Friday, March 29, 2024

हिन्दुत्व के सबसे सटीक व्याख्याकार निकले एकनाथ शिंदे 

कई बार ढेर सारी शास्त्रीय कोशिशें, कई ग्रन्थ, अनेक परिभाषाएं और उनकी अनेकानेक व्याख्यायें भी साफ़ साफ़ नहीं समझा पातीं वह एक कार्यवाही स्पष्ट कर देती है। स्वाभाविक भी है। अंग्रेजी की कहावत हिंदी में कहें तो “खीर का स्वाद उसे खाने में है, निहारने में नहीं”। प्रवासी मजदूरों के पसीने से बजबजाते सूरत से इतिहास की भयानकतम बाढ़ों में से एक में डूबे असम की गुवाहाटी में मारे-मारे घूम रहे महाराष्ट्र विधानसभा के आमदारों ने कुछ ऐसा ही ख़ास कर दिखाया है। कोई एक शताब्दी से देश के मनीषी, विचारक, समाजशास्त्री यहां तक कि खुद इस शब्द के प्रचारक जिस शब्द का अर्थ-भावार्थ ठीक से नहीं समझा पा रहे थे, उसे अलीबाबा के इन चालीस विधायकों ने आसानी से समझा दिया है। यह शब्द है “हिंदुत्व” और इसे इतनी आसानी से समझा देने के लिए सिर्फ महाराष्ट्र नहीं समूचे राष्ट्र को श्रीयुत एकनाथ शिंदे साहेब का ऋणी और शुक्रगुजार होना चाहिए।

“हिंदुत्व” अपने जन्म से ही अंधों का हाथी रहा है – जिसके हिस्से सूंड़ आयी उसने सूंड, जिनके हिस्से पूंछ आयी उसने इसे पूंछ माना और शीश धारा। उदाहरण के लिए सिर्फ साढ़े तीन प्रसंग ही काफी हैं। 
 
शुरुआत शुरुआत से ही करते हैं। हिंदुत्व शब्द के पिता विनायक दामोदर सावरकर हैं। उन्होंने 1923 में रत्नागिरी जेल में रहते हुए 55 पन्नों की एक छोटी सी किताब में सबसे पहले हिंदुत्व लिखा। इसके मौजूदा उपयोग वाले संबोधन में उसे इस्तेमाल किया और फिर बताया कि यह क्या है। उन्होंने लिखा कि ;

“आसिन्धुसिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिकाः।
पितृभूपुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितिस्मृतः ॥ “

मतलब यह कि प्रत्येक व्यक्ति जो सिन्धु से समुद्र तक फैली भारत भूमि को साधिकार अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानता है, वह हिन्दू है। और उसी में “त्व” (मतलब जैसा) जोड़ने से हिंदुत्व हो जाता है।  

मगर लोग समझे नहीं। इसमें कई झोल थे एक तो यह कि सावरकर खुद किसी धर्म वर्म को नहीं मानते थे और स्वयं  को एलानिया नास्तिक बताते थे। दूसरे यह कि अपने इस हिंदुत्व की समावेशिता में उन्होंने “भारत के सभी धर्मों को मानने वाले लोगों को हिन्दू माना।” ध्यान दें यहां वे भारत में माने जाने वाले सभी धर्मों की बात नहीं कर रहे थे, वे भारत भूमि में जन्मे धर्मों की बात कर रहे थे। इसीलिये उन्होंने पितृभूमि के साथ पुण्यभूमि भी जोड़ा था। तीसरे यह कि उन्होंने यह भी साफ़ साफ़ लिख दिया कि “हिंदुत्व एक राजनीतिक विचार है, धार्मिक नहीं; इसका हिन्दू धर्म या उसकी परम्पराओं से कोई लेना देना नहीं है।”

उनके बाद, सावरकर के रहते हुए ही, हिन्दुत्व की एक और परिभाषा लेकर आये गोलवलकर – आरएसएस के प.पू. गुरु जी –  उन्होंने बात आगे बढ़ाई, इसे और ठोस फासिस्टी बनाया। सावरकर के कहे एक देश ; भूगोल, पितृत्व और मातृत्व के आधार को थोड़ा और कट्टर बनाया । उसके साथ एक नस्ल (आर्य), एक भाषा  (संस्कृत – संक्रमणकाल तक हिन्दी) और एक धर्म; हिन्दू (यानि सनातन धर्म) को भी जोड़ दिया। यहां उन्होंने सावरकर की भारत भूमि पर जन्मे और विकसित हुए सभी धर्मों को मानने वालों को एंट्री देने वाली बात भी हटा दी। लोग फिर भी नहीं समझे।

समझना मुश्किल भी था क्योंकि इसका भारतीय सामाजिक यथार्थ से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। जैसे गोलवलकर एक नस्ल आर्य को कसौटी बता रहे हैं जबकि नस्लविज्ञान का एक वर्गीकरण जम्बूद्वीपे भारतखण्डे में  7 नस्लों ; तुर्क ईरानी, इंडो-आर्यन, सायथो द्रविड़ियन, आर्यो द्रविड़ियन, मंगोल द्रविड़ियन और द्रविड़ियन में करता है। दूसरा वर्गीकरण नस्लों की 6 ; नीग्रॉइटो, प्रोटो ऑस्ट्रोलॉइड, मंगलोइड, मेडिटेरियान, वेस्टर्न ब्रेकीसेफल्स और नार्डिक किस्में बताता है। सो अकेले आर्य को ही एकमात्र नस्ल बताने वाली धारणा ही अभारतीय थी, इसलिए सिवाय उच्चतम सवर्ण समुदाय के एक छोटे से हिस्से के लिए ग्राह्य नहीं हुयी।  
अब रही एक भाषा तो संस्कृत तो अपने “स्वर्णिमकाल” में भी कभी जनभाषा नहीं रही। आबादी की विराट बहुमत के लिए तो इसे पढ़ना लिखना भी अपराध था। 

हिंदी को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा कहना भी अनुचित और असंवैधानिक है क्योंकि खुद संविधान 22 भाषाओं को राष्ट्रीय भाषा मानता है। हालांकि यह भी भारत की भाषाओं का सही हिसाब नहीं है। देश में कुल 72 भाषाओं में तो स्कूलों में ही पढ़ाई कराई जाती है। 35 भाषाओं में अखबार और पत्रिकाएं छपती हैं। इस देश में कुल चार बड़े ; इंडो-यूरोपीय, द्रविड़, ऑस्ट्रो-एशियाटिक और साइनो तिब्बतन तथा 2 छोटे तिब्बतो बर्मन और सियामी चायनीज भाषा परिवार हैं।  पिछली जनगणना के हिसाब से भारत में 1576 परिपूर्ण भाषाएँ (रेशनल लैंग्वेज) हैं और  1796 मातृभाषायें इनके अलावा हैं। अकेले द्रविड़ परिवार की भाषाओं की संख्या 153 हैं। इनमें अंडमान की दर्जन भर भाषाओं के परिवार अभी ढूंढें ही जा रहे हैं। इसलिए संस्कृत या हिंदी को एकमात्र  भाषा मानने का दिवास्वप्न आभासीय देवलोक में तो देखा जा सकता है, इस मर्त्य लोक में संभव ही नहीं।

अब रहा सनातन धर्म तो उसको एकमात्र धर्म बताने का दुस्साहस पिछले 5 हजार वर्षों की भारतीय धार्मिक दार्शनिक परम्परा और उसके इतिहास से अनजान और कुपढ़ ही दिखा सकते हैं। हिन्दुत्व की यह नई परिभाषा भारतीय समाज पर फिट नहीं बैठती थी, हालांकि इसमें कोई अचरज की बात नहीं है, यह धारणा देशज थी भी नहीं। भारत के समूचे दर्शन और मिश्रणशील परम्पराओं और धर्मों के आवागमन की सुदीर्घ विरासत से इसका कोई नाता नहीं था। यह बात स्वयं  सावरकर, हेडगेवार, बीएस मुंजे और गोलवलकर ने भी मानी है कि उनका हिंदुत्व जर्मनी के नाज़ीवाद और इटली के फासीवाद की खराब कार्बनकॉपी है। इसलिए वादे वादे जायते तत्वबोधः की धारणा और अनगिनत धर्मों की पौधशाला रहे इस देश में एक सनातन धर्म की शर्त वाला हिन्दुत्व  भी लोगों की समझ में नहीं आया।  

हिंदुत्व के साथ फ़्लर्ट करने वालों ने भी इस शब्द की अपनी तरह से व्याख्या करना चाही। इनमें से एक प्रमुख थे अध्यात्म के पुनर्व्याख्याकार  डॉ. राधाकृष्णन, जिनकी गुरुता को इतना गुरुत्व दिया गया कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस बना दिया गया। उन्होंने अपनी किताब “जीवन का हिन्दू दृष्टिकोण ” में इसे अलग तरीके से समझाया कि “हिंदुत्व कोई विचारधारा नहीं है, एक यह जीवन पद्धति है ।”  यहां तक कह दिया कि “हिन्दुत्व जहाँ वैचारिक अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देता है वहीं वह व्यावहारिक नियम को सख्ती से अपनाने को कहता है। नास्तिक अथवा आस्तिक सभी हिन्दू हो सकते हैं, बशर्ते वे हिन्दू संस्कृति और जीवन पद्धति को अपनाते हों।” यह भी कहा कि  “हिन्दुत्व धार्मिक एकरूपता पर जोर नहीं देता।   हिन्दुत्व कोई संप्रदाय नहीं है बल्कि उन लोगों का समुदाय है जो दृढ़ता से सत्य को पाने के लिये प्रयत्नशील हैं।”  बाकी लोग तो छोड़िये इसे तो बहुत संभव है कि खुद डाक्टर साब भी नहीं समझे होंगे। कन्फ्यूजन और बढ़ गया।

साढ़े तीसरा कन्फ्यूजन बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद 1994 और 1995 में दिए दो फैसलों से सुप्रीम कोर्ट ने फैलाया। जस्टिस भरुचा ने 1994 के फैसले में कहा कि “हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है, सोचने समझने का एक तरीका – स्टेट ऑफ़ माइंड – है। इसे हिन्दू धार्मिक कट्टरता से जोड़कर नहीं समझा जाना चाहिए।”  इसके बाद 1995 में तीन जजों की खंडपीठ के जस्टिस वर्मा के फैसले में भी यह कहते हुए कि  “हिन्दू, हिंदुइज्म और हिंदुत्व को कोई सटीक अर्थ नहीं दिया जा सकता।  इसे सिर्फ धर्म के साथ जोड़कर भी कहीं नहीं पहुंचा जा सकता।” आखिर में एक जीवन पद्धति करार दे दिया गया। साफ़ स्पष्ट है कि इन दोनों ही मामलों में न्यायाधीशों ने हिंदुत्व शब्द के सूत्रकार सावरकर की बात संज्ञान में ही नहीं ली।  हालांकि बाद के दिनों में खुद जस्टिस वर्मा इसको लेकर दुखी हुए। इसने भाजपा और संघ परिवारियों को भले खुली छूट दे दी लेकिन अर्थ फिर भी नहीं समझा पाए। 

 
इन सारी उलझनों को दूर करते हुए हिंदुत्व को  सबसे सटीक रूप से समझाया है श्रीयुत एकनाथ शिंदे ने। ढाई साल तक महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार में मंत्री रहने के बाद वे अपनी पार्टी के ही कई विधायकों को लेकर सूरत के लिए उड़ गए, वहां से महीने भर से विकट बाढ़ में डूबे आसाम के पांचतारा होटल में डेरा डाल दिया। उन्होंने दावा किया है कि ऐसा वे हिंदुत्व की रक्षा के लिए कर रहे हैं।  जन्म से खुद को हिंदुत्ववादी मानती रही शिवसेना की प्रवक्ता प्रियंका ने पूछा है कि  “यह कौन सा हिंदुत्व है जो अपने घर परिवार की पीठ में ही छुरा घोंपना सिखाता है।’  जो भी हो, हिन्दुत्व के एकनाथ-भाष्य के हिसाब से मलाईदार से और अधिक मलाईदार कुर्सी ही एक धर्म है, इसके लिए सारे नैतिक, संवैधानिक और राजनैतिक मूल्यों को ध्वस्त किया जाना धर्मसम्मत काम है ।

कि कारपोरेट की भारी भरकम थैलियाँ ही वे पितृ और पुण्य भूमि हैं जिनके जरिये और जिनके लिए लोकतंत्र और जनादेश को  रौंदा जा सकता है। कि ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स ही इन्हें समझ आने वाली एकमात्र राष्ट्र भाषा है और विश्वासघाती अवसरवाद ही इस नस्ल का एकमात्र स्वीकार्य डीएनए है जो इस शब्द के जन्मदाता से लेकर अब तक निरन्तरित है। जो एकनाथ शिंदे को भगोड़ा और दलबदलू बता रहे हैं वे अर्धसत्य बोल रहे हैं। वे उन्हें उनके धर्म, भाषा, नस्ल और वास्तविक पितृत्व से काट कर देख रहे हैं। एकनाथ शिंदे असल में अब तक अपरिभाषित रहे हिंदुत्व को परिभाषित कर रहे हैं। इसी के साथ वे उसकी फासिस्टी नोकों को धारदार बनाते हुए उसके पंचक में छटवां क्षेपक जोड़ रहे हैं कि असली और खांटी हिंदुत्व वही है नागपुरिया ब्लेंडिंग में हो और भाजपा के नत्थी हो।    

 इस नवपरिभाषित हिंदुत्व की खरीद फरोख्त की मंडी लोकतंत्र पर मंडराते अंधेरों और काले धन की कालिमा से इस कदर सजी हुयी है कि हर बड़ी पार्टी अपने अपने विधायकों को सहेजे, संभाले बैठी है। मगर जैसा कि कहा जाता है, हर अंधेरी सुरंग के अंत में रोशनी की किरण होती है। महाराष्ट्र के इस अंधियारे में भी एक चमकती हुयी किरण है, सीपीआई(एम), जिसके विधायक विनोद निकोले बेधड़क जनता के बीच हैं, किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों को संगठित करते हुए, विराट रैलियां करते हुए।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक हैं।)  

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