Saturday, April 20, 2024

सोशल मीडिया से नहीं चलेगा काम, तोड़नी होगी जमीन

भारतीय राजनीति आज एक संकट से गुजर रही है। संसद से सड़क तक भविष्य को लेकर एक बेचैनी मौजूद है। वामपंथी संसदीय राजनीति हाशिए पर आ चुकी है। 2014 और 2019 के चुनावों ने संसदीय वामपंथ को मुख्यधारा की राजनीति से लगभग बेदखल कर दिया है। बंगाल में बीजेपी के राजनीतिक उभार के पीछे जमीनी स्तर पर ‘‘राम और वाम’’ कार्यकर्ताओं की एकता को रेखांकित किया गया है। वामपंथी राजनीतिज्ञों की स्वच्छ छवि और उनकी सादगी भी उनके किसी काम नहीं आ रही।

जाति आधारित ‘मण्डल’ राजनीति और बहुजन समाज की बात करने वाली आंबेडकरवादी दलित राजनीति भी चुनाव के अखाड़े में चारों खाने चित्त पड़ी है। रिजर्वेशन एक ऐसा झुनझुना बनकर रह गया है जिससे खेलने के लिए दलितों और पिछड़ों में धड़ेबंदियां हो रही हैं और अब सवर्ण जातियों में भी होड़ लगने लगी है। इसलिए बीजेपी और संघ रिजर्वेशन विरोध के पुराने टेप को बंद कर चुके हैं और उन्होंने तीन ठोस कदम उठाकर इसका भरपूर फायदा उठाया है।

पहला, तथाकथित गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा; दूसरा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ओबीसी/बीसी के ‘रिजर्वेशन के भीतर रिजर्वेशन’ करने के लिए आयोग गठित करना या अध्यादेश जारी करके ऐसे जाति समूहों को चिन्हित करना। तीसरा, आर्थिक आधार पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों में आरक्षण  का विभाजन और इनके आर्थिक रूप से कमजोर लोगों में अपने प्रति हमदर्दी पैदा करना।

संसदीय किसान राजनीति भी अब मुख्यधारा की राजनीति से बाहर हो चुकी है। पुराने किसान नेताओं, जैसे- चरण सिंह की अपील हरियाणा से लेकर बिहार तक थी, जो उनके मरते-मरते ही क्षेत्रीय और जातिवादी राजनीति में पतित होकर बंट गयी और फिर बड़े दलों के साथ केंद्रीय सत्ता में मंत्री पदों के लिए सहयोग करने लगी। इस की प्रमुख वजह थी- किसानों के भीतर आये बदलाव। चरण सिंह के वक्त तक किसान मुख्यतः किसान का ही काम करते थे, वे जमींदारों, साहूकारों, आढ़तियों, पूंजीपतियों और सूदखोरों द्वारा सताए जाते थे जिनकी पार्टी कांग्रेस थी, इसलिए किसानों के हित में काम करने के लिए चरण सिंह को अपनी अलग पार्टी बनानी पड़ी।

चरण सिंह और उनके समकालीन अन्य किसान नेताओं द्वारा किये गए सुधारों के कारण और हरित क्रांति के चलते किसानों में खुशहाली आई और फिर उनका चरित्र बदलने लगा। उन्हीं में से कुछ के बेटे मास्टर, सब इंस्पेक्टर, डेरी मालिक, भट्ठे वाले, दुकानदार, देशी-विदेशी कंपनियों के स्थानीय डीलर इत्यादि बने और बाद की पीढ़ी में प्रोफेसर, जज, आईएएस और आईपीएस जैसे पदों पर भी पहुंच गए।

कृषि अब उनका मुख्य पेशा नहीं रह गया। गांव के खेत उन्होंने बटाई पर उठा दिए। कस्बों-शहरों में मकान बना लिए। खाते-पीते और मुखर होने के कारण यही लोग किसानों के अगुवा बने रहे लेकिन दरअसल अब वे ‘किसान’ नहीं रह गए थे। इसलिए इन्हें बीजेपी या कांग्रेस से अब कोई परेशानी नहीं है जैसी चरण सिंह के शुरुआती संघर्ष के दिनों में होती थी।

इस तरह संसदीय किसान राजनीति क्षेत्रीय और जातीय आधारों पर बंट चुकी है और किसान राजनीति का दावा करने वाले मुख्यतः ऊपर वर्णित गांव-कस्बों में निवास करने वाले नवधनाड्य वर्ग के प्रतिनिधि हैं- इसलिए किसानों में अब उनकी कोई अपील नहीं रह गई है।

चौथी राजनीतिक धारा वर्ग-संघर्ष की राजनीति करने वालों की है। वर्ग-संघर्ष की पुरानी राजनीति ट्रेड-यूनियनों और किसान संगठनों के जरिए ही मुख्यतः काम करती थी। पहले के कारखानों में मजदूर सीधे मालिकों के मातहत रहते थे इसलिए संघर्ष को संगठित करना उतना मुश्किल नहीं था। पूंजीपतियों ने ठेका-प्रथा के जरिए इसकी काट निकालने की कोशिश की है। मजदूर अब ठेकेदार का आदमी है और एक बड़े काम के लिए कई ठेकेदार बिचौलिए रहते हैं।

ये लोग सामान्यतः आस-पास के गांवों के लोग रहते हैं। जरूरत पड़ने पर ये सभी फैक्ट्री मालिक का साथ देते हैं और उसके पक्ष में गांव के लोगों को भी लामबंद करने की कोशिश करते हैं, जैसा कि मारुति के गुड़गांव प्लांट की हड़ताल के समय हुआ। मेरठ-परतापुर इंडस्ट्रियल एरिया की बड़ी हड़ताल को दबाने में आस-पास के गांवों के दबंग लोगों और बदमाशों ने फैक्ट्री मालिकों का साथ दिया जिनके हित ठेकेदारी, दुकानदारी, ट्रांसपोर्ट, किराये पर मजदूरों को मकान देने इत्यादि के जरिए फैक्ट्री मालिकों से जुड़े रहते हैं।

भारत की मुख्य श्रमिक आबादी असंगठित क्षेत्र में है, जैसे- रिक्शा चालक, ठेला खींचने वाले, ट्रकों में सामान लादने वाले, ठेले-खोमचे वाले, लेबर चौराहों पर रोज आकर खड़े होने वाले मिस्त्री, पेंटर इत्यादि। अलग-अलग काम करने के कारण इनका संगठन कहीं ज्यादा मेहनत की मांग करता है। 

हर विभाग में नियमित कर्मचारियों की संख्या आज सीमित है और बड़ी संख्या अस्थायी, ‘‘मानदेय’’ पर काम करने वाले ‘अतिथि विद्वानों’, ठेका या कांट्रेक्ट वर्कर्स की है। नियमित कर्मचारियों और ठेका कर्मचारी के बीच एकता बनाना भी आज एक बड़ी चुनौती है। इस विभाजन को पैदा करने वाली सरकार या प्रबंधक आज कर्मचारियों की हड़ताल तोड़ने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं- एक ओर अखबारों और मीडिया के जरिए नियमित कर्मचारियों की भारी-भरकम सैलरी, भत्तों और अन्य सुविधाओं का बखान किया जाता है तो दूसरी तरफ कांट्रेक्ट वालों को नियमित करने का लालच देकर उनकी जगह काम पर बुला लिया जाता है।

हरियाणा रोडवेज के निजीकरण के खिलाफ हड़ताल में यही तरीका अपनाया गया जिसके परिणामस्वरूप कांट्रेक्ट वाले ड्राइवर-कंडक्टर बसें चलाने लगे और हड़ताल को ससम्मान खत्म कर पाना भी नेताओं के लिए भारी पड़ गया जबकि उन्हें हरियाणा के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन, सर्व कर्मचारी संघ, का समर्थन प्राप्त था।

इसके अलावा हिंदू-मुसलमान, जात-बिरादरी इत्यादि पहचान की तेज होती राजनीति भी मजदूर संगठन के रास्ते का बहुत बड़ा रोड़ा बन चुकी है। ये हालात और चुनौतियां मजदूरों के संगठन के काम को पहले से ज्यादा दुश्वार बना चुके हैं, जिसके लिए पहले के ट्रेड यूनियन नेता प्रशिक्षित नहीं है। उनकी पार्टियां सीपीआई और सीपीएम सिद्धांत रूप में निजीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण की राजनीति को स्वीकार कर चुकी हैं, इसलिए जमीन पर काम करने वाले मजदूर नेता या तो निराश हो चुके हैं या दूसरी ताकतवर पार्टियों का साथ दे रहे हैं।

किसान संगठनों का नेतृत्व भी ‘नवधनाड्य’ वर्ग के पास है जिसकी छोटे किसान की समस्याओं से कोई हमदर्दी नहीं है, न ही वह उनके हित की राजनीति को महत्व देता है। उन्हें केवल नवधनाड्य किसानों के हित में ही दिलचस्पी है। इसलिए किसान संगठन आज भूमि अधिग्रहण के उचित मुआवजे या समर्थन मूल्य वगैरह की लड़ाई लड़ रहे हैं जिससे धनी किसानों को ही फायदा होता है। गरीब किसान, बटाईदार किसान और कर्जों के बोझ से दबे छोटे और सीमांत किसानों की समस्याओं के लिए संघर्ष संगठित करने में मौजूदा नेतृत्व की कोई रुचि नहीं है।

निष्कर्ष के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि आजादी के बाद के पूंजीवादी विकास से पैदा हुए नवधनाड्य वर्ग, और निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के देश में लागू होने के बाद, देश में वर्गों की संरचना और उनके स्वरूप में निर्णायक बदलाव आए हैं। किसान-मजदूर वर्ग जो वर्ग संघर्ष की राजनीति की धुरी होते थे, अपनी पुरानी पहचान से अलग, आज बहुत तरह से विभाजित हो चुके हैं और ये विभाजन, कुछ मामलों में ऐसे भी हैं जो एक-दूसरे से विपरीत हितों के हैं।

इसलिए वर्ग-संघर्ष की राजनीति अब तभी सफल हो सकती है जब इस विभाजन को ठीक से समझा जाए। नवधनाड्य वर्ग- शहरी, कस्बाई और ग्रामीण- को ठीक-ठीक पहचाना जाए और वर्ग-संघर्ष में उनकी भूमिका को समझा जाए। उनसे दुश्मनाना रवैया रखने वाले हिस्से को दुश्मन माना जाए- भले ही वे किसान के बेटे हों या मजदूर के। इस बात की अब कोई अहमियत नहीं रह गयी है जैसे कि पहले के वक्तों में थी।

असंगठित और संगठित क्षेत्र के ठेका मजदूरों को संगठित करने के लिए आज पहले के किसी वक्त की तुलना में ज्यादा ताकत चाहिए। पहले दुश्मन वर्ग बहुत छोटा होता था- मिडिल क्लास लगभग नहीं था। आज वैसे हालात नहीं हैं। नवधनाड्य वर्ग को मिलाकर ऊपर का वर्ग काफी बड़ा है, मध्यम वर्ग भी बड़ी संख्या में है। इतनी बड़ी आबादी को हथियार के दम पर जीतना लगभग असंभव है जबकि वह धन-संपत्ति, प्रचार के साधनों और सैनिक व राजनीतिक ताकत पर काबिज है।

इसलिए आज हथियार से ज्यादा प्रचार-प्रसार, संगठन और जन-संघर्षों में भागीदारी पर जोर देने की जरूरत है। नक्सलवादी आंदोलन इसीलिए उन इलाकों में अपनी ऊर्जा खो देता है जहां थोड़ा-बहुत ‘‘विकास’’ हो जाता है। हथियार से थोड़े से लोगों को जीता जा सकता है, देश के करोड़ों नवधनाड्य और मध्यवर्गीय लोगों को नहीं। यह काम जनता की व्यापक गोलबंदी और दुर्धर्ष प्रचार-प्रसार के जरिए वर्ग-संघर्षों का संगठन करके ही हो सकता है।

आज जनसंघर्षों की ताकत बेहद कमजोर है। हमें एक बेहद कमजोर स्थिति से शुरुआत करनी है। परंपरागत रणनीतियों पर गहन विचार-विमर्श करके नई परिस्थितियों के अनुरूप नई रणनीतियां तैयार करने की जरूरत है। इसके लिए गंभीर अध्ययन, सर्वे, बहस-मुबाहिसे को प्रोत्साहित करने की जरूरत होगी।

सिर्फ फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर इत्यादि सोशल मीडिया फार्म पर लिखते रहना और इसे सामाजिक सक्रियता समझना सीधे संघर्ष से पलायन है। हर वामपंथी जनपक्षधर बुद्धिजीवी को इस आभासी दुनिया से बाहर निकलकर सामाजिक तौर पर क्षमतानुसार सक्रिय होकर काम करना चाहिए और अपने हिस्से के खतरों को उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

समाज में बड़ी संख्या में पैदा हुए मध्यवर्ग को देखते हुए ज्यादा से ज्यादा जोर लोकतांत्रिक तरीकों पर दिया जाना चाहिए क्योंकि इतने बड़े वर्ग को अलगाव में डालना कोई आसान काम नहीं होगा।

राष्ट्र और देशभक्ति की भाजपाई अवधारणा, गोरक्षा जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों, लिंच-मॉब की राजनीति और अपने हिसाब से एजेंडा सेट करने की उनकी चालों को तभी चुनौती दी जा सकती है जब कोई संगठन जमीन पर उन्हें जवाब दे और जनता के बीच इनके सही अर्थों का भी साथ ही साथ प्रचार करे। इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।

(ज्ञानेंद्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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