डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 ई. को महू छावनी, मध्य प्रदेश में हुआ था। मूल रूप से महाराष्ट्र के रहने वाले उनके पिता उस समय महू, मध्य प्रदेश में कार्यरत थे। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल तथा माता का नाम भीमाबाई था। जाति-व्यवस्था के अनुसार इनकी जाति ‘महार’ थी, जो महाराष्ट्र की अस्पृश्य जातियों में से एक थी। महार जाति के लोग बहादुर, निर्भीक, प्रतिभाशाली, साहसी व तेजस्वी माने जाते थे। ब्रिटिश फौज में एक महार रेजिमेन्ट थी। डॉ. अंबेडकर के दादाजी मालोजी सकपाल एवं इनके नानाजी भी इसी महार रेजीमेन्ट में थे। उनके पिताजी ब्रिटिश फौज की महार रेजिमेन्ट में सूबेदार मेजर थे। डॉ. अंबेडकर का परिवार कबीर पंथी था।
डॉ. अंबेडकर ने प्राथमिक शिक्षा मराठा स्कूल से प्राप्त की। 1907 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन दिनों मैट्रिक उत्तीर्ण कर लेना, वह भी किसी अछूत का आश्चर्य का विषय था। इस उपलक्ष्य में उनका सम्मान किया गया। सम्मान समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध समाजसुधारक बोले ने की। कृष्णाजी केलुसकर ने भीमराव अंबेडकर की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने ‘भगवान बुद्ध का जीवन-चरित्र’ नामक पुस्तक भीमराव अंबेडकर को उपहार में दी। डॉ. अंबेडकर के मन में बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण का बीज सम्भवतः यहीं से अंकुरित हुआ होगा। डॉ. अंबेडकर का रमाबाई से विवाह 1908 में सम्पन्न हुआ।
डॉ. अंबेडकर ने आर्थिक विपन्नताओं में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके पिताजी की हार्दिक इच्छा थी कि भीमराव अंबेडकर इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् बी. ए. की पढ़ाई अवश्य करें। लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी न थी कि बी. ए. की पढ़ाई का खर्च वहन कर सकें। उस समय केलुसकर की सिफारिश पर बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने पच्चीस रुपये मासिक की छात्रवृत्ति देने का आश्वासन दिया। उन्होंने 1912 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी. ए. करने के पश्चात् भीमराव अंबेडकर ने बड़ौदा नरेश के यहां नौकरी करना प्रारम्भ किया। उसी समय उनके पिताजी का देहान्त हो गया। माताजी का देहान्त तो बचपन में ही हो चुका था, पिताजी के देहान्त से डॉ. अंबेडकर बहुत दुःखी हुए।
बड़ौदा नरेश की छात्रवृत्ति पर ही डॉ. अंबेडकर विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए गए। उन्होंने 1915 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय से एम.ए. एवं 1917 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 1921 में यूनिवर्सिटी ऑफ लन्दन द्वारा एम. एस. सी. की उपधि प्राप्त की। उन्होंने 1922 में डी. एस. सी. एवं 1923 में बार-एट-लॉ की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. भीमराव अंबेडकर की आर्थिक स्थिति साधारण अस्पृश्यों की अपेक्षा अच्छी होने के बावजूद अपने जीवन में उन्हें अस्पृश्यता के कटु अनुभव हुए। नाई उनका बाल नहीं काटता था जबकि वही नाई पशुओं के बाल काटता था। डॉ. अंबेडकर की बड़ी बहन उनके बाल काटती थीं। बचपन में स्टेशन से एक बैलगाड़ी वाला उनको सतारा ले जाने के लिए इस शर्त पर तैयार हुआ कि वह बैलगाड़ी के साथ पीछे-पीछे चलेगा, बैलगाड़ी पर बैठेगा नहीं। डॉ. अंबेडकर स्वयं बैलगाड़ी चलाने लगे, परिणामस्वरूप बैलों को बिदकने से रोक न पाने के कारण स्वयं गाड़ी से नीचे गिर गए तथा गम्भीर रूप से घायल हो गए।
विद्यालय में ब्लैकबोर्ड पर प्रश्न हल करने को लेकर कक्षा के सवर्ण बच्चों ने इसलिए हंगामा किया कि उनका ‘लन्च बॉक्स’ ब्लैक बोर्ड के पास रखा था, जो अस्पृश्य भीमराव के द्वारा स्पर्श हो जाता। बड़ौदा में रहने के लिए धर्मशाला, होटल या कोई घर न मिलना, सैन्य सचिव के पद पर रहते हुए अधीनस्थ सवर्ण कर्मचारियों द्वारा संचिका दूर से ही मेज पर फेंकना, जैसी घटनाएं डॉ. अंबेडकर के जीवन में अनेकों बार घटित हुईं।
डॉ. अंबेडकर ने भारत की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हस्तक्षेप 1920 में ‘मूकनायक’ नामक मराठी साप्ताहिक पत्र निकाल कर किया। उसके पूर्व उन्होंने 27 जनवरी 1919 को मताधिकार सम्बन्धी पूछताछ करने वाली ‘साउथबरो समिति’ के सामने अपना कथन प्रस्तुत किया था।1 20 जुलाई 1924 को अस्पृश्य जनता के सर्वव्यापी हितों का संरक्षण करने वाली संस्था ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’2 की स्थापना डॉ. अंबेडकर ने की। उन्होंने 19 व 20 मार्च 1927 को महाड़ के चावदार तालाब के पानी का अस्पृश्यों के लिए उपयोग हेतु सत्याग्रह किया एवं 03 अप्रैल 1927 को ‘बहिष्कृत भारत’3 नामक पाक्षिक समाचार-पत्र निकालना प्रारम्भ किया।
23 अक्टूबर 1928 को सायमन कमीशन के समक्ष डॉ. अंबेडकर ने साक्ष्य प्रस्तुत किया और अस्पृश्यों के प्रश्न पर जॉन साइमन से वार्ता की। 29 जून 1928 से डॉ. अंबेडकर के मार्गदर्शन में ‘समता’ नामक पाक्षिक पत्र प्रारम्भ हुआ। एक शुक्रवार को ‘समता’ तो दूसरे शुक्रवार को ‘बहिष्कृत भारत’ निकलता था। कुछ महीने के पश्चात् यह प्रयोग बन्द हुआ और 15 नवम्बर 1929 को ‘बहिष्कृत भारत’ का अंतिम अंक प्रकाशित होने के पश्चात सदा के लिए यह पाक्षिक बन्द कर दिया गया। 02 मार्च 1930 को डॉ. अंबेडकर ने कालाराम मंदिर प्रवेश का सत्याग्रह किया। 24 नवम्बर 1930 को ‘समता’ पाक्षिक का नाम परिवर्तित कर ‘जनता’ कर दिया गया। डॉ. अंबेडकर 1931-32 में गोलमेज कान्फ्रेंस में सम्मिलित हुए। 1932 में ‘पूना पैक्ट’ पर हस्ताक्षर किए।
डॉ. अंबेडकर ने 1936 में ‘स्वतंत्र मजदूर दल’ की स्थापना किए। वह जनवरी 1937 में बम्बई लेजिस्लेटिव असेम्बली में सदस्य निर्वाचित हुए। अप्रैल 1942 में ‘ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की जुलाई 1942 में गवर्नर जनरल आफॅ इंडिया की कार्यकारी परिषद में लेबर मेम्बर बने। अप्रैल 1945 में उन्होंने ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी’ की स्थापना की। अगस्त 1947 में उनको संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के लिए अध्यक्ष नियुक्त किया गया तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि मंत्री के रूप में नेहरू मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। डॉ. अंबेडकर ने सितम्बर 1951 में विधि मंत्री के पद से त्याग पत्र दे दिया। 1952 में राज्य सभा के सदस्य बने। 1955 में ‘बुद्धिष्ट सोसायटी आफॅ इंडिया’ की स्थापना की। 14 अक्टूबर 1956 को अपने लाखों अनुयायियों के साथ डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। इसी दिन ‘जनता’ पत्र का नाम परिवर्तित कर ‘प्रबुद्ध भारत’ कर दिया गया। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर 06 दिसम्बर 1956 को दिल्ली में अपने निवास स्थान पर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। 1990 में उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया।
बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने दलितों के हितों के लिए सक्रिय संघर्ष करने के साथ-साथ विभिन्न मंचों पर दलितों का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न लेख लिखे एवं पुस्तकों की रचना की, जिसमें महत्वपूर्ण पुस्तकें निम्नलिखित हैं –
- Caste in India (1916)
- जाति का उच्छेद (1936)
- पाकिस्तान या भारत का विभाजन (1945)
- शूद्र कौन थे (1946)
- राज्य और अल्पसंख्यक (1947)
- अछूत कौन और कैसे (1948)
- रानाडे, गांधी और जिन्ना (1943)
- कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया(1945)
- बुद्ध और उनका धर्म 1957 में प्रकाशित।
डॉ. भीमराव अंबेडकर का दृष्टिकोण
सामाजिक एवं धार्मिक परिप्रेक्ष्य: डॉ. भीमराव अंबेडकर जिस समुदाय में पैदा हुए और पले-बढ़े, उसका उद्धार उनके जीवन और चिंतन का प्रधान लक्ष्य था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आन्दोलन एवं संघर्ष करने के पूर्व उन्होंने परम्परागत हिन्दू सामाजिक संरचना की व्यवस्थित जांच का कार्य आरम्भ किया। डॉ. अंबेडकर ‘अस्पृश्यता’ को दलितों के उत्थान के मार्ग में सबसे भयानक व्यवधान मानते थे। उनका मत था कि ‘अस्पृश्यता’ दलितों के मानव होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। इसलिए वह चाहते थे कि दलित इसके विरूद्ध संघर्ष करें। उनके शब्दों में, “आज तक हम मानते थे कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा हुआ कलंक है, जैसा कि गांधी जी भी कहते हैं। लेकिन अब हमने अपना मत बदल दिया है। अब हम यह कहते हैं कि यह हमारे नर देह पर लगा हुआ कलंक है। जब तक यह हिन्दू धर्म पर कलंक है, ऐसा हम मानते थे, तब तक इसे नष्ट करने का काम हमने आप पर सौंप दिया था। हमारा अब मत है कि यह हमारे ऊपर लगा हुआ दाग है, इसलिए इसे धोकर निकालने का पवित्र काम भी हमने ही शुरू किया है।”4
डॉ. अंबेडकर ने दलित समस्या का ऐतिहासिक संदर्भ में विश्लेषण करने का प्रयास किया। वे वैज्ञानिक पद्धति से दलित समस्या के मूल में पहुंचने का प्रयास करते हैं तथा इस सम्बन्ध में मौलिक अवधारणा स्थापित करते हैं। डॉ. अंबेडकर ऐतिहासिक विकास के क्रम में दलितों की पहचान करने का प्रयास करते हैं। उनका मत है कि दलित हिन्दुओं से पृथक, भिन्न संस्कृतियों के लोग हैं। हिन्दुओं और दलितों में नस्लीय भिन्ना के सिद्धान्त का डॉ. अंबेडकर खंडन करते हैं। उनका मत है कि दलित प्राचीन बौद्ध हैं। प्राचीन भारत में वैदिक संस्कृति और बौद्ध संस्कृति में निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। सम्राट अशोक के शासन काल में बौद्ध धर्म का भारत में वर्चस्व स्थापित हो गया था तथा वैदिक धर्म अवनति की ओर अग्रसर हो रहा था, लगभग 185 ई. पू. में अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ की हत्या उसी के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने धोखे से कर दी तथा स्वयं सम्राट बन बैठा।
पुष्पमित्र शुंग वैदिक धर्मावलम्बी एवं बौद्ध धर्म का कट्टर विरोधी था। बौद्धों और वैदिक धर्मावलम्बियों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ। राजसत्ता पर वैदिक धर्मावलम्बियों का आधिपत्य स्थापित हो गया। वैदिक धर्म के लिए यह स्वर्णयुग था। इसी काल में मनुस्मृति की रचना की गयी तथा बौद्ध धर्मावलम्बी जो वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा पराजित होकर छिन्न-भिन्न हो चुके थे, उनके प्रति घृणा व अस्पृश्यता का भाव भी इसी काल में लगभग 400 ई. के आस-पास पैदा हुआ। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में, “हम कुछ विश्वास के साथ कह सकते हैं कि अछूतपन 400 ई. के आस-पास किसी समय पैदा हुआ। यह बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के संघर्ष में से पैदा हुआ है। इस संघर्ष ने भारत के इतिहास को पूरी तरह बदल दिया है।”5
डॉ. अंबेडकर अस्पृश्यता के मूल में एक और कारण को भी रेखांकित करते हैं। वह कारण है गो-मांसाहार। डॉ. अंबेडकर का मत है कि प्राचीन भारत में गो-मांस खाना एक सामान्य बात थी। लेकिन कालान्तर में वैदिक धर्मावलम्बियों ने गो-हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया। यह प्रतिबन्ध गुप्तों के शासन काल में लगाया गया। परिणामस्वरूप वैदिक धर्मावलम्बियों ने न केवल गो-मांस खाना छोड़ा बल्कि शुद्ध शाकाहारी भी हो गए। लेकिन छितरे हुए बौद्धों ने गो मांस खाना नहीं छोड़ा, क्योंकि उनकी भौतिक परिस्थितियां इसकी अनुमति नहीं देती थीं।
डॉ. अंबेडकर के शब्दों में, “अस्पृश्यता के कारणों की इस नई खोज में दो बातें हाथ लगी हैं। एक बात तो वह सामान्य घृणा का भाव है, जो ब्राह्मणों ने बौद्धों के विरूद्ध फैला रखी थी और दूसरी छितरे हुए आदमियों की गो-मांस खाते रहने की आदत है। जैसा पहले कहा गया है, केवल पहली बात छितरे हुए आदमियों पर ‘अछूतपन’ का कलंक लगाने के लिए पर्याप्त नहीं समझी जा सकती, क्योंकि ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति जो घृणा का भाव फैलाया था, वह तो सामान्य रूप से सभी बौद्धों के विरोध में था, केवल छितरे हुए आदमियों के ही विरूद्ध तो था नहीं। केवल ‘छितरे आदमी’ ही अछूत क्यों बने, इसका मुख्य कारण यह था कि वे बौद्ध थे ही, उसके साथ उन्होंने अपनी गो-मांस खाने की आदत भी नहीं छोड़ी थी। इससे ब्राह्मणों को अपनी नई गोभक्ति को उसकी चरम सीमा पर पहुंचाने का अतरिक्त अवसर मिल गया। इससे हम इस परिणाम पर पहुंच सकते हैं कि छितरे हुए आदमी बौद्ध होने के कारण घृणा के पात्र बने और गोमांसाहारी होने के कारण ‘अछूतपन’ के पात्र बने। “6
डॉ. अंबेडकर के अनुसार दलित समस्या के लिए वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्त एवं हिन्दू-धर्म शास्त्र उत्तरदायी हैं, क्योंकि इन शास्त्रों ने ही ‘छितरे हुए आदमियों’ के प्रति घृणा का भाव फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। पुष्यमित्र शुंग द्वारा वृहद्रथ की हत्या के पश्चात वैदिक धर्म के सिद्धान्तकारों ने नए-नए धर्मग्रन्थों की रचना की तथा वर्ण व्यवस्था के विधानों को कठोरता से लागू करने का प्रयास किया। सिद्धान्तकारों ने प्राचीन सिद्धान्तों की नई व्याख्या भी प्रस्तुत की। मनुस्मृति की रचना एवं उसके विधानों को डॉ. अंबेडकर प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
मनुस्मृति में उल्लेख है कि, “चांडालों और श्वपचों का निवास गांव के बाहर होगा। इनका पात्र (बर्तन) मिट्टी का होगा। कुत्ता और गधा ही इनका धन होगा। इन्हें मुर्दों के उतरन पहनने होंगे। टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करना होगा। इनके आभूषण काले लोहे के होंगे और इन्हें सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करना होगा। कोई आदमी जो किसी धार्मिक कृत्य में लगा हो, इनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखेगा। ये आपस में ही अपना व्यवहार रखेंगे और अपने विवाह भी अपनी बराबरी वालों के साथ करेंगे। इन्हें किसी नौकर आदि के हाथों टूटे-फूटे बर्तन में भोजन दिया जाएगा। वे रात्रि में नगर या गांव में भ्रमण नहीं कर सकेंगे। ये राजा की आज्ञा से राजचिह्नों को धारण कर दिन में कार्य के लिए जा सकेंगे। जिनके कोई सम्बन्धी नहीं हैं, ऐसे मुर्दों को ढोना पड़ेगा, यही नियम निश्चित है। “7
डॉ. अंबेडकर के अनुसार अस्पृश्यता एवं दलितों की निर्योग्यताएं हिन्दू सामाजिक संरचना की उपज हैं, जिनका संपोषण, वर्णाश्रम, कर्म-सिद्धान्त एवं पुनर्जन्म पर आधारित एक व्यवस्थित एवं सशक्त हिन्दू वैचारिकी से होता रहा है। इसलिए उनकी मान्यता थी कि दलित समस्या का निराकरण परम्परागत हिन्दू सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन किए बिना संभव नहीं है। साथ ही परम्परागत ढांचे को नया सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक आयाम तब तक प्रदान नहीं किया जा सकता जब तक कि परम्परागत हिन्दू वैचारिकी को मूल रूप से समाप्त कर उसके स्थान पर एक तर्कसंगत वैचारिकी का विकास नहीं किया जाता। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने वर्ण-व्यवस्था के सैद्धान्तिक आधारों की कटु आलोचना की। उनके अनुसार, “वर्ण-व्यवस्था कोई विकसित व वैज्ञानिक समाज व्यवस्था नहीं है। इसकी उत्पत्ति तब हुई जबकि मानव मस्तिष्क आदिम स्तर पर था। यह सामाजिक सुविधाओं, अनिवार्य सेवाओं और बन्धनों का एक खाका है। जो जानबूझकर अधिकांश लोगों को कुछ गिने-चुने लोगों की सेवाओं में लगाए रखने के लिए बनाया गया। यह सभी के विकास के विरूद्ध है।”8
सदियों से चली आ रही अमानवीय एवं अपमानजनक परिस्थितियों के विरूद्ध दलितों के बीच से विद्रोह न होने का कारण भी डॉ. भीमराव अंबेडकर वर्णव्यवस्था को ही मानते हैं। उनकी दृष्टि में, “चतुर्वर्ण से बढ़कर अपमानजनक सामाजिक व्यवस्था कोई हो ही नहीं सकती। यह मनुष्य की सृजनशील शक्तियों को कुंठित ही नहीं, मृतप्राय बना देती है। चतुर्वर्ण ने निम्न वर्गीय हिन्दुओं को किसी प्रभावशील कार्यवाही के प्रति बिल्कुल अयोग्य बना रखा था। वे शस्त्र धारण कर ही नहीं सकते थे। बिना शस्त्रों के विद्रोह कैसे होता! क्रांति कैसे होती! चतुर्वर्ण के कारण ही वे शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते थे और इस प्रकार वे अपनी मुक्ति के मार्ग की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। “9
डॉ. अंबेडकर ने वर्ण व्यवस्था के ईश्वरकृत होने एवं शाश्वत होने के सिद्धान्त का भी खंडन किया। उन्होंने वर्ण व्यवस्था की आलोचना इस आधार पर भी की कि, “इसमें जाति व्यवस्था के रूप में विकृत हो जाने की प्रवृत्ति अन्तर्निहित है।”10 इस प्रकार चतुर्वर्ण व्यवस्था डॉ. अंबेडकर के अनुसार ‘भारतीय समाज’ की बेड़ी है। चतुर्वर्ण से कालान्तर में जाति की उत्पत्ति हुई जिसने भारतीय समाज में आपसी फूट और कलह को जन्म दिया, जिससे भारतीय समाज पतन के गर्त में पहुंच गया।’11
डॉ. अंबेडकर का मत है कि भारत में व्याप्त असमानता के मूल में वर्ण व्यवस्था है। इसी वर्णव्यवस्था से जातिभेद एवं अस्पृश्यता पैदा हुई है। वह जाति भेद और अस्पृश्यता को असमानता का ही रूप मानते हैं। इसलिए वह मानते हैं कि दलित समस्या का निराकरण वर्ण व्यवस्था व जातिभेद उन्मूलन में ही सम्भव हो सकता है। उनके शब्दों में, ‘अस्पृश्यता जातिभेद का आविष्कार या परिणति है। जब तक जातियां हैं तब तक लोग अस्पृश्य रहेंगे ही। जातिभेद का निर्मूलन करने से ही अस्पृश्यों का उद्धार होगा।12
डॉ. अंबेडकर दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार के कुछ सुझाव भी देते हैं। उनका मत था कि अस्पृश्यता दूर करने के लिए अस्पृश्यों की अलग बस्तियां बसायी जाएं। अलग बस्तियों में ऊंच-नीच की कोई भावना नहीं रहेगी, बस्तियां स्वतंत्र आर्थिक इकाई रहेंगी जिससे अस्पृश्यों को स्वतंत्र रूप से रोजगार का अवसर मिलेगा तथा सवर्णों के अत्याचार से भी अस्पृश्यों को मुक्ति मिलेगी। उनके शब्दों में, “इस समय सवर्ण हिन्दू गांवों में रहते हैं और अस्पृश्य गंदी बस्तियों में। उद्देश्य यह है कि अस्पृश्यों को हिंदुओं की दासता से मुक्त किया जाए। जब तक वर्तमान व्यवस्था चलती रहेगी, तब तक अस्पृश्य न तो हिंदुओं की गुलामी मुक्त हो पाएंगे और न उनका अस्पृश्यता से पीछा छूटेगा। एक ही गांव में रहने वाले हिन्दुओं और अस्पृश्यों के बीच अत्यन्त निकट सम्बन्ध के कारण ही अस्पृश्य अलग से पहचाने जाते हैं और सवर्ण हिन्दू उन्हें अस्पृश्य मानते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत गांवों का देश है और जब तक ग्राम प्रणाली में अस्पृश्यों को आसानी से पहचाना जा सकता है, अस्पृश्यों को अस्पृश्यता से छुटकारा नहीं मिल सकता। गांवों के साथ लगी गंदी बस्तियों की प्रणाली ही अस्पृश्यता को स्थायी बनाती है। अतः अस्पृश्यों की मांग है कि इस सम्बन्ध को तोड़ा जाए और अस्पृश्यों को, जो वस्तुतः सामाजिक रूप से पृथक हैं, क्षेत्रीय एवं भौगोलिक रूप से पृथक किया जाए और उन्हें अलग गांवों में बसाया जाए, जो केवल अस्पृश्यों के गांव हों, जिनमें ऊंच-नीच का और स्पृश्य तथा अस्पृश्य का कोई भेद न हो। “13
डॉ. अंबेडकर ने अस्पृश्यों को अस्पृश्यता से मुक्ति के लिए हिन्दू धर्म का परित्याग करने की भी सलाह दी। उनका विचार था कि अछूतों को अपने सामाजिक और धार्मिक अधिकारों के लिए हिन्दुओं से इसलिए लड़ना पड़ रहा है, क्योंकि वे हिन्दू धर्म के अंग हैं। सवर्ण हिन्दू मुसलमानों या इसाइयों को असमान दृष्टि से नहीं देखता है और न ही हिन्दुओं द्वारा असमानता के व्यवहार से उनकी कुछ हानि होने वाली है। हिन्दू धर्म का परित्याग करने पर अछूतों को न तो अपने सामाजिक, धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ने की आवश्यकता पड़ेगी न ही सवर्ण हिन्दुओं के असमान व्यवहार से कोई हानि होगी।
डॉ. अंबेडकर के शब्दों में, “हिन्दू धर्म में रहने के कारण हिन्दू समाज से सामाजिक और धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है। किन्तु आज के मुस्लिम व ईसाई लोगों को हिन्दू धर्म की चौखट से बाहर जाने के कारण हिन्दू समाज से सामाजिक और धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ने की एवं इसके लिए विद्रोह और आन्दोलन करने की आवश्यकता नहीं है और न उन्हें विद्रोही बनना पड़ रहा है। दूसरी बात यह है कि हिन्दू समाज में उन्हें किसी प्रकार का अधिकार न होने, मतलब उससे रोटी और बेटी का व्यवहार न होने पर भी हिन्दू समाज उन्हें असमान दृष्टि से नहीं देखता है और न तो हिन्दुओं द्वारा असमान दृष्टि से देखे जाने पर उनका कुछ बाल- बांका होता है। धर्मान्तरण से समता स्थापित हो सकती है। धर्मान्तरण से यदि हिन्दू और अस्पृश्य के बीच सलूक उत्पन्न हो सकता है, तो समता का यह सीधा, सरल और हितकारी रास्ता अस्पृश्य दलित समाज को स्वीकार कर लेना चाहिए।”14
डॉ. अंबेडकर चाहते थे कि अछूत बौद्ध धर्म ग्रहण करें। बौद्ध धर्म इस देश की संस्कृति, विचार और परम्परा से जुड़ा धर्म है। इस धर्म की शिक्षाओं में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व तीनों मूल्य समाहित हैं। उनके शब्दों में, “इस देश की संस्कृति, विचार और परम्परा से जुड़ा हुआ धर्म केवल बौद्ध धर्म है। हम पूरे विश्व को समता, स्वतंत्रता और बंधुभाव के ये तीन आधारभूत महान विचार दे रहे हैं। “15
बौद्ध धर्म में ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, चमत्कार जैसे मनुष्य के विवेकसम्मत विकास को अवरूद्ध करने वाले सिद्धान्त नहीं हैं। बौद्ध धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है। समानता, न्याय और प्रज्ञा पर आधारित है। इसमें भ्रातृत्व, मानव प्रेम और अपनत्व है। कर्मकांड और पाखंड नहीं है। यह पुरोहितों और धार्मिक ग्रन्थों की दासता में नहीं जकड़ता न ही स्वर्ग या मुक्ति के प्रलोभन देता है। इसमें जादू-टोने के लिए कोई स्थान नहीं। आत्मा-परमात्मा के चक्रों में नहीं उलझता। यह आरम्भ, मध्य और अन्त में भी कल्याणकारी है। इसमें सामाजिक असमानता का स्थान नहीं, सबको उन्नति के एक जैसा अवसर प्रदान करता है। बुद्ध ने स्वयं को मुक्ति दाता नहीं मार्गदर्शक कहा है।”16
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: डॉ. अंबेडकर का भारतीय राजनीति में प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथ में आ चुका था। दलित वर्ग अपनी निर्योग्यताओं से छुटकारा पाने के लिए मुखर हो रहा था। छत्रपति शाहूजी महाराज अपनी रियासत में पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में पचास प्रतिशत आरक्षण लागू कर चुके थे तथा समय-समय पर दलित वर्गों को उनकी सभाओं में जाकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को प्रोत्साहित कर रहे थे। 1917 में दलितों की दो सभाएं क्रमशः सर नारायण चन्द्रावरकर एवं बापूजी नामदेव बागड़े की अध्यक्षता में बम्बई में सम्पन्न हुई। इन सभाओं में दलितों के अधिकारों की मांग की गयी। 1917 में कांग्रेस ने भी दलितों के बीच फैल रही चेतना के दबाव को महसूस किया तथा अपने अधिवेशन में दलितों पर थोपी गयी निर्योग्यताओं को दूर करने की आवश्यकता पर बल दिया। कांग्रेस के अधिवेशन में प्रस्ताव पास किया गया कि, “यह कांग्रेस भारत के लोगों से पारम्परिक रूप से दलित वर्गों पर थोपी गयी सभी प्रकार की निर्योग्यताओं को दूर करने की आवश्यकता, न्याय और औचित्य का आह्वान करती है, क्योंकि इन वर्गों पर भयानक कठिनाइयां और परेशानियां लादने वाली ये निर्योग्यताएं सर्वाधिक कष्टकर और दमनकारी चरित्र की हैं।17 इन परिस्थितियों में डॉ. अंबेडकर ने राष्ट्रीय स्तर पर दलित वर्ग के अधिकारों के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया तथा दलित समस्या के समाधान हेतु विचार व्यक्त किए।
डॉ. अंबेडकर दलित समस्या के राजनीतिक पक्ष को विशेष महत्व देते हैं। उनके अनुसार, “अतीत में दलित समस्या के निवारण के उपायों के विफल होने का मुख्य कारण यह था कि लोग इसे एक सामाजिक समस्या मानते हुए इसके उपचार के लिए सामाजिक-धार्मिक नुस्खे अपनाते थे। सामाजिक समस्या के अन्तर्गत सामान्यतया बाल विवाह, विधवा विवाह निषेध अथवा दहेज आदि सामाजिक कुरीतियां आती हैं। इनका सामाजिक राजनीतिक ढांचे से कुछ लेना देना नहीं होता, जबकि अछूत परम्परागत सामाजिक-राजनीतिक ढांचे का एक पृथक वर्ग है। उसका सामाजिक ढांचे में एक विशिष्ट स्थान है। उसकी समस्याएं सामाजिक-राजनीतिक ढांचे से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित हैं।”18
दलित समस्या को न केवल सवर्ण समाज सुधारक सामाजिक एवं धार्मिक समस्या मानते थे बल्कि दलित भी इसको सामाजिक समस्या मानते थे। डॉ. अंबेडकर ने इस मत का खंडन किया। उनके शब्दों में, “जहां तक अछूतों का प्रश्न है वे भी हजारों वर्षों से इसे एक सामाजिक समस्या ही मानते रहे और हिन्दुओं से इसके समाधान की आशा करते रहे, किन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब राजा राममोहन राय जैसे उदार नेताओं द्वारा समाज सुधार के रूप में अछूतोद्धार का आन्दोलन आरम्भ किया गया तथा सोशल रिफार्म कांफ्रेंस बनी तो अछूतों ने इसके साथ पूरा सहयोग किया, परन्तु समाज सुधार आन्दोलन की जो दुर्गति हुई उससे निराश होकर ही अछूतों ने अपने लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग शुरू की। वे यह समझ गए कि खोये हुए अधिकारों को प्राप्त करने के लिए उन्हें सामाजिक सुधार की नहीं वरन् राजनीतिक अधिकार की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। इसके लिए उनका एक राजनीतिक इकाई के रूप में संगठित होना जरूरी है।”19
डॉ. अंबेडकर ने दलितों द्वारा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की प्रक्रिया पर भी विचार व्यक्त किया। उनके अनुसार दलितों को राजनीतिक शक्ति उन्हें अपनी एकता व संगठन से हासिल करनी होगी न कि यह उन्हें दूसरों की अनुकम्पा या दूसरों के संरक्षण से प्राप्त हो पाएगी। इसके लिए डॉ. अंबेडकर ने दलितों में राजनीतिक चेतना के प्रसार तथा उनके राजनीतिक समाजीकरण पर बल दिया, क्योंकि जब तक दलितों को राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं बनाया जाता तब तक उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए सक्रिय बनाना संभव नहीं होगा। जब तक वे राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय नहीं होंगे तब तक राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। डॉ. अंबेडकर की दृष्टि में स्वतंत्र भारत में राजनीतिक शक्ति ही एकमात्र ऐसा साधन है, जिसे दलित प्राप्त कर सकते हैं बशर्ते कि वे सही रणनीति अपनाएं। राजनीतिक शक्ति हासिल करने के पश्चात वे अपना उद्धार स्वयं कर सकते हैं। जब तक राजनीतिक शक्ति दलितों के हाथों में नहीं आ जाती तब तक वे अपनी समस्याएं सुलझाने में समर्थ नहीं हो सकते।”20
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत के लिए लोकतांत्रिक शासन पद्धति को उपयुक्त माना, क्योंकि इसी प्रणाली के अन्तर्गत दलितों को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी मिल सकती थी। उन्होंने 20 नवम्बर 1930 को गोलमेज सम्मेलन में अपने विचार व्यक्त करते हुए भारत में लोकतंत्र स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया था। उनके शब्दों में, “भारत में नौकरशाह प्रणाली को बदलकर एक ऐसी सरकार स्थापित की जाए जो जनता की हो, जनता द्वारा चलाई जाए और जनता के लिए हो।”21
उनका मत था कि भारत में पूर्ण स्वराज की स्थापना अति आवश्यक है, क्योंकि दलितों को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी पूर्ण स्वराज के अन्तर्गत ही मिल सकती है। उनके शब्दों में, “दलित वर्ग इस अनिवार्य निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भारत की नौकरशाह सरकार सदाशय के बावजूद हमारी तकलीफों को दूर करने के लिए किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं ला सकती। हम महसूस करते हैं कि हमारे अतिरिक्त हमारे दुःख-दर्द को कोई भी दूर नहीं कर सकता और जब तक राजनीतिक शक्ति हमारे हाथों में नहीं आती, हम भी उसे दूर नहीं कर सकते। जब तक अंग्रेजी सरकार बनी रहेगी, तब तक इस राजनीतिक सत्ता का अंशमात्र भी हमें मिलने वाला नहीं। स्वराज के अन्तर्गत् ही हमें राजनीतिक सत्ता में साझेदारी का कोई अवसर मिल सकता है। राजनीतिक सत्ता के बिना हमारे लोगों का उद्धार संभव नहीं है।”22
भारत में लोकतांत्रिक शासन के स्वरूप पर डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट मत व्यक्त किया। वह संसदीय शासन प्रणाली को राष्ट्रपति शासन प्रणाली से उपयुक्त समझते थे। उनके शब्दों में, “लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में दो बातें अवश्य होनी चाहिए- स्थिरता और उत्तरदायित्व। अब तक किसी ऐसी शासन पद्धति का आविष्कार नहीं किया जा सका जिसमें दोनों बातें बराबर मात्रा में हों। एक में स्थिरता अधिक है किन्तु उत्तरदायित्व कम, दूसरी में उत्तरदायित्व अधिक है किन्तु स्थिरता कम। संसदीय शासन पद्धति की सिफारिश करते समय स्थिरता की अपेक्षा उत्तरदायित्व को अधिक महत्व दिया गया है।23
‘संसदीय एवं गैर संसदीय शासन प्रणालियां केवल इस बात में ही भिन्न नहीं होतीं कि पहली-दूसरी से अधिक उत्तरदायी होती है, वरन् वे उत्तरदायित्व के आंकलन की अवधि तथा अभिकरण में भी एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। असंसदीय प्रणाली, जैसी कि अमेरिका में है, में कार्यकारिणी के उत्तरदायित्व का आंकलन एक निश्चित समयावधि पर ही होता है। यह चार वर्ष में एक बार होता है। यह मतदाताओं द्वारा किया जाता है। इंग्लैंड में जहां संसदीय सरकार है, कार्यकारिणी के उत्तरदायित्व का आकलन प्रतिदिन होता है। साथ ही एक निश्चित अवधि के उपरान्त भी होता है। प्रतिदिन का आंकलन संसद सदस्यों द्वारा संसद में पूछे गए प्रश्नों, प्रस्तावों, स्थगन प्रस्तावों तथा भाषण पर वाद-विवाद के द्वारा किया जाता है। आवृत्तिकालिक आकलन चुनावों, जो पांच वर्षों या इसके पूर्व हो सकते हैं, के समय मतदाताओं द्वारा किया जाता है। यह अनुभव किया गया है कि कार्य – कारिणी के उत्तरदायित्व का दैनिक आंकलन, जो कि अमेरिकी प्रणाली में नहीं पाया जाता किन्तु ब्रिटिश प्रणाली में पाया जाता है, आवृत्तिकालिक आंकलन की तुलना में अधिक प्रभावकारी होता है और डॉ. अंबेडकर की दृष्टि में भारत जैसे देश के लिए यह आवश्यक व उपयोगी भी है।’24
डॉ. अंबेडकर चाहते थे कि भारत की शासन पद्धति, नागरिकों के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, दलितों को विशेष संरक्षण आदि को संविधान में ही परिभाषित कर दिया जाए। वह इन प्रावधानों को विधायिका की इच्छा पर छोड़ना नहीं चाहते थे। दलितों को संविधान के द्वारा मात्र समान नागरिक अधिकार दिए जाने से डॉ. अंबेडकर संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि दलितों पर थोपी गयी सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यताओं के कारण दलित समान नागरिक अधिकारों का उपभोग तब तक नहीं कर सकते थे जब तक कि उन्हें राज्य का विशेष संरक्षण न दिया जाए।
सामाजिक दृष्टि से दलित एक पृथक इकाई के रूप में जीवन-यापन कर रहे थे तथा जनसंख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक भी थे। इसलिए डॉ. अंबेडकर दलितों के लिए नागरिकों के समस्त मूल अधिकार, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सम्बन्धी समस्त सुविधाएं तथा विशेष संरक्षण की व्यवस्था संविधान में ही चाहते थे। उनके शब्दों में, “अनुसूचित जातियों के लिए मेरी यह मांग औचित्यपूर्ण है कि उन्हें नागरिकों के मूल अधिकारों की समस्त सुविधाएं, अल्पसंख्यकों की रक्षण सम्बन्धी समस्त सुविधाएं दी जाएं और साथ ही उनके लिए विशेष सुरक्षा उपाय किए जाएं।”25
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तीन अंग होते हैं- व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। डॉ. अंबेडकर ने शासन के तीनों अंगों में दलितों की जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का विचार व्यक्त किया। साथ ही साथ उन्होंने प्रशासन तथा लोक सेवाओं में भी दलितों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का मत व्यक्त किया। उनके शब्दों में, “हमें इस तरह की राज्य पद्धति चाहिए जिसमें मुझे मतदान का ही नहीं मेरे समाज का प्रतिनिधि विधान परिषद में भेजने का अधिकार होना चाहिए। मेरे प्रतिनिधियों को वहां होने वाली चर्चा में ही नहीं, निर्णय करने के कार्य में भी अधिकार होना चाहिए। इसलिए मेरा मत है कि जातिगत प्रतिनिधित्व बुरा नहीं है। न्यायालय के क्षेत्र में जातिगत प्रतिनिधित्व की आवश्यकता इसलिए है कि अनेक बार न्यायालय के निर्णयों में जातिगत वृत्ति दिखाई पड़ती है और कुछ मामलों में तो यह भी दिखाई पड़ा है कि न्यायाधीशों ने अपने अधिकार का दुरुपयोग किया है।”26
डॉ. अंबेडकर के अनुसार दलितों को शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व मिलने से वे अपने हितों सुरक्षा स्वयं कर सकेंगे, अपनी समस्याओं को हल करने के लिए स्वयं नियम बना सकेंगे तथा नियमों का क्रियान्वयन भी स्वयं कर सकेंगे।
डॉ. अंबेडकर ने शासन के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका में दलितों को वास्तविक प्रतिनिधित्व देने का विचार व्यक्त किए। उनके अनुसार यदि प्रतिनिधियों के निर्वाचन की प्रक्रिया अच्छी नहीं होगी तो विधायिका या अन्य प्रतिनिधि संस्थाओं में दलितों के वास्तविक प्रतिनिधि निर्वाचित नहीं हो पाएंगे। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में दलितों के लिए ‘पृथक निर्वाचक मंडल’ की मांग रखी। इस निर्वाचन प्रणाली के अनुसार दलितों के प्रतिनिधियों के चुनाव में केवल दलितों को ही मत देने का अधिकार दिया जाना था। साथ ही साथ सामान्य प्रतिनिधियों के चुनाव में दलित समान रूप से मत देने के अधिकार का प्रयोग कर सकते थे।
ब्रिटिश सरकार डॉ. अंबेडकर की मांग से सहमत हो गयी। परिणामस्वरूप दलितों को पृथक निर्वाचक मंडल के साथ दो मतों का अधिकार प्राप्त हो गया। भारतीय इतिहास में ब्रिटिश सरकार के इस निर्णय को ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ के नाम से जाना जाता है। महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के इस निर्णय का कड़ा विरोध किया तथा अनशन पर बैठ गए। महात्मा गांधी के भारी विरोध के कारण डॉ. अंबेडकर को पृथक निर्वाचक मंडल सहित दो मतों के अधिकार को छोड़ना पड़ा। इस समझौते को ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। डॉ. अंबेडकर ‘पूना पैक्ट’ द्वारा स्वीकार की गयी ‘संयुक्त निर्वाचन प्रणाली’ से सहमत नहीं थे। 15 मार्च 1947 को अनुसूचित जाति संघ की ओर से संविधान सभा को सौंपने के लिए तैयार किए गए ज्ञापन में उन्होंने पूना पैक्ट से आरम्भ की गयी निर्वाचन प्रणाली को समाप्त करने तथा उसके स्थान पर ‘पृथक निर्वाचक मंडल’ की प्रणाली आरम्भ करने का मत व्यक्त किया।
इस प्रकार डॉ. अंबेडकर का मत था कि दलितों को पृथक निर्वाचक मंडल सहित दो मत देने का अधिकार प्राप्त हो। पृथक निर्वाचक मंडल से दलित प्रतिनिधि केवल दलितों के मतों से निर्वाचित होंगे इसलिए उन्हें दलित हितों का ध्यान रखना पड़ेगा। सामान्य प्रतिनिधियों के निर्वाचन में भी दलितों को मत देने का अधिकार प्राप्त होने के कारण सामान्य प्रतिनिधि भी दलित हितों की अनदेखी नहीं कर पाएंगे। इस प्रकार डॉ. अंबेडकर ने निर्वाचन पद्धति पर विशेष बल दिया जिससे विधायिका में दलितों का वास्तविक तथा प्रभावकारी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।
आर्थिक परिप्रेक्ष्य: डॉ. अंबेडकर ने दलित समस्या के सामाजिक, राजनीतिक पक्ष के साथ-साथ आर्थिक पक्ष का भी अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण किया। परम्परागत भारतीय समाज में अपवित्र समझे जाने वाले कार्य दलितों को आवंटित किए गए थे। इन कार्यों को करने के बदले दलितों को दिया जाने वाला पारिश्रमिक भी निर्धारित नहीं था। इसलिए दलितों को घोर आर्थिक संकट झेलना पड़ता था।
डॉ. अंबेडकर ने दलितों की आर्थिक स्थिति एवं भारत की परिस्थितियों को ध्यान रखते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन का विचार व्यक्त किया। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिए ‘राज्य समाजवाद’ की संकल्पना प्रस्तुत की।
राज्य समाजवाद को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि, “इसके पीछे मुख्य प्रयोजन राज्य पर यह दायित्व डालना है कि वह लोगों के आर्थिक जीवन को इस प्रकार योजनाबद्ध करे कि उससे उत्पादकता का सर्वोच्च बिन्दु हासिल हो जाए और निजी उद्यम के लिए एक भी मार्ग बंद न हो और सम्पदा के समान वितरण के लिए भी उपबन्ध किया जाए। इस खंड के अन्तर्गत वर्णित योजना के अनुसार कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व प्रस्तावित है, जहां सामूहिक पद्धति से खेतीबाड़ी की जाए तथा उद्योग के क्षेत्र में राजकीय समाजवाद का रूपान्तरित रूप भी प्रस्तावित है। इसमें कृषि एवं उद्योग के लिए आवश्यक पूंजी सुलभ कराने की बाध्यता राज्य के कंधों पर स्पष्ट रूप से डाली गयी है।
राज्य द्वारा पूंजी उपलब्ध कराए बिना कृषि या उद्योग से बेहतर परिणाम नहीं लिए जा सकते। इसमें यह भी प्रस्तावित है कि बीमा का दोहरे उद्देश्य राष्ट्रीयकरण किया जाए। व्यक्ति को निजी बीमा फर्म की अपेक्षा राष्ट्रीयकृत बीमा से अधिक सुरक्षा मिलती है, क्योंकि उसके अन्तर्गत राज्य के संसाधन व्यक्ति की बीमा राशि की अन्तिम भुगतान की प्रतिभूति के रूप में गिरवी रहते हैं। साथ ही राज्य को भी अपनी आर्थिक योजना के वित्त प्रबन्ध के लिए आवश्यक संसाधन मिल जाते हैं। अन्यथा राज्य को ऊंची ब्याज दर पर बाजार से धन उधार लेना पड़ता है। भारत के तेजी से औद्योगीकरण करने के लिए राजकीय समाजवाद अनिवार्य है। निजी उद्यम ऐसा नहीं कर सकता और यदि कर भी सकता है तो भी वह सम्पदा की विषमताओं को जन्म देगा, जो निजी पूंजीवाद ने यूरोप में पैदा की है और जो भारतीयों के लिए एक चेतावनी होगी।
चकबंदी और काश्तकारी विधान व्यर्थ हैं। उनसे कृषि क्षेत्र समृद्ध नहीं हो सकता। न तो चकबंदी और न ही काश्तकारी विधान छः करोड़ अस्पृश्यों के लिए सहायक हो सकते हैं, जो भूमिहीन मजदूर हैं। न तो चकबंदी और न ही काश्तकारी विधान उनकी समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं। प्रस्ताव में वर्णित विधि से स्थापित कृषि ही उनके लिए सहायक हो सकती हैं।27
डॉ. अंबेडकर ने भारतीय अर्थव्यवस्था को साम्यवादी प्रारूप पर पुनर्गठित करने का विचार व्यक्त किया। उनके अनुसार भारत का तेजी से औद्योगीकरण का दायित्व राज्य का होगा न कि व्यक्तिगत पूंजीपतियों का। कृषि पर पूर्णतः राज्य का नियंत्रण होगा और इसका इस प्रकार नियोजन किया जाएगा कि उत्पादकता का सर्वोच्च बिन्दु प्राप्त किया जा सके।
राज्य कृषि कार्य हेतु संसाधन उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए बाध्य होगा। भूमि गांव के लोगों को जाति या पंथ के भेदभाव के बिना पट्टे पर दी जाएगी और ऐसी विधि से पट्टे पर दी जाएगी कि कोई जमींदार न रहे, कोई पट्टेदार न रहे और न कोई भूमिहीन श्रमिक रहे। पट्टेदार उपज पर आरोपित प्रभार राज्य को भुगतान करने के पश्चात शेष उपज को आपस में निर्धारित विधि से बाटेंगे। बीमा उद्योग पर राज्य का पूर्णतः नियंत्रण रहेगा और राज्य हर वयस्क नागरिक को विवश करेगा कि वह अपनी आय के अनुरूप ऐसी जीवन बीमा पॉलिसी ले, जो विधान मंडल द्वारा विहित की जाए।
इस प्रकार डॉ. अंबेडकर का मानना था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘राज्य- समाजवाद’ के अनुसार पुनर्गठित किए बिना दलित समस्या का समाधान संभव नहीं होगा। वह ‘राज्य समाजवाद’ की स्थापना का कार्य विधानमंडल की इच्छा पर नहीं छोड़ना चाहते थे, बल्कि संवैधानिक विधि द्वारा स्थापित करना चाहते थे। उनके शब्दों में, “इस योजना की दो प्रमुख विशेषताएं हैं: एक, इसमें प्रस्तावित है कि आर्थिक जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में राजकीय समाजवाद हो। इस योजना की दूसरी खास बात है कि राजकीय समाजवाद की स्थापना विधान मंडल की इच्छा पर निर्भर नहीं करेगी। राजकीय समाजवाद की स्थापना सवैधानिक विधि द्वारा होगी और इस प्रकार उसे विधायिका और कार्यपालिका के किसी कृत्य बदला नहीं जा सकेगा।”28
(अलख निरंजन प्राध्यापक और अंबेडकर विचार के अध्येता हैं।)
संदर्भ सूची
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- पाद टिप्पणी – 23, पृष्ठ- 27।
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- पाद टिप्पणी – 25, पृष्ठ – 5 ।
- पाद टिप्पणी – 25, पृष्ठ – 50।
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- पाद टिप्पणी – 28, पृष्ठ-73
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- पाद टिप्पणी – 31, पृष्ठ संख्या – 31।
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- पाद टिप्पणी 31, पृष्ठ संख्या – 32 ।
- ‘कीर’ धनंजय, डॉ. बाबा साहब अंबेडकर जीवन चरित्र, पाप्युलर प्रकाशन, नई दिल्ली,: हिन्दी संस्करण, 1996, पुनर्मुद्रण 2006, पृष्ठ संख्या-219।
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- अंबेडकर, डॉ. बी. आर. बाबा साहब अंबेडकर के पन्द्रह व्याख्यान, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, 2003, पृष्ठ-921
- पाद टिप्पणी – 41, पृष्ठ-177 ।
- अंबेडकर, डॉ. भीमराव, बाबा साहब डॉ. अंबेडकर सम्पूर्ण, खंड -2, डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, 1993, पृष्ठ-170।
- कीर, धनंजय, डॉ. बाबा साहब अंबेडकर : जीवन चरित, पाप्युलर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ – 220।
- पाद टिप्पणी – 48, पृष्ठ-193 ।
- पाद टिप्पणी – 48, पृष्ठ-194।
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