राजीव गांधी की 30वीं बरसी पर विशेष: जब मुझे फिल्म के इंटरवल से पहले थियेटर से उठाया गया

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 21 मई 1991 को लोक सभा चुनाव के बीचों-बीच तमिलनाडु में श्रीपेरंबदूर के पास कांग्रेस की चुनावी जनसभा में श्रीलंका के ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम ‘ (लिट्टे) के आत्मघाती आतंकवादियों के हमले में हत्या कर दी गई थी। उस हत्या के बारे में केंद्र सरकार द्वारा गठित न्यायिक जैन कमीशन की कार्यवाही, उसकी फाइनल रिपोर्ट और बहुत सारी खबरें अब पब्लिक डोमेन में हैं। इन खबरों के पीछे के खबरनवीसों के सियासतदा के साथ की बातचीत के संस्मरण बहुत ही कम लिखे गये हैं।

जयपुर में

हम उस दिन त्रिभाषी समाचार एजेन्सी यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया (यूएनआई) के दिल्ली से विशेष रुप से भेजे पत्रकार के रूप में ड्यूटी पर राजस्थान की राजधानी जयपुर में तैनात थे। हमारे साथ ही दिल्ली से एमके लाल भी जयपुर भेजे गए थे, जो दिवंगत हो चुके हैं। हम दोनों जयपुर रेलवे स्टेशन के पास के होटल के एक ही कमरे में ठहरे थे। वे सिर्फ अंग्रेजी में काम करते थे।हम मुख्यतः हिन्दी में काम करते थे। लेकिन अंग्रेजी में भी लिखा करते थे।

लाल साहब दिवंगत होने के कुछ पहले यूएनआई प्रबंधन के महाप्रबंधक और मुख्य सम्पादक बन गए थे। वे मेरी ही तरह बहुत लिखते थे। कहीं भी जाने पर वहां से सार्वजनिक महत्व की ढेर खबरें बटोर लाते थे। उन्हें फिल्म देखने का बड़ा शौक था। उस दिन राजस्थान में ज्यादा खबरें नहीं थीं। जो थोड़ी खबरें थीं, उनको हम दोनों निपटा लेने के बाद ऑफिस में ही मंगाई चाय साथ-साथ पी रहे थे। चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने कहा: चलो आज शाम कोई फिल्म देख आते हैं।

हमने कहा : लाल साहब, जयपुर रेलवे स्टेशन के पास के ही एक सिनेमा घर में सुनील दत्त की नई फिल्म ‘ ये आग कब बुझेगी ‘ लगी है। चलिए वही देख लेते हैं। यह फिल्म सामाजिक सरोकार के विषय, दहेज कुप्रथा पर है। फिल्म देखने के बाद सीधा होटल चले जायेंगे। मुझे कल से राजस्थान की हर लोक सभा सीट के वोटरों के निर्वाचन आयोग से हासिल प्रामाणिक आंकड़ों के आधार पर विस्तृत विश्लेषण रिपोर्ट तैयार करनी है।

ये आंकड़े तब यूएनआई के जयपुर ब्यूरो के युवा रिपोर्टर गोविंद चतुर्वेदी ने निर्वाचन आयोग के प्रदेश कार्यालय से किसी तरह जुटा कर मुझे दिए थे। वह बाद में राज्य के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अशोक गहलोत के प्रेस सलाहकार रहे। वह बहुत बाद में राजस्थान पत्रिका अखबार के सम्पादक बने और अभी वहीं कार्यरत हैं। 

सुनील दत्त की फिल्म ये आग कब बुझेगी

लाल साहब ने तपाक से पूछा: तुम्हें कैसे पता है कि ये फिल्म सामाजिक सरोकार पर है ? हमने कहा : सुनील दत्त साहब ने इस फिल्म को प्रमोट करने नई दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में कुछ पत्रकारों को एक शाम अनौपचारिक बातचीत के लिए बुलाया था। हमें भी बुलावा मिला। लेकिन हम किसी और कार्य में लगे रहने से उस खास बातचीत के लिए नहीं जा सके थे। हमने यूएनआई के ही अंग्रेजी विभाग के एक पत्रकार, संजय को वहां मेरी जगह चले जाने का आग्रह किया था। संजय, ‘ दिल्ली यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट ‘ (डीयूडब्ल्यूजे) की त्रिभाषी पत्रिका  ‘ पीपुल्स मीडिया ‘ निकालने में अक्सर मदद कर दिया करते थे। हम डीयूडब्ल्यूजे के सचिव और उस पत्रिका के अवैतनिक सम्पादक थे। पत्रिका में प्रेस क्लब पर भी एक कॉलम होता था। संजय ने उस कॉलम के लिए उक्त फिल्म पर विस्तार से लिखा था जिसके कुछ ही अंश प्रकाशित किये जा सके। उसी से मुझे वो सब जानकारी मिली जो किसी अखबार में नहीं छपी थी। चलिए वही फिल्म देखते हैं आज इवनिंग शो में।

लाल साहब ने कहा : ठीक है। वही फिल्म देखेंगे। तुम अपनी उन रिपोर्ट की कॉपी मुझे भी अंग्रेजी में उपयोग करने के लिए दे देना। राजस्थान में तो सभी डाक्यूमेंट्स हिंदी में ही मिलते हैं। लेकिन तुम अपनी रिपोर्ट कठिन हिन्दी में नहीं लिखोगे तो मुझे आसानी होगी। अभी सिर्फ गोविंद जी को कान में बता दो कि हम लोग फिल्म देखने किस थिएटर में जा रहे हैं। ताकि कोई आकस्मिक जरूरत पड़ी तो हम दोनों को ऑफिस बुलवाया जा सके।

मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि हमारे फिल्म देखने के दौरान ही यूएनआई को हमारी आकस्मिक सर्विस की जरुरत पड़ जाएगी। फिल्म के इंटरवल के पहले ही यूएनआई ऑफिस के एक सहयोगी, एक थिएटरकर्मी द्वारा अंधेरे में जलाए टॉर्च की मद्धम रोशनी में सीटों पर हमें ढूंढते हमारे पास पहुंच गए। उन्होंने कहा: दिल्ली से आर्डर मिला है। आप दोनों तुरंत ऑफिस चलिए। हमारी मोटर साइकिल बाहर खड़ी है। राजीव गांधी का मर्डर हो गया है।

लॉल साहब ने पत्रकारिता के बुनियादी पांच सवालों के अंदाज में पूछा: कब, कहां, क्यों, कैसे, किसने? हमारे सहयोगी ने कहा: और कुछ भी नहीं मालूम है। ऑफिस चलिए। वहीं सब पता चल जाएगा। सबको नॉन स्टॉप काम करना है। पता नहीं अब देश में क्या होगा। बीच लोक सभा चुनाव में राजीव गांधी की हत्या के कारण चुनाव होंगे इसमें शक है।

फ्लैशबैक मुम्बई 1985

मैं पहली बार दिसम्बर 1985 में बतौर पत्रकार ही मुंबई गया था। मुझे कांग्रेस की मुम्बई में उसके स्थापना के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष अधिवेशन की तब दिल्ली से छपने वाली हिंदी पाक्षिक पत्रिका ‘ युवकधारा ‘ के लिए रिपोर्टिंग करने भेजा गया था। पत्रिका के सम्पादक कवि साहित्यकार सुरेश सलिल थे। पत्रिका के मालिक बिहार की कटिहार लोक सभा सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता तारिक अनवर थे जो तब युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।

यह अधिवेशन क्रिकेट क्लब ऑफ़ इंडिया के ब्रेबौर्न स्टेडियम में था। उसके पास के ही पंचतारा ‘अम्बेसडर होटल ‘ के एक कमरे में कांग्रेस के सौजन्य से हमारे ठहरने का इंतजाम था। वह होटल अभी भी है। बाद में यूएनआई के मुंबई ब्यूरो में ही करीब बीस बरस की पोस्टिंग के दौरान सैंकड़ों बार उस स्टेडियम में जाना हुआ। कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन की तरह का वृहद और भव्य सियासी सम्मेलन फिर कभी नहीं हुआ। भारतीय जनता पाटी की स्थापना भी मुम्बई में ही हुई थी  जिसकी रजत जयंती पर बांद्रा में आयोजित सम्मेलन कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन के सामने फीका लगता है। कांग्रेस के उस ऐतिहासिक सम्मेलन में पाकिस्तान के पख्तून प्रांत से आये सीमांत गांधी नाम से विख्यात खान अब्दुल गफ्फार खान समेत देशी विदेशी मेहमानों की भागीदारी, अधिवेशन के मंच और उसके पार्श्व में मकबूल फिदा हुसैन के मशहूर बिम्ब ‘ घोड़ों ‘ के विशाल तैल चित्रों, ‘ कला जारीना ‘ मानी जाने वाली पुपुल जयकर के सन्योजन में सांस्कृतिक कार्यक्रम और ‘ सत्ता के दलालों ‘ को सियासत से बाहर खदेड़ने के राजीव गांधी के बहुचर्चित भाषण उस सम्मेलन के यादगार संस्मरण हैं।

मेरा ही नहीं लगभग सभी पत्रकारों का दिल्ली से राजधानी एक्सप्रेस से मुंबई आने का इंतजाम भी कांग्रेस के सौजन्य से ही था। मुंबई जाते वक़्त ट्रेन के उसी डब्बे में यूनिवार्ता के तब ब्यूरो प्रमुख शरद द्विवेदी और अशोक शर्मा ( दोनो अब दिवंगत ) से भेंट हुई। शरद जी को मैं पहले से जानता था जो युवकधारा में मेरी नौकरी के लिए हुई इंटरव्यू में विशेषज्ञ पत्रकार के रूप मैं उपस्थित थे ।

युवकधारा

मैं और हिंदी कवि पंकज सिंह (अब दिवंगत) अम्बेसडर होटल के एक ही कमरे में ठहरे थे। वह बीबीसी हिंदी सेवा की नौकरी के लिए लन्दन जाने के कुछ माह पहले औपचारिक रूप से युवकधारा के सम्पादकीय सलाहकार बने थे। वह 1970 के दशक में जेएनयू में हिंदी के छात्र रहे थे। मेरे भी जेएनयू से होने से उनका मेरे प्रति स्नेह था। उन्होंने ही इस लेख के साथ संलग्न उस अधिवेशन के दौरान ब्रेबौर्न स्टेडियम की हमारी फोटो क्लिक की थी।

वह पत्रिका अब बंद हो चुकी है। उसका सम्पादकीय विभाग तारिक अनवर साहब को तीन मूर्ति से ग्यारह मूर्ति तक के विल्लिंगडन क्रेस्सेंट रोड पर बतौर सांसद आवंटित कोठी के पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने हिस्से में था। मैं उसमें विशेष संवाददाता था। कवि अमिताभ बच्चन और वरिष्ठ पत्रकार राजेश वर्मा उसके उपसंपादक थे। दोनों ने सुरेश सलिल के साथ मिल कर कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर संग्रहणीय   विशेषांक निकाला था।

उस पत्रिका की नौकरी के लिए रविवार की सुबह हुए इंटरव्यू में उसी दिन रविवारी जनसत्ता में प्रकाशित अग्र लेख मेरा लिखा था, जो तारिक अनवर सुबह देख चुके थे।

तेज तेज ।।।।।कितनी तेज रफ़्तार है राजीव सरकार

अग्रलेख में प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गाँधी के पहले छह माह के काम काज पर अन्य सियासी अन्य पार्टियों के आला नेताओं के बतौर पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह, लालकृष्ण अडवाणी, ईएमएस नम्बूदरीपाद, राजेश्वर राव और चन्द्रशेखर के मेरे लिए इंटरव्यू छपे थे। लेख का शीर्षक रविवारी जनसत्ता के तब के सम्पादक मंगलेश डबराल (अब दिवंगत) ने ही रखा था : तेज तेज ।।।।।कितनी तेज रफ़्तार है राजीव सरकार

मंगलेश डबराल जी ने मुझे उस अंक की दो प्रति चुपके से दो दिन पहले शुक्रवार को ही दे दी थी। उस अग्र लेख को तैयार करने के शिल्प का सुझाव मुझे जेएनयू के पूर्व छात्र और तब जनसत्ता के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत चमन लाल ने दिया था।

ईएमएस नम्बूदरीपाद

ईएमएस नम्बूदरीपाद से इंटरव्यू लेने में मेरी मदद जेएनयू के पूर्व छात्र और तब सीपीएम् के हिंदी मुखपत्र लोक लहर में कार्यरत राजेंद्र शर्मा (अब संपादक) ने की थी। ईएमएस ने कहा था :ऐसे कैसे मैं तुम्हारे सवालों का जवाब दे दूंगा।अपने सारे सवाल पहले लिख कर दो। उन पर पार्टी में सलाह कर ही कोई जवाब देंगे। हमने वही किया।

कॉमरेड राजेंद्र शर्मा ने मेरे पास रविवारी जनसत्ता का वो अंक शनिवार को ही देख कह डाला था : तुमने तो नेताओं की लाइन लगा दी है। मैं जानता था ये दरअसल, राजीव गंधी का इंटरव्यू नहीं कर पाने की हमारी घोर पत्रकारीय विफलता थी।

राजीव गांधी की कटिहार रैली

ये दीगर बात है कि 1989 के लोक सभा चुनाव के दौरान हमारी राजीव गांधी से उनकी कटिहार रैली के मंच से वापस जाने के दौरान बातचीत हो गई। उनके साथ राहुल गांधी भी थे। हम उस पूर्वाह्न राजीव गांधी से सीधी बातचीत करने में सफल रहे जिस दिन कटिहार में ही विश्वनाथ प्रताप सिंह की भी चुनावी रैली थी। हम उनके साथ ही कटिहार के एक होटल में टिके थे। उनसे उस रात राजीव गांधी समेत तमाम मुद्दों पर कई घंटे की बातचीत का वृतांत अलग से देना मुनासिब होगा। फिलहाल इतना दर्ज कर देना चाहिये कि वह बोफोर्स तोप मुद्दा को लेकर राजीव गांधी के प्रति बहुत ही आक्रामक थे।

सी राजेश्वर राव

सीपीआई के तब महासचिव सी राजेश्वर राव से इंटरव्यू लेना सबसे आसान रहा। उन्होंने बिना लाग-लपेट खुल कर काफी बात क़ी। उन्होंने यह जानकार कि मैं हिंदी में संगणक के बजाय कंप्यूटर लिखने का पक्षधर हूँ कहा: यह तो बहुत अच्छी बात है कि भाषा सरल हो।

चन्द्रशेखर

चन्द्रशेखर जी से इंटरव्यू लेने में कई पापड़ बेलने पड़े। उनके निजी सचिव की मांग पर मुझे मंगलेश डबराल जी का लिखा पत्र देना पड़ा कि जनसत्ता के लिए इंटरव्यू लेने वास्ते मैं अधिकृत हूँ। बहरहाल, उनकी दो टूक बात ये थी कि राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के छह माह में किया ही क्या है जो कुछ कहा जाये।

उनसे इंटरव्यू के लिए जनता पार्टी तब जंतर-मंतर पर बने मुख्यालय के चक्कर लगाने के दौरान सुबोध कान्त सहाय से मुलाकात हुई जिन्होंने मुझसे पूछा : मैं अपने लेख के लिए उनके जैसे युवा नेता का इंटरव्यू क्यों नहीं लेता? मैं क्या कहता चुप रहा। मुझे जनसत्ता के लिए यह लेख लिखने का मौका इसी शर्त पर मिला था कि मैं सभी प्रमुख दलों के आला नेताओं का इंटरव्यू जुटा दूंगा। सहाय जी बाद में चंद्रशेखर सरकार में मंत्री बने थे।

चौधरी चरण सिंह

चौधरी चरण सिंह जी से इंटरव्यू का समय आसानी से मिल गया। उन्होंने तुगलक रोड पर अपनी कोठी के अध्ययन कक्ष में मुझसे बड़े प्यार से बात की। उन्होंने इंटरव्यू के दौरान मुझे उनकी कही बात की टेप रेकॉर्डिंग करने तो दी। लेकिन नोट्स लिखने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने राजीव गांधी पर कटाक्ष कर कहा था : देश के बाहर ब्याह करने वाले को राजा नहीं बनने देना चाहिये। उन्होंने इस पर हमारे सवाल से तनिक झुंझला कर कहा था : तुमने मेरा बहुत समय खराब किया ‘।

लालकृष्ण अडवाणी

सबसे बड़ा हादसा लालकृष्ण अडवाणी के इंटरव्यू में हुआ। इंटरव्यू का समय उनके पंडारा रोड की कोठी पर लंच के बाद था। उनकी पत्नी कमला अडवाणी तब जीवित थीं। उन्होंने बड़े प्यार से मुझे भी खाना खिलाया।

इंटरव्यू के बाद जब मैंने अपने घर पहुँच कर टेप रेकॉर्डर खोला तो पता चला इंटरव्यू के दौरान टेप चला ही नहीं। इसलिए कोई बात रिकॉर्ड ही नहीं हुई। लगा कि मेरी तो जान निकल जाएगी। इतनी मुश्किल से इंटरव्यू का समय मिला। सब कुछ अच्छा रहा सिवा इंटरव्यू के जो मेरी भूल से रिकॉर्ड ही नहीं हो सका। जापान की तोशिबा कम्पनी के नेशनल ब्रांड के टेप रेकॉर्डर में कोई खराबी नहीं थी वरना वो मेरी सेवा में तीस बरस नहीं टिक पाता। मरता क्या न करता मैंने लालकृष्ण अडवाणी जी को फोन कर यह हादसा बता दिया। उन्होंने कहा: कोई बात नहीं। कल फिर लंच पर घर आ जाओ। मैं जब उनके घर पहुंचा तो वो मेरे परेशान चेहरे को देख मुस्कुरा दिए। फिर बोले : किसी भी पत्रकार को अपने दिमाग पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए। मुझे उनकी राजनीतिक विचारधारा नहीं भाती। लेकिन दिमाग पर ज्यादा भरोसा करने के उनके सुझाव को मैंने अपनी पत्रकारिता में मन्त्र बना लिया।

(वरिष्ठ पत्रकार, पुस्तक लेखक और किसान चंद्रप्रकाश झा की प्रस्तावित पुस्तक ‘स्मृति शेष अशेष‘ से।)

चंद्र प्रकाश झा
Published by
चंद्र प्रकाश झा