Thursday, March 28, 2024

सुप्रीम कोर्ट का सरकार से तल्ख़ सवाल, पूछा- कहां गए 20 लाख करोड़ रुपये?

लॉकडाउन के दौरान कारखानों में लगे मजदूरों के वेतन और मजदूरी के भुगतान को लेकर दाखिल की गई जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय में आज सुनवाई हुई जिसमें जहाँ एक ओर केंद्र सरकार ने अपने पहले रुख से पलटी मार दी वहीं दूसरी ओर न्यायालय ने भी तल्ख़ सवाल पूछे और कठोर टिप्पणी की। जस्टिस संजय किशन कौल ने सरकार से पूछ लिया कि आप एक ओर तो ये दावा कर रहे हैं कि आपने कामगारों की जेब में पैसे डाले हैं फिर वो 20 लाख करोड़ रुपए आखिर कहां गए? इस पर अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि हमने सूक्ष्म, लघु और मंझोले उद्योगों की मदद में वो रकम लगाई है। सरकार ने ये बहुत जबरदस्त काम किया है। इस पर जस्टिस कौल ने कहा कि हम अपने सवाल का जवाब चाहते हैं, सरकार के लिए सर्टिफिकेट नहीं

उच्चतम न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश भी पारित किया कि वेतन के पूर्ण भुगतान के लिए 29 मार्च की अधिसूचना के अनुपालन में विफलता के लिए नियोक्ताओं के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। 29 मार्च को जारी आदेश के अनुसार किसी भी नियोक्ता के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जाएगी, 12 जून को आने वाले आदेश तक ये अंतरिम आदेश जारी किया गया है। सभी पक्षों को तीन दिनों के भीतर लिखित दलीलें दाखिल करने की स्वतंत्रता दी गई है।

दरअसल लॉकडाउन के दौरान कारखानों में लगे मजदूरों के वेतन और मजदूरी के भुगतान के सवाल पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पलटी मार दिया। सरकार ने कहा कि ये तो नौकरी देने वाले और करने वाले के बीच का मसला है। इसलिए इसमें हमारा दख़ल देना उचित नहीं। कोर्ट में सुनवाई पूरी हो गई है और फैसला 12 जून को सुनाया जाएगा।

वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि स्थायी कर्मचारियों और कामगारों के मुकाबले अस्थाई कामगारों पर ही ज्यादा असर पड़ा है। एनडीएमए पर सख्त अमल की वजह से कामगारों को अब कारखानों तक लाने- ले जाने के लिए वाहन सेवा देनी जरूरी हो। इंदिरा जयसिंह ने कहा कि गृह मंत्रालय के लॉकडाउन नोटिफिकेशन का मकसद महामारी से बचाव के उपाय करना था। अब हम सबने मास्क लगाए हैं और लॉकडाउन प्रोटोकॉल का पालन कर रहे हैं तो हम लोगों में से कोई बीमार नहीं है।लॉकडाउन की वजह से ही एनडीएमए की अहमियत हुई।

देश में लगे लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने के मामले में उद्योग जगत से जुड़े लोग सरकार की इस दलील से संतुष्ट नहीं थे। लॉकडाउन के दौरान कारखानों में लगे मजदूरों के वेतन और मजदूरी के भुगतान को लेकर दाखिल की गई जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई।

देश में लगे लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने के मामले में उद्योग जगत से जुड़े लोग सरकार की इस दलील से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने 29 मार्च से 17 मई के बीच के 54 दिनों का पूरा वेतन देने में असमर्थता जताई। उनकी दलील थी कि सरकार को उद्योगों की मदद करनी चाहिए। 12 जून को इस मसले पर कोर्ट का आदेश आएगा। उद्योगों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के 29 मार्च के आदेश को चुनौती दी है जिसमें कहा गया था कि लॉकडाउन के दौरान का पूरा वेतन नियोक्ता को देना होगा।आज की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि मज़दूरों को पूरा वेतन देने का आदेश जारी करना ज़रूरी था। मज़दूर आर्थिक रूप से समाज के निचले तबके में हैं। बिना औद्योगिक गतिविधि के उन्हें पैसा मिलने में दिक्कत न हो, इसका ध्यान रखा गया। अब गतिविधियों की इजाज़त दे दी गई है। 17 मई से उस आदेश को वापस ले लिया गया है।

गौरतलब है कि पहले की सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने भी सवाल किया था कि जिस दौरान उद्योगों में कोई उत्पादन नहीं हुआ, क्या सरकार उस अवधि का वेतन देने में उद्योगों की मदद करेगी।

जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने आज भी पूछा, ‘इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट के तहत विवाद की स्थिति में उद्योगों को कर्मचारियों को 50 फीसदी वेतन देने के लिए कहा जा सकता है। आपने 100 फीसदी वेतन देने को कहा। क्या आपको ऐसा करने का अधिकार है? केंद्र ने कोर्ट में दाखिल हलफनामे में तो यह कहते हुए कड़ा स्टैंड लिया था कि पूरा वेतन देने में आनाकानी कर रहे उद्योगों की ऑडिट रिपोर्ट देखी जानी चाहिए। लेकिन कोर्ट के इस सवाल पर सरकार की तरफ से एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि अगर उद्योग और मज़दूर रकम के भुगतान पर आपस में कोई समझौता कर सकते हैं तो इस पर सरकार आपत्ति नहीं करेगी।

जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा कि एक तरफ आप मज़दूरों को पूरा पैसा दिलवाने की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ मालिक और मज़दूरों में आपसी समझौते की बात कर रहे हैं। ठीक है आर्थिक गतिविधियों का पूरी तरह शुरू हो जाना जरूरी है, लेकिन इसमें सरकार की क्या भूमिका होगी? उसे दोनों पक्षों में संतुलन के लिए कुछ करना चाहिए।

सुनवाई के दौरान उद्योगों के वकीलों का कहना था कि सरकार ने आपदा राहत के नाम पर यह आदेश दिया था। लेकिन उसने यह नहीं समझा कि उसका आदेश अपने आप में उद्योगों के लिए आपदा है। एम्पलाई स्टेट इंश्योरेंस यानी कर्मचारी राज्य बीमा के खाते में 80 से 90 हजार करोड़ रुपए हैं। सरकार चाहती तो 30 हजार करोड़ रुपए खर्च कर पूरे देश के कर्मचारियों को इस अवधि का वेतन दे सकती थी। पीठ ने जब इस पहलू पर एटॉर्नी जनरल से जवाब मांगा, तो उन्होंने कहा कि कर्मचारी राज्य बीमा के खाते में जमा पैसों को कहीं और ट्रांसफर नहीं किया जा सकता है। विशेष परिस्थितियों में अगर कोई कर्मचारी चाहे तो उसमें से पैसे ले सकता है।

आज की सुनवाई में कई मजदूर संगठनों ने भी अपनी दलीलें रखीं। उनका कहना था कि सरकार और उद्योग अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं। मजदूरों को उनका पूरा पैसा मिल सके, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

पीठ ने करीब डेढ़ घंटे तक सभी पक्षों को विस्तार से सुना। उसके बाद आदेश सुरक्षित रख लिया। कोर्ट के आदेश से यह तय होगा कि क्या मजदूरों को 54 दिन की अवधि का पूरा वेतन मिलेगा? अगर हां तो इसमें क्या कुछ हिस्सा सरकार भी देगी?

(वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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