भूखे आदिवासियों की आवाज़ को उठाने के बदले स्टेन स्वामी को मिली प्यासे मरने की सजा

Estimated read time 2 min read

भात भात कहकर भूख से मरने वाली संतोषी जैसी अनगिनत आदिवासी बच्चियों व लोगों के अधिकारों के लिये आवाज़ उठाने वाले स्टेन स्वामी की पानी के लिये तरसते हुये कल दोपहर मौत हो गयी। ये कितनी क्रूर सरकार है कि उन्हें पानी पीने के लिये एक अदद ‘स्ट्रा’ तक नहीं दी।

गौरतलब है कि हिरासत में लिए जाने के बाद महाराष्ट्र की तलोजा जेल में बंद किए गए स्टैन स्वामी ने बीते वर्ष जब अपनी बीमारी की वजह से एक याचिका में अदालत से ‘स्ट्रॉ’ और ‘सिपर’ की मांग की थी तो एनआईए ने अदालत को बताया था कि वो यह नहीं दे सकते।

बता दें कि स्टैन स्वामी पार्किंसन्स बीमारी से ग्रसित थे। तंत्रिका तंत्र से जुड़े इस डिसऑर्डर में शरीर में अक्सर कँपकँपाहट होती है। मरीज़ का शरीर स्थिर नहीं रहता और संतुलन नहीं बना पाता। अतः स्टैन स्वामी को पानी का गिलास पकड़ने में परेशानी होती थी। पार्किंसन्स बीमारी के अलावा स्टेन स्वामी अपने दोनों कानों से सुनने की क्षमता लगभग खो चुके थे। कई बार वे जेल में गिर भी गए थे। साथ ही दो बार हर्निया के ऑपरेशन की वजह से उनके पेट के निचले हिस्से में दर्द रहता था। ख़राब स्वास्थ्य की वजह से उन्हें जेल की अस्पताल में रखा गया था।
बता दें कि उनकी अर्जी पर 30 मई 2021 को बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। जबकि पिछले महीने एनआईए ने हाईकोर्ट के समक्ष हलफनामा देकर स्टेन स्वामी की जमानत याचिका का विरोध करते हुये कहा था कि उनकी बीमारी के कोई ‘ठोस सबूत’ नहीं हैं। और स्वामी का संबंध माओवादियों के साथ रहा है। इनके द्वारा देश में अशांति फैलाने की साजिश की गयी थी।

कल ही उनकी जमानत याचिका पर बांम्बे हाईकोर्ट में सुनवाई होना था। उन्होंने अपनी याचिका में यूएपीए क़ानून की वैधता को चुनौती दी थी। होली फैमिली अस्पताल के निदेशक डॉ इयान डिसूजा ने अदालत को बताया है कि 84 वर्षीय स्टेन स्वामी को रविवार तड़के दिल का दौरा पड़ा, जिसके बाद उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था। उनकी हालत ठीक नहीं हो पायी और सोमवार दोपहर उनका निधन हो गया।  उन्होंने कोर्ट को बताया कि फेफड़े में संक्रमण, पार्किंन्सस रोग और कोविड-19 की जटिलताओं के कारण स्वामी की मौत हो गयी। मरहूम स्टेन स्वामी के वकील मिहिर देसाई ने कोर्ट को बताया कि तलोजा जेल प्रशासन की ओर से लापरवाही हुई और उन्हें तुरंत चिकित्सा सुविधा मुहैया नहीं करायी गयी।

बता दें कि राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने फादर स्टेन स्वामी को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया था। जिसके बाद से उन्हें तालोजा जेल हॉस्पिटल में रखा गया था। उनके ऊपर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया था।
एल्गार परिषद का मामला 31 दिसंबर 2017 का है जिसमें पुलिस का दावा है कि भड़काऊ भाषणों के कारण भीमा-कोरेगांव में हिंसा हुई थी।
गौरतलब है कि फ़ादर स्टेन स्वामी को जेल में रहते हुये अपने अंजाम का अंदेशा हो गया था तभी तो अपने अंतिम सन्देशों में उन्होंने कहा था- “जो कुछ आज मेरे साथ हो रहा है, वह कोई नयी बात नहीं है। हम सभी इस तथ्य से अवगत हैं कि किस प्रकार हमारे महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों, वकीलों, लेखकों, कवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेलों में डाला गया है, सिर्फ़ इसलिये क्योंकि उन्होंने अपनी असहमतियों का इज़हार किया था…।  मैं आज हर क़ीमत चुकाने को तैयार बैठा हूं, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो।”

तमिलनाडु में जन्मे फादर स्टेन स्वामी के पिता एक किसान थे और उनकी मां एक गृहिणी थीं। वो पिछले तीन दशक से झारखंड में रहकर आदिवासी समुदाय के लिये संघर्ष कर रहे थे। हाशिए के समुदायों के नेताओं को प्रशिक्षित करने के लिए एक दशक से अधिक समय तक बेंगलुरु में एक स्कूल चलाया। वह जेलों में सड़ रहे 3000 पुरुषों और महिलाओं को नक्सली होने के मेडल से छुड़ाने के लिए हाईकोर्ट गए थे। वह आदिवासियों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी देने के लिए दूरदराज के इलाकों में गये।

भारत जैसे देश में 9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस को आदिवासी अधिकार दिवस के रूप में व्यापक तौर पर मनाने की शुरुआत उन्होंने करवाया। 9 अगस्त के दिन जिला कार्यालयों पर कार्यक्रम आयोजित करने और आंदोलन को अहिंसक रखने जैसे कई महत्वपूर्ण चलन आदिवासी समाज के बीच उन्होंने ही शुरु किया था। उनके साथ काम करने वली आदिवासी एक्टिविस्ट व साहित्यकार डॉ शांति खलखो बताती हैं कि इन कार्यक्रमों में वो ज़रूर शामिल होते थे। कई कार्यक्रमों का वो नेतृत्व करते थे। आदिवासी दलित समाज के लिये तमाम कायक्रमों की कार्य योजना और वैचारिकी में वो शामिल होते थे। युवा पीढ़ी अगर बातों को नहीं समझती थी। ये कन्फ्यूज होती थी तो वहां वो खुद अगुवाई करके रास्ता बताते थे। युवा पीढ़ी के गर्म ख़ून में जल्दी उबाल आ जाता है ऐसे में वो आदिवासी आंदोलन को हिंसात्मक कार्रवाई से मुक्त कर अहिंसक बनाने में बड़ी भूमिकायें निभाते थे। उनके जाने से आदिवासी समाज के लोग बहुत दुखी हैं। जिस व्यक्ति ने लोगों के हक़ की लड़ाई लड़ी उन्हें खुद मानवाधिकार का जो फायदा मिलना था वो नहीं मिला। उनकी मौत जिस तरह से हिरासत में हुयी है वो बहुत दुखद व रोषपूर्ण, अन्यायपूर्ण व निंदनीय है। उन्हें जिस तरीके से बिना किसी गलती के जेल में डाला गया। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। उनको अधिकार हीन कर दिया गया हम लोग इस मौत के विरोध में सामूहिक आवाज़ उठायेंगे। बहुत जोरदार विरोध प्रदर्शन होगा आने वाले समय में क्योंकि वो दूसरों के लिये लड़ते थे।

उनके मित्र सहयोगी और आदिवासी एक्टिविस्ट और खान, कनीज और अधिकार के संपादक जेवियर डायस ने लिखा है – कैथोलिक चर्च यूशु को एक संत की सख्त ज़रूरत थी, हिंदुत्व, आरएसएस, बीजेपी ने अब उन्हें एक प्रदान किया है। अपनी पीड़ा भुलाकर ग़रीब ज़रूरतमंद के बारे में सोचने की एक कारुणिक घटना का जिक्र करते हुये जेवियर बताते हैं कि-“ एक दिन उन्होंने जेल में एक जोड़ी पैंट शर्ट के लिये कहा। मैं जानता था ये वो अपने लिये नहीं मांग रहे थे। बाद में पूछने पर उन्होंने स्वीकार किया कि उनके साथ एक बहुत गरीब क़ैदी है। जो एक जोड़ी पैंट शर्ट नहीं ख़रीद सकता है, उसके लिये उन्हें पैंट शर्ट चाहिये”। 

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव का लेख।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author