‘देखौ बच्चा! हम बात बहुत साफ बोलि थै कि मोदी जी दिल्ली में रहईं और अखिलेश का यूपी देईं। केवल मोदी पाकिस्तान से लड़ सकत हैं दिल्ली में उनही कइ जरूरत है। ई चुनाव में हम सब चाहिथै कि मोदी जी दिल्ली मा फिर से लौउटें बाकि पिछले चुनाव (2017) मा हम अखिलेश यादव का वोट देहे रहेनिहि …अउ फिरि देबइ….’’ अच्छेलाल यादव, उम्र 50 साल, निवासी फाफामऊ इलाहाबाद।’’
…हम चाहिथी कि मोदी जी अबे एक दफा और दिल्ली में आवैं और पाकिस्तान का ओकर जगह दिखावैं। ….और ई जउन मुसलमान कौम है ना बेटा बहुतै खतरनाक बा। गऊ माता कै मास खाई और इस्लाम फैलाई। अगर मोदी जी न लौटेन त इहौ देश का ई सब पाकिस्तान बनाइ देई बदे कसम लइ चुका हन। बाकी जब एन पीटा जात हैं तबही चुप रहत हैं। देश का मजबूत करइ का बा’’। मंगरू यादव, उम्र 65 साल, निवासी सलोन रायबरेली। ’’
अगर अखिलेश यादव आज यह घोषणा कर दें कि हम 2022 का चुनाव आजम खान के नेतृत्व में लड़ेंगे तब उनका जातिगत बेस वोटर कहां जाएगा और चुनाव में उन्हे कितनी सीट मिल सकेगी’’? अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के द्वारा ’सेक्यूलर’ पाॅलिटिक्स के दावे पर एक वामपंथी नेता का प्रश्न। ’’
आप समाजवादी पार्टी के किसी भी बेस वोटर से पूछो कि बाबरी मस्जिद का गिराया जाना सही था या गलत था? समाजवादी पार्टी की सांप्रदायिक असलियत खुल जाएगी। अखिलेश यादव इसी असलियत को संतुष्ट कर रहे हैं’’ एआईएमआईएम के एक नेता इस सवाल पर बोलते हुए कि अखिलेश यादव केवल ट्वीट ही क्यों कर रहे हैं आजमगढ़ में हुए पुलिस उत्पीड़न पर खुद क्यों नहीं जा रहे हैं।
उपरोक्त बातों को शब्दशः यहां पर लिखने का मतलब यही है कि समाजवादी पार्टी के बेस वोटरों में सांप्रदायिकता का प्रसार किस हद तक है उसे समझाा जाना चाहिए।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है। यह अप्रैल अंत का समय था। मैं और मेरे कुछ दोस्त रायबरेली जिले के सलोन स्थित एक होटल में दलित और पिछड़े मतदाताओं में भाजपा के प्रति बढ़ रहे रुझान के कारणों पर माथापच्ची कर रहे रहे थे। इसके बाद, जब मैं होटल के बाहर आया तब वहां पर तकरीबन 65 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति को बीड़ी पीते पाया। वह उसी होटल में दूध देने आए थे। उनकी उम्र लगभग 65 साल के आस-पास थी। विनम्रतापूर्वक बातचीत शुरू हुई और पता चला कि वह स्थानीय नागरिक हैं। उनसे बातचीत में मेरा यह जानने का मकसद था कि इलाके का ओबीसी वोटर भाजपा को लेकर क्या सोचता है? उनसे इलाके के लोगों के बारे में, उनके राजनैतिक रुझान पर बातचीत शुरू हुई।
जब मैंने उनसे पूछा कि इस बार दिल्ली में किसे गद्दी दे रहे हैं? तब उनका कहना था कि वह मोदी जी को दिल्ली में देखना चाहते हैं। मैंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों चाहते हैं? तब उनका कहना था कि मोदी जी ही ’मुसलमानों’ और पाकिस्तान से इस देश को बचा सकते हैं। इसके बाद वह व्यक्ति अखिलेश यादव की बड़ाई पर उतर आया और बोेला कि बहुत अच्छा लड़का है लेकिन दिल्ली के बजाए उसे लखनऊ में ही रहना चाहिए। उसे मोदी जी का साथ देना चाहिए। वह यह मानता था कि सपा, जो कि मोदी जी के खिलाफ बोलती है उसका सरगना आजम खान है। ….और उसने मुसलमानों को अपशब्द बोलना शुरू कर दिया।
मेरी बातचीत उससे जारी रही और वहीं पर मेरे दूसरे दोस्त भी आ गए। एक दोस्त जो उसे सुन रहा था, ने पूछा कि आप मुसलमानों से इतना नफरत करते हैं जबकि आपके अखिलेश बाबू तो मुसलमानों से ’वोट’ मांगते हैं। बिना उनके लखनऊ में सरकार कैसे बनेगी दादा? उसने कहा ’’अगर इ मुल्लवै वोट न देइहैं त कहां जइहैं? इहां रहै का है तो देइ का परी’’। उसके बाद उसने उसी भाषा में बोलना शुरू कर दिया जिसमें ज्यादातर दक्षिणपंथी बोलते हैं। बातचीत में मेरे एक दोस्त, जो दलित समुदाय से थे, ने उनसे पूछ लिया कि अगर आपको एक घंटे के लिए खुली छूट मिले तो कितने मुसलमानों की हत्या कर सकते हैं? उसका जवाब बहुत चौंकाने वाला था ’इलाका साफ कइदेब बाबू’’। वह खुद को यदुवंशी क्षत्रिय और कृष्ण का वंशज मानता था। (इस बात के कम से कम पांच गवाह हैं)
गौरतलब है कि आजमगढ़ के बिलरियागंज स्थित पार्क में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रही मुसलमान महिलाओं, नौजवानों पर योगी सरकार द्वारा जिस बर्बरता से कार्रवाई की गई उस पर अखिलेश यादव की चुप्पी से कई सवाल उठे। कांग्रेस ने जहां उनके लापता होने के पोस्टर आजमगढ़ में लगवाए वहीं कुछ मुस्लिम एक्टिविस्ट लोगों ने उनका पुतला जलाया। लेकिन अखिलेश यादव के समर्थकों ने इसे खारिज करते हुए घटना के खिलाफ उनके निंदा ट्वीट्स और विधायक आलमबदी और नफीस आलम को वहां भेजे जाने की बात दोहराई।
हालांकि अखिलेश यादव खुद घटनास्थल पर क्यों नहीं पहुंचे और मुस्लिम समुदाय के उत्पीड़न के खिलाफ कुछ मुस्लिम नेताओं को ही घटना स्थल पर क्यों भेजा- इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। जबकि अन्य जगहों पर अगर यादव या गैर यादव ओबीसी के साथ कोई घटना घटती है तब वह खुद ही वहां जाते हैं? ऐसे में सवाल यह है कि आखिर जिस जनता ने उन्हें वोट देकर संसद में भेजा उसके लिए अखिलेश यादव के पास खुद पहुंचने का समय क्यों नहीं है? क्या वह यह मानते हैं कि नागरिकता संशोधन अधिनियम केवल मुसलमानों का सवाल है या फिर इस मुद्दे पर केवल सपा के मुस्लिम नेताओं को आगे करके डील करना चाहिए? या अब वह अपनी छवि को केवल यादव ’हिन्दू’ नेता के बतौर स्थापित करना चाहते हैं?
आखिर जिस मुसलमान ने उन्हें वोट देकर उस समय सदन भेजा जब कि उनका जातिगत बेस भाजपा के साथ चला गया था, फिर उन्हीं के लिए उनके पास समय क्यों नहीं है? उनकी इस चुप्पी के क्या मायने समझे जाएं? क्या वह हिन्दुत्व की राजनीति के दायरे में सपा को फिर से स्थापित करने का जो प्रयास कर रहे हैं और उस पर कोई सवाल नहीं चाहते? या फिर उनके जातिगत बेस का उन पर दबाव है जो कि इस कानून पर मोदी जी के साथ खड़ा है? क्या अब भारत इतना परिपक्व हो चुका है कि राजनीति जमीन से सिमट कर केवल ’ट्विटर’ पर ही पहुंच चुकी है और निंदा ट्वीट ही पर्याप्त है।
’’आखिर अखिलेश यादव आजमगढ़ में मुसलमानों के बीच खुद क्यों नहीं जाना चाहते हैं’’? इस सवाल के जवाब में प्रख्यात अंबेडकरवादी एक्टिविस्ट एसआर दारापुरी कहते हैं ’’अखिलेश यादव भी हिन्दुत्व की राजनीति में जगह तलाश रहे हैं। उनका बेस वोटर तो कब का हिन्दुत्व के भीतर सेट हो चुका है। अब अगर वह उनके साथ एडजस्ट नहीं होंगे तब उनका अस्तित्व खत्म हो जाएगा’’। वह आगे कहते हैं कि इसी बेस वोट का दबाव है कि अब वह अपनी मुस्लिम परस्त छवि को खत्म करना चाहते हैं ताकि उनके लिए भी हिन्दुत्व दायरे में राजनैतिक स्पेस बन सके और वह हिन्दुत्व रक्षक छवि का निर्माण कर सकें। हालांकि उन्होंने कभी भी ईमानदारी से सेक्यूलर राजनीति नहीं की और उसका खामियाजा उन पर भरोसा करने वाला मुसलमान उठा रहा है। मुजफ्फरनगर दंगा 2012 इसका उदाहरण है।
दरअसल समाजवादी पार्टी ने अपने स्थापना के बाद से ही सामाजिक न्याय के नाम पर जिस ’जातिगत’ गिरोह को मजबूत किया है वह वास्तव में संघ की ही राजनीति करना है। लखनऊ विश्वविद्यायल के छात्र नेता ज्योति राय सपा की कम्यूनल राजनीति पर कहते हैं ’’समाजवादी पार्टी या फिर भारतीय राजनीति के जितने भी नेता गैर-कांग्रेस वाद का नारा देकर राजनीति में उतरे उन सबका उद्गमस्थल संघ की शाखाएं थीं और कांग्रेस को कमजोर करके सब अंततः संघ में विलीन हो गए। जार्ज फर्नांडीस का उदाहरण हमारे सामने है। अब आप ऐसे लोगों से कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह इस समाज को लोकतांत्रिक और सेक्यूलर बनाएंगे? आप समाजवादी पार्टी की पूरी राजनीति देखिए।
यह जाति की गोलबंदी करके प्रकारांतर से हिंदू सांप्रदायिकता और ’हिंदुत्व’ को मजबूत कर रही है। इनका यही काम था और इनके नेता लोहिया भी इसीलिए जाने जाते हैं’’। ज्योति राय कहते हैं कि अखिलेश ने जिस खेल को 2012 में मुजफ्फरनगर दंगे से शुरू किया किया था अब वह सांप्रदायिकता परिपक्व हो गयी है। और इसी परिपक्वता ने अब सपा के लिए उत्तर प्रदेश में स्पेस खत्म कर दिया है। भाजपा उत्तर प्रदेश में मजबूत हो गयी है और उनके लिए स्पेस खत्म हो चुका है। अब वह सांप्रदायिक उत्तर प्रदेश में जगह खोज रहे हैं और इसीलिए वह पीड़ित मुसलमानों के साथ खड़े नहीं होना चाहते हैं। क्योंकि भारत का सबसे बड़ा विलेन मुसलमानों को घोषित किया जा चुका है।
समाजवादी पार्टी के मुखिया खुद आजमगढ़ में पीड़ितों के बीच क्यों नहीं जा रहे हैं पर बात करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता शम्स तबरेज कहते हैं कि सपा भी भाजपा के हिन्दुत्व में अपने लिए स्पेस चाहती है। वह यह चाहती है कि उसका बेस वोटर कम्यूनल रहे और इसीलिए वह उसके ’लोकतांत्रीकरण’ पर कोई बात नहीं करते। वह समझते हैं कि विकास की बात करके अपने बेस वोटर की सांप्रदाकिता को वह ढंक देंगे और मुसलमानों को बेवकूफ बनाते रहेंगे। शम्स तबरेज आगे जोड़ते हैं कि मोदी के उभार के बाद, समाजवादी पार्टी संघ और भाजपा की सांप्रदायिकता का कोई ’विकल्प’ नहीं रख पा रही है। जब भाजपा राम मंदिर निर्माण की बात करती है तब समाजवादी पार्टी भी उसी तरह से कृष्ण के मंदिर बनाने की बात करती है।
आखिर क्या वजह है कि वह ’हिन्दुत्व’ के भीतर ही खुद के लिए उत्तर प्रदेश में अस्तित्व तलाश रही है? जो लोग राहुल गांधी के जनेऊ दिखाने को संप्रदायिकता समझते हैं उन्हें बताना चाहिए कि ’कृष्ण’ मंदिर बनवाने की बात करना किस तरह से ’धर्मनिरपेक्षता’ की राजनीति करना है? फिर मुसलमानों को मुजफ्फरनगर जनसंहार नहीं भूलना चाहिए जिसने भाजपा के लिए 2017 की जमीन तैयार की थी। यह आजाद भारत में मुसलमानों का सबसे बड़ा विस्थापन था और आज तक इसके लिए समाजवादी पार्टी को कोई मलाल नहीं है। शम्स तबरेज पूछते हैं कि आखिर सपा द्वारा परशुराम और हिन्दू सम्मेलन करके कौन सा सेक्यूलरिज्म मजबूत किया जा रहा है?
दरअसल जब आप सामाजिक न्याय और भागीदारी के नाम पर जाति की गोलबंदी के सहारे वोट लेने की राजनीति करते हैं तब आप जाति में अपील करने वाले ’अस्मितावादी’ नेता पैदा करते हैं। यह नेता ही अपनी जाति को हांकते हैं। ऐसे नेताओं की सिर्फ एक ही पाॅलिटिक्स होती है और वह है किसी तरह से सत्ता में आकर माल कमाना। यह नेता न तो अपनी जनता को ’लोकतांत्रिक’ बनाते हैं और न ही उन्हें सिस्टम में जगह देते हैं। सपा में यही होता रहा है। समाजवादी पार्टी ने इसी पैटर्न पर राजनीति की है। उसने कभी अपने वोटर को लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता का सिपाही नहीं बनाया। जाति को जोड़ने और उनके बीच नेता पैदा करने की इस राजनीति ने केवल दक्षिणपंथ की राजनीति को मजबूत किया है।
भाजपा ने गैर यादव ओबीसी के लोगों को अपने साथ विकास और हिन्दू खतरे में है के नारे के नाम पर साथ ले लिया। यादवों का भी एक बड़ा हिस्सा इसी विकास के साथ खड़ा हो गया। अब अखिलेश यादव के पास जनाधार नहीं बचा है। हिन्दू होने के गौरव का सुख जब भाजपा ने ओबीसी के बीच बांट दिया तब अखिलेश यादव के पास कोई जमीन ही नहीं बची। विकल्पहीनता के इस दौर में अखिलेश यादव ने भी इसी हिन्दू गौरव और सांप्रदायिक हिन्दुत्व के बीच जगह तलाशनी शुरू कर दी। यही कारण है कि अखिलेश यादव खुद को यादव नेता के बतौर स्थापित करने में जुटे हैं और मुसलमानों से वोट लेने के बाद भी उनके साथ खड़ा होने में अस्तित्व खत्म होने का खतरा देख रहे हैं। यही अखिलेश का संकट है।
कुल मिलाकर आज भारतीय राजनीति में जिस ’मुसलमान’ को खलनायक बनाकर मोदी के नेतृत्व में पूंजी अपना काम कर रही है उससे अखिलेश यादव को कोई दिक्कत नहीं है। सारा मलाल इस बात का है कि अखिलेश को इस ’खेल’ में जगह जाहिए। इसीलिए अब वह जातीय बेस वाले हिन्दुत्व गिरोह का स्थापित नेता बनना चाहते हैं जो वोट भले मुसलमानों से ले लेकिन काम संघ और भाजपा का करे। आजमगढ़ के बिलरियागंज में हिंसा पीड़ितों के साथ खुद नहीं खड़ा होना क्या इसी का द्योतक नहीं है?
(लेखक हरे राम मिश्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और यूपी कांग्रेस से जुड़े हुए हैं।)