सभी को आत्मबोध का समान अधिकार

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जज मत करिए उन्हें समझिए

“जेंडर ट्रबलः फेमेनिज्म एंड द सबवर्जन ऑफ आईडेंटिटी” (1990) जैसी मशहूर किताब की रचयिता और अमेरिकी अकादमिक और जेंडर मामलों की जानकार दार्शनिक जूडिथ पामेला बटलर का मानना है कि जेंडर का गठन, एक्शन और स्पीच से होता है- ऐसे व्यवहार से जिसमें जेंडरयुक्त निशानदेहियों का प्रदर्शन किया जाता है और उन पर अमल होता है। जेंडर परफॉर्मेटिविटी की अवधारणा के जरिए जूडिथ ने सिमोन द बुआ की सेकंड सेक्स की अवधारणा को न सिर्फ एक नयी ऊंचाई दी है बल्कि वो उसे बहुआयामी भी बना दिया है।

बात आज सिर्फ फेमेनिज्म के पहले आंदोलन से निकले सेंकड सेक्स वाले संकट की नहीं रह गई है। फेमेनिज्म की आज की लड़ाई बहुत ज्यादा पेचीदा और विकट हो गई है। बहुत से लोग इसे नहीं समझते हैं या उससे पल्ला झाड़ लेते हैं। उन्हें लगता है कि ये भाषा या एक्टिविज्म की कोई नयी खुराफात है- नया शिगूफा कहने लगते हैं। फेमेनिज़्म में बीसवीं सदी में जूडिथ बटलर और उनके जैसे दार्शनिकों, एक्टिविस्टों ने जिन शब्दावलियों को प्रवेश दिलाया है और जो आंदोलनकारी चेतनाएं जगाई हैं वे आज हमें जेंडर स्टीरियोटाइपिंग से बहुत आगे जेंडर पर्फोमेटिविटी की बहस पर ले आई हैं।

अक्सर ये लगने लगता है कि ये नये नारीवादी, कुछ ऐसा भयानक तूफान या तबाही ला देंगे की मनुष्य सभ्यता ही खात्मे के कगार पर आ जाएगी। लेकिन अगर आप नये टेक्स्ट्स को विवेकपूर्ण नैतिकता और समझदारी के साथ पढ़ें तो आप पाएंगें कि मनुष्य बिरादरी को वैचारिक, भौतिक और पारिस्थितिकीय तबाहियों से बचाने के लिए ही ये नई विचारधाराएं समाने आईं हैं जो मार्क्स से लेकर ग्राम्शी और सिमोन द बुआ और जर्जन और बटलर जैसे अपने पूर्वजों और अग्रजों की बदौलत इस दुनिया को और सुंदर और संतुलित बनाने की कोशिश कर रही हैं। एक वर्जनाविहीन भूगोल, एक वर्जनाविहीन संस्कृति और वर्जनाविहीन जीवन। तुर्क उपन्यासकार ओरहान पामुक ने उपन्यास की कला का वर्णन करते हुए कहा है कि उपन्यास की कला, अपना आखिरी निष्कर्ष लोगों को जज करते हुए नहीं बनाती है बल्कि लोगों को समझते हुए बनाती है। पामुक की ये बात इस विमर्श के संदर्भ में रख कर भी देखी जा सकती है। जीवन का सच्चा मर्म लोगों को जज करने से नहीं उन्हें समझने से हासिल हो सकता है।  

क्वीर शब्दावली एक दौर में गाली थी। होमोसेक्सुअल के लिए एक स्लैंग। लेकिन हाल के वर्षों में इस शब्द का इस्तेमाल समग्र तौर पर सांस्कृतिक रूप से हाशियागत यौनिक आत्म-पहचान को अभिव्यक्त करने के लिए भी किया जाता है। जो पारंपरिक लेस्बियन और गे अध्ययन हैं उनसे निकली नई सैद्धांतिकी की ओर भी ये शब्द इंगित करता है। लचीलापन इसका एक स्वभावगत विशेषता है। लेकिन यही वो शब्द है जिसने सेक्स, जेंडर, और यौन कामना के बीच नई लकीरें खड़ी कर दी हैं। क्रॉस ड्रेसिंग, हरमेफ्रोडाइटिज्म, जेंडर एम्बिग्युटी और जेंडर करेक्टिव सर्जरी जैसे विषय भी क्वीयर की व्यापक अवधारणा के दायरे में आते हैं। यूं आदमी और औरत की समस्याविहीन शब्दावली को ये सवालों के दायरे में ले आती है। लेकिन क्या ऐसे करते हुए ये खुद “ऐतिहासिक एमनेसिया” की शिकार नहीं हो जाती- ये सवाल भी बने हुए हैं। क्योंकि जानकारों के मुताबिक कुछ ऐसी अस्मितागत श्रेणियां इसमें शामिल हैं जिनकी राजनीति लेस्बियन और गे आबादियों की बनिस्पत कम प्रगतिशील हैं।

एलजीबीटीक्यू प्लस आंदोलन कहते हैं तो पाठकों की सुविधा के लिए और अपने समाज की इस अलक्षित बहुलता के प्रति उदारता और स्वीकार्यता और स्वाभाविकता की समझ विकसित करने के लिये भी जान लेना ज़रूरी है कि इन अक्षरों से आशय क्या हैं। एलजीबीटीक्यू के साथ ए और आई भी जुड़ा है। इस शब्दावली को भाषिक अवरोध की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। और इनके मर्म को समझना चाहिए। सामाजिक आंदोलनों की नयी विविधता और नये मैदानों में उतरना ही होगा। 21वीं सदी के दो दशक बाद हमारे पास पर्याप्त संकेत और सूचनाएं आ चुकी हैं। 

  • ‘एल’ लेस्बियन, ‘जी’ गे के लिए, ‘बी’ बाइसेक्सुअल के लिए, ‘टी’ ट्रांसजेंडर, ‘क्यू’ क्वीर या क्वेश्चनिंग के लिए, ‘आई’ इंटरसेक्स के लिए, ‘ए’ एसेक्सुअल और एलाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 
  • लेस्बियन मतलब स्त्री के रूप में चिंहित एक व्यक्ति का दूसरी स्त्री से रोमानी, जिस्मानी और भावनात्मक रिश्ता।
  • गे यानी पुरुष के रूप में चिंहित एक व्यक्ति का दूसरे पुरुष से रोमानी, जिस्मानी और भावनात्मक रिश्ता।
  • बाइसेक्सुअल- वे व्यक्ति जो स्त्री और पुरुष के प्रति समान रूप से आकर्षित रहते हैं यानी दोनों से ही रोमानी, जिस्मानी और भावनात्मक रिश्ता रखना चाहते हैं।
  • ट्रांसजेंडर वे हैं जिनकी जैविक यौनिकता उनकी लैंगिक पहचान से अलग होती है। यानी स्त्री देह में पुरुषोचित्त भाव या पुरुष देह में स्त्रियोचित्त।
  • क्वेश्चनिंग उनके लिए है जो अपनी यौनिकता को लेकर सवाल उठाते हैं और प्रश्नाकुल होते हैं और जिन्हें किसी खास शब्दावली से चिन्हित नहीं किया जाता है।
  • क्वीर शब्दावली उपरोक्त तमाम लोगों के लिए इस्तेमाल की जाती है। ये सब मिलकर क्वीर समुदाय का हिस्सा बनते हैं।
  • इंटरसेक्स वे हैं जिनकी भौतिक या जिस्मानी यौन विशेषताएं विशिष्ट रूप से न स्त्रियोचित्त हैं न पुरुषोचित्त।
  • एसेक्सुअल वे हैं जो अ-यौनिक हैं यानी जो किसी अन्य से यौनिक तौर पर आकर्षित नहीं है और वे यौनिक तौर पर ध्रुवीकृत नहीं हैं।
  • इसी ए में एलाई यानी सहयोगी भी हैं जो उपरोक्त किसी पहचान के दायरे में नहीं आते लेकिन उपरोक्त सभी के प्रति सहायता, समर्थन और सहानुभूति का भाव रखते हैं और उनके अधिकारों के हिमायती हैं।

बटलर कह चुकी हैं कि जेंडर एक विचार एक कार्य है या ये एक प्रस्तुति है। लोग समाज में फिट होने के लिए खास ढंग से व्यवहार करना सीखते हैं। और आदमी या औरत के रूप में पैदा होने से ये व्यवहार तय नहीं होता। उनके मुताबिक जेंडर ही नहीं सेक्स भी एक हद तक “परफॉर्मेटिव सोशल कन्स्ट्रक्ट” है। यानी आपके बोध में लगातार अवस्थित किया जाता है, फिर उसे सामाजिक उद्बोधनों और आपसी संचार में भी सुदृढ़ किया जाता है। जैसे कि ये कहना कि “वो लड़की है” या “वो लड़का है।” या ये कहने का चलन कि “उसके बाल लड़कों जैसे हैं” या “उसने लड़कियों वाली ड्रेस पहनी है।” या ऐसे ही कुछ और टीका-टिप्पणियां या सामाजिक यथास्थिति से उत्पन्न स्थूल ऑब्जरवेशन्स। क्वीर फिनोमेनन इसी “हीटरोसेक्सुअल मैट्रिक्स” को छिन्न भिन्न करने की कोशिश करता है।

बटलर तो इस नाते पुराने फेमेनिस्ट आंदोलनों पर भी सवाल उठाती हैं कि उनकी चिंता के केंद्र में जो स्त्री है वो उस मैट्रिक्स का ही हिस्सा है ना कि उस वृहद मनुष्य अवधारणाओं का जो सेक्स और जेंडर से इतर इस दुनिया में सांस लेते हैं। बटलर के गद्य और सिद्धांतों की अक्सर ये कहकर आलोचना की जाती रही है कि वो अपनी भाषा में नये जार्गन भरती रहती हैं और नॉन लीनियर भाषा लिखती है। लेकिन आज के समय की बहुआयामी पेचीदगियों के बारे में बात करने के लिए आखिर कौन सी एकरेखीय भाषा इस्तेमाल की जा सकती है- ये सवाल तो पूछा ही जाएगा।

हिंदी की हवा और बया का दख़ल

बात भाषा की उठी है तो हिंदी के हवाले से भी इस बारे में कुछ बातें करते चलें। हिंदी में तो अव्वल कोई सही शब्द नहीं है, और अगर आप चाहें कि आप अपने शब्द रखें तो उसका स्वागत कितना होगा कहना कठिन है। हिंदी के संकट में सिर्फ सांप्रदायिकता और जातीय हिंसा और जातिगत भेदभाव और स्त्रीद्वेष ही नहीं है- वो लैंगिक और यौनिक अल्पसंख्यकों के प्रति भी सहिष्णु नहीं नजर आई है। एक तो उसकी वैचारिक पोजिशनिंग तंग है और दूसरी उसके पास ऐसी भाषा नहीं है जो उन समुदायों की परवाह करती हो या उनके लिए कोई जगह बनाती हुई प्रतीत होती हो। हिंदी वर्चस्व की भाषा बनने की फिराक में रहती थी, वो मकाम उसे हासिल हो चुका है। अब वो खदेड़ने पर आमादा है। उत्तर-आधुनिकता उसकी मदद कर रही है। (लेकिन ये होना नामुमकिन इसलिए है क्योंकि उपेक्षित रहती आईं सामाजिक पहचानें हिंदी की मोहताज नहीं हैं। वे अपने लिए जगहें बना रही हैं। एक नये सबऑल्टर्न का उदय हो चुका है। संघर्ष कठिन है लेकिन जारी है।) 

हिंदी के आंतरिक दंवद्व और नैतिक झंझटों और विभिन्न किस्म की हायतौबा के बीच जेंडर और यौनिकता की बहसें कितनी कठिन हैं इसी की एक छोटी सी झलक दिखाता है- अंतिका प्रकाशन की बया पत्रिका का जेंडर और यौनिकता के सवालों पर केंद्रित, हाल का एक विशेष अंक। याद नहीं आता कि इस पर एक साथ 60 से अधिक पेज किसी पत्रिका में कभी पहले खर्च हुए होंगे। इसीलिए विषय चयन में ये अंक जितना चौंकाता है या आश्चर्यमिश्रित खुशी में डालता है, अपनी सामग्री और आकार में उतना कसा हुआ नजर नहीं आता।

शायद इसकी एक वजह ये भी हो जैसा कि अंक के अतिथि संपादक मिथिलेश प्रियदर्शी ने बताया है कि इस मुद्दे पर अव्वल तो लिखने वाले कम हैं और संकोच का वातावरण भी टूटा नहीं है, कन्नी काट लेने की शातिरी भी व्याप्त रही है। हालांकि इसकी भरपाई के तरीके निकाले जा सकते थे। मिथिलेश ने सही कहा है कि इस मुद्दे पर फिलर के तौर पर लेख आदि तो हिंदी कथेत्तर दुनिया में आते रहे हैं लेकिन जेनुइनली स्पेस खर्च करने को कोई तैयार नहीं दिखता। लेखक का मानना है कि इस प्रयत्न को यहीं पर विराम न देकर इसे और व्यापक, समग्र, सघन और वेगपूर्ण बनाए जाने की जरूरत है। हो सकता है कि बया को ही एक अंक नये ढंग से नई अवधारणा और नई साज सज्जा के साथ निकालने की सूझ जाए। ये भी हो सकता है कि बया की इस पहल के बाद हिंदी में और पत्रिकाएं भी इस बारे में ऊर्जा लगाएं। इस लिहाज़ से बेशक ये स्वागतयोग्य कदम है और उतने ही स्वागतयोग्य वे लेख हैं जो जेंडर और सेक्स की मुख्यधारा से अलगाए हुए और अलग रहने का हौसला कर पा रहे युवाओं ने लिखे हैं।

समाज में अपनी जगह से लेकर भाषा में यौनिकता और जेंडर को बरतने में नये उपकरणों की जरूरत के आह्वान तक, बया का अंक एक ज़रूरी बहस का सिलसिला तो छेड़ ही देता है। जहां सिर्फ मुख्यधारा की हेजेमनी ही नहीं उन ‘अन्य’ कहे जाने वाले समुदायों में भी उभर आने वाली दमनकारी हेजेमनी की विकटता को चिंहित करने की कोशिश की गई है। अंक के कुल पेजों की संख्या है 120 और लगभग आधा हिस्से में चंद्ररेखा जी का उपन्यास “आग” प्रकाशित है। एक बड़ा हिस्सा गौतम सान्याल के विशेष लेख का है। प्रदीप सौरभ के उपन्यास “तीसरी ताली” के समीक्षात्मक पाठ में भी विमर्श को और आगे ले जाने की कोशिश है।

अंक की अपनी कुछ बुनियादी खूबियों के बावजूद कुल मिलाकर दिखता ये है कि उस बहस के लिए पूरा दरवाजा नहीं खुल पाता जिसके लिए बया ने ये चुनौती ली होगी। अगर हिंदी के पाठकों के बीच ये बहस जानी है और नये सरोकार जगाए जाने हैं और ये चेष्टाएं तमाम तकलीफों और आलोचनाओं को बर्दाश्त करने की हिम्मत रख पाती हैं तो इसका रूप कुछ अलग और आकर्षक होना चाहिए। छिटपुट तौर पर और बिखरा बिखरा सा नहीं बल्कि बड़े वितान में इस विमर्श को रखना होगा। थोड़ी हैरानी सी होती है कि अरुंधति रॉय के “अपार ख़ुशी का घराना” जैसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास का कोई उल्लेख इस अंक में नहीं है। कला, सिनेमा, साहित्य और भाषाओं में और गहराई से यात्राएं की जातीं तो निश्चित ही महत्त्वपूर्ण सूचनाएं एकत्र होती जातीं। मिशेल फूको की अवधारणात्मक जटिलताओं को जस का तस पेश कर देना भी न्याय संगत नहीं लगता।

आज का यथार्थ फूको की पहेलियां नहीं बुझा रहा है। उसके अंतर्निहित संकट इतने तीक्ष्ण और भयंकर हैं और वो उन्हीं में उलझा हुआ है। गौतम सान्याल के लेख में कहा ही गया है कि हिंदी में इस मुद्दे पर कुहासा ही कुहासा है। और ये बात सब पर लागू होती है। जेनुइन आलोचनाएं भी हमारे इरादों को और ठोस और ज़िद्दी बनाती हैं, अहंकारी, अड़ियल और बदले को तत्पर विष से भरा ज़ेहन नहीं। वे हमारे विचलन को स्थिरता प्रदान करती हैं और हमारी डगमगाहटों को गिरा देती हैं।  

सामाजिक बहुलता का सतत संघर्ष

दुनिया में गंभीर गे आंदोलन आज यही कर रहा है। एलजीबीटीक्यू प्लस समुदायों के लिए प्रयोग होने वाली क्वीर शब्दावली अपनी अच्छी-बुरी आलोचनाओं से जूझ रही है टकरा रही है और नई वैचारिकी में नये सूत्र जुड़ रहे हैं। इसी रास्ते में उसे अपनी कमियां और लूपहोल्स और चुनौतियां भी बेशक दिख रही होंगी। ये एक बहुत लंबी प्रक्रिया है। ये कोरी रुमानियत नहीं है, उनका जीवन है। ये कोई तुरत फुरत परियोजना नहीं है। क्लीशे न मान ली जाए तो समाज बदलने की लड़ाई, समाज की हेजेमनी को चुनौतियां देने की लड़ाई- मनुष्य इतिहास में कभी आसान नहीं रही हैं। उपनिवेशवाद और सामंतवाद खत्म हुआ तो नये उपनिवेश बन गए नये सामंत आ गए, पूंजीवाद ढहने लगा तो नये क्रोनी पूंजीवाद ने उसकी जगह संभाल ली। साम्राज्यवाद भी नया होकर और भयानक और मनुष्यविरोधी हो उठा।

यहां तक कि जब आधुनिकता ने परंपरा और कर्मकांड ओढ़कर यथास्थिति की भंवर से न निकलने को अपना कार्यभार माना तो उसके खिलाफ नयी चेतनाओं ने जन्म लिया और इन्हीं प्रखरताओं को दबोचने और दबाने के लिए उत्तरआधुनिकता अपने बहुत से मुख लेकर फैल गई। बाज़ मौकों पर हमें नहीं पता चल पाता कि हम किस चीज से मुखातिब हैं। जाहिर है ये संकट बहुत बड़ा और बहुआयामी हैं और मनुष्यता अपने अस्तित्व और विचार की शायद सबसे मुश्किल लड़ाई में घिरी है। लड़ाई बराबरी की नहीं बल्कि तमाम विभिन्नताओं को बराबरी से देखने-समझने की लड़ाई है और अंततः ये बहुलतावाद की लड़ाई है। असल में लड़ाई इन्हीं बहुलताओं और विभिन्नताओं के लिए ही लड़ी जा रही है और वे अपनी जगह चाहती हैं। उन्हें महज़ समानता की लड़ाई कहकर हड़पने की कोशिशें की जाती रही हैं। समूचे क्वीर आंदोलन को हम इस तरह कभी ठीक से समझ नहीं पाते हैं।

समाज में ट्रांसजेंडरो या समूचे क्वीर समुदाय की स्वीकार्यता और समावेशिकता के लिए क्या करना होगा। जाहिर है सबसे पहले तो उसी समुदाय को अपने साहस के साथ आगे आना होगा जो कि अब पिछले कुछ वर्षों से भारत जैसे देशों में होता दिख रहा है। ट्रांसजेंडरों के प्रति सद्भाव और समझ को सहजता से अंगीकार करने वाली संस्था के रूप मे पंजाब विश्वविद्यालय की मिसाल भी दी जा सकती है जहां विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं जिनका ज़िक्र उसी विश्वविद्यालय की ट्रांसजेंडर छात्रा धनंजय चौहान के जीवन और शिक्षा के संघर्ष की झांकी दिखाती भारतीय डॉक्युमेंट्री फ़िल्म- “एडमिटेड” में किया गया है।

पिछले साल रिलीज इस पुरस्कृत फिल्म के निर्देशक ओजस्वी शर्मा हैं। इस फिल्म के जरिए एक ट्रांसजेंडर की मनोव्यथा और जिजीविषा भी समझी जा सकती है और समाज के पूर्वाग्रहों से उनकी अंतहीन लड़ाई के सूत्र भी। अपने लिए जगह और सम्मान और आत्म पहचान कायम करने में चंडीगढ़ के ट्रांसजेंडर समुदाय ने लंबी और अनथक मुहिम चलाई है। वे खुद को मिस्टर या मिस या मिसेज संबोधन से परहेज करते हैं और एक नया संबोधन उन्होंने खोज निकाला है- एमएक्स। ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग अपने नामों के आगे एमएक्स लिखना पसंद करते हैं।

टैरी इगलटन अपनी किताब “व्हाई मार्क्स वॉज़ राइट” में पूंजीवाद के इकहरेपन की चाहत और राजनीति से मुक्त दुनिया का इरादा जाहिर करते हुए लिखते हैं कि “जेनुइन बराबरी का मतलब ये नहीं हर किसी से समान व्यवहार किया जाए बल्कि हरेक व्यक्ति की विभिन्न जरूरतों पर बराबरी से गौर किया जाए। मार्क्स ऐसे ही समाज की बात करते हैं। मनुष्य जरूरतों को एक लाठी से नहीं हांका जा सकता है। हरेक व्यक्ति को सेल्फ रिएलाइजेशन यानी आत्मबोध का समान अधिकार है और सामाजिक जीवन को आकार देने में पूरी सक्रियता से भागीदारी करने का भी हक है….आखिरकार मार्क्स के लिए समानता या बराबरी का अस्तित्व विभिन्नता में ही निहित है।” (पृ 104-105)

(शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि हैं।)

(यह निबंध समयांतर पत्रिका के अक्टूबर-2021 अंक में प्रकाशित है।)

समाप्त।

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