खेत मालिकों के जवान लड़के पंजाब और हरियाणा के खेतों में जाकर अपना पसीना बहाने को मजबूर नहीं होते।

अगर बिहार के किसानों का हाल इतना अच्छा होता तो वे हर साल अपनी धान की उपज को तस्करी के जरिए पंजाब की एपीएमसी मण्डियों में क्यों भिजवाते हैं? एक मोटे अनुमान के अनुसार करीब दस लाख टन चावल बिहार से पंजाब की मण्डियों में चोरी से भेजा जाता है, क्योंकि बिहार में खुले बाजार में धान का मूल्य एमएसपी से काफी कम होता है।

बिहार में एपीएमसी कानून खत्म कर देने के बाद भी नये कृषि बाजार बनाने और पहले से मौजूद सुविधाओं को और सुदृढ़ करने की दिशा में निजी पूंजी निवेश हुआ ही नहीं, फलस्वरूप कृषि बाजार की सघनता 2006 के बाद घट गयी। ऊपर से बिहार में अनाज की सरकारी खरीद पहले भी कम थी, अब और घट गई । आज वहां के किसान पूरी तरह से व्यापारियों की दया पर निर्भर हैं, जो मनमाने तरीके से अनाज खरीद का मूल्य काफी कम दर पर तय करते हैं । फसल के कम खरीद मूल्य के पीछे संस्थागत व्यवस्था का अभाव और अपर्याप्त बाजार सुविधायें एक बहुत बड़ा कारण है ।

बिहार में अब धान एवं गेहूं की एमएसपी मूल्य पर खरीद की जिम्मेदारी पी.ए.सी.एस. (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) की है, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसी खरीद बस नाममात्र की ही की जाती है । वहां के किसान बताते हैं कि फसल का उचित मूल्य न मिलना बिहार में कृषि विकास दर बढ़ाने की दिशा में बहुत बड़ी बाधा है।

एपीएमसी व्यवस्था समाप्त करने और उसकी जगह पी.ए.सी.एस. (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) ले आने के 14 साल बाद बिहार में आज तक कृषि के आधारभूत ढांचा के विकास हेतु निजी क्षेत्र का पूंजी निवेश एक स्वप्न भर है और फसल का उचित मूल्य हासिल कर पाना तो और भी दूर का सपना बन चुका है।

एन.सी.ए.ई.आर. की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में एपीएमसी खत्म करने बाद वहां खाद्यान्न के मूल्यों में अस्थिरता बढ़ गई है,वहां किसानों को निजी गोदामों में अपने फसलोत्पाद रखने के लिए ज्यादा मूल्य चुकाना पड़ता है, बिहार में धान, गेहूं, मक्का, मसूर, चना, सरसों, केला आदि समेत 90 प्रतिशत से ज्यादा फसल उत्पाद व्यापारी और कमीशन एजेण्ट सस्ते में गांव से ही खरीद ले जाते हैं, वहां किसानों को फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता है, फसल कटाई के बाद किसानों को तत्काल नकद धन की जरूरत होती है, जिसके लिए उन्हें अपनी फसल व्यापारियों को मजबूरी में सस्ते में बेचना पड़ता है। वहां गांव के पास सरकारी कृषि बाजार तो होता नहीं है।अगर किसान अपना उत्पाद दूर की किसी मण्डी में ले भी जाते हैं, तो वहां उन्हें कमीशन एजेण्ट को रिश्वत देनी होती है।संसाधन के अभाव में किसान अपनी फसल को घर में स्टोर करके नहीं रख सकते, वह बरबाद हो जायेगी। इसीलिए किसान अपना उत्पाद कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर होते हैं।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के सुविख्यात प्रोफेसर सुखपाल सिंह ने 2015 में ही चेतावनी दी थी कि बिहार जैसे राज्यों के लिए जहां छोटे एवं सीमांत किसानों की संख्या 90 प्रतिशत से ऊपर है, एपीएमसी मण्डियां बहुत महत्वपूर्ण हैं। चूंकि छोटे किसानों तक न तो बड़े खरीदार और न ही कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग वाली कम्पनियां पहुंचती हैं, ऐसे में मण्डियां ही उनका एकमात्र सहारा हैं। … कृषि बाजारों में सुधार के नाम पर पूरी मण्डी व्यवस्था को ही समाप्त करने की जरूरत नहीं है। संस्थाओं को खत्म करना बहुत आसान है, असली चुनौती उन्हें बनाने में है। कृषि क्षेत्र और किसान समुदाय को इसके गम्भीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे।

बिहार का अनुभव मोदी सरकार और उसके समर्थकों द्वारा इन कानूनों के बचाव में फैलाये जा रहे झूठ की पोल खोल देता है।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।