तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार दिल्ली विधानसभा के चुनाव प्रचार का समय समाप्त हो चुका है। 5 फरवरी 2025 को मतदान होगा। दिल्ली विधानसभा में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने जीत कीर्तिमान बनाया और लगातार दो कार्यकाल पूरा कर लिया है।
याद किया जा सकता है कि किस प्रकार से डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस के तथाकथित भ्रष्टाचार के खिलाफ सियासी तूफान खड़ा कर दिया गया। किसन बाबूराव हजारे यानी अण्णा हजारे को सामने रखकर और पृष्ठ-भूमि में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से ‘इंडिया अगेन्सट करप्शन’ के आंदोलन के माध्यम से खड़े सियासी तूफान में डॉ मनमोहन सिंह सरकार की नैया डूब गई!
उसके बाद बिना किसी राजनीतिक विलंब के केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ‘अकेले दम’ भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी उसी कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में आ गई, जिस कांग्रेस के खिलाफ सियासी तूफान के गर्भ से वह निकली थी।
हालांकि अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार कांग्रेस के समर्थन को 49 दिन से अधिक संभाल नहीं पाई। उसके तुरत बाद हुए चुनाव में आम आदमी पार्टी ने चुनावी जीत का कीर्तिमान बना लिया। दिल्ली में कांग्रेस अपनी राजनीतिक जमीन खो बैठी।
बाद में भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी का रिश्ता खट्टे-मीठे दौर से गुजरता हुआ आज की स्थिति में चुनाव मैदान में आमने-सामने है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को होनेवाली राजनीतिक क्षति और भारतीय जनता पार्टी को उस क्षति से मिलनेवाले राजनीतिक लाभ की कभी परवाह नहीं रही।
प्रसंगवश आम आदमी पार्टी का चरित्र कभी भी क्षेत्रीय पार्टी का हो ही नहीं सकता है। दिल्ली के अधिकतर मतदाताओं का मौलिक संबंध देश के विभिन्न क्षेत्रों से है, दिल्ली इन मतदाताओं का ‘अपना क्षेत्र’ नहीं है। जाहिर है कि दिल्ली में क्षेत्रीय मर्म-कथाओं से अधिक राष्ट्रीय प्रसंग के ही प्रभावी होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के राजनीतिक हल्ला-गुल्ला मचाने से इस तरह का वातावरण बन रहा था कि बस दिल्ली विधानसभा के चुनाव में बस दो ही राजनीतिक पार्टी है, कांग्रेस की उपस्थिति नगण्य बना दी गई है। हालांकि अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी इंडिया गठबंधन में बाइज्जत शामिल रहे हैं।
आम धारणा के अनुसार दिल्ली विधानसभा का चुनाव का नतीजा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में आये या आम आदमी पार्टी के पक्ष में आये राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के लिए चित भी मेरी, पट भी मेरी की स्थिति है। भारतीय जनता पार्टी की तरफ से असली राजनीतिक हमला की आशंका के चलते अरविंद केजरीवाल ने भारतीय जनता पार्टी की शिकायत राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख से की।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख खुद भारतीय जनता पार्टी से अपनी अंदरूनी रिश्तों में ताना-तनी के दौर से गुजर रहे हैं। जाहिर है कि संघ प्रमुख ने अरविंद केजरीवाल की कोई मदद नहीं कर पाये।
इस बीच कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में पूरी ताकत से चुनाव मैदान में आ डटी। कांग्रेस की चमत्कारिक उपस्थिति से आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही हतप्रभ हैं! कांग्रेस की चमत्कारिक उपस्थिति के पीछे की कहानी में तब के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और तब के मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की यादें तैर रही है।
जो चीज जहां खो जाती है, वह वहीं मिल सकती है! दिल्ली ही वह जगह है, जहां से कांग्रेस ने पिछले दौर में अपनी राजनीतिक जमीन खो बैठी थी! शायद भारत के राजनीति का समकालीन काल-चक्र पूरा हो रहा है!
इस बीच राहुल गांधी का ईमानदार और सशक्त राजनीतिक उभार गजब के आत्म-विश्वास से भरा हुआ है! महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राहुल गांधी ने लोकसभा में जिस तरह से इंडिया गठबंधन के नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई और वह भी दिल्ली विधानसभा के चलती चुनाव के समय, वह सराहनीय है।
निश्चित ही राहुल गांधी के हस्तक्षेप ने देश भर के लोगों का मन मुग्ध कर लिया है। कोई कारण नहीं है कि दिल्ली के मतदाताओं पर इस का कांग्रेस क्या पक्ष में कोई सकारात्मक असर न हो। यह ठीक है कि कांग्रेस का संगठन उस अर्थ में ‘बहुत सशक्त’ कभी नहीं रही है; इंदिरा गांधी के शासन-काल के सांगठनिक मिजाज और मनमर्जी के कुछ प्रसंगों को अपवाद माना जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी का मिजाज लोकतंत्र के अनुकूल बिल्कुल ही नहीं है। लोकतंत्र के माध्यम से लोकतंत्र के विरुद्ध बहुत दिन तक कोई भी राजनीतिक दल बहुत दिन तक चल नहीं सकती है। जिस समय पूरी दुनिया के लोग फासीवाद के खिलाफ थे।
1925 में गठित राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ भारत के पूरे हिंदू समाज को फासीवाद के प्रभाव में ले जाने के लिए कमर कस रहा था। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का ऐसा सांगठनिक प्रयास न सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत के बारी उपनिवेश को जान-बूझकर मदद कर रहा था, बल्कि ब्राह्मणवाद और वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से बने आंतरिक उपनिवेश को भी बचाने की कोशिश में लगा रहा था।
विभिन्न कारणों से आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को गहरा झटका लगा था और वह लगभग राजनीतिक निर्वासन में पड़ी रही। इमरजेंसी विरोध की राजनीति से 21 अक्तूबर 1951 में गठित तब के जनसंघ और अभी की भारतीय जनता पार्टी को भारत के लोगों और राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक स्वीकार्यता मिल गई और अब वह शासन में है। स्वीकार्यता तो मिल गई लेकिन फासीवादी मिजाज से वह बाहर निकल नहीं पाई, बल्कि उसे अपनी ‘सांस्कृतिक जिद’ बनाकर इतराने लगी।
फासीवाद के दौर में जर्मनी में कवि, नाटककार और नाट्य निर्देशक के रूप में ब्रतोल्त ब्रेख्त विख्यात हुए हैं। ब्रेख्त की एक कविता का अनुवाद हिंदी के कवि विष्णु खरे ने किया है। वह कविता कहती है, ‘17 जून के बोलनेवाले के बाद लेखक संघ के सचिव ने स्तालीन मार्ग पर पर्चे बंटवाये, जिसमें कह गया है कि जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है। जनता सरकार का विश्वास अब दोगुने प्रयत्नों से ही पा सकती है। ऐसी परिस्थिति में क्या यह ज्यादा आसान नहीं होगा कि वह इस जनता को भंग कर दे और अपने लिए लिया लिए नई जनता चुन ले!’
सामान्य लोकतंत्र में सरकार जनता के विश्वास के बल पर चलती है, फासीवादी लोकतंत्र में सरकारें अपनी ‘पसंद की जनता’ को शासन के विभिन्न कार्यों के लिए अपनी मनमर्जी से चुनने में लगी रहती है। उदाहरण के लिए चुनाव आयोग के गठन की प्रक्रिया, ‘लेटरल एंट्री’ की प्रक्रिया इत्यादि को देखा जा सकता है।
राष्ट्र के जीवन में ऐसे फासीवादी मकाम भी आते हैं जब सरकार महसूस करने लगती है कि वर्तमान जनता उसके मनमाफिक नहीं रही और वह अपने लिए नई जनता की तलाश करने और वर्तमान जनता को खलास करने की प्रक्रिया में लग जाती है।
आज हमारा मुल्क ऐसी ही सरकार को चुन बैठी है वर्तमान जनता जिसके मनमाफिक नहीं है। जाहिर है कि सरकार को अपने लिए नई जनता की तलाश है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ इसी जनता को गढ़ने का कारखाना है। असल में मनमाफिक जनता को गढ़ने के लिए हर सरकार प्रयत्नशील रहती है।
सृष्टि का नियम है हर वह वस्तु जिस का वजूद है वह दूसरी वस्तु को अपने अनुकूल करने की कोशिश में निरंतर लगी रहती है। अनुकूलन की कोशिशों में यदि नीयत सही हो तो जन मनोरम बन जाता है, नीयत गलत हो तो जन-जीवन के हर कोने में दुख पसर जाता है।
राजनीति पूरी तरह से, शुद्ध रूप से दुनियादारी का मामला होती है। दुनियादारी में लेना-देना जरूरी होता है। लेन-देन का हिसाब-किताब समझना बहुत मुश्किल है। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के महत्वपूर्ण घटक दलों ने आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दे दिया है।
मीडिया में चर्चा है कि इंडिया गठबंधन टूट गया है। इंडिया गठबंधन के घटक दलों का कहना है इंडिया गठबंधन टूटा नहीं है बल्कि दिल्ली चुनाव के संदर्भ में व्यावहारिक फैसला किया है। असल में अलग-अलग क्षेत्र के ‘क्षत्रपों’ ने ‘क्षत्रप’ को समर्थन दिया है; दिल्लीश्वरो वा, जगदीश्वरो वा। क्षत्रपों की राजनीति कांग्रेस विरोध से पैदा हुई है।
एक सीमा के बाद कोई भी क्षत्रप कांग्रेस का समर्थन कर ही नहीं सकती है; इसका उलटा भी उतना ही सच है। इंडिया गठबंधन रेल की तरह का ढांचा है, बस की तरह का नहीं। इसमें डब्बा जुड़ता है, अलग हो जाता है। किसी स्टेशन पर कोई डब्बा जुड़ जाता है तो कोई डब्बा अलग हो जाता है।
सच पूछा जाये तो भारतीय राष्ट्र के संघात्मक ढांचा को देखते हुए राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस को भी अपना सांगठनिक ढांचा संघात्मक बनाने पर विचार करना चाहिए। राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस के स्वरूप को बिल्कुल ईमानदारी से फेडरेशन की तरह का बना दिया जाना चाहिए।
कहना जरूरी है कि कांग्रेस की लड़ाई हमेशा इस देश की जनता ने लड़ी है, चाहे वह आजादी के आंदोलन का दौर हो या इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जन-हित के फैसले का समय हो। माना जा सकता है कि कांग्रेस अपनी सांगठनिक शक्ति के बल पर नहीं बल्कि जन शक्ति के समर्थन के बल पर भारत की राजनीति में प्रासंगिक बनी रही है।
यहां सांगठनिक शक्ति के महत्व को कमतर नहीं आंका जा रहा है, यह जरूर याद दिलाने की कोशिश की जा रही है कि संगठन से शक्ति हासिल होती है और शक्ति अन्याय के पक्ष में खड़ी हो जाती है; पूरी ताकत, पूरा अन्याय!
हमारा समय लगातार ‘पूरी ताकत, पूरा अन्याय’ के दुष्चक्र में फंसता जा रहा है। विडंबना यह कि हम दुष्चक्र से बाहर निकलने की तरकीब सोचने के बजाये, दुष्चक्र के जश्न में शामिल होने को अपने आत्म-गौरव से जोड़ने लगे हैं। यह साफ होता जा रहा है कि हमारा समाज हर तरह के न्याय के अभाव जूझ रहा है।
अभी जिसे हम न्याय कहते समझते हैं वह अंग्रेजी के जस्टिस का अनुवाद है। अंग्रेजी में जस्ट का तात्पर्य होता है, न कम न ज्यादा, न इधर न उधर, अर्थात समतामूलक समेकन और संतुलन। समाज में न्याय का अभाव असंतुलन को जन्म देता है; असंतुलन अन्याय को बढ़ावा देता है।
असंतुलित समाज में अच्छे और बुरे का विवेक खत्म हो जाता है। अन्य के अशुभ में अपने शुभ और अपने अशुभ में अन्य के शुभ को वैध ठहराने कि सैद्धांतिकी तैयार करने में लगा रहता है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ जैसी औपनिषदिक उक्ति को हजारों साल से दुहराते हुए भी अपने सुख को सुनिश्चित करने में लगा रहता है।
कामायनी को क्या पता कि ‘औरों को हंसता हुआ नहीं देख सकता है मनु’! की तरह अशुभ शृंखला हमें अपनी चपेट में ले लेती है। हम अन्याय को न्याय और न्याय को अन्याय मानने लग जाते हैं। माफ करें आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल और आजीवन किसान पर लिखनेवाले प्रेमचंद कि लोग बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहते, बिगाड़ से बचने के लिए ईश्वर की प्रार्थना करते हुए फैसला लिखते हैं और पंच परमेश्वर प्रपंच परमेश्वर में बदल जाता है।
जीवन के हर स्तर पर दोहरे मानदंड का इस्तेमाल होने लग जाता है। कोई गलत काम किसी परिस्थिति में गरमागरमी या स्थिति पर नियंत्रण न रह जाने पर हो जाता है, तो हमें उस पर लज्जित ही होना चाहिए न कि अल्ले-टल्ले करना चाहिए। एक उदाहरण जरूरी होगा, महाकुंभ में कितने लोगों की जान गई! हमारे शासकों को नहीं पता!
इतने ‘नकारा’ तो नहीं हैं वे! वे तो ‘दूसरों’ को उनके कपड़ों से ही पहचान लेते हैं! क्या ‘अपनों की मरी हुई देह’ को मां गंगा की गोद में भी नहीं पहचान पाते हैं! किन परिस्थितियों में इतना बड़ा हादसा हुआ यह तो न्याय-व्यवस्था ही तय कर सकती है।
हादसे में क्या न्याय-बुद्धि और न्याय-व्यवस्था भी कुचली गई है! यह आस्था पर व्यवस्था का हमला है! सत्ता जब सुविधा के कोलाहल में बदल जाये तो सत्ता दुष्चक्र को तोड़ती नहीं और मजबूत करती है, क्योंकि दुष्चक्र व्यवस्था का उपकरण और सत्ता का निष्कर्ष बनकर उपस्थित होता है।
उन्माद का बढ़ता हुआ आयतन हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा। दुष्चक्र और भी हैं। उन्माद की लपट को रोका नहीं गया तो वह अपनी चपेट में समग्र नागरिक जीवन को समेट लेगा, अफसोस तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। देर तो पहले ही बहुत हो चुकी है, फिर भी नागरिक मन सोचे कि अभी भी थोड़ा ही सही, वक्त बचा हुआ है।
याद किया जाना जरूरी है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई करते हुए सत्ता पर पहुंची थी। क्या हुआ! असल में खर्चीली जीवन शैली और अतिरिक्त राजनीतिक सत्ता की भूख में अन्योन्याश्रित संबंध होता है। बड़े-बड़े आपराधिक, वित्तीय और राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ में खर्चीली जीवन शैली और सत्ता के अन्योन्याश्रित संबंधों को सक्रिय देखा जा सकता है।
यूं ही नहीं राहुल गांधी टी-शर्ट के महात्म्य का प्रसार कर रहे हैं, यों ही नहीं शिव-शिव करते हैं! यूं ही नहीं, आध्यात्मिक कथाओं की भौतिक व्याख्याओं में लगे रहते हैं। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को ‘आपदा’ घोषित करनेवाले भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी के लिए भले ही चुनावी प्रक्रिया में जैसे-तैसे करके चुनाव जीत लेना ही काफी हो लेकिन राहुल गांधी के सामने जनता की लंबी लड़ाई है!
यह लड़ाई राजगद्दी पर चढ़ बैठने की नहीं, दुख के पहाड़ को लांघने की है! जनता को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। चुनाव में तो जनता का अकर्मक (Passive) समर्थन हासिल होता है सकर्मक समर्थन की परीक्षा तो आंदोलन के दौरान ही हो सकती है।
राहुल गांधी की राजनीति को जनता का ‘जन ताका’ सकर्मक समर्थन की जरूरत है, देश को जोरदार जनांदोलन का इंतजार है। यकीनन, जनता में इस इंतजार के बेसब्र होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है! हां, फिलहाल तो यह कि आठ फरवरी 2025 का इंतजार है।
इंतजार के साथ चिंता यह भी होनी चाहिए कि इस देश की जनता ने इस देश की सरकार का विश्वास खो दिया है! सदैव दहाड़ती रहनेवाली सरकार महाकुंभ में मौनी अमावस्या के समय हुए हादसा पर मौन! तो क्या सरकार जनता को भंग करने की तरफ लपकेगी!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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